Wise Words
परिवर्तन - जटिल - सरल - होना मात्र
रमाकांत शर्मा
परिवर्तन आइए आज परिवर्तन पर चर्चा करते हैं। अस्तित्व का प्रकट भाग सदैव गतिशील है, परिवर्तन शील है इसलिये वो प्रकट है। अन्यथा वो जो अपरिवर्तनीय है - जो अनुभवकर्ता साक्षी है, उसकी श्रेणी में आ जाता। अभी केवल अनुभव जो परिवर्तनीय है उस पर केंद्रित करेंगे। किसी रेलगाड़ी अथवा वायुयान में यात्रा करते समय यात्री स्वयं को चाहे स्थिर प्रतीत हों परन्तु पूरी की पूरी रेल अथवा पूरा वायुयान गतिशील अनुभव में आता है। इसी प्रकार ये विशाल धरती /पृथ्वी पर उपस्थित समस्त वस्तुएं, समस्त जीव, हमारे शरीर स्थिर प्रतीत होते हैं, परन्तु रेल और वायुयान की भांति पृथ्वी कई आयामों से गतिशील है। 1. पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है प्रतिदिन एक चक्कर पूरा लगाती है। दिन रात इसी का परिणाम है। 2. पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है जो एक वर्ष में एक चक्कर होता है, जिसमें ऋतुएं क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा, शीत, बसंत इत्यादि घटित होती हैं। 3. पृथ्वी की गति का तीसरा और चौथा आयाम सूर्य का अपनी धुरी पर ग्रहों सहित घूर्णन तथा अपनी आकाश गंगा के चारों ओर चक्कर लगाना इत्यादि। और भी आयाम हैं परन्तु परिवर्तन हो रहा है समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है। जब पृथ्वी स्वयं कई आयामों से गतिशील हो तो उस पर उपस्थित सभी वस्तुएं, नदी, नाले, पर्वत, समुद्र, पेड़ पौधे, मकान, दुकान, सड़क, मनुष्य सहित सभी जीव जन्तु इत्यादि गति में हैं। जो परिवर्तन शील है उसका क्षरण भी होता है। इसी प्रकार समस्त ग्रह, नक्षत्र, उपग्रह तारे इत्यादि इस पूरे ब्रह्माण्ड में चक्राकार गतिशील हैं। गतिशील अर्थात परिवर्तन शील है। प्रत्येक क्षण परिवर्तन हो रहा है। ये परिवर्तन निरंतर हो रहे हैं अविराम। यदि रुका तो नष्ट होगा। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का खेल इस अस्तित्व में निरंतर चल रहा है, जो प्रतीत होता है। वो है निरंतर सृजन, पालन, और संहार। जगत में वस्तुएं बनती हैं, कुछ समय रहती हैं और फिर नष्ट हो जाती हैं। यदि नष्ट शब्द का प्रयोग न करना चाहें तो अन्य घटकों में रूपांतरित होती हैं। जीवों में भी जन्म हुआ है तो मृत्यु अवश्य होगी। प्रत्येक जीव का जन्म है और जन्म के साथ साथ उसकी आयु की भी एक निश्चित सीमा है। अपना मनुष्य शरीर यदि स्वस्थ है तो 75 से 100 वर्ष की आयु प्राप्त करता है। परन्तु मृत्यु निश्चित है। अद्भुत बात ये है कि शरीर में परिवर्तन निरंतर होता है परंतु इतना धीरे होता है कि हमें आभास प्रतिपल प्रतीत नहीं होता है। फिर भी बचपन में जन्म के समय, एक वर्ष की आयु में, फिर 5 वर्ष, 10, 15, 20, 25, 40, 60, 70,... वर्षों के अन्तराल में ये परिवर्तन अधिक स्पष्ट दिखता है। हम सब इन वर्षों में लिए गए फोटो /चित्रों से स्पष्ट अनुभव करते हैं। ठीक इसी प्रकार से, पेड़/ पौधों/ वनस्पति इत्यादि का भी ऐसे ही धीरे धीरे बढ़ना, बड़े होना, और एक समय के अन्तराल के पश्चात नष्ट होना घटित होता है। इसी प्रकार से अन्य जड़ पदार्थों का भी क्षरण धीरे धीरे होता है। मकान, दुकान, सड़क, भवन, इत्यादि भी धीरे धीरे पुराने पड़ते हैं और उनको नया बनाना पड़ता है। कुछ वस्तुएं शीघ्र, कुछ दीर्घकाल में परिवर्तित होती हैं। परन्तु प्रकृति में परिवर्तन निरंतर होता रहता है। ये परिवर्तन हमें अच्छा लगता है, रुचि कर लगता है, अन्यथा नीरसता आ जायेगी। अंततः जो भी अनुभव में आ गया वो परिवर्तनशील है। उसका क्षरण हो रहा है। वो अन्य रुपों में परिवर्तित होते होते इतनी सरल वस्तु बन जाता है जो शेष होना मात्र ही रह जाता है। और ये होना मात्र क्या है ये होना मात्र मैं स्वयं हूँ। अनुभवकर्ता। वही तो देख रहा है निरंतर, अनादि काल से, अपरिवर्तनीय। ये अपरिवर्तनीय सदैव अपरिवर्तनीय ही रहा। उसी अपरिवर्तनीय आत्मन /साक्षी के आधार पर परिवर्तन होता हुआ प्रतीत हुआ । अनुभव में आया और विलीन हो गया। विलीन कहां हुआ अनुभवकर्ता में। होना मात्र में। क्योंकि ये दोनों एक ही हैं। ज्ञानी के लिए ये एक ही है। उसको ज्ञात है कि दो नहीं हैं। वो चित्त के खेल का आनंद लेता हैं। ठीक उसी प्रकार से जैसे लहरों का आनंद लेते हुए उसको पानी का पता रहता है ये पानी के ही विभिन्न रूप हैं, उसी का उछाल है, उस उछाल की ऊंचाई मात्र हैं जो खेल है। तो इस होने वाले निरंतर परिवर्तन का आनंद लेना है।ये मात्र प्रतीति है। वास्तव में शून्य में क्या परिवर्तन हो सकता है? परन्तु ये आत्मन /चैतन्य की चेतना का नाद है जो चित्त रूप से प्रकट हो भासमान हो रहा है। जो भासमान है वो वास्तव में क्या है वो भी अज्ञेय है, अबूझ पहेली है, क्या जानने में आएगा, अनन्त सम्भावनाओं को क्या जानेंगे। ये सब आप का स्वयम का ही खेल है। देखते रहिए मात्र।
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