Wise Words
अद्वैत-वाणी
रमाकांत शर्मा
अद्वैत - वाणी अद्वैत भाव/ब्रह्म भाव बहुत विचित्र भाव है, #जैसे अनुभव तो स्पष्ट दिखते हैं, #ये भी पक्का है कि मैं अनुभवकर्ता हूँ ये समस्त अनुभव मुझे हो रहे हैं /होते हुए प्रतीत हो रहे हैं। #कुछ काल अनुभव और अनुभवकर्ता के द्वैत में व्यतीत होने पर अनुभवक्रिया का भाव पक्का हो जाता है। कि मात्र अनुभवक्रिया ही है जो निरंतर चल रही है अस्तित्व में। ये अद्वैत भाव है। #अद्वैत अथवा अनुभवक्रिया को ब्रह्म ज्ञान का सत्र भी पुष्टि करता है और हमें प्रत्यक्ष होता है कि अनुभव और अनुभवकर्ता में न तो कोई दूरी है, और न ही कोई समय का अंतराल है, एक ही हैं। #ऐसे में सम-स्थिति निर्मित होती है, समाधिस्थ अवस्था, परंतु ये चैतन्य समाधि हैं, खुली आंखो से भी रहती है। जगत व्यवहार करते समय भी ज्ञानी उसी अद्वैत भाव में रहता है। #इस भाव में कुछ शब्द भी निकलते हैं, वाणी प्रकट होती है। वाणी की सीमा है। परन्तु भाव प्रबल है। जो वाणी प्रकट होती उसमें शब्द मिलेजुले होते हैं। हो सकता कोई बुद्धिवादी उसको न माने। अगर शब्दों से परे होकर देखेंगे वास्तविकता पता चलती है। अब एक पुराना भजन देखते हैं कि कैसे भाव हैं.., उस चैतन्य भगवान का, विश्व रूप है जान । दृष्टा बन के देख ले, होवे तुरत कल्याण ॥ कुछ ही समय इस दृष्टि से, चलो विश्व में भाई। प्रेम रूप में विचरते, प्रेम रूप हो जाइ॥ प्रेम प्रेम ही देखते, प्रेम में बोले नाम। प्रेम नाम में बोलता, चैतन्य उसे पहचान ॥ देखते चैतन्य विश्व में, भ्रम जाल मिट जाय। देखनहारा कौन है, निश्चय में आ जाय ॥ निश्चय गुरु की देन है, सुनो ध्यान से भाई। यही देख सेवा करो, दृढ़ निश्चय हो जाई ॥ दृढ़ निश्चय में एक रस, टूट फूट कछु नाहिं। निर्भय होकर विचरते, तीन लोक भय नाहिं ॥ देखो चैतन्य विश्व में, भरा पड़ा भरपूर। गुरु चरणों में निकट है, नहिं मंज़िलों दूर ॥ इन नैनन से देखता, चैतन्य जग में सार। देखनहारा है कहे, तू ही जगत आधार ॥ एक सार को देख लो, देख देख हरषाओ। हरषत ही मन प्रेमियों, चैतन्य के गुण गाओ ॥ उस चैतन्य को प्रेम से, देख देख कुछ बोल। अपने प्रिय इस विश्व के, अंतर के पट खोल ॥ बन के सेवक विश्व का, कर सेवा चित लाई। आगे सेवक विचरता, पीछे फिरे रघुराई ॥ सेवक बनना कोई चाहे, गुरु बने संसार। यही जगत की रीति है, चैतन्य वचन सम्भार॥ गुरु बनना तो सहज है, सेवक विरला होय। सेवक चैतन्य देखता, वहीं भरम सब खोय ॥ चैतन्यानन्द प्रेम से, तेरी महिमा गाऊं। तू ही है सब जगत में, देख देख हरषाऊं॥ चिदानंद इस विश्व में, व्याप रहे सब ठौर। सोइ गुरुमूर्त रूप से, प्रकट भयो नहिं और ॥ यहाँ शब्दों की दृष्टि से दृष्टा भी है, चैतन्य भी है, गुरु भी है, सेवक भी है, विश्व भी है। चैतन्य को विश्व में भरपूर देखते हुए देखने वाला भी अन्य नहीं चैतन्य ही है। क्या कहा जाय? अद्वैत वाणी। और मिलेजुले शब्द। धन्यवाद तस्मै श्री गुरवे नमः।
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