सत्य अनुभव का वर्गीकरण है। यह वर्गीकरण कुछ मानदंडों के आधार पर किया जाता है।
ये वर्ग हैं:
जब कोई अनुभव चुने गए मानदंडों के अनुसार हैं, तो इसे सत्य के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, यदि नहीं तो वह अनुभव असत्य के वर्ग में आता है।
इन श्रेणियों के लिए अन्य शब्द हैं: वास्तविक और मिथ्या या सच और झूठ आदि ।
वर्गीकरण की यह प्रक्रिया स्मृति में होती है, विशेष रूप से बुद्धि की परत में।
इस तरह से वर्गीकृत करने की क्षमता बहुत प्राकृतिक है, यह स्वचालित रूप से होता है, लेकिन अनियमित रूप से। एक व्यक्ति आमतौर पर इस तरह के वर्गीकरण को करने के लिए स्वाभाविक रूप से योग्य नहीं होता, यह एक क्षमता है जिसे सीखना पड़ता है। तथापि, इस क्षमता का कुछ रूप शिशुओं और उच्च पशुओं में भी पाया जाता है।
संस्कृत
सते हितम् - सत् + यत् = सत्य
जो है। जिसका अस्तित्व है। होना।
अनुभवों को सत्यासत्य में वर्गीकृत क्यों करें?
मनुष्य जल्दी ही सीख जाता है कि रक्षण भक्षण प्रजनन अर्थात उत्तरजीविता के लिए ऐसे कर्म आवश्यक है जो एक विशेष निष्कर्ष पर आधारित हों। ये निष्कर्ष किन्ही अनुभवों पर आधारित होते हैं , उनको सत्य का नाम दे दिया जाता है।
इसलिए सत्य पर आधारित कर्म सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित करते हैं। मिथ्या पर आधारित कार्य नकारात्मक परिणाम देते हैं।
विशिष्ट अनुभवों और निष्कर्षों (सत्य के रूप में वर्गीकृत) पर आधारित कार्य अधिक निश्चित, अधिक आत्मविश्वास युक्त होते है और उनका अच्छा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
कर्म का आधार सत्य रखा जाता है। अधिक महत्वपूर्ण कर्म हो तो अधिक कठोर मानदंड होंगे। सत्य का अधिक ध्यान रखा जायेगा।
जब कर्म न करना हो तो सत्यासत्य निरर्थक है।
मानदंड व्यक्तिपरक और मनमाने होते हैं।
एक व्यक्ति अनुभवों को सत्यासत्य में वर्गीकृत करने के लिए कोई भी मापदंड चुन सकता है। इसके बारे में कोई प्राकृतिक नियम नहीं है। अपने-अपने अनुभव, सुविधा और उपयोगिता पर पर निर्भर करता है। अलग-अलग लोगों के पास अलग-अलग मानदंड होते हैं, और यहां तक कि एक पूर्ण देश या समाज भी अपने स्वाभाव और जरूरतों के आधार पर मानदंड निर्धारित कर लेते हैं।
मानदंड कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है। जैसे कि बुद्धि, पूर्वाग्रह या मतारोपण। उदाहरण के लिए, एक दार्शनिक की तुलना में किसी चीज़ को सच कहने के लिए एक मुर्ख व्यक्ति का एक अलग मानदंड होगा। एक धार्मिक व्यक्ति के लिए सत्य एक प्रकार से है और यह एक वैज्ञानिक के लिए पूरी तरह से अलग है। इत्यादि।
जो एक व्यक्ति या एक स्थिति में सत्य है, वह दूसरे व्यक्ति के लिए या किसी अन्य स्थिति में असत्य हो सकता है।
निश्चित रूप से, सत्य, उस पर पहुंचने के लिए उपयोग किए जाने वाले मानदंडों पर निर्भर करता है। इसलिए ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। दुर्भाग्य से इस बात को अनदेखा किया जाता हैं । किसी भी साधक के लिए तथाकथित सत्य के पीछे के मापदंड को जानना नितांत आवश्यक है।
परिणामों के आधार पर, हम तुरंत देख सकते हैं कि मापदंड दो प्रकार के हो सकते हैं।
ये अक्सर नकारात्मक परिणामों को जन्म देते हैं। वे भ्रमित करते हैं, दिशाहीन करते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं। इन पर आधारित कार्य अनिश्चित और यादृच्छिक होते हैं।
ये कुछ उदाहरण हैं, कई और भी हो सकते हैं।
ये अक्सर सकारात्मक परिणाम देते हैं। हम उन पर आधारित कार्यों के बारे में अधिक निश्चित और आश्वस्त हो सकते हैं।
जितना कठोर मानदंड होगा उतनी अधिक निश्चितता होगी।
ज्ञानमार्ग में सत्य का मानदंड बहुत सरल है, किन्तु बहुत कठोर है।
दूसरे शब्दों में, जो बदल रहा है वह झूठ है।
किसी भी दुसरे मार्ग में इतना कठोर मानदंड नहीं मिलता।
इस कसौटी को अपनाने के औचित्य को सत्य के मानदंड का औचित्य विषय पर लेख में प्रस्तुत किया गया है।
निश्चित रूप से, ये व्यक्तिपरक और मनमाना है।
कभी-कभी व्यवहारिकता में उपयोग किया जाता है
शैक्षणिक रूप
शिक्षाओं को समझना आसान बनाने के लिए
व्यावहारिक कारण
बुद्धि की तार्किक और तर्कसंगत क्षमताओं को तेज करने के लिए अच्छा है।
एक गणितीय उपकरण के रूप में उपयोगी है।
शिक्षाओं का व्यवस्थित चरणबद्ध रूप जो सत्य को धीरे-धीरे या चरणों में प्रकट करता है।
ज्ञानमार्ग बहुस्तरीय नहीं है। तथापि साधक की बुद्धि के अनुसार आवश्यकता होने पर गुरु निचले स्तर की शिक्षा से आरम्भ करता है।
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