Wise Words
व्यक्ति: एक अवधारणा
स्वप्रकाश
*गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।* *वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥* **कबीरदास जी** इस लेख में हम व्यक्ति की मिथ्या को विभिन्न दृष्टिकोणों से जानने का प्रयास करेंगे और अंत में आत्मज्ञान से स्वयं के सत्य को जानने का प्रयत्न करेंगे। **व्यक्ति (individual/person) एक सामाजिक दृष्टिकोण से** व्यक्ति वह है जो एक पृथक व्यक्तित्व या पहचान रखता है। यह पहचान उसके बाह्य भौतिक लक्षणों (शारीरिक संरचना, व्यवहार), मानसिक लक्षणों (विचार, बुद्धि), जैविक-रसायनिक मार्कर (रक्त समूह, प्रोटीन प्रोफ़ाइलिंग आदि) एवं आनुवांशिक लक्षणों (डीएनए फिंगरप्रिंट) के आधार पर होती है। समाज में मनुष्य को व्यक्ति कहा गया है। वह जीव जो मनुष्य रूप में प्रकट है वह व्यक्ति है। समाज के अनुसार व्यक्ति एक जीवित मनुष्य है जो स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। इसकी स्वयं की आवश्यकताएं, इच्छाएं, अधिकार, कर्तव्य एवं जिम्मेदारियां होती हैं। व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने के लिए उसे कई सारी पहचान दे दी गयी हैं जैसे नाम, लिंग, गोत्र, परिवार, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति, समुदाय, व्यवसाय, निवास, देश आदि। केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसने स्वयं को बाकी से अलग एवं विशेष दिखने के लिए इतनी सारी पहचान बना रखी है। समाज द्वारा कर्म निर्धारण एवं सभी का जीवन यापन सुनिश्चित करने के लिए व्यक्ति की अवधारणा निर्मित की गई है। व्यक्ति की अवधारणा समाज एवं देश को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिये बहुत उपयोगी है। समाज कर्म प्रधान है और कर्मों के निर्धारण के आधार पर व्यक्ति को उसके कार्य के अनुसार नौकरी में वेतन दिया जाता है तथा समाज में वस्तुओं एवं धन का आदान प्रदान कर्मों अर्थात कार्यों के अनुसार होता है इसलिये व्यक्ति की अवधारणा गढ़ी गयी है। कर्मों के आधार पर ही व्यक्ति को कानून के दायरे में रखा जाता है और उसके कर्मों को नैतिक एवं अनैतिक कर्मों की श्रेणी में रखा जाता है। कानून के अनुसार एक समझदार स्वस्थ वयस्क मनुष्य को व्यक्ति कहा जाता है। कानून की दृष्टि में केवल एक वयस्क व्यक्ति ही अपने कर्मों, निर्णयों, आदेशों के लिए जिम्मेदार होता है। केवल एक वयस्क व्यक्ति पर ही कानून के द्वारा अभियोग किया जा सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त बाकी और किसी जीव-जंतु में इतनी सारी पहचान नहीं होती है उनमें केवल नर-मादा और ज्यादा से ज्यादा, परिवार (कुछ समय तक) और समूह का विभाजन होता है। ज्यादातर जीवों में उत्तरजीविता की वृत्ति केवल स्वयं तक ही सीमित होती है। बाकी अन्य जीव अपने बच्चों की उत्तरजीविता भी कुछ अवधि तक (जब तक वे आत्मनिर्भर न हों) ही सुनिश्चित करते हैं। सभी जीवों में अहमभाव की वृत्ति उत्तरजीविता को सुनिश्चित करती है। केवल मनुष्य में ही अहमभाव उत्तरजीविता से भी ऊपर चला जाता है। मनुष्य में मान-सम्मान प्रतिष्ठा, अधिक धन-दौलत, अधिक भोग विलासिता की वृत्ति पायी जाती है। यह वृत्ति उसमें सामाजिक व्यवस्था के कारण और भी प्रबल होती जा रही है। दूसरों के ऊपर स्वामित्व की वृत्ति, स्वयं में दूसरों से श्रेष्ठ होने का भाव, दूसरों के प्रति हिंसा का भाव (भोजन, प्रजनन, सत्ता, श्रेष्ठता के लिए) आदि । जीवों में अहम भाव चित्त की विभाजन वृत्ति का परिणाम है। चित्त जितना अधिक विभाजन करेगा वह अहम वृत्ति को उतना ही पुष्ट करता जाता है। मनुष्य में एक से अधिक पहचान स्थापित करने के कारण उसमें अहम वृत्ति अधिक पायी जाती है। मनुष्य में देह केन्द्रित अहम भाव के परिणाम स्वरूप उसमें एकोहम द्वितीयो नास्तिका भाव दृढ होता जा रहा है। पशुओं के विषय में जिम्मेदारियां एवं कर्तव्य