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अध्यात्मिक और सांसारिक जीवन : सीमा और सन्तुलन
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://as2.ftcdn.net/v2/jpg/02/81/97/77/1000_F_281977795_OGTEk1X0LfYGiNGefVYWA64DMl1UXPom.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> # सार अध्यात्म व्यक्ति के उन्मुक्ति और विकास के पंख है । आध्यात्मिक प्रगति जीव के सार्वभौमिक अधिकार है । सांसारिक जीवन के कोई भी ज़िम्मेदारी और बाध्यता इस हक़ को नहीं रोक सकता । जो जीवन मुक्त हैं उनको सांसारिक बन्धन छु नहीं सकता, स्वयं मुक्त हो कर दूसरों को भी मुक्ति दिलाना उनका जीवन लक्ष्य है । जो सांसारिक है उनके लिए मुमुक्षत्व एवं सांसारिक वासना का मात्रा और प्रबलता ही आध्यात्मिक, सांसारिक या दोनों में सन्तुलित अग्रसरता एवं सफलता के लिए ज़िम्मेदार होते हैं । माया का स्वभाव ही हमेशा भ्रमित करना है । जीव मिथ्या और असत्य/विसत्य में जीता है । इसीलिए सामान्य व्यक्ति का अध्यात्म में कम और सांसारिकता में अधिक आकर्षण है । अति सरल अपना स्वभाव को भूलकर जटिल सांसारिक बन्धनों में उलझता जाता है । इसके कई कारण हैं, सांसारिक लिप्तता, मार्ग विहीनता, आलस्य, अस्तव्यस्त दिनचर्या, दरिद्रता आरोपित इच्छाएँ, लोभ, आसक्ति, संग्रह वृत्ति, भोग वृत्ति, ग़लत संस्कार, कर्मबन्धन, भय और मोह आदि मूल कारण हैं । सभी कारणों का मूल अज्ञान ही है । इन सभी अवरोधकों सामना करते हुए सफल एवं सन्तुलित यात्रा के लिए उपाय भी है । गुणों का विकास, सही मार्ग और सही गुरुका पहिचान, ज्ञान और चेतना, जागरूकता, योजनाबद्ध और व्यवस्थित जीवनशैली, अनासक्ति, वैराग्य, त्याग, सही कर्म, निडरता और प्रेम आदि मुख्य हैं । यहाँ पर यही विषय में मेरे समझ और अनुभव के आधार पर विश्लेषण करके उल्लेख करने का प्रयास कर रही हूँ । # १ सांसारिक लिप्तता, मार्ग विहीनता अधिकांश सांसारिक व्यक्ति अज्ञान के आवरण में ही लुप्त हैं, संसार रूपी पिंजरे में बन्द हैं । समाज द्वारा आरोपित मतारोपण, मान्यता, धारणा, भ्रम, मिथ्यारोपण, व्यक्तिगत दम्भ, कुसंगति, मंदबुद्धि, अशिक्षा, गुरुवीहीनता आदि के कारण उनको वही पिंजरा पसंद है l रक्षण, भक्षण और प्रजनन् के सरल एवं स्वभाविक प्रकृयाको जटिल और क्लिष्ट बना रहे हैं । स्वयं का पहचान ना होना, जगत का तत्व सत्य एवं वास्तविकता को पहचान ना होना, जीवन के लक्ष्य पता नहीं चलना आदि इसके कारण है । हिंसा, दुःख-कष्ट, विफलता, निर्धनता आशंका, भ्रम, हिनभावना, विवाद, भय, क्रोध, जिद्दीपना, हिंसक मनस्थिती, अपमानजनक व्यवहार, सांप्रदायिक भावना, अंधविश्वास, दुर्व्यसन आदि गलत संस्कार और नीच व्यवहार हो जाते हैं । माया को लीला ही पसन्द है, अज्ञान में ही माया का खेल बिना अवरोध के चलता है । मायाजाल के कारण ही अधिकांश व्यक्ति विषय-वासना और सांसारिकता में ही लिप्त रहते हैं, अनेक कर्मबन्धनों में फँसते चले जाते हैं और आध्यात्मिक मार्ग के तरफ़ ध्यान ही नहीं जाता । <br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://t4.ftcdn.net/jpg/05/60/52/31/240_F_560523152_bor4SocgKczBnzKq7Th5e9Wb617iV84T.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> # खोज, सही मार्ग और सही गुरुका पहचान, गुणों का विकास, ज्ञान और चेतना जब किसी व्यक्ति में स्वयं को जानने कि इच्छा होती है तब वो सही मार्ग और गुरु के खोज में लग जाता है । मुमुक्षा से आध्यात्मिक अग्रसरता, अग्रसरता से ज्ञान और गुरू मिलना संभव है । यहीं से आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ होता है । स्वयं के खोज के लिए एक सही दिशा मिलता है । जब तक स्वयं का अस्तित्वको नहीं जाना जाता, अज्ञेयता के स्तर तक नहीं पहुँचा जाता तब तक खोज जारी रहता है । उचित मार्गदर्शन देनेवाला सद्गुरू होना अति आवश्यक है । गुरु अपनी बुद्धि, ज्ञान और कुशलता से गुरुक्षेत्र में निहित ज्ञानका भण्डार को सही ढंग से संयोजन और व्यवस्थापन करके प्रत्यक्षीकरण करता है । सभी अज्ञान हटाकर व्यक्ति को योग्य बना देता है । गुरु पारसमणि समान होता है, गुरु से ही ज्ञान वृत्ति विकसित हो जाता है । यदि पूर्वजन्म के ज्ञान साधना हो तो आध्यात्मिक वृत्ति जन्म से ही प्रकट होता है, सही मार्ग और गुरु मिल जाने से तेज़ी से प्रगति होने लगता है । ज्ञान से चेतना आ जाता है, सांसारिक और आध्यात्मिक प्रगति तीब्र और संतुलित हो जाता है । एक अच्छा और सच्चा गुरु पाने के लिए साधक भी सच्चा और गुणयुक्त होना चाहिए । जिज्ञासा, मुक्ति के इच्छा, बुद्धि विवेक, तार्किकता, आदि गुण आध्यात्मिक विकास के पूर्वशर्त है । सहनशीलता, अनुशासन, पवित्रता, सरग्राहिता, दृढ़ निश्चय, विनम्रता, नैतिकता, सदाचार, सत्यनिष्ठा, स्वतंत्रता, धैर्यता, समर्पण जैसे गुण विकसित करना चाहिए l सम, दम, तितिक्षा, त्याग, अनासक्ति जैसे अन्य गुण होना भी बहुत ज़रूरी है । स्वस्थ, आज्ञाकारी, ईमानदार, समलोचक, इन्द्रियों को नियंत्रण करनेवाला, निडर, श्रद्धालू, संचार कौशल, लेखन एवं वाचन कौशलयुक्त भी होना चाहिए । नियमित श्रवण, मनन, निदिध्यासन, सत्संग का उपयोग, ध्यान और चेतना का प्रयोग आदि द्वारा आध्यात्मिक वृत्ति स्थापित हो जाता है । व्यक्ति में कुछ गुण जन्म सिद्ध होता हैं और ऐसे गुण स्वाभाव से सम्बंधित होतें हैं l ज्ञान, सीप एवं क्षमता संबंधी गुणोंको प्रशिक्षण एवं अभ्यास के द्वारा विकास किया जा सकता है l ज्ञान, बुद्धि और गुणों का आपसी अंतरसम्बन्ध हैं l एक को विकास होते ही दूसरे अपने आप विकास होते हैं l सांसारिक व्यक्ति के मुमुक्षा, रुचि और लगाव ही अज्ञान हटाकर ज्ञान और चेतना में स्थित होने में प्रमुख ज़िम्मेदार है । उत्तरजीविता के लिए आवश्यक न्यूनतम रक्षण, भक्षण और प्रजनन का ज्ञान सभी जीवों को होता है । मनुष्य में ज्ञानका स्तर उन्तन है । विकासक्रम के आधारमें ज्ञान का स्तर बढ़ता जाता है । ज्ञान से ही मनुष्यका उत्तरजीविता और मुक्तिका मार्ग सरल है l व्यवस्थित खानपान, संचार, प्रजनन आदि प्रक्रिया के लिए ज्ञान उपयोगी है l ज्ञान से ही हर विषय पर तार्किक और सुसंगत विश्लेषण करके सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है l सत्य- असत्य, सही -गलत, नैतिक -अनैतिक आदि का भेद पहचान होता है l यहीं से सांसारिक जीवन को सरल और सात्विक बनाया जा सकता है और सही आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति तेज़ी से हो जाता है । # २ आलस्य या निष्क्रियता, अस्तव्यस्त दिनचर्या और दरिद्रता आलस्यका कारण व्यक्ति में ज्ञान के लिए जागरुकता, तत्परता और क्रियाशीलता नहीं होता । बिना जागरुकता ज्ञान और कर्म के प्रति अग्रसर होना अर्थहीन है । मनुष्य निर्मित जटिल उत्तरजीविता, समसामयिक परिवेश, पर्यावरण, घटना, रोग व्याधी आदि के कारण व्यक्ति के आवश्यकताएं असीमित है । रोजगारी के न्यून अवसर, न्यून आर्थिक गतिविधि, आर्थिक मंदी आदि के कारण उत्तरजीविता कष्टकर है । उपर से लोभ लालच, मोह, आसक्ति हिंसा, असुरक्षा, अशांति, राजनैतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, दुराचार, अनैतिकता, असमान वितरण, विभेद, अन्याय, अत्याचार, शोषण, दमन, सामाजिक विचलन, विखंडन अनुशासनहीनाता, सांस्कृतिक उच्छृङ्खलता आदि विकृति के कारण ग़रीबी या दरिद्रता बढ़ता गया है और दिनचर्या अस्तव्यस्त बनता गया है । बेचैनी, भड़काव, अस्थिर मनस्थिति जैसे अनेक नकारात्मक और बुरे प्रभाव पड़े हुए हैं । न्यूनतम आधारभूत आवश्यकता पूरा न होने पर परिवार और समाज में कलह, झगड़ा, वैमनस्यता, शत्रुता, व्यभिचार, आदि बढ़ जाता है । व्यक्ति को कुपोषण, दुर्बलता, अशक्तता, अनेक रोग व्याधि आदि ने घेर लेता है । व्यक्ति का जीवन कष्ट कर होता है, और असामयिक मृत्यु वरण करने के लिए विवश हो सकता है । यही दुश्चक्र चलता रहता है । व्यक्ति का ध्यान जीने में ही केन्द्रित हो जाता है । जब उत्तरजीविता ही अस्तव्यस्त हो तो आध्यात्मिक विकास के तरफ़ किसीका ध्यान नहीं जाता । मुक्ति तो दूर अनेक जन्मों तक सांसारिक दलदल में ही भटकता रहता है । <br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://t3.ftcdn.net/jpg/04/68/81/14/240_F_468811460_rCgikyrqK7JenSpmawizwa6Vbp6n4f4Y.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> # जागरूकता या कर्मशीलता, योजनाबद्ध व्यवस्थित जीवनशैली और समृद्धि नाद में चलने वाला प्रक्रिया ही कर्म है और जीव इसी का परिणाम है । इसीलिए व्यक्ति कर्म के नियम से मुक्त नहीं है । व्यवहारिक स्तर पर उत्तरजीविता सरल बनाने के लिए, उत्तरदायित्व निभाने के लिए, इच्छा पूर्तिके लिए कर्म होते है । जो भी असल या ख़राब कार्य होते हैं, उसका कर्मफल पुनर्जन्म या मुक्ति प्राप्त करने के लिए कारक है । कर्ता कोई नहीं और कर्म किसी का नहीं है; लेकिन समाज में व्यवस्था एवं अनुशासन क़ायम रखने के लिए, कर्मफल और उत्तरदायित्व लेने के लिए भी कर्म और कर्ता का संबन्ध आवश्यक होता है । सांसारिक और आध्यात्मिक अग्रसरता का पहला क़दम कर्म ही है । अच्छा या बुरा कर्म ही अपना गन्तव्य तय करता है । क्रियाशीलता और जागरूकता के लिए उचित संस्कार और व्यवस्थित जीवनशैली होना आवश्यक है । चेतना में जो भी कार्य होंगें, सार्थक और सफल होंगें । सार्थक कार्य का अर्थपूर्ण प्रतिफल आता है । आशक्ति छूट जाने से व्यक्ति न्यूनतावादी होता है । सीमित आवश्यकता पूरा करने में अधिक कठिनाई नहीं होता । वाणी, बुद्धि, विचार, चेतना शुद्ध हो जाता है । शुद्धिकरण से आस पास के सभी वातावरण मैत्रीपूर्ण होते हैं । सर्वत्र आय आर्जन, रोजगारी आदि उत्तरजीविता के आवश्यक अवसर एवं रास्ते खुलने लगते हैं और निर्धनता से सहज मुक्ति मिल जाता है । कर्म आपने आप ही होता है, लेकिन जो होता है, उसमें चेतना के प्रकाश ज़रूर डालना चाहिए । जो कार्य चेतना के प्रकाश में होतें है, वो कार्य स्वत: नियन्त्रित होतें है, अनैतिक कार्य नहीं होता । यदि पुनर्जन्म अन्य जीव के रुपमें हुआ तो अच्छा, बुरा, नैतिक, अनैतिक आदिका चेत नही रहता । ज्ञान और मुक्ति के लिए मनुष्य जन्म ही उपयोगी है । इसीको ध्यान में रखते हुए इस जन्म के कर्म द्वारा अगले जन्मका प्रारब्ध निर्धारण करना चाहिए । जो कर्म अपने और दूसरों का मुक्ति के लिए हो, स्वच्छन्द और स्वतन्त्र हो, आध्यात्मिक उद्देश्य हो, सामुहिक आध्यात्मिक लाभ हो, नैतिक और अच्छी इच्छा से प्रेरित हो, सांसारिक कर्म बन्धन बनाने वाला न हो इसप्रकार के कर्म चुनकर करना चाहिए । भोग प्रकृतिका नियम है, जीव जो भी कर्म करता है, उसका फल उसे ही भोगना पड़ता है । इच्छा, वासना और कर्म का मात्रा, तिव्रता एवं व्यग्रता के अनुसार प्रकृति के नियमद्वारा उचित समय आने पर उसका फल आता है । शिक्षादीक्षा और रोजगारी कब तक हासिल करना है ? शादी कब करना है ? सन्तानोत्पादन और लालन पालन कब तक और कैसे करना है ? कब तक सांसारिकता से मुक्त होकर स्वयं के खोज में आगे बढ़ना है ? ये सब योजनाबद्ध और सुनिश्चित होना चाहिए । उचित शिक्षादीक्षा ग्रहण करके अपना जो प्रारब्ध है, परिवार एवं समाज के प्रति कर्तव्य और जीम्मेदारीयाँ है, वो समय में पूरा करना चाहिए । भुखे पेट भजन नहीं होता, इसलिए उचित और नैतिक कर्म चुनकर उत्तरजीविता के लिए आवश्यक व्यवस्था सही समय में कर लेना चाहिए । स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन से सक्रियता, स्फुर्ती, सक्षमता बढ़ जाता है । जब उत्तरजीविता सरल, जीवनशैली व्यवस्थित और समृद्ध हो जाता है तब ही आध्यात्मिक मार्ग सुगम हो जाता है । # ३ आसक्ति, भोग वृत्ति, और कर्मबन्धन मनुष्य में उत्तरजीविता बुद्धि के कारण सुरक्षा, विकास, प्रगति, सुख, सुविधा आदि के लिए समाजमें आवद्धता अधिक व्यवस्थित करनेका प्रयास करता है, लेकिन वहीं से अहम् वृत्ति, मैं और मेरा भाव, दम्भ, घमण्ड आदि से मानव-मानवके बीच में भी ऊँच-निच के भाव आता है । असमानता का खाईं बन जाता है और व्यक्ति के मत, धारणा, विचार आदि में भिन्नता आकर द्वन्द्व शुरू होता है । व्यक्ति जब इस प्रकार के द्वन्द्व में उलझ जाता है तब वहाँ से निकल नहीं पाता । अप्राकृतिक विकास, सांस्कृतिक विचलन, अनैतिकता, व्यभिचार, वेइमानी, छल कपट, अंधानुकरण आदि के कारण व्यक्ति अधोगति के दिशा में अग्रसर हो जाता है । सत्य को अनदेखा कर के मिथ्या के मार्ग में व्यक्ति समाज से आरोपित इच्छाएँ और अनेक अनावश्यक वासनाएँ समेटकर सांसारिकता में लिप्त रहता है । यही आध्यात्मिक उन्नति और प्रगति के मार्ग में बड़ा बाधक बन जाता है । व्यक्ति हर चीज़ में ख़ुशी और संतुष्टि ढूंढते ढूंढते बोहोत सारे अनावश्यक साधन जमा कर लेता है । और अधिक जमा करने के लिए उद्दत होता रहता है । कोई व्यक्ति धन सम्पत्ति के लिए, पद के, कोई मान सम्मान के, कोई भोजन के, कोई भोग विलास के लालची हैं । साधन इकट्ठे करने में लिप्त हैं और उसका भोग करने में तल्लीन है, लेकिन सन्तुष्ट इनमें से कोई नहीं । क्यूँकि जिसका खोज है, जिसको पाना हैं उसको पहचाना ही नहीं । आवश्यकता से अधिक जमा करना प्राकृतिक नहीं है, मनुष्य के अलावा अन्य सभी जीवों का जीवन सुख शान्तिपूर्वक चल रहा है । मनुष्य ही सब कुछ होते हुए भी बेचैन है । ये लोभ और आसक्ति का परिणाम है । प्रारब्ध से अधिक और समय से पहले फल नहीं लगता । संसार में हर जीव अपनी योग्यता, बल, बुद्धि आदि से अपने आप को श्रेष्ठ करने का प्रयास करता है । ये सोच मानसिक दरिद्रता है, मनोविकार है । अज्ञानी को ही स्वयं और दूसरे भिन्न लगते हैं । राग द्वैष हर क्षेत्र में बाधक है, व्यक्तिको विषय पर ही लिप्त रखता है । इससे व्यक्ति अधोगति के तरफ़ अग्रसर होता है । अज्ञानी सुख, सयल, भोग विलास, भौतिक साधन, खानापिना और होड़बाजी में ही जीवन गुज़ार देता है । अल्पज्ञानी प्रारब्ध अच्छा बनाने के लिए प्रयास करना चाहता है । क्या करुँ ? किस मार्ग में कर्म के अच्छे फल मिलेंगें ? किस का पूजा प्रार्थना करना होगा ? किसका सेवा सुश्रुषा करना होगा ? इत्यादि विचार में भ्रमित हो जाता है । <br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://as2.ftcdn.net/v2/jpg/05/61/09/25/1000_F_561092599_gpcisu5nwfLKacHPn8xfqwLo0eErp9bG.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> # वैराग्य, त्याग और सही कर्म राग विराग भी अस्तित्वका पूर्णता का ही भाग है, पूर्णतया छुटना सम्भव