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साक्षीभाव
आदित्य मिश्रा
साक्षीभाव शब्द में साक्षी और भाव दो शब्द हैं, जिसका अर्थ है: "इस भाव में होना कि मैं साक्षी हूं"। अब कोई कहेगा कि यह तो एक विचार ही है, वही मन बुद्धि जो अभी तक यह मानती थी कि मैं शरीर-मन हूं, अब मैं साक्षी हूं मानने लगी है। तो नहीं! साक्षी, मन-बुद्धि से परे है। यदि दृष्टि विचार के परे नहीं हुई है तो ज्ञान शाब्दिक होगा और साक्षीभाव मन की एक कल्पना ही लगेगा। पर यदि ज्ञान, विचार नहीं दृष्टि हो गया है तो "मैं साक्षी हूं" का मैं और हूं गायब हो जाएगा केवल साक्षी रहेगा और जगत लीला। क्या ब्रह्म, साक्षी और मन अलग-अलग हैं? नहीं! अद्वैत है, कोई विभाजन नहीं है। आप ही ब्रह्म हैं, साक्षी हैं और मान्यता से मन हैं, अभी के अभी, कैसे? (1) तो जब आप जगत को बिना किसी विभाजन के जस का तस देख रहे होते हैं, देखने का भाव भी नहीं होता अर्थात अहं शून्य होता है (देखने वाला नहीं होता) तब आप ब्रह्म होते हैं, मात्र एक प्रकाश, होश या जागृति होती है, न ज्ञान होता है न अज्ञान। (2) फिर जब उसी प्रकाश में, आप में शरीर, मन, जगत के दृष्टा का भाव होता है तब आप साक्षी होते हैं। इस अवस्था में आप ब्रह्म भी हैं और जीव भी हैं, नर्तक भी हैं और नृत्य भी। ब्रह्म जीव को अर्थात स्वयं के नृत्य को निर्लिप्त भाव से देख रहा होता है। यहां ज्ञान होता है अर्थात स्मृति होती है। देखने का भाव, मन में होता है मन देखता नहीं है। मन साक्षी के प्रकाश में आता जाता है। साक्षी इस मन या अहं को देख रहा होता है। (3) तीसरी स्थिति प्रकाशित नहीं होती। आप शरीर, मन, जगत से लिप्त होते हैं, कर्ता होते हैं। तब स्वयं को जीव मान भेद में होते हैं, मन होते हैं। भव अर्थात होना, तो पहली स्थिति में होने का भाव नहीं है, दूसरी स्थिति में होने का भाव है किंतु एकत्व है और तीसरी स्थिति में अलग होने का भाव है। जीवन में साक्षीभाव ही ब्रह्मभाव क्यों नहीं? ब्रह्म में कोई भाव नहीं होता और बिना भाव के जीव का जीवन संभव नहीं है। ज्ञान जीव के जीवन के लिए होता है। ब्रह्म मेरा न होना है। इस परम विश्राम की स्थिति में जहां शरीर मन का ही बोध नहीं है, ऐसे में कोई कर्म संभव नहीं है जबकि जीव के जीवन के लिए कर्म आवश्यक हैं। साक्षीभाव से परम मुक्ति कैसे? तो बंधन का कारण है कर्ताभाव। साक्षीभाव में आप केवल दृष्टा हैं, कर्ता नहीं। शरीर-मन से, चित्तवृत्तियों से निर्लिप्तता है। अब न कोई कर्म आपका है न कर्मफल, जो बंधन का कारण होते हैं। अब संस्कार निर्मित नहीं होंगे, स्मृति में कुछ भी संग्रहित नहीं होगा, आप सदैव आकाशवत खाली रहेंगे, यही परम मुक्ति है जो कि सदा से थी। आप अपनी इच्छा से बंधन में थे और अब अपनी इच्छा से मुक्त हैं। आप ब्रह्म हैं और जीव रूप में आप ही लीला में भूमिका अभिनीत कर रहे थे, आप भूमिका में ऐसे खो गए कि उसे सच मानने लग गये, बस इतनी सी बात है। जानना बंधन नहीं है, मेरा जानना बंधन है, अब सीमा है, विभाजन है। यदि जानना द्वैत होता तो वे सभी गुरुजन द्वैत में होते जिन्होने मानवता को जगाया है। चैतन्य अचेतन नहीं है, वह ज्ञानस्वरूप है। गुरुजन द्वैत में होते नहीं, द्वैत में काम करते हैं। जब आप मैं के भाव से कार्य करते हैं तब द्वैत होता है।जब गुरु कहता है कि मैं तुम्हारा गुरु हूं! तब द्वैत है लेकिन वह उस द्वैत को जान रहा होता है अर्थात उसके लिए 'मैं' केवल शब्द होता है, वह उससे निर्लिप्त होता है। वह अद्वैत में होकर द्वैत की बात करता है। साक्षीभाव की साधना क्या प्रयास नहीं? नहीं! आपको अपने शरीर का, नाम का, लिंग का ज्ञान है, क्या इस ज्ञान में कोई प्रयास है? नहीं न! क्योंकि यह आपका स्वभाव बन गया है। ऐसे ही जब आप साक्षी हैं यह ज्ञान स्वभाव बन जाता है, तब कैसा प्रयास। आरंभ में आत्म ज्ञान विस्मृत होता रहता है क्योंकि स्वभाव में स्थिति नहीं हुई होती। केवल ज्ञान में बने रहने की इच्छा से स्वभाव में स्थिति होने लगती है। ज्ञान में बने रहना कोई कर्म नहीं है। साधना शब्द बात कहने के लिए है, साधना का अर्थ पाने से है तो यहां कुछ पाना नहीं है, बंद मुट्ठी को ढीली छोड देना है। साक्षीभाव की साधना करता कौन है? कोई नहीं करता! कैसे? तो आप साक्षी होते हैं, निर्लिप्त दृष्टा होते हैं। कर्म जीव के माध्यम से स्वतः होते हैं, भले ही अज्ञान में जीव का अहं कर्म के उपरांत कर्म का उत्तरदायित्व ले लेता हो, फिर भी कर्म तो स्वतः ही होते हैं। कोई कर्ता है ही नहीं, सब हो रहा है और जाना जा रहा है। यदि ऐसा भ्रम है कि साक्षीभाव की साधना कर्म की तरह की जा रही है तो आत्मज्ञान का अभाव है। अभाव से भाव में आते ही स्वतः भाव- अभाव से परे की स्थिति होती है, जिस प्रकार जल, बंध हटते ही स्वतः सागर की दिशा में बह जाता है उसी तरह अज्ञान हटते ही ज्ञान, अज्ञेयता की ओर स्वतः गति कर जाता है। साक्षीभाव क्या द्वैत नहीं? द्वैत मन की कल्पना है, द्वैत कभी होता नहीं, द्वैत भ्रम है। द्वैत है क्या? जब दूसरा है ऐसा भाव है, संकल्प विकल्प है वहां द्वैत है। जब आप जीवभाव में होते हैं तो हर क्रिया का, लोगों का विश्लेषण करते हैं। चीजों को अच्छे -बुरे, नैतिक अनैतिक, पाप -पुण्य के खांचे में डालते हैं। स्वीकार या अस्वीकार में होते हैं। अस्तित्व को किसी न किसी दृष्टिकोण से देखते हैं, तब आप द्वैत में होते हैं अन्यथा सब हो रहा है और जाना जा रहा है क्योंकि सब कुछ ब्रह्म ही है। यदि आप निर्लिप्त हैं तो न कोई द्वैत है न अद्वैत और न कोई धारणा, बस जो है सो है।
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