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भेदवृत्ति
शैल
भेद वृत्ति बांटने की वृत्ति! तोड़ कर देखने की वृत्ति! विभाजन की वृत्ति! स्वभावतः शरीर की ऊपरी परत है, जिसे बुद्धि के रूप में जाना जाता है। बुद्धि की प्रवृत्ति भेद करने की है। अन्यथा जाना नहीं जा सकता। इसलिए बुद्धि संपूर्णता में नहीं देख पाती, यह दो में विभाजन की वृत्ति के कारण ही द्वैत उत्पन्न करती है। जैसे जीवन जन्म और मृत्यु का जोड़ है। जन्म से शुरू होकर मृत्यु की प्रक्रिया शरीर के विलीन होने तक पूरी होती है। दोनों में से एक को हटा दें तो वह जीवन नहीं हो सकता। किंतु बुद्धि जन्म को जीवन की तरह देखती है। और मृत्यु को अलग घटना की तरह। इस प्रकार दो छोर दो अलग अलग घटनाएं हो गईं। किंतु जन्म और मृत्यु के योग से ही जीवन है। बनाएं यहां संपूर्णता है। एक के बिना दूसरा दूसरे का अस्तित्व नहीं रह जाता। मृत्यु जीवन की पूर्णता है, यदि जीवन जन्म से शुरू होता है तो मृत्यु पर समाप्त होगा। मृत्यु फिर से जन्म की यात्रा है, जो कभी समाप्त नहीं होती। अज्ञान के कारण जीव इस चक्र में घूमता रहता है। एक और उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। चुंबक को कितने भी टुकड़ों में तोड़ें, उसके दोनों ध्रुव साथ-साथ होंगे। जिसे हम विपरीत कहते हैं, वह पहले का पूरक है। एक अकेला ध्रुव का अस्तित्व नहीं होता। जब भी एक ध्रुव होगा तो उसके साथ ही दूसरा भी प्रकट होगा। और वे परस्पर विरोधी नहीं किंतु सहयोगी होंगे। किंतु भेद वृद्धि के कारण दोनों विरोधी प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार जीवन में अनुभव में आने वाले सुख और दुःख एक दूसरे के पूरक हैं। यदि सुख है तो अपने साथ दुःख को भी अवश्य ही लिए होता है। और यदि दुःख है तो सुख भी उसके साथ ही होता है। बुद्धि देख नहीं पाती, हमेशा एक पहलू को ही देख पाती है, जैसे सिक्के के दोनों पहलू को एक साथ नहीं देखा जा सकता। किंतु यही बुद्धि जब शुद्ध होकर प्रज्ञा बन जाती है तो सम में स्थित हो जाती है। फिर विभाजन की वृत्ति स्वयं ही परिपूर्णता में देखने की हो जाती है, और द्वैत समाप्त हो जाता है। फिर जन्म और मृत्यु अलग-अलग नहीं होंगे, और ना ही सुख और दुःख! क्योंकि सम बुद्धि विभाजन से परे द्वैत की मिथ्या को देख पाती है। सामान्यतया बुद्धि की परत जीवन में विकसित ही इस प्रकार हुई है कि भेद कर सके। अन्यथा अस्तित्व की विराट शून्यता को बुद्धि की छोटी सी परत में समाहित नहीं किया जा सकता। इसलिए सत्य को बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता। बुद्धि से परे जाकर सत्य हुआ जा सकता है। हो जाना भी भविष्य की ओर इशारा करता है। जब तक भेद वृत्ति है मेरा स्वरूप सत्य ही है। यह नहीं देख पाएगी क्योंकि देखने वाला अर्थात भेद करने वाला बना हुआ है। जब वह भी समाप्त हो जाता है, तो पता चलता है भेद था ही नहीं। इसलिए अध्यात्म में बुद्धि साधन हो सकती है, लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। अंतिम सीढ़ी तक आकर उससे भी मुक्त होना पड़ता है। जैसे दिए कि लौ से प्रकाश को ज्योति बन बिखरने के लिए लौ से आसक्ति छोड़ने होती है, फिर उसे असीम से एकता में स्थापित हो जाना होता है, अन्यथा नहीं। धन्यवाद !
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