Wise Words
ज्ञान सत्य है या मिथ्या?
आदित्य मिश्रा
तो मूल बात से आरंभ करते हैं कि अज्ञेयता है, न कुछ सत्य है और न कुछ मिथ्या। लेकिन इस अज्ञेयता में यह भी तथ्य है, कि जीव है और उसके माध्यम से जानना भी हो रहा है अन्यथा आध्यात्म की बात कौन और कैसे करता। अद्वैत है! "दो नहीं है" प्रमाणित हुआ है, एक पर निर्णायक बात नहीं हो सकती। इसीलिए सत्य और मिथ्या को स्पष्ट करने, साथ ही अभेदता बताने के लिए भिन्न-भिन्न संकेत किए जाते हैं। यही संकेत नीचे लिखे कथनों में भी दिखाई देते हैं। कुछ कथन "ज्ञान होता है ज्ञानी नहीं", "अनुभवकर्ता ज्ञानस्वरूप है" फिर यह भी कि "अनुभवकर्ता ज्ञान अज्ञान से परे अबोध है" वहीं दूसरे पक्ष में : "ज्ञान स्मृति अर्थात चित्त में होता है", "व्यक्ति को ज्ञान नहीं होता", "ज्ञान नहीं होता अज्ञान का नाश होता है" तो! जानने और ज्ञान से संबंधित इन कथनों में विरोधाभास प्रतीत होता है, यद्यपि विरोधाभास है नहीं। मूल में अज्ञेयता है तो अज्ञेयता के विषय में जब भी वाणी से कुछ व्यक्त होता है तो एक धारणा निर्मित होती है। उस धारणा को तोडने के लिए दूसरी धारणा दी जाती है, जिससे कि दृष्टि शब्द से परे जा सके लेकिन बुद्धि का स्वभाव है, उलझना! वह तब तक उलझती है जब तक कि गिर नहीं जाती। जानना अर्थात क्या? जानना क्रिया है जिसमें कर्ता नहीं होता, जानने की क्रिया स्वाभाविक होती है। यह क्षमता है, इंद्रियों की सामूहिकता का परिणाम अर्थात दृष्टि है। तो यह अविभाजित जानना ही अनुभव क्रिया, सहज ज्ञान, सहज समाधि, अविनाशी ज्ञान और विद्या है। यह अविभाजित है अतः अपरिवर्तनीय है। अब ज्ञान क्या है? ज्ञान अनुभवों का संयोजन है, जो इंद्रिय बुद्धि के माध्यम से स्मृति में संचित होता है। यह समझ है जो शब्दों के माध्यम से व्यक्त होती है, यह क्रिया नहीं कर्म है क्योंकि इसमें कर्ता है, मैं है। अत: ये व्यावहारिक ज्ञान, अज्ञान, विनाशी ज्ञान या अविद्या है। यह विभाजन है और विभाजन ही परिवर्तन है। यहां एक प्रश्न और उपस्थित होता है कि कहा सुना मान लेना अज्ञान होता है, अपरोक्ष अनुभव से जांचा हुआ ज्ञान होता है। तो! इसे भी समझते हैं। अपरोक्ष अनुभव अर्थात क्या? ज्ञान के तीन आधार हैं : परोक्ष सुना हुआ है। प्रत्यक्ष आंखों देखा है, प्रत्यक्ष से हम व्यावहारिक सत्य, या माया को जान सकते हैं। न्याय व्यवस्था में प्रत्यक्ष को ही सत्य का प्रमाण माना जाता है। अध्यात्म में प्रत्यक्ष नहीं अपरोक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है। अपरोक्ष न परोक्ष है और न प्रत्यक्ष है अर्थात स्मृति जनित इंद्रिय बुद्धि का ज्ञान नहीं बल्कि दर्शन है। तो अपरोक्ष अनुभव से आशय है, वह जिसमें देखने वाला नहीं है। इसीलिए अपरोक्ष और अपरोक्ष आधारित तर्क को शब्दों में ढाल कर मात्र संकेत किया जाता है। जानता कौन है? सर्वव्यापक चेतना ही अनुभव के रूप में प्रकट है, जिसका अनुभव इंद्रिय बुद्धि से नहीं हो सकता, इसीलिए कहा गया है कि अनुभव अनुभवकर्ता को होते हैं व्यक्ति को नहीं। तो समग्रता अर्थात स्वयं को जानने वाला अस्तित्व स्वयं है। अस्तित्व का तत्व (अनुभवकर्ता) विशुद्ध चेतना है, स्वयं ज्ञान है इसीलिए उसे ज्ञानस्वरूप कहा जाता है। अब प्रश्न उपस्थित होगा कि "अनुभवकर्ता ज्ञान अज्ञान से परे अबोध है", तो इस कथन का अभिप्राय यह है कि अनुभवकर्ता अविभाजित