सीमित हो सकते हैं। जैसे जीव-जंतु अपने बच्चों का भरण पोषण एवं संरक्षण जीवन भर नहीं करते किन्तु कुछ जीव जैसे मधुमक्खी, दीमक में सामाजिक प्रवत्ति पायी जाती हैं जो की उनके समूह के सभी साथियों के भरण, पोषण एवं जिम्मेदारियों को निर्धारित करती हैं। जैसे मधुमक्खी में रानी मक्खी, नर मक्खी, सैनिक मक्खी आदि जाति विभाजन होता है इस व्यवस्था से सभी जातियों का भरण-पोषण, प्रजनन एवं संरक्षण को सुनिश्चित किया जाता है। ज्यादातर पशुओं एवं पक्षियों में केवल मादा ही उसके बच्चों का कुछ समय तक भरण, पोषण एवं संरक्षण करती है जिसके बाद सभी बच्चे स्वतंत्र जीवन यापन करते हैं। भरण पोषण, प्रजनन एवं संरक्षण के उद्देश्य से ज्यादातर पशु-पक्षी एवं अन्य जीव समूहों में रहते हैं जिससे उनकी उत्तरजीविता सुनिश्चित हो सके। **व्यक्ति व्यवसाय के दृष्टिकोण से** भौतिक जगत में प्रत्येक विषय-वस्तु को व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखा जाता है। व्यक्ति/मनुष्य से भी एक वस्तु की तरह ही व्यवहार किया जाता है। व्यवसाय हो या नौकरी हो उसे उसके कार्य/श्रम (शारीरिक एवं मानसिक) के बदले में धन प्राप्त होता है जिससे उसका जीवन यापन होता है। समाज में मनुष्य के शरीर को मात्र धन प्राप्ति एवं भोग के साधन के रूप में उपयोग किया जाता है। मनुष्य ने समाज में जो व्यवस्था स्थापित की है वह भोग प्रधान व्यवस्था है जिसमें भौतिक जगत में जो भी पदार्थ उपलब्ध हैं उनका व्यवसायीकरण करके उनका उपभोग किया जाता है। अन्य जीव प्रजनन की क्रिया केवल संतान उत्पत्ति के लिए उनके जीवन के एक निश्चित काल में करते हैं किन्तु मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कि इसे मुख्यतया अपनी इन्द्रिय भोग के लिए किसी भी समय करता है। प्राचीन काल से ही स्त्री की देह को एक भोग विलास की वस्तु के रूप में उपभोग किया जाता रहा है जो भी समृद्ध एवं धनी व्यक्ति होते थे वे कई पत्नियाँ एवं सम्बन्ध रखते थे। आज के काल में भी एक से अधिक शारीरिक सम्बन्ध आम बात हो गयी है। देह केन्द्रित वृत्ति के कारण ही देह व्यापार सभी कालों में होता रहा है। स्वयं को देह केन्द्रित रखने के परिणाम स्वरुप मनुष्य में यह भोग की वृत्ति अधिक प्रबल होती जा रही है। अतः वर्तमान समय में अन्य वस्तुओं की तरह मनुष्य शरीर भी भोग की एक वस्तु मात्र बन कर रह गया है। एक देह केन्द्रित जीव/मनुष्य एक वस्तु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जिस प्रकार से मनुष्य अन्य पशुओं का अपने उपभोग (मांस, अस्थि, चमड़ा, रेशे, मनोरंजन) के लिए एक वस्तु की तरह उपयोग करता है उसी प्रकार से मनुष्य देह को आज के समाज में एक वस्तु की तरह उपयोग किया जाता है और उन्हें अन्य वस्तुओं/पदार्थों की अलग श्रेणियों के समान मानव संसाधन (Human resource) नाम की श्रेणी का नाम दे दिया गया है। **व्यक्ति जीव विज्ञान के दृष्टिकोण से** जीव विज्ञान में व्यक्ति अर्थात मनुष्य अन्य पशुओं की तरह ही एक जीव है जीव एक स्वयंपुनरुत्पादन (self-perpetuating) तंत्र है जो की एक इकाई के रूप में कार्य करता है जीव विज्ञान में प्रत्येक जीव को विकासक्रम में प्राकृतिक चयन से गुजरना पड़ता है। जीव विज्ञान के अनुसार पशुओं को उनकी शारीरिक रचना के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाता है (जैसे जलीय जीव, सरीसृप, पक्षी, स्थनपायी आदि)। जीवों में शारीरिक रूप से जितनी अधिक विविधता पायी जाती है उनकी अलग पहचान एवं व्यक्तीकरण करना ज्यादा आसान हो जाता है। जैसे बहुकौशिकीय जीवों में एक कोशिकीय जीवों में अधिक बाह्य लक्षणों के कारण उनकी अलग पहचान स्थापित करना ज्यादा सरल है। स्थानपायी (Mammels) वर्ग के अतिविकसित एवं बुद्धिमान समूह को प्राइमेट (Primat) कहा जाता है जिसमें एप, बन्दर एवं मनुष्य कि प्रजातियाँ सम्मिलित हैं। मनुष्य की वर्तमान प्रजाति होमो सेपियन्स है प्राइमेट समूह के सभी जीवों की शरीरीक एवं अनुवांशिक (डीएनए sequence) संरचना भी लगभग एक समान सी होती है इसलिये मनुष्य के शरीर एवं व्यवहार से सम्बंधित अधिकतर खोजों का प्रयोग प्राइमेट समूह के जीवों पर किया जाता है। प्रत्येक जीव-जंतु, पेड़ पौधे जो कि एक स्वतंत्र तंत्र के रूप में कार्य करते हैं उन्हें एक अलग पहचान दी जा सकती है एवं व्यक्ति कहा जा सकता है। विज्ञान के क्षेत्र में खोज करने के लिए प्रत्येक जीव-जन्तु, वनस्पति को पृथक पहचान दे दी गयी है। एक ही प्रजाति के अलग-अलग जीवों के चिन्हित करके उन्हें उस समूह के जननद्रव्य (germplasm) कहा जाता है। एक जननद्रव्य एक अलग व्यक्तित्व को दर्शाता है। जीव विज्ञान के परिदृश्य से व्यक्ति केवल कोशिकाओं के संयोंजन द्वारा निर्मित एक शरीर मात्र है जो कि एक इकाई के रूप में कार्य करता प्रतीत होता है। यदि हम मानव शरीर का विश्लेषण करें तो हम पाते है हमारा शरीर जीवित अंगों का एक समूह मात्र है जिसमें जैविक सभी क्रियाएँ नियंत्रित रूप से यंत्रवत चल रही है. यह शरीर स्वयं नियंत्रित है यदि हम इसका विश्लेषण करें तो इसे बाह्य से भीतर छोटी इकाइयों में विभाजित करके सम्पूर्ण शरीर कर वर्णन किया जा सकता है जो कि हम सभी ने जीव विज्ञान में पढ़ा हुआ है जैसे बाहर से देखें तो हमारे हाथ, पैर, पेट, छाती, गला, सर, आंख, नाक, मुख, जिह्वा, त्वचा आदि अंग बाहर से ही दिखयी देते हैं। यदि हम भीतर जाएँ तो हमारा शरीर विभिन्न आन्तरिक तंत्रों द्वारा निर्मित है जो अपना कार्य स्वयं कर रहे हैं जैसे पाचन तंत्र (मुख, जिह्वा, आहार नाल, अमाशय, पित्ताशय, अग्नाशय, आंत, मलद्वार), दृष्टि तंत्र (आंखे), घ्राण तंत्र, गति तंत्र, श्वशन तंत्र (नाक, श्वासनली, फेफड़े), उत्सर्जन तंत्र (वृक्क, त्वचा, मूत्र मार्ग), प्रजनन तंत्र (प्रजनन अंग), स्नायु तंत्र, तंत्रिका तंत्र (मष्तिष्क, मेरुरज्जु), कंकाल तंत्र (हड्डी), परिसंचरण तंत्र (रुधिर संचरण), सुरक्षा तंत्र (परजीवियों से सुरक्षा के लिए)। सभी तंत्र एक से अधिक आन्तरिक अंगों के माध्यम से अपना-अपना कार्य कर रहे हैं। ये सभी इतनी सूक्ष्मता से कार्य करतें हैं कि हमें इनमें होने वाली क्रियाओं का अनुभव भी नहीं होता है। आगे जब हम अंगों का आगे विभाजन करें तो वे ऊतकों से बने हैं और ऊतक सूक्ष्म कोशिकाओं से बने हैं। सूक्ष्म कोशिकाओं के भीतर कोशिकांग (केन्द्रक, गुणसूत्र, माईटोकोंड्रीया, राइबोसोम आदि) होते हैं जो कि जटिल जैविक अणुओं (डी एन ए, आर एन ए, प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट, वसा आदि) से निर्मित हैं। डी एन ए हमारे जीवन की मूलभूत इकाई है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अनुवांशिक सूचना का स्थानांतरण करती है हमारे जीवन की भौतिक स्मृति जो की एक शरीर के निर्माण में आवश्यक है वह डी एन ए में जीन की इकाई के रूप में संरक्षित होती है। अणु मुख्य तत्व परमाणुओं (कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आयरन, फॉस्फोरस, कैल्शियम, मेग्निसियम आदि) एवं अन्य छोटे तत्व परमाणुओं से निर्मित हैं। यदि हम इन सभी परमाणुओं को आगे विभाजित करें तो सभी इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॉन एवं न्यूट्रॉन से निर्मित हैं. प्रोट्रॉन एवं न्यूट्रॉन क्वार्क (quark) कणों के द्वारा निर्मित होते हैं। क्वार्क अंतिम उप-परमाणु (subatomic) कण हैं जिन्हें विज्ञान द्वारा खोजा गया है। न्यूट्रॉन को विखंडन (fission) के द्वारा प्रोट्रॉन में परिवर्तित किया जा सकता है विज्ञान के द्वारा पदार्थ का अंतिम उप-परमाणुकण क्वार्क (quark) को खोजा गया है इसके आगे का विज्ञान अभी अज्ञात है। इस प्रकार यदि सूक्ष्मतर स्तर पर देखें तो यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (आकाशगंगा, तारे, ग्रहों तक), सभी चराचर जीव जंतु, ज्ञात पदार्थ सभी जो कुछ भी हम अनुभव कर सकते हैं सभी क्वार्क कणों एवं उर्जा के द्वारा निर्मित हैं। इस प्रकार से सम्पूर्ण भौतिक जगत अर्थात माया या अनुभव मूलभूत रूप से एक समान हैं। यही जगत की भौतिक एकता का प्रमाण भी है। विभाजन केवल नाम-रूपों में है। **पारिस्थितिक विज्ञान की दृष्टि से व्यक्ति** पारिस्थितिक विज्ञान की दृष्टि से मनुष्य का शरीर एक प्रकार का पारिस्थितिक तंत्र है जिसमें कई सारे सूक्ष्म जीव जैसे बैक्टीरिया, विषाणु, कवक एवं अर्चेया निवास करते हैं इन्हें सम्मिलित रूप से मनुष्य का माइक्रोबायोम कहा जाता है। ये सूक्ष्म जीव मनुष्य की त्वचा, मुख, नासिका, श्वसननली, आंत, एवं जननांगों में निवास करते हैं. ये सूक्ष्म जीव हमारे पाचन, पोषक तत्वों के अवशोषण, प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने में एवं हमारे मानसिक स्वस्थ्य में सहयोगी होते हैं। ये सूक्ष्म जीव एक बच्चे को उसकी माता के शरीर से, भोजन से एवं उसके वातावरण से उसके जन्म से ही प्राप्त होते हैं। **तंत्र विज्ञान के अनुसार व्यक्ति** तंत्र विज्ञान के अनुसार जो कुछ भी अनुभवशील है वह सब कुछ चित्त ही है। चित्त स्मृतियों का एक समूह मात्र है. अर्थात यह सम्पूर्ण अनुभवशील जगत एवं यह मनोशरीर यन्त्र सबकुछ चित्त ही है। जो कुछ भी प्रतीत होता है एवं जिसका अनुभव हो जाता है वह चित्त ही है। तंत्र विज्ञान के अनुसार अन्य जीवों की तरह मनुष्य भी चित्त की एक परत मात्र है जो कि विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा निर्मित है। इन्द्रियां कई प्रकार कि हो सकती है जैसे बाह्य/स्थूल इन्दिर्याँ (आंख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा) जिनके द्वारा हमें दृष्टी, श्रवण, गंध, रस, स्पर्श एवं तापमान का ज्ञान होता है। उसके बाद आती हैं आतंरिक इन्द्रियाँ जो शरीर के भीतर का ज्ञान कराती हैं जैसे भार, गति, थकान, संतुलन आदि का अनुभव; मानसिक इन्द्रियाँ: इनके द्वारा हमें भावनाओं, विचार, स्मृति, कल्पना आदि का अनुभव होता है; सूक्ष्म इन्दिर्याँ: स्वप्नावस्था के अनुभव इनके द्वारा होते हैं; पराभौतिक इन्द्रियाँ: मृत्यु उपरांत के अनुभव इनके द्वारा होते है। तंत्र विज्ञान के अनुसार मनुष्य शरीर एवं मन विश्व स्मृति (विश्व चित्त) में एक स्मृति (चित्त की एक परत) मात्र है। स्मृति मूलरूप से नाद रचनाएँ हैं। नाद सबसे सरल मूलभूत परिवर्तन है जिसके द्वारा स्मृति निर्मित होती है। हमें मूलरूप से विभिन्न अनुभवों से सम्बंधित तन्मात्राओं (अनुभव की न्यूनतम इकाई) का अनुभव होता है। दृष्टि की तन्मात्रा प्रकाश है (अग्नि तत्व), श्रवण की तन्मात्रा शब्द है (आकाश तत्व), घ्राण की तन्मात्रा गंध (पृथ्वी तत्व), स्वाद की तन्मात्रा रस (जल तत्व), त्वचा की तन्मात्रा स्पर्श (वायु तत्व) है। चित्त कि संरचना एवं नाद विज्ञान के अधिक विश्लेषण के लिए आप बोधि वार्ता यू ट्यूब चैनल के नाद विज्ञान के विडियो देख सकते है। (१) **मनोविज्ञान एवं दर्शनशास्त्र के दृष्टिकोण से व्यक्ति** मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक व्यक्ति एक जीवित तंत्र है जो कि एक स्वतंत्र एवं स्वस्थ मन (भावनायें, इच्छाएं), बुद्धि (विचारशक्ति, तर्क शक्ति, स्मृति, कल्पना शक्ति, रचनात्मकता) एवं स्वचेतनता (self-consciousness) रखता है। एक व्यक्ति के विचार, भावनायें एवं व्यवहार उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। व्यक्ति की अनुवांशिकी, उसके पालन पोषण का वातावरण (परिवार, शिक्षा, समाज, धर्म, समुदाय, देश) एवं उसके जीवन के अनुभवों के द्वारा उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है. अन्य जीवों की तरह मानव भी पञ्च महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी) के द्वारा निर्मित जीव है। विभिन्न दार्शनिकों ने व्यक्ति को अलग अलग प्रकार से परिभाषित किया है। एक तार्किक स्वभाव का पदार्थ व्यक्ति है (The person is an individual substance of a rational nature) - अस्तित्ववादी बोथिअस (Boethius) जो स्वयं को अनुभव कर सकता है वह व्यक्ति है (The person as a being that "can conceive itself as itself") --- जॉन लॉक (John Locke) एक प्राकृतिक स्व-चेतन इकाई (A natural and self-conscious being) लीन बेकर (Lynne Baker) एक व्यक्ति आवश्यक रूप से एक पशु है. उसके मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक व्यवहार का उसकी पहचान में कोई योगदान नहीं है (The persons are essentially animals and mental or psychological attributes play no role in their identity). एरिक टी ओल्सन (Eric T. Olson) एक व्यक्ति वह है जिसका जीवन में कोई उद्देश्य है (The person is"an end in itself").- इमानुअल कांट (Immanuel Kant) अलग- अलग दार्शनिकों एवं ज्ञानियों ने व्यक्ति की अलग-अलग परिभाषा दी है यदि हम सारांश में कहें तो व्यक्ति एक सजीव पदार्थ अर्थात जीव है जिसमें स्वयं की चेतनता है। सजीवता, चेतनता के अधिक विश्लेषण के लिए आप मेरा पूर्व में प्रकाशित लेख देख सकते है। इस परिभाषा के अनुसार अन्य पशु पक्षी भी व्यक्ति की श्रेणी में आते हैं। **व्यक्ति का पौराणिक दृष्टिकोण** व्यक्ति अर्थात कोई भी जीव जो कि विभिन्न लक्षणों या गुणों के द्वारा व्यक्त किया जाय अर्थात जाना जाय वह व्यक्ति है। व्यक्ति की व्यापक परिभाषा को लें तो जो भी नाम-रूपों में प्रकट है वह व्यक्ति है इसमें पंचतत्वों से निर्मित सभी निर्जीव एवं सजीव (जीव जंतु, वनस्पति आदि) पदार्थ सम्मिलित हैं। जो भी नाम रूपों में प्रकट है उसके गुणों के आधार पर उसकी पहचान स्थापित की जा सकती है. प्राचीन काल में मनुष्य ने पञ्च महाभूतों के गुणों एवं उनकी उपयोगिता के आधार पर उनको देव व्यक्ति की उपाधि प्रदान की है। जैसे कि जल देव, वायु देव, अग्नि देव, सूर्य देव, चन्द्र देव, बुद्ध देव, बृहस्पति देव, धरती माता आदि। इस सम्पूर्ण नाम-रूपों में व्यक्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, सञ्चालन एवं विनाश की प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने वाले देवता अर्थात ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की भी एक व्यक्ति के रूप में अवधारणा गढ़ी गयी है। यह समस्त व्यक्त जगत जो कि विभिन्न नाम रूपों में व्यक्त है उसे माया, देवी कहा गया है. अर्थात इस सम्पूर्ण जगत को एक व्यक्ति कि उपाधि दी गयी है। यहाँ आप देख सकते हैं कि जो भी पदार्थ के रूप में व्यक्त है उसे व्यक्ति (individual) कह दिया जाता है। **आत्मज्ञान** आत्मज्ञान अर्थात स्वयं के तत्व को जानना अथवा स्वयं के सत्य को जानना.द्वैत के स्तर पर सम्पूर्ण अस्तित को दो में विभाजित किया जा सकता है अनुभव एवं अनुभवकर्ता. जो कुछ भी अनुभव या प्रतीत होता है वह सब अनुभव हैं और जिसको यह सभी अनुभव हो रहे हैं वह अनुभवकर्ता है. ज्ञानमार्ग में नेति नेति की विधि के द्वारा स्वयं के तत्व को जाना जाता है। किसी विषय वस्तु का तत्व वह है जो कि अंतिम अविभाज्य है एवं उसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व संभव नहीं है जैसे मिट्टी के घड़े में घड़ा नाम रूप है एवं मिट्टी तत्व है; सोने के आभूषणों में आभूषण नाम रूप है एवं सोना तत्व है। इसलिये तत्व ही एकमात्र सत्य है बाकी सब मिथ्या है, माया है, अनुभव हैं। चलिए, अब हम नेति नेति विधि का उपयोग करते है। ज्ञानमार्ग में तत्व अर्थात सत्य को जानने के लिए एक ही मानदंड है- सत्य वह है जो कि अपरिवर्तनशील है। सभी अनुभव परिवर्तनशील हैं इसलिये असत्य हैं। जिसका भी अनुभव हो जाता है एवं जो भी परिवर्तनशील है वह मैं नहीं हूँ। इस प्रकार जब हम सभी अनुभवों जैसे (जगत, शरीर, विचार, भावनायें, इच्छाएं, कल्पनाएँ, स्मृति, बुद्धि, अहंभाव आदि) एक एक कर के देखें और इन्हें नकारते जाएँ कि मैं ये सब नहीं हूँ तो अंत मैं अनुभवकर्ता शेष रह जाता है जो कि इन सभी का अनुभव कर रहा है। तो यदि हम आत्मज्ञान को परिभाषित करें तो इस प्रकार कह सकते हैं- मैं यह जगत, शरीर, मन (विचार, भावनायें, इच्छाएं, स्मृति, बुद्धि, अहंभाव) नहीं हूँ मैं इन सभी का दृष्टा हूँ, साक्षी हूँ। यही आत्मज्ञान है। जगत तक तो सभी को समझ में आता है कि मैं यह जगत नहीं हूँ क्योंकि जगत व्यक्ति से पृथक दिखाई देता है किन्तु जब हम कहते हैं कि मैं यह मनोशरीर जिसे समाज व्यक्ति कहता है वह नहीं हूँ तो सर्वप्रथम कोई भी स्वीकार नहीं कर पाता है क्योंकि हम सभी की परवरिश ही जन्म से लेकर इसी प्रकार हुई है कि मैं एक व्यक्ति (मनोशरीर) हूँ। यदि किसी को ऐसा कहा जाय तो उसकी सारी मान्यताएँ, धारणाएं धराशायी हो जाती हैं। उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है. इसमें हमारा कोई दोष नहीं है यह सब हमारे परिवार, समाज एवं शिक्षा व्यवस्था की देन है। व्यक्ति की परिकल्पना समाज द्वारा कर्म निर्धारण एवं समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए की गयी है। अन्यथा व्यक्ति है कहाँ ? जिसे हम व्यक्ति कहते है. वह एक स्वचालित मनोशरीर यन्त्र है। इस मनोशरीर यन्त्र में कई सारे सूक्ष्म जीव निवास करते हैं तो क्या आप उन सूक्ष्म जीवों को व्यक्ति कहेंगे?, मैं कहेंगे ? जैसे कि हमने पूर्व में देखा कि भौतिक रूप से शरीर केवल मूलभूत परमाणुओं (प्रोटोन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रान) से निर्मित तंत्र है, परिस्थितिक विज्ञान के अनुसार एक पारिस्थितिकी तंत्र है जिसमें कई सारे सूक्ष्म जीव निवास करते हैं। एवं मन भी केवल रासायनिक क्रियाओं के द्वारा विकसित होता है और उसे चेतनता कह दिया जाता है। शरीर और मन को हटाने के बाद आप कह सकते हैं कि यह स्मृति है जो कि हमें व्यक्ति की पहचान देती है। अंत में एक व्यक्ति की पहचान एक स्मृति तक आकार सीमित हो जाती है जैसे कि मेरा नाम, मेरी आयु, मेरी जाति, मेरा परिवार, मेरे सम्बन्ध (माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि कई सारे रिश्ते हो सकते है), मेरा व्यवसाय, मेरी नौकरी, मेरी शिक्षा, मेरा पद, मेरी कार्य कुशलता, मेरी धन सम्पत्ति, मेरा देश आदि। इस प्रकार स्मृति केवल नाम रूपों का संग्रह मात्र है। यदि स्मृति को हटा दिया जाय तो आपकी पहचान ही खो जाएगी। यदि मैं पूछूँ कि क्या स्मृति के नहीं रहने पर आप नहीं होते हो तो आप कहेंगे कि मैं तो फिर भी हूँ केवल स्मृति नहीं है। यहाँ पर आप शरीर, मन एवं स्मृति के दृष्टा (अनुभवकर्ता) के रूप में सदा ही विद्यमान रहते हो। चलिए इसे आपके अनुभव से समझने का प्रयास करते है। आपके जन्म से लेकर अब तक की केवल कुछ ही स्मृतियाँ आपको स्मरण हैं बाकी सब नष्ट हो गयी हैं। तो क्या फिर भी आप कहेंगे कि मैं नहीं हूँ। जिस शरीर को आप स्वयं समझते हो वह जन्म से लेकर अब तक लगभग पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया है (चेहरा, आकार, वजन, रंग) फिर भी आप कहते हो कि मैं तो हूँ अर्थात आप शरीर नहीं हो जिस मन को आप स्वयं कहते हो (मेरे विचार, मेरी भावनायें, मेरी इच्छाएं, मेरी स्मृति) वह भी अब नहीं है जो मन ५ वर्ष पूर्व या फिर आपके बचपन में था वह भी अब नहीं है। अर्थात आपका मन भी प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है। आपकी स्मृतियाँ भी लगातार परिवर्तित हो रही हैं। क्या एक सप्ताह पहले अपने जो खाया था, जो कपडे पहने थे क्या आप को उसकी स्मृति है? नहीं हमारा शरीर केवल वही स्मरण रखता है जो उसकी उत्तरजीविता के लिए अति अवश्यक होता है बाकी सब अनावश्यक भुला दिया जाता है। इस प्रकार से आपकी स्मृति भी प्रतिपल परिवर्तित हो रही है। तो यह सब कुछ जिसका आप अनुभव कर रहे हैं केवल एक परिवर्तित मात्र है वह आप नहीं हैं। अंत में केवल आप (अनुभवकर्ता) इन सभी के दृष्टा/ साक्षी के रूप में सदा असंग, अलिप्त विद्यमान रहते हैं यही आपका, मेरा, हम सब का सत्य है। अनुभवकर्ता को अन्य नामों जैसे दृष्टा, साक्षी, आत्मन, ब्रह्मन, अस्तित्व आदि से भी जाना जाता है। तो अब आप कहेंगे कि इस मनोशरीर के द्वारा जो कर्म हो रहे हैं वह तो मेरी इच्छा से हो रहे हैं। यहाँ पर यदि आप ध्यान से देखें तो इच्छाएं, विचार भी आपके नहीं हैं। चलिए इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। शरीर की जो आवश्यक क्रियाएं हैं जैसे भूख, प्यास, मल-मूत्र विसर्जन आदि के लिए शरीर स्वतः ही इनका संकेत देता है और इनके लिए जो आवश्यक कर्म हैं वे शरीर के द्वारा स्वतः ही होते हैं। इन क्रियाओं को आप कुछ हद तक टाल सकते हैं किन्तु रोक नहीं सकते हैं तो इनसे सम्बंधित जो कर्म हैं वे स्वतः ही आवश्यकतानुसार होते हैं। शरीर के भीतर की जो भी यांत्रिक (स्वसन, ह्रदय गति) एवं सभी रासायनिक क्रियाएँ हैं (पाचन, उत्सर्जन, रक्त प्रवाह, तंत्रिका तंत्र, स्नायु तंत्र, दृष्टि तंत्र, श्वसन तंत्र, सुरक्षा तंत्र आदि सभी) स्वतः ही होती हैं जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। मन की क्रियाएँ (इच्छाएँ, विचार आदि) भी हमारे वातावरण (परिवार, समाज) एवं हमारी शैक्षणिक योग्यताएँ के द्वारा निर्धारित होती हैं। ये भी हमारी नहीं हैं। इनका स्रोत समाज एवं हमारा आसपास का परिदृश्य है जिसमें हम पले-बड़े हैं और हमने शिक्षा प्राप्त की है। आजकल सोशल मिडिया (टीवी, इन्टरनेट, यू ट्यूब, फेसबुक, ट्वीटर, व्हात्सप्प, टेलीग्राम, समाचार, राजनितिक एवं फ़िल्मी जगत की हस्तियाँ एवं विज्ञापन आदि) के समय में व्यक्ति के विचार, इच्छाएं, भावनायें इन सोशल मीडिया समूहों के द्वारा थोपी जाती हैं और जनता के मन को इनके अनुसार चलाया जाता है। आम जन बिना सोचे समझे इनके हाथों की कठ पुतली बने हुए हैं ये सभी अज्ञान के साधन हैं। तो इस प्रकार आपने देखा की इस मनोशरीर द्वारा जो भी कर्म हो रहे हैं वे स्वचालित रूप से शरीर एवं इसके वातावरण से प्राप्त जानकारी, सूचना एवं उत्प्रेरकों के अनुसार होते हैं इनका कोई कर्ता नहीं है। यहाँ केवल गौर करने कि बात यह है कि कर्म होने के बाद मनोशरीर यन्त्र के भीतर जो अहम भाव है वह इन कर्मों के होने के बाद इनकी जिम्मेदारी लेता है कि यह मैंने किया है। और कार्य कारण के सिद्धांत के अनुसार यदि हम कर्मों के होने का कारण देखें को हमें कारणों की एक अनंत श्रृंखला दिखेगी कोई एक कारण नहीं मिलेगा। इसलिये व्यक्ति के द्वारा कर्म होना एक मिथ्या/माया है क्योंकि वास्तव में कोई कर्ता नहीं है। अर्थात कोई व्यक्ति है ही नहीं केवल एक स्वचालित मनोशरीर यन्त्र है जिसे जीव भी कह दिया जाता है। मैं जानता हूँ कि यह स्वीकार करना बहुत ही कठिन है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ। साधना के प्रारंभ में मुझे भी इन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था किन्तु जब मैंने चरणबद्ध तरीके से ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम किया एवं नियमित रूप से इन बिंदुओं पर मनन चिंतन किया तो मुझे भी गुरुकृपा से आत्मज्ञान प्राप्त हुआ है। आत्मज्ञान के लिए आप बोधिवार्ता समूह का त्रिज्ञान एवं ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम कर सकते हैं जो कि गुरुदेव श्री तरुण प्रधान द्वारा संचालित ज्ञानमार्ग के साधकों के लिए एक निशुल्क कार्यक्रम है। यदि आप भी चरण बद्ध तरीके से आत्मज्ञान प्राप्त करेंगे एवं इसे स्वयं के अनुभव तथा तर्क के द्वारा सत्यापित करेंगे तो आपको भी आत्मज्ञान अवश्य होगा ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। तो आप भी अपनी देह केन्द्रित वृत्ति से बाहर निकलें एवं स्वयं के सत्य स्वरुप को जानें। **सारांश** व्यक्ति/जीव एक स्व-प्रजनन, स्वचेतनता युक्त स्वचालित तंत्र है जो कि एक इकाई के रूप में कार्य करता प्रतीत होता है (*Jiv* or person or individual is a self-reproducing, self-conscious, self-controlling system which seems to work as a unit). जैविक तंत्र का मूल उद्देश्य स्वयं को बनाये रखने के लिए प्रजनन के द्वारा अपनी प्रतिलिपि तैयार करना है। इसकी अपनी एक स्व-चेतनता होती है। कर्मों के निर्धारण के लिए समाज द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उसके लक्षणों (आयु, लिंग, रंग रूप, परिवार, समाज, व्यवसाय, देश आदि) के आधार पर एक विशेष पहचान दे दी जाती है। मनुष्य जीवों की श्रेणी में सबसे ऊपर के पायदान पर है क्योंकि उसकी बुद्धि एवं चेतनता अतिविकसित होती है जिसके कारण उसकी परिभाषा में नैतिकता शब्द और सम्मिलित किया जा सकता है। बाकी सभी मानदंड जैसे सामाजिक, जिम्मेदार, स्व-चेतनता, रक्षण, भक्षण, प्रजनन आदि सभी अन्य पशु-पक्षियों पर भी लागू होते हैं। मूल रूप से मनुष्य पशु समान ही है। यदि हम जीव को सुक्ष्तम स्तर पर विज्ञान के परिदृश्य में देखें तो सभी जीव अन्य पदार्थों के समान उप-परमाणु कणों एवं उर्जा के द्वारा निर्मित हैं। परमाणु के भीतर के कण प्रबल नाभिकीय बल के द्वारा आपस में जुड़े रहते हैं। ये सभी उप-परमाणु कण स्थिर नहीं होते हैं वे निरंतर गतिमान कण हैं इसलिये उनकी सटीक स्थिति एवं ज्ञान संभव नहीं है। सुक्ष्मतम स्तर पर मूलभूत रूप से केवल गति अर्थात स्पंदन अर्थात नाद ही है जो केवल परिवर्तन के रूप में प्रतीत होता है। अनुभवकर्ता अर्थात शुन्यता ही अंतिम सत्य है जिसकी पृष्ठभूमि में सूक्ष्म भौतिक गतिमान कणों के संयोंजन के द्वारा प्रकृति में इतनी विविधता (भौतिक पदार्थ, वनस्पति, जीव जंतु एवं मनुष्य) उत्पन्न होती है। यदि हम स्वप्नों से तुलना करें तो भौतिक जगत में पदार्थ, जीव जंतु धीरे धीरे परिवर्तित होते हैं जो कि निरंतरता एवं स्थिरता का भ्रम उत्पन्न करते है जबकि स्वप्न में विषय वस्तु अति शीघ्रता से परिवर्तित होते हैं इसलिये उनको मिथ्या कह दिया जाता है। अन्यथा भौतिक जगत एवं स्वप्न जगत दोनों माया/अनुभव/मिथ्या/परिवर्तन ही हैं। मैं (अनुभवकर्ता) इन सभी अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न एवं निद्रा) का दृष्टा हूँ। इस प्रकार यदि हम विश्लेषण करें तो केवल एकता (अनुभवकर्ता) से ही अनेकता (अनुभव, माया) की सृष्टि होती प्रतीत होती है। अनुभव निरंतर परिवर्तन (सभी पदार्थ, जीव जंतु, वनस्पति) मात्र है एवं अनुभवकर्ता ही एकमात्र सत्य है। मनुष्य जो की बुद्धि एवं चेतनता के सर्वोच्च शिखर पर है जिसके कारण उसमें स्वयं को जानने की संभावना होती है वह भी अपने सत्य स्वरुप से अनभिज्ञ, पशुओं के समान देह केन्द्रित भोगवादी जीवन (रक्षण, भक्षण, प्रजनन) जीता है और एक वस्तु के समान ही इस समाज के द्वारा उपयोग किया जाता है। अतः आप भी देह केन्द्रित भोगवादी जीवन से परे जाकर स्वयं के सत्य को जानें और आत्मज्ञान प्राप्त करें। यहाँ हमने विभिन्न दृष्टिकोणों से एक मनुष्य/व्यक्ति को जानने का प्रयास किया है और हमने पाया कि मनुष्य एवं अन्य जीवों में कोई भेद नहीं है तथा व्यक्ति समाज को चलाने के लिए की गयी एक अवधारणा मात्र है। मुझे उम्मीद है कि आप व्यक्ति की मिथ्या एवं स्वयं के सत्य को जान पाए होंगे। **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। **संदर्भ:** १. नाद विज्ञान: बोधि वार्ता यू ट्यूब चैनल २. तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (तृतीय एवं चतुर्थ भाग), नोशन प्रेस. ३. तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (प्रथम एवं द्वितीय भाग), नोशन प्रेस. ४. https://en.wikipedia.org/wiki/Individual ५. https://en.wikipedia.org/wiki/Person संपर्क सूत्र.. साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल:swaprakash.gyan@gmail.com
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions