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सर्वांगयोग - एक मनन और प्रयोग
रमाकांत शर्मा
*सर्वांग योग - एक मनन* अपने सभी उपलब्ध विशिष्ट अंगों से /साधनों से अस्तित्त्व/परमात्मा /ब्रह्म के साथ एकाकार होना, अनुनाद में रहना, योग में रहने का भाव होना ही सर्वांग योग है। भगवान मायानन्द जी नें 12 वर्ष के कठोर तपस्या से इसको सिद्ध किया था, लगभग 100 वर्ष पूर्व। आइए इस विज्ञान को समझते हैं। इसके अनुसार एक सनातन शिष्य /मुमुक्षु गुरुदेव के समक्ष दण्डवत प्रणाम करते हुए प्रश्न करता है कि मैंने समस्त श्रुति, स्मृति, शास्त्र एवं पुराण आदि पढ़ लिये है, उनमें वर्णित कर्मों को यथा विधान कर के जान लिया है। तो भी मेरे मन की चंचलता नहीं मिटती। मुझे इसका स्थायी समाधान कैसे मिलेगा? श्रुतियों में तत्वमसि महावाक्य कहा है उसमें तत् क्या है? त्वं क्या है? ये कहाँ रहता है? असि क्या है? ये सब ध्यान में नहीं बैठता। इनको कैसे देखना है और इनको देखने वाला कौन है? ये सब जानना चाहता हूं, कृपया यथार्थ रुप से मुझे बताइए। गुरुदेव ऐसे प्रश्न सुनकर अति प्रसन्न होते हैं और अत्यंत प्रेम पूर्वक इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि स्वरुप के साक्षात्कार और दृढ़ निश्चय के लक्ष्य के लिए जो सिद्धांत है, वो कहता हूं। यही विज्ञान की रीति है, इसको जानते ही तत्काल दृढ़ निश्चय होगा, जड़ चेतन की गांठ भी छूटेगी। भ्रम जाल से मुक्ति मिलेगी। इस में प्रयोग के लिए अस्तित्व के एक लघु भाग को नमूने के रूप में कुछ बतासों (अधिष्ठान) को सामने रखें। संक्षेप में वो वर्णन करते हैं वस्तु बतासे का रूप देखो, जो देखा वो क्षर है, इसके मध्य में जो मिठास भरी हुई है वो अक्षर ब्रह्म है, नाम शक्कर पुरुषोत्तम भाव है। प्रेम का ये स्थान ध्यान के लिए वर्णन कर दिया। अपने मूल स्वरूप का यथार्थ बोध होने के लिए वस्तु में स्वभाव ने कल्पना करके त्रिपुटी (क्षर - अक्षर - पुरुषोत्तम) देखी। इंद्रियों से दिखने वाला क्षर, उसको तत् कहा है, त्वं अक्षर है और असि निश्चय नाम है। इस प्रकार तत्वमसि का भेद बता दिया। यहां ज्ञान पूर्ण हो गया। परंतु और समझाने के लिए गुरुदेव विस्तार में बताते हैं कि अब अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों में से एक नेत्र से देखो को कि ये वस्तु क्या है? बताओ। शिष्य ने बताया कि ये रुप दिख रहा है। यहां गुरुदेव ने कहा इसी प्रकार ये रूप का दिखना इस बतासे से लेकर मेरे और तेरे शरीर समेत सम्पूर्ण विश्व/अस्तित्व में भरा हुआ है। ये रूप /दृश्य अग्नि तत्व का गुण /प्रतीक है। आगे गुरुदेव कहते हैं अब दूसरी ज्ञानेंद्रिय साधन हाथ (त्वचा) से छूकर पता लगाओ वस्तु /प्रतिरूप क्या है। त्वचा से ज्ञात हुआ कि ये स्पर्श मात्र है। गुरुदेव कहते हैं इसी प्रकार से ये स्पर्श भाव संपूर्ण विश्व/अस्तित्व में भरा हुआ है। ये स्पर्श वायु तत्व का गुण है। इससे वायु तत्व की पुष्टि हुई। गुरुदेव पुनः शिष्य से कहते हैं अब दो बतासों को आपस में टकरा कर अपनी तीसरी ज्ञानेन्द्रिय कान से सुनो वस्तु क्या है। कान से ज्ञात हुआ कि ये एक शब्द है। गुरुदेव कहते हैं यही शब्द संपूर्ण विश्व रूप /अस्तित्व में भरा हुआ है। जो आकाश तत्व का गुण है। अब गुरुदेव कहते हैं कि मुंह में जिह्वा चौथी ज्ञानेन्द्रिय से पता करो कि वस्तु क्या है, उसके अनुसार पता चला कि स्वाद है, जो कि रस भाव है। अर्थात अस्तित्व का अनुभव रसभाव से हुआ। ये जल तत्व का गुण /प्रतीक है। इसी प्रकार पांचवी ज्ञानेन्द्रिय नासिका से वही एक अस्तित्व गंध भाव से अनुभूत हुआ जो पृथ्वी तत्व का गुण /प्रतीक है। ये स्थिति बड़ी विचित्र हो गयी कि वही एक अस्तित्व पांच ज्ञानेन्द्रियों से अलग अलग पांच तत्व की पांच तन्मात्राओं के रूप /भाव में अनुभूत हुआ। गुरुदेव शिष्य से कहते हैं अस्तित्व के बारे में पांचो साधन अलग अलग बात कर रहे हैं। अतः अभी संशय बना हुआ है। निश्चय नहीं हुआ। यद्यपि प्रकृति के जड़ भाग का साक्षात्कार हो गया और एक ही अस्तित्व को पांच ज्ञानेन्द्रियों नें पांच तत्वों के रूप में देखा। गुरुदेव की आज्ञा अनुसार अब संशय हटाने के लिए अगला सशक्त और सूक्ष्म साधन मन द्वारा पता करते हैं। मन ने प्रकृति के क्रियाशील भाग तीन गुणों का पता लगाया। जो ज्ञानेन्द्रियों से नहीं हो सकता। मन ने तीन प्रयोग किये बतासे को सीधा खाया तो प्यास लगी ये तमोगुण (प्रारम्भ एवं अंत विपरीत), पानी में घोल कर ग्रहण किया तो रजो गुण (प्रारम्भ में सुखदायी परन्तु अंत विपरीत), घी के साथ लेने से उसका प्रभाव सतोगुण के रूप में (प्रारंभ एवं अंत दोनों परिणाम सुखदायी) हुआ। अस्तित्व /परमात्मा का ये अष्टांग प्रकृति भाग क्षरपुरुष अथवा क्षरब्रह्म कहलाता है अर्थात इसका क्षरण होता है, ये परिवर्तनशील है और अनुभव में है। यहाँ तक गुरुदेव साधक/शिष्य को उसकी ही बुद्धि द्वारा प्रयोग कर के विराट रूप का साक्षात्कार करवाते हैं जो अखण्ड मंडलाकार अर्थात वृत्तीय है। गुरुदेव कहते हैं कि यही तत्पद है, विराट, विश्वरूप, प्रकट जगत, विश्व चित्त, अष्टधा प्रकृति है, और फिर इन आठों का एक साथ लय होकर गुणसाम्यावस्था नौवां मिलकर जिसके दर्शन सबको निरंतर होते हैं परन्तु वे जानते नहीं। अब गुरुदेव आगे अक्षर/आत्मन/आत्मा को जानने की सुरीति बताते हैं कि मेरी बात को ध्यान से, श्रद्धा से, सात्विक हृदय से ग्रहण करना, ये बुद्धि के बल से (गुरु प्रदत्त) पता चलेगी। संपूर्ण विश्व की लीला जिस क्षर में सदैव हो रही है, उसमें अस्ति-भाति-प्रियत्व रूप से उपस्थित, व्याप्त, जो वेदों के नेति-नेति (सब कुछ नकारने) के बाद का शेष है, वही अक्षर रूप से उपलब्ध है, उसी का भास सर्वत्र दृश्यमात्र में हो रहा है। अधिष्ठान बतासे में जो मिठास, प्रियत्व रूप में भरी हुई है, वही आत्मन/आत्मा निराकार है। मिठास में यदि इच्छा हुई नेत्रों से अपना स्वरूप देखने की, तो तीनों कालों में उसे नहीं दिखेगा। लेकिन आँखों से देखने की वृत्ति होते ही उसको दिखेगा कि ये सारा विश्व ही उसका स्वरुप है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और तीन गुण, इन आठों का लय स्थान जिसको साम्यावस्था कहते हैं, उसी में जो स्थायी, अभिन्न गर्भ रूप से रहती है, ज्ञानियों को साक्षी भाव से भासती है, उस आत्मन /आत्मा को ईश्वर भी कहते हैं और ये अक्षर रूप से स्वरूप में विद्यमान है। ये नित्य, शुद्ध, अज(अजन्मा), स्थायी है, साक्षी भाव से स्थित है, सर्व शक्ति इसी में है, ज्ञानी का ध्येय यही है। श्रुतियों में कर्मारंभ जताने के लिए इसको ॐ संज्ञा दी गई है। यहाँ पर अस्तित्व /परमात्मा /ब्रह्म के अक्षर रूप का वर्णन हो गया। जिसका ज्ञान गुरुदेव प्रदत्त बुद्धि से हुआ। इसका भान ज्ञान के पूर्व शिष्य बुद्धि को नहीं हो सकता क्योंकि ये निराकार, निर्गुण है। इसके पश्चात गुरुदेव आगे बढ़ते हैं कि अपने छः साधनों से (५ ज्ञानेंद्रियों , मन, से एक ही अस्तित्व के ९ प्रकार ( क्षर के आठ अंग एवं नौवां इन आठो अंगों का संयुक्त स्वरूप गुणसाम्या ) एवं सातवें साधन बुद्धि से उसी अस्तित्व में एक अक्षर भाव, इस प्रकार कुल मिलाकर १०भाव दिखे। अतः अब स्वयं जाकर देखना पड़ेगा कि यथार्थ क्या है। स्वयं जाकर देखा जहां बुद्धि भी लय हो गई। यहां नाम है यही अपना सद्-रूप अस्तित्व /पुरुषोत्तम/ब्रह्म /परमात्मा भाव है। ये सद्गुरु की महिमा अपने स्वबोध के लिए कही है। अष्टांग क्षर साकार है, और मिठास अक्षर में कोई रूप नहीं है। नाम शक्कर में /पुरुषोत्तम भाव में ये दोनों क्षर अक्षर की भावना छूट गयी। नाम शक्कर /अस्तित्व ही दृश्य साकार भी है, निराकार भी वही है, इन दोनों का धाम भी वही है, उसको सर्व कहा गया है। एक ही वस्तु अस्तित्व /ब्रह्म/पुरुषोत्तम में तीनों भाव कल्पित हैं। वेदों में निज रूप समझाने के लिए कल्पना की गई है। यहाँ विचार करने योग्य है कि बतासे / शक्कर में से मिठास अलग करलें रूप वहीं रह जाय, या रुप अलग कर लें मिठास वहीं रह जाय, ऐसा हो सकता है क्या? कदापि नहीं। इस प्रकार बुद्धि में स्थित हो जाय कि मैं (अस्तित्व) ही संपूर्ण विश्व हूँ, ये अकंप धारणा बैठते ही यहां द्वैत विलुप्त हो कर समाधिस्थ हो गया। समाधि की ये अवस्था अखण्ड रहने लगती है, यही अनन्यता है और यहाँ वेदों का सार भी प्राप्त हो गया। गुरुदेव अब अन्तिम अध्याय पर आ गये। वो कहते हैं कि यहां समर्पण हो गया, तत्पश्चात अनन्य भक्ति का बीज बढ़ने लग गया, विश्व में वो सदैव अकर्म रुप से दिख रहा है। यही श्रेष्ठ पराभक्ती है और मुक्तों का निजधाम है। संपूर्ण वृत्तियों का यही एक लय स्थान है। इसी में अकंप स्थित होने से एक रस हो जाता है, उसे जन्म मृत्यु नहीं होते। ये स्थायी सर्वांगयोग दिव्यचक्षु का बीज है, इस का जो पाठ करते हैं और चित्त में धारण कर के अपने कर्म करते हैं।उनका सदा योगक्षेम होगा। अंत में उनको वेदों में वर्णित श्रेष्ठ पद प्राप्त होगा।भगवान मायानंद जी कहते हैं कि मैने अपना निज रूप लखा दिया। ये रूप जहां, जिसकी बुद्धि में स्थित हो जाय वही सद्गुरु स्थान है। यहाँ सर्वांगयोग संपूर्ण हुआ। ये सन १९२३ में रचित हुआ। सर्वांग योग पर ये मनन किया गया जिससे ये पूर्णतया एवं आसानी से समझ आ सके।
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