जानता है, उसमें ज्ञान- अज्ञान का भेद नहीं है। ज्ञान-अज्ञान विभाजन से, मैं से व्यक्त होता है, जिसका वह निर्लिप्त दृष्टा है। जीव का जानना अर्थात क्या? जीव! इंद्रियों का जोड मात्र है। जीव केवल पांच ज्ञानेंद्रियों के ज्ञान से नहीं, शरीर में स्थित करोडों कोशिकाओं के ज्ञानपूर्ण कार्य से संचालित है। इसका अर्थ क्या है? कि कण कण चेतना है, मूल में चेतना ही कार्य कर रही है अर्थात तत्व (अनुभवकर्ता) जो कि विशुद्ध चेतना है उसकी क्षमता से ही जीव अर्थात चित्त जान रहा है। तो! अनुभवकर्ता और चित्त के जानने में अंतर क्या है? अंतर अविभाजन और विभाजन का है। सागर जल रूपी तत्व का जानना केंद्र के बिना जानना है और लहर रूपी जीव का जानना केंद्र के साथ। लहर सागर से भिन्न है नहीं लेकिन उसे सागर होने का पता नहीं है तो वह सागर से भिन्न होने की कल्पना में होती है, अन्य लहरों से तुलना कर काल्पनिक जानती है। जब लहर सागर में मिटेगी तो सागर की तरह जानेगी। ज्ञान और आत्मज्ञान ज्ञान का अर्थ जाग जाना है "ज्ञानं जाग्रत्"। शरीर, मन, जगत को सत्य मानकर जीना निद्रा की अवस्था है, बेहोशी है। इस चित्र रूपी सिनेमा की वास्तविकता जानते ही आप चेतन हो जाते हैं, आपको बोध होता है कि यह सत्य नहीं, सिनेमा था और घर आ जाते हैं। इस जागृति में जगत, दृष्टि भ्रम साबित होता है और यह बोध होता है कि चैतन्य की चेतना ही अनुभव कर रही है और अनुभव हो रही है। इस एकत्व बोध में आप क्या हैं यह नहीं जान सकते क्योंकि दूसरा होता नहीं। यह अविभाजित जानना ही आत्मज्ञान है, अनुभवक्रिया है, सहज समाधि है। होना और जानना आप किसी भी व्यक्ति से प्रश्न करें कि "क्या आप हैं"? तो वह बिना विचार किए कहेगा, हां! तो सभी को अपने होने का बोध होता है लेकिन, वह क्या है? इसका उसे ज्ञान नहीं हो सकता। वह क्या नहीं है इसका ज्ञान होते ही वह स्वयं के ज्ञान में स्थित होता है। जिस तरह कछुआ जब अपना सिर बाहर निकालता है तब जगत प्रकट होता है और जब सिर को अंदर कर लेता है तब जगत के चित्र नहीं केवल वह होता है। एकत्व में चित्त चेतना में समाहित हो जाता है और आप जानते हुए भी कुछ नहीं जानते क्योंकि दूसरा नहीं होता। एकत्व में जानने की क्षमता का अंत नहीं होता, बुद्धि का विभाजित जानना थम जाता है। तो जानना होने में ही निहित है। इसीलिए द्वैत नहीं अद्वैत है। अंतिम बात सब कुछ विशुद्ध चेतना अर्थात तत्व ही है। चेतना अविभाजित है लेकिन वह कोई भी रूप ले सकती है। तो आपकी जो धारणा होती है उसी पर आपका ध्यान (चेतना) होता है, इसलिए धारणा वही रूप ले लेती है। इस तरह आप जगत में नहीं आप में जगत होता है, जिसे आप अपनी धारणा से निर्मित करते हैं। तो आप ही जानने की स्वाभाविक क्रिया में ज्ञानस्वरूप होते हैं और विभाजित जानने में माया होते हैं, माया होकर माया के अनंत चित्रों की भिन्न-भिन्न कल्पनाओं में खो जाते हैं। तो! यदि आपकी दृष्टि दर्शन में है, तो स्मृति के ज्ञान को ज्ञान कहा जाय या अज्ञान, व्यावहारिक सत्य को सत्य कहा जाय या विसत्य, आपको पता होता है कि संकेत किधर किया जा रहा है। इसी तरह आत्मज्ञान को कोई बोध कहे या होना कहे, या फिर मेरा न होना कहे कोई अंतर नहीं पडता क्योंकि आपके लिए शब्द बाधा नहीं होते, आपका ध्यान साधन पर नहीं गंतव्य पर होता है।
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions