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आध्यात्मिक प्रगति के लिए गुरु की आवश्यकता और समर्पण
जानकी
आध्यात्मिक प्रगति के लिए गुरु की आवश्यकता और समर्पण <br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://media.istockphoto.com/id/469944247/vector/businessman-and-woman-sharing-ideas.jpg?s=612x612&w=0&k=20&c=Pz2aIfIYs3ysPJ7l36qFuhwrm7Kwg0HcQP0Z_GAyqrk=" alt="Any Width"> </div> <br><br> परिचय मनुष्यों को अज्ञान के अन्धकार से मुक्त करनेवाला, गुरुक्षेत्रका प्रतिनिधि गुरु है, जो व्यक्ति के रुपमें अवतरित होता है। व्यक्ति एवं समाज में जो अज्ञान है, गुरुके ज्ञान प्रकाश और संकेत से दूर होता है। अनेक प्रकार के गुरु में से अन्धकारका नाश करके स्वयं से मिलाकर मुक्तिके मर्ग में ले जानेवाला गुरु सद्गुरु होता है। जीवन के हर क्षण में जो भी सिखनेको मिलता है वो गुरुक्षेत्र द्वारा निःसृत ज्ञान ही होता है। लेकिन जो अन्तिम ज्ञान देता है, वही सच्चा गुरु है। गुरु ही स्वयं से मिलाता है, मुक्ति दिलाता है। जब गुरुके शिक्षा अपने विश्लेषण और विकेक से सही ठहरता है तब व्यक्ति अपना जीवन, भावना, मन, बुद्धि, विचार समेत सम्पूर्ण रुपमें गुरु के प्रति समर्पित हो जाता है। पूर्ण रुपमें श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम के साथ मन, वचन और कर्म सहित अपना स्वामित्व किसि में अर्पन करके एक हो जाना ही समर्पण है। जीवका स्वभाव ही अपने मूल स्वरुप में स्थित रहना होता है। इसिलिए कोई शिष्य जिस गुरु से अपना स्वरुपको पहचान पाता है उसी में अपने आप ही लीन हो जाता है, समर्पित हो जाता है। समर्पण कोई कारण या प्रभाव से होनेवाली चीज़ नहीं है, स्वतः होता है। किसी इच्छा, कामना या प्रयास से समर्पण नहीं होता। ये तो बस हो जाता है। जहाँ इच्छा, अनिच्छा और कोई भी प्रयास लग जाता है वो समर्पण नहीं है। समर्पण निश्वार्थ, शुद्ध और निर्मल भाव है। अपने गुरुतत्व प्रति श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के भाव से पूर्ण होता है। ज्ञान के लिए गुरु की आवश्यकता सही गुरु की पहचान और गुरुका सत्प्रयास व्यक्ति सूचना तो कहीं से भी प्राप्त कर लेता है लेकिन अज्ञान रुपी दम्भ और बढ़ जाता है। सत्य स्वरुप निर्गुण है। अहंकार लोभ-लालच, ईर्ष्या, बेइमानी, सांसारिक रुचि, मान्यता, मतारोपण आदि जब तक विद्यमान है तब तक चेतना का द्वार नहीं खुलता। अज्ञान और अशुद्धि हटाने के लिए, सही मार्ग निर्देश करने के लिए, आवश्यकता पड़ने पर सही सबक़ भी सिखाने के लिए और अपना सद्धाव एवं संकल्पद्वारा शिष्य को अन्धकार से अपना निर्गुण तत्व के ओर ले जाने के लिए गुरु अपरिहार्य है। आत्मज्ञान देकर उस ज्ञान में स्थित होते रहने के लिए शिष्यों का कोई भी अवस्था को पहचान कर, समझकर सद्गुरू ही वहाँ से उपर उठा सकता है। व्यक्ति स्वयं में कितनी अज्ञान, जिज्ञासा, मुक्ति कि इच्छा, आध्यात्मिकता में रुचि, लगाव, और क्षमता है इन सवालों का विश्लेषण करके ही सही गुरुका पता लगाया जा सकता है। समर्पण और मुमुक्षत्व व्यक्ति को सदुगुरुके पास पहुँचा सकता है। जिसको सुनने में आनन्द मिलता है, जिज्ञासा समाप्त हो जाते हैं, अपनापनका महसूस होता है, अज्ञात अधूरापन मिट जाता है, और दिल से अपना कर स्वयं में पूर्णताका आभास होता है वही सही गुरु है। अस्तित्व में स्वयं को जानने की क्षमता होता है, यही क्षमता गुरु मार्फत प्रकट होता है। इसिलिए गुरु हर समय और स्थान में प्रकट-अप्रकट जिस रुपमें आवश्यक है उसी रुप में शिष्यों के साथ होता है। कहीं प्रेरणा बनके, कहीं हौसला बनके, कहीं मार्गदर्शक बनके, कहीं आदर्श बनके, कहीं सहयात्री बनकर शिष्यों के मन में प्रकट होता है। गुरुलोक, आश्रम, समाज, सांसारिक गतिविधि, अनलाइन सत्संग, ईमेल इन्टरनेट आदि प्रविधियों का उपयोग आदि जो भी आवश्यक और उपयुक्त हो वो सब करके जहां से भी ज्ञान ही प्रसार करता है। गुरु साधक स्वयं का अपरोक्ष अनुभव और तर्क के माध्याम से अज्ञानको हटाकर सत्य को पहचान करने योग्य बना देता है। बुद्धि, ज्ञान, वाणी और संचार कौशलता, धैर्य, विवेक, व्यक्तिका मनोदशा की समझ, सामाजिक ज्ञान, आदि से युक्त होता है। प्रगति और मुक्ति के लिए अनेक साधनाद्वारा उपाय खोजता रहता है। अपनी कुशलता से गुरुक्षेत्र में ज्ञानका जो श्रोत है, भण्डार है, उसको सही ढंग से संयोजन और व्यवस्थापन करके प्रत्यक्षीकरण करता है। दुःख कष्ट झेल कर भी शिष्यों को मुक्ति दिलवाता है। प्रत्यक्ष गुरु-साधक वार्ता, छलफल एवं प्रश्नोतर करके, अप्रत्यक्ष रुपमें किसी भी रुप में प्रकट होकर, कैसै प्रगति हो रही है उसको परीक्षा समिक्षा एवं मूल्यांकन करके, परोक्ष एवं अपरोक्ष रुपसे साधकको विभिन्न कृपा करके, आवश्यकतानुसार उपयुक्त उपाय सुझाव देकर अज्ञानका नाश करवाने और मुक्ति दिलवाने में हर क्षण दत्तचित्त रहता है। ज्ञान की सीमा और समर्पण मानव चित्त अपने बुद्धि के द्वारा माया के मिथ्या खेलको समझने, अज्ञान से निकल कर अपना सत्य स्वरुपको जानने का स्तर तक विकसित हुआ है। आत्मज्ञान, मायाज्ञान और ब्रम्हज्ञान के स्तर तक पहुँचकर ज्ञान का सीमा समाप्त हो जाता है। गुरु ही सत्य तत्व और मिथ्या नामरुप दिखाकर वहाँ तक पहुँचा देता है। शिष्यका विकास कहाँ तक हुआ है कौन सा मार्ग और कौन सा विधि उपयुक्त होता है ये बात गुरुको ही पता होता है। ज्ञानमार्ग में अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार में स्वयंद्वारा सिद्ध प्रमाण को ही मान्यता दिया जाता है। गुरु इसी के ओर संकेत करते हैं, इसीके लिए मार्गदर्शन करते हैं। जब एक साधक गुरु के द्वरा दिए गए संकेत और मार्गदर्शन को चिन्तन, मनन, विश्लेषण करके अपने हिसाब से सही साबित करता है तब ही उसको अवलम्बन करने के लिए योग्य माना जाता है, अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास मना है। जहाँ अटल विश्वास है वहीं पर समर्पण होता है। विश्वास दूसरों पर नहीं हो सकता, अपने ही मूल तत्व पर होता है। अपना तत्व गुरु ही ज्ञानपूंज के रूप में प्रकट होता है। ज्ञानी और अज्ञानी बनकर गुरु और शिष्य के रुपमें लीला करते हैं, एक योग्य शिष्य ने सभी के कल्याण के लिए निश्वार्थ सेवा करनेवाले, सत्य-असत्य पहचान करके मुक्ति दिलनेवाले सद्गुरुको पहचान सकता है, पूर्ण श्रद्धा और निष्ठा के साथ अपने गुरुतत्व पर समर्पित होता है, एकाकार होता है। समर्पण सम्पूर्ण रुपमें होता है, आधा अधूरा नहीं होता । बिना शर्त और बिना कोई अपेक्षा के होता है । कोई डर नहीं होता, शिष्य निश्चिन्त होता है। समर्पण में अहम् और कर्ताभावका नाश हो जाता है, गुरु आज्ञा ही सर्वोपरी होता है। समर्पण कभी टूटता नहीं, फेरबदल होने वाली और घट-बढ़ होने वाली चीज़ भी नहीं है। यदि घट-बढ़ हुआ तो वो समर्पण नहीं, बल्कि स्वार्थ है जो लेनदेन के आधार पर घट-बढ़ होता है। सच्चा समर्पण एक बार हुआ तो सदा के लिए होता है। सार एक ही गुरु सर्वत्र है, और हर अवस्था में साथ है। किसी घटना के रुपमे, वस्तु के रुप में, जीव के रुपमें, व्यक्ति के रुपमें, मुनि के रुपमें, चित्त के रुपमें, स्थान के रुपमें, समय के रुपमें आदि विभिन्न रुपों में प्रकट होकर सम्पूर्ण ज्ञान दिलाता है। जहाँ केवल मुक्ति है वहाँ पर गुरुशिष्य सम्पूर्णता में मिल जाते हैं, विलय हो जाते हैं, यहाँ पर समर्पण का परिणाम घटित होता है। स्वयंको जानकर सत्य स्वरूप में स्थित रहने का या अज्ञान में संसारमें ही लिप्त रहनेका दो विकल्प है। व्यक्ति का स्वभाव एवं संस्कार अनुसार जो भी रुचि होता है उसी अनुसार मार्ग चयन करता है। जो स्वयं के खोजमें है वो अपना तत्व स्वरुप गुरुको पहचान कर उसी पर समर्पित हो जाता है। गुरु स्वयं ब्रम्ह है, स्वयं अस्तित्व है। समर्पण एकत्व का सुत्र है, दो को एक करने की कड़ी है। प्रेम का सार्थकता है, विश्वास का धागा है, श्रद्धा और निष्ठा का पूरक है। गुरु ही अपना संप्रभु और अपना मूल तत्व है। समर्पण एक ऐसा भाव है, जिसके आधारमें निश्चिंत होकर अपना प्रभुत्व अर्पित किया जाता है। यही सच्चा समर्पण है। यहीं से प्रगति और मुक्ति का द्वार खुलता है। ***
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