Wise Words
आत्मज्ञान: संस्कार परिवर्तन की कुंजी
हरिओम शर्मा
इस लेख में हम जानेंगे कि विचार एवं संस्कार क्या है एवं संस्कारों को आत्मज्ञान से कैसे परिवर्तित किया जा सकता है। प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतम कल्मषम्॥ ६/२७ **योगेश्वर श्रीकृष्ण, गीता** इस श्लोक के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण संकेत कर रहे हैं कि हर योगी/साधक को परमानन्द की अनुभूति करने के लिये निम्नलिखित प्रयास करने चाहिए (१) प्रशान्त मनसं: मन को विषयों में भटकने से रोककर उसे शान्त करना (२) शान्तरजसं: रजोगुण से मुक्ति एवं क्रमशः सतोगुण की अभिवृधि करना (३) अकल्लषम्: वासनाओं से मुक्त पवित्र जीवन जीना (४) ब्रह्मभूतम: आत्मज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप में स्थित रहना **विचार क्या है** विचार मन/चित्त के धरातल पर लहरों की तरह लगातार उत्पन्न होते हैं और चले जाते हैं। यदि कोई विचार बार बार उत्पन्न होता है और उसकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) ज्यादा है तो वह वृत्ति कहलाता है। **विचारों की उत्पत्ति का कारण** विचार मन/चित्त में संचित संस्कारों (स्मृति) से उत्पन्न होते हैं जिस व्यक्ति के मन में जैसे संस्कार अधिक होंगे उससे सम्बंधित विचार अधिक उत्पन्न होंगे। तो आपको जिस प्रकार के विचारों की आवृत्ति अधिक चाहिए उसी प्रकार के संस्कारों को संगृहीत करना प्रारंभ कर दीजिये। यदि आप प्रेम, शांति, करुणा से सम्बंधित विचार अधिक चाहते हैं तो उसी से सम्बंधित संस्कार संगृहीत करना प्रारंभ कर दीजिये। एक अपराधी व्यक्ति क्रोध, हिंसा, घृणा, लोभ, व्यभिचार के कर्मों में अधिक लिप्त रहता है तो उके मन में उसी प्रकार के संस्कार निर्मित होते हैं जिनसे उसी प्रकार के विचार एवं वृत्तियाँ विकसित हो जाती हैं। जैसे एक कचरा पात्र में कचरा संगृहीत होने के कारण उसमें से सदा दुर्गन्ध ही आयेगी उसमें से सुगंध आना संभव ही नहीं है। हमारे विचारों से ही कर्म निर्मित होते हैं और कर्मों से पुनः उसी प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। एक से दूसरे की उत्पत्ति होती है और इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है। विचार संस्कार से उत्पन्न होते हैं। संस्कार (स्मृति)--------विचार-----इच्छा-------कर्म-----वृत्ति (आदत)-----संस्कार संस्कारों को हम दो वर्गों में विभाजित कर सकते है: आनुवंशिक एवं अर्जित। **आनुवंशिक संस्कार** आनुवंशिक संस्कार वह हैं जो हमारा शरीर जन्म के साथ लेकर आता है जैसे इस शरीर की उत्तरजीविता के लिए जो भी संस्कार अवश्यक हैं वह हमारे डीएनए में अनुक्रम (sequence) के कोड के रूप में संगृहीत रहते हैं ये कोड विज्ञान की भाषा में जीन कहलाते हैं। इन जीनों के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं पर सक्रिय होने से हमारे शरीर के भीतर की सभी क्रियाएं जो उत्तजिविता के लिए आवश्यक हैं वे सुचारू रूप से चलती रहती हैं। जैसे शरीरिक वृद्धि, रंग रूप का विकास, स्त्री-पुरुष से संभंधित अंगों एवं भावनाओं का विकास, शरीर के विभिन्न तंत्रों (श्वसन, रक्त प्रवाह, पाचन तंत्र, उत्सर्जन तंत्र, प्रजनन तंत्र, सुरक्षा तंत्र, पुनरुद्भवन तंत्र ) आदि से सम्बन्धी विभिन्न क्रियाओं के जीन स्वतः सक्रिय एवं निष्क्रिय होते हैं जिनका न तो हमें कोई अनुभव होता है और न ही उन पर हमारा कोई नियंत्रण होता है। इन सभी अनुवांशिक संस्कारों को हम उत्तरजीविता (रक्षण, भक्षण, प्रजनन) के संस्कार कह सकते हैं जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है क्योंकि ये आवश्यक हैं। इनमें भी केवल प्रजनन की क्रिया पर नियंत्रण संभव है बाकी रक्षण एवं भक्षण इस मनोशरीर के लिए आवश्यक वृत्तियां हैं। जैसे श्वसन, ह्रदय गति, भूख-प्यास (भोजन), उत्सर्जन और स्वयं का रक्षण आवश्यक वृत्तियाँ हैं। भूख-प्यास, उत्सर्जन पर हम केवल कुछ दिनों तक नियंत्रण कर सकते हैं श्वसन को हम कुछ मिनटों तक रोक सकते हैं। जबकि ह्रदय गति को तो हम रोक भी नहीं सकते। प्रकृति ने इस प्रकार की व्यवस्था कर रखी है कि जो आवश्यक है उस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। अनुवांशिक संस्कार हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में संगृहीत हैं और हर अंग की कोशिका उस अंग से सम्बंधित कार्य करती है सभी में डीएनए एक ही प्रकार का होता है किन्तु जीन अलग अलग सक्रिय होते हैं और अलग अलग कार्य करते है। इस प्रकार प्रत्येक कोशिका में अलग-अलग संस्कार संगृहीत हैं जो कि हमारे मन/चित्त में अलग अलग विचार, इच्छाएं एवं वृत्तियाँ उत्पन्न करते हैं। भूख की वृत्ति पाचन तंत्र की कोशिकाओं में उत्पन्न होती है, श्वसन की वृत्ति श्वशन तंत्र की कोशिकाओं में उत्पन्न होती है, मल-मूत्र त्याग की वृत्ति उत्सर्जन तंत्र की कोशिकाओं मैं उत्पन्न होती हैं, प्रजनन की वृत्ति प्रजनन तंत्र की कोशिकाओं में उत्पन्न होती है। इस प्रकार शरीर से सम्बंधित सभी वृत्तियाँ, शरीर के विभिन्न अंगों में अलग अलग कोशिकाओं में उत्पन्न होती हैं। ये सभी निचली वृत्तियाँ कहलाती हैं क्योंकि ये वृत्तियाँ पशुओं में भी पायी जाती हैं और यंत्रवत चलती हैं। पशुओं में शरीर की वृत्तियाँ ऑटो कट ऑफ की तरह कार्य करती हैं जैसे पेट भर जाने पर सभी पशु भोजन खाना छोड़ देते है। पशुओं में भोजन के संग्रहण की वृत्ति नहीं होती है। इसके कुछ अपवाद भी देखे जा सकते हैं, जैसे कुछ सामाजिक जीव जैसे मधुमक्खी , दीमक, चींटी भी भोजन संगृहीत करते हैं। पशुओं में भोग की वृत्ति उनके शरीर के अनुसार यंत्रवत होती है किन्तु मनुष्य पेट भरने के बाद भी जिव्हा के स्वाद के कारण खाता है। असुरक्षा के भय एवं लोभवश वह भोजन एवं धन का संचय करता है। मनुष्य में संचय की वृत्ति अति होती है जबकि अन्य जीवों में संचय की वृत्ति इतनी प्रबल नहीं होती। आनुवंशिक संस्कार शरीर के संस्कार हैं जिनके कारण इस शरीर का बंधन है इस बंधन को हटाया नहीं जा सकता किन्तु आत्मज्ञान से इसके पार जाया जा सकता है। बंधनों के बारे में और अधिक विस्तार से जानने के लिये आप बंधनों से मुक्ति की ओर वाला लेख पढ़ सकते हैं। **अर्जित संस्कार** वे संस्कार जो हम इस जन्म में कर्मों के द्वारा संचित करते हैं। जैसे मैंने किसी विषय, किसी कार्य के बारे में ज्ञान प्राप्त किया, जैसे मैंने जब गाड़ी चलाने का ज्ञान लिया और उसका अभ्यास किया को उसकी वृत्ति निर्मित होने लगी पहले गाड़ी चलाने के लिए मुझे हर एक क्रिया पर ध्यान लगाना पड़ता था जैसे ब्रेक, क्लच, गियर, सामने रोड पर देखना सभी क्रियाओं पर ध्यान रखना पड़ता था। जब मुझे इसका अभ्यास हो गया अर्थात इसकी वृत्ति दृढ होती गयी तो ड्राइविंग का संस्कार भी मेरे चित्त में संचित होने लगा। इसी प्रकार जीवन के सभी कर्मों के द्वारा उनकी वृत्ति निर्मित होने लगती है और उनके संस्कार भी चित्त में संगृहीत होने लगते हैं। अधिकतर संस्कार हम स्वयं के अनुभवों से निर्मित करते हैं आज के समय में मनुष्य केवल उत्तरजीविता केन्द्रित कार्यों में ही लिप्त है जिसके कारण उत्तरजीविता से सम्बंधित वृत्तियां अधिक प्रबल होती जा रही हैं और ये वृत्तियाँ पुनः वैसे ही संस्कार निर्मित कर रही हैं। तो आप देख सकते हैं कि हम स्वयं के कर्मों के द्वारा संस्कार निर्मित करते हैं इसी कारण से हर जन्म में उत्तरजीविता के संस्कार ही प्रमुखता से विचारों एवं वृत्तिओं के रूप में प्रदर्शित होते हैं। एक अभिनेता जीवनभर अभिनय करता है तो उसकी अभिनय की वृत्ति दृढ होती है, एक गायक में गायन की वृत्ति, एक संगीतकार में संगीत की वृत्ति, एक वैज्ञानिक में खोजी की वृत्ति, एक लेखक में लेखन की वृत्ति, एक कुक में पाक कला की वृत्ति, एक दर्शनशास्त्री में दर्शन की वृत्ति, एक विचारक में विचार की वृत्ति, एक शासक में राजनीति की वृत्ति, एक डॉक्टर में उपचार की वृत्ति, एक अभियंता में अभियान्त्रितिकी की वृत्ति, एक साधक/योगी/साधू में योग/साधना की वृत्ति, एक गुरु में ज्ञान प्रसार की वृत्ति विकसित होती है और उसी से सम्बंधित संस्कार चित्त में संग्रहित होते हैं जिसके कारण पुनः वैसे ही विचार, इच्छाएं एवं कर्म होते हैं और अगले जन्म में वैसे ही संस्कार प्रमुखता से अभिव्यक्त होते है। अर्जित संस्कारों को आगे सकारात्मक/सात्विक एवं नकारात्मक/तामसिक संस्कारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। **सकारात्मक/सात्विक संस्कार:** सकारात्कमक वृत्तियाँ, सकारात्मक संस्कारों को निर्मित करती हैं और मनुष्य में चेतना की परत को विकसित करती हैं जैसे प्रेम, करुणा, शांति, साझा करना, सेवा, दान, क्षमा, स्वतंत्रता, अहिंसा, सम्मान, धर्म, सदव्यवहार, ज्ञान अर्जन, सत्य वचन, सत्संग, स्वाध्याय, आध्यात्मिक कर्म, आत्मज्ञान, साक्षीभाव, बोधिसत्व वृत्ति (ज्ञान प्रसार), गुरुभाव आदि **नकारात्मक/तामसिक संस्कार:** नकारात्मक वृत्तियाँ, नकारात्मक संस्कारों को निर्मित करती हैं और मनुष्य में चेतना की परत को विकसित नहीं होने देती और अंत में व्यक्ति के पतन का कारण बनती हैं जैसे मोह, इर्ष्या, घृणा, क्रोध, अपमान, हिंसा, दुख, लोभ, दुर्व्यवहार, चोरी, व्यभिचार, मांसाहार, अत्यधिक काम-वासना, दूसरों के लिये दुर्विचार, दूसरों का शोषण, झूठ, भ्रष्टाचार, अभिमान, अज्ञानी जीवन आदि। नकारत्मक वृत्तियां हमें संकुचित करती हैं, हमें बंधक बनाती हैं। जबकि सकारात्मक (सात्विक) वृत्तियाँ हमारा विस्तार करती हैं हमें असीमित करती हैं हमें मुक्त करती हैं। जैसे मुझे अपने हाथों से किसी वस्तु को पकड़ने के लिए मुट्ठी बंद करनी पड़ेगी, मुट्ठी बंद करने में मुझे शक्ति, उर्जा का उपयोग करना पड़ेगा। और मुट्ठी को बंद रखने के लिए मुझे लगातार शक्ति/उर्जा की आवश्यकता होगी किन्तु खोलने के लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ेगा क्योंकि खुली मुट्ठी, मुक्त स्वाभाव को दर्शाती है मुक्ति एक प्रवाह है जिसमें बने रहने के लिए मुझे कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। तामसिक वृत्ति हमें बंधक बनाती हैं और सात्विक वृत्ति हमें विस्तारित करके मुक्त करती हैं। मुक्ति हमारा मूल स्वाभाव है। तो अपने मूल स्वाभाव का चयन करें और नकारात्मक वृत्तिओं को त्यागें या फिर यूँ कहें की जितनी आवश्यक हो वहीं तक सीमित रखें और सकारात्मक वृत्तिओं को बढ़ाएं तो वे आपके संस्कारों को परिवर्तित कर देंगी और सकारात्मक वृत्ति अधिक मात्रा में उत्पन्न होंगी । **संकुचित/बंधन युक्त जीवन का कारण** अनैतिक जीवन का कारण संकुचित/ बंधन युक्त जीवन है और बंधन युक्त जीवन का मूल कारण अज्ञान है। यदि हम मूल अज्ञान की बात करें कि मूल अज्ञान क्या है? मूल अज्ञान इस प्रकार है.. स्वयं को सीमित मनोशरीर मानना स्वयं के सत्य स्वरुप को न जानना (आत्मज्ञान का अभाव) जगत तो सत्य मानना (माया का अज्ञान) सुख एवं भोग को ही जीवन का लक्ष्य मानना उत्तरजीविता की वृत्ति दृढ होने एवं अज्ञान के कारण मनुष्य स्वयं को एक देह एवं मन मानता है और जीवन भर देह भाव में जीवन जीता है। देह भाव में जीवन जीने के कारण वह जीवन पर्यन्त उत्तरजीविता की वृत्ति में लिप्त रहता है, उसी से सम्बंधित संस्कार संग्रहित करता है और अंत में मर जाता है। अगले जन्म में फिर से वही उत्तरजीविता के संस्कारों के कारण पुनः वही वृत्तियां प्रमुखता से अभिव्यक्त होती हैं इस प्रकार से यह चक्र चलता रहता है। स्वयं को सीमित शरीर मानने के कारण व्यक्ति स्वयं को जगत के अन्य जीव जंतुओं एवं वस्तुओं से विभाजित करता है। यह विभाजन की वृत्ति मूल अज्ञान के कारण होती है। स्वयं को अलग मानने के कारण व्यक्ति जीवन भर अनावश्यक रूप से धन, वस्तुओं को संगृहीत करता है जो कि उसमें लोभ की वृत्ति को और पुष्ट करता है। लोभ एवं धन संग्रह की वृत्ति की अधिकता होने पर वह प्रभुत्व/ सत्ता की वृत्ति को निर्मित करती है। आपने देखा होगा की अधिक धनवान व्यक्ति अपने प्रभुत्व के लिए धन का उपयोग करते हैं। प्रभुत्व/सत्ता के लोभ के कारण व्यक्ति हिंसा का प्रयोग करने से भी नहीं डरते। तो इस प्रकार इस लोभ एवं मोह के कारण व्यक्ति सभी प्रकार के अनैतिक कर्मों जैसे हिंसा करना, झूठ बोलना, अफवाह फैलाना, लोगों का शोषण करना, लोगों के साथ अभद्र व्यवहार करना आदि कर्म करना प्रारंभ कर देता है। ये सभी अनैतिक कर्म, अनैतिक संस्कारों को चित्त में संगृहीत करते चले जाते हैं और अंत में व्यक्ति के दुख एवं पतन का कारण बनते हैं और व्यक्ति को पता ही नहीं चलता। जब तक व्यक्ति को आत्मज्ञान प्राप्त नहीं है तब तक उसे नैतिकता के कितने ही पाठ पढ़ा दीजिये वह भूल जाता है और फिर से अनैतिक व्यवहार करने लगता है। बचपन से कॉलेज तक