Wise Words
मूल ज्ञान
आलम
मूल ज्ञान केवल इतना सा है कि मैं यह मन नहीं हूं, मैं शरीर भी नहीं हूं, मैं कोई विचार, भावना, संवेदना भी नहीं हूँ , मैं इन सब के परे हूं। यह सब आने जाने वाले विचार हैं। मैं सदैव हूं, ना मेरा कभी अंत हुआ है, ना मेरी कभी शुरुआत हुई है। मैं निरंतर हूं। मैं कोई अनुभव भी नहीं हूं सभी आने जाने वाले अनुभवों का दृष्टा हूं। मैं काल के परे हूं। लगभग सभी आध्यात्मिक ग्रंथों में, अच्छी पुस्तकों में केवल यही मूल ज्ञान है और यही जानने योग्य है। इसके अलावा जो भी कुछ है वह बस इस अनुभव की व्याख्या मात्र है । सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक है अष्टावक्र गीता । उसमें भी शुरुआत में जनक जी के संवाद ने हम सुनते हैं कि शुरुआत में यही मूल ज्ञान उनके गुरु उन्हें देते हैं उसके बाद जो भी संवाद है वह केवल जनक जी के अनुभवों की व्याख्या मात्र है। हमें एक लाख पुस्तक पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है जिन्होंने भी जाना है वो केवल मूल ज्ञान ही है। हम इस मूल ज्ञान को किस तरह से जान सकते हैं यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। हम अपनी सुविधा के अनुसार जैसा हमें अनुकूल लगे उसी प्रकार से इस मुल ज्ञान को पहचानने की और स्वयं से जानने की चेष्टा कर सकते हैं। हमें हजार/ लाख किताबें पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस मूल ज्ञान को कहीं से भी जान लो और इस मूल ज्ञान में, अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहने का अभ्यास कर लो, जिसे हम साक्षीभाव या चेतना भी कहते हैं। धीरे-धीरे चेतना विकसित होने लगेगी और तुम अनुभवकर्ता के स्वरूप में स्थित होने लगोगे। जब उपर्युक्त मूल ज्ञान को समझने में कोई साधक स्वयं को समर्थ नहीं पाता है तो वह स्वयं से उत्तम किसी अन्य से सहायता याचना कर सकता है। वह अन्य व्यक्ति कोई गुरु व्यक्ति, गुरु क्षेत्र अथवा ईष्ट हो सकता है।
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