Wise Words
दृश्य दृष्टा विवेक
शैल
मेरी भूमिका क्या है जीवन में अवलोकन में । अवलोकन जहाँ देखनेवाला विदा हो जाता है और केवल दृश्य रह जाता है -फिर यह क्रिया नहीं रह जाती' होना हो जाता है। अर्थात देखने वाला विदा हो जाता है। मनुष्य जिस देखने की प्रक्रिया का आदि है उसमें, दृश्य दृष्टा, साधन और , माध्यम सभी आ जाते हैं। यह एक प्रक्रिया है। हमने देखने को प्रक्रिया की तरह ही जाना है। किन्तु जब बिना किसी माध्यम के, बिना किसी साधन के देखना ही तो वहाँ कर्ता देखने वाले की तरह नहीं होता, न ही कोई प्रक्रिया होती है । फिर निर्भरता नहीं होती किसी पर और दृष्टा भी विदा हो गया। यह होकर देखना है। दूसरे अर्थों में जानना कह सकते है, किन्तु जानना भी क्रिया की तरह नहीं, पूर्ण जागरण में सजगता से जाना जाना। कई बार परोक्ष रूप से भी जानना घटता है जो जानकारी की तरह संचरित होती है। किन्तु वह जानना संचरित नहीं हो सकता।न ही परोक्ष रूप से घट सकता है। अपरोक्ष रूप से ही उतरना संभव है । फिर सभी द्वैत तो समाप्त हो हो जाते हैं, अद्वैत भी विलीन हो जाता है। सीमाएं नहीं रह जातीं, विराट और शून्य एक साथ होते है । संपूर्णता में बिना किसी पहचान के !. क्योंकि विवेचन कौन करेगा ? फिर श्रद्धा जन्मती है, किसी अन्य के प्रति नहीं, स्वयं की स्वयं के प्रति। और प्रेम स्वभाविक रूप से बहता है, हर ओर! जो मेरे होने मात्र से आया है! स्वभाव गत प्रेम से! प्रेम और करुणा दो ही भाव है अस्तित्व के। मनुष्य तीन तलों पर जीता है, जो केवल भौतिक तल पर परिलक्षित होती है - मानसिक तल पर: मन भाव के तल पर : प्रेम जीवन प्रवाह के तल पर: शक्ति जब इन तीनों तलों पर जीवन घटित होता है तो भौतिक शरीर के तल पर सौंदर्य के रूप में प्रगट होगा जीवन। अन्यथा मनुष्य शरीर और निर्जीव पत्थर में कोई फर्क नहीं है। यह क्रान्ति लाने वाली विचार धारा है। पत्थर और मनुष्य एक कैसे हो सकते हैं? भौतिकता में जीने वाले निर्जीव पत्थर के पत्थर होने में जो प्राकृतिक क्रियाएँ और घटनाएं समाहित हैं। भौतिक तल पर मनुष्य इनसे अलग नहीं है। वह भी उन्हीं गुण धर्मों से संगठित रचना है, जो विशेष गठन के कारण अलग प्रतीत होती है, जैसे बोलना, चलना और प्रतिक्रिया करना। परन्तु मनुष्य केवल भौतिक रचना नहीं है। उसका होना मानसिक तल से है, जहाँ सभी संभावनाएँ समान रूप से समाहित हैं। उसकी मानसिक और भावात्मक अभिव्यक्ति उसकी भौतिकता तय करती है, एक प्रकार की कीमिया, जिसमें भौतिक तलों पर परिवर्तन लाने की क्षमता है। यह उसका स्वभाव है। मनुष्य संपूर्णता में उन संभावनाओं के साथ जन्म लेता है। किन्तु उस पर अन्य माध्यमों से अज्ञान का आरोपण होता रहता है। इतना ही नहीं, जीवन से बड़े अर्थ और उद्देश्य आरोपित कर दिए जाते हैं, जिन्हें पूरा करना उनका लक्ष्य समझ लिया जाता है। फिर असल में जो जीवन है वह चूक जाता है। वैसे ही जैसे साधन साध्य हो जाए। और साध्य पीछे छूट जाए। हम प्रतिपल जीवन खो रहे हैं। जीना नहीं हो रहा। आरोपण सत्य प्रतीत होने लगा और सत्य का प्रकाश अज्ञान से आच्छादित हो गया हो । यहाँ बिना कोई पहचान दिए अवलोकन हो तो चेतन बुद्धि अर्थात प्रज्ञा को अवसर देना होगा, जो जैसा है वैसा प्रकाशित कर सके सत्य को! जो सभी आरोपित ज्ञान और आसक्तियों को प्रकाशित कर दे। फिर स्वच्छ दर्पण में वही प्रतिबिंबित होगा बिना किसी पहचान के । यहाँ जीवन अवसर पाएगा और जो उतरेगा वह मैं नहीं स्वयं अस्तित्व ही होगा, संपूर्णता में!
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