हम विद्यालयों में नैतिकता का ज्ञान लेते हैं उनमें से कुछ ही लोग अपने जीवन में उस ज्ञान को आत्मसात करते हैं वे सभी भुलाकर इस जगत की चूहे की दौड़ में धन एवं विषय भोग में लग जाते हैं। **आत्मज्ञान संस्कार परिवर्तन की कुंजी है** आत्मज्ञान अर्थात स्वयं के सत्य स्वरुप का ज्ञान या फिर यूँ कहें कि स्वयं के तत्व का ज्ञान ही आत्मज्ञान है। क्योंकि तत्व ही सत्य है इसलिये तत्व का ज्ञान आवश्यक है। सत्य वह है जो कभी परिवर्तित नहीं होता अर्थात जो अपरिवर्तनीय है। जो कुछ भी परिवर्तित हो जाता है वह असत्य है, मिथ्या है, माया है। आत्मज्ञान के लिए नेति नेति विधि का उपयोग कर के जो भी परिवर्तनशील है और जिसका भी अनुभव हो जाता है जैसे यह जगत, शरीर, मन (विचार, इच्छाएं, भावनायें, बुद्धि, स्मृति, अहंकार) ये सभी परिवर्तनशील हैं एवं इनका हमें अनुभव हो जाता है इन्हें एक एक करके हटाने के पश्चात मेरा तत्व शेष रह जाता है। मेरा तत्व दृष्टा/अनुभवकर्ता अंत में इन सभी अनुभवों एवं परिवर्तनों के साक्षी के रूप में शेष रह जाता है। तो यदि आत्मज्ञान को परिभाषित करें तो हम कह सकते हैं कि मैं यह शरीर, मन नहीं हूँ मैं इनका दृष्टा/साक्षी हूँ यही आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान, मायाज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप त्रिज्ञान का लेख पढ़ सकते हैं, बोधिवार्ता पर विडियो देख सकते हैं एवं गुरुदेव, एवं अन्य साधकों के द्वारा ज्ञानाक्षर पर लिखे गये लेख भी पढ़ सकते हैं। आत्मज्ञान से साक्षीभाव की वृत्ति विकसित होती है। साक्षीभाव एक वृत्ति है जो यह स्मरण कराती है कि मैं यह मनो-शरीर यंत्र नहीं हूँ, मैं इसका साक्षी हूँ। साक्षीभाव के प्रकाश में स्वयं के विचारों, वृत्तियों एवं कर्मों को देखना बहुत ही सहज एवं सरल हो जाता है ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। साक्षीभाव मेरी प्रगति में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है ऐसा अन्य सभी साधकों का भी अनुभव रहा होगा। **अपने विचारों, वृत्तियों एवं कर्मों के साक्षी बनें** आत्मज्ञान एवं साक्षीभाव से व्यक्ति का अहंभाव अनुभवकर्ता/दृष्टा पर आकर स्थिर होने लगता है। और साधक स्वयं के सभी विचारों, वृत्तियों एवं कर्मों को समभाव एवं स्वीकार भाव में एक साक्षी की तरह अलिप्त हुए होने देता है। इसलिये सर्वप्रथम आत्मज्ञान प्राप्त करें और स्वयं के विचारों, वृत्तियों एवं कर्मों के साक्षी बनें जो कि आप पहले से ही हैं। साक्षीभाव के बारे में और अधिक जानने के लिये साक्षीभाव वाला लेख पढ़ सकते हैं। आप चेतना/साक्षीभाव के प्रकाश में सभी विचारों, इच्छाओं, वृत्तिओं को होने दें। उनका अवलोकन करें। यदि हम विचारों के साक्षी हो गये, उनकी उत्पत्ति का कारण जान गये तो हम उन्हें नैतिक एवं अनैतिक की श्रेणी में विभाजित करके उचित एवं आवश्यक कर्म कर सकते हैं। साक्षी होने से हमारी बुद्धि को विचारों, वृत्तियों एवं कर्मों पर कार्य करने का समय मिल जाता है और बुद्धि के आधार पर हम उचित/ अनुचित एवं आवश्यक/अनावश्यक में वर्गीकरण कर सकते हैं। जैसा की हमने पूर्व में विचारों के चक्र में देखा कि सात्विक विचार सात्विक वृत्तियों को विकसित करते हैं और सात्विक वृत्तियाँ सात्विक कर्मों एवं संस्कारों को निर्मित करती हैं। आत्मज्ञान एवं साक्षी भाव हमें यह ज्ञान करा देता है कि हम पहले से ही मुक्त हैं। मुक्त होना असीमित होना ही है असीमित होने के लिए हमें सभी सीमित करने वाली वृत्तियों का त्याग करना होगा। तो एक-एक कर के सभी वृत्तियों को देखें और इनका अवलोकन करें कि वे आपको सीमित कर रही हैं या असीमित कर रही है। जैसे लोभ की वृत्ति के कारण हम आवश्यकता से अधिक संग्रह करते हैं। जैसा कि हमने पहले देखा कि कुछ जीव जंतु भी भोजन का संग्रह करते है, किन्तु वे लोभ वश संग्रह नहीं करते वे असुरक्षा वश संग्रह करते हैं और जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करते है। किन्तु मनुष्य लोभ की वृत्ति के कारण आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करता है और स्वयं को सीमित करता जाता है। तो अपनी एक-एक वृत्ति को देखें। अज्ञानी मनुष्य अपने सभी कर्म इन्द्रिय भोग के लिए करता है जिसके कारण वैसे ही संस्कार उसके चित्त में संगृहीत होते हैं अज्ञानी व्यक्ति कभी देख ही नहीं पाता कि उसके विचार, वृत्तियाँ एवं कर्म कहाँ से उत्पन्न हो रहे हैं। तो हमें संस्कारों पर कार्य करना हैं क्योंकि मन के गर्भ में संस्कार के बीज रोपित होते हैं तो अपने विचारों, वृत्तियों, कर्मों एवं संस्कारों के परिवर्तन के लिये सात्विक कर्म करें। सात्विक कर्मों में आत्मज्ञान प्राप्त करना सबसे त्वरित मार्ग है जो साक्षी भाव की वृत्ति विकसित करता है जिससे नकारात्मक संस्कार तीव्र गति से नष्ट होते हैं और सात्विक संस्कार स्वतः बढ़ने लगते है। ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। **सारांश** चित्त में प्रथम दृष्टया विचार उत्पन्न होते हैं ऐसा हम सभी का अनुभव है यदि हम विचारों का निग्रह करना सीख गए तो उनसे होने वाले अनावश्यक कर्म (मन, वचन, शरीर) वहीं रुक जाते हैं। जिसके कारण नकारात्मक कर्म रुक जायेंगे और केवल उत्तरजीविता के आवश्यक कर्म होंगे। चित्त में सात्विक संस्कारों के रोपण के लिये सात्विक कर्म करें जिससे सात्विक विचार उत्पन्न होंगे जो आपकी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होंगे। नकारात्मक संस्कारों का नाश करना चित्त के शुद्धिकरण की प्रक्रिया है जिससे साधक की अध्यात्मिक प्रगति तीव्र होती है। नकारात्मक संस्कारों/कर्मों का मूल कारण मूल अज्ञान (स्वयं को मनोशारीर यंत्र मानना) है। अतः अज्ञान के नाश के लिये आज ही आत्मज्ञान प्राप्त करें और साक्षीभाव के अमृत का पान करें। **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। **संपर्क सूत्र..** साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल: swaprakash.gyan@gmail.com **सन्दर्भ:** तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ भाग), नोशन प्रेस, पृष्ठ संख्या ४६४. बोधिवार्ता चैनल यूट्यूब विडियो. All world gayatri parivar: https://www.awgp.org/en/literature/book/Yug_Gita/v5.13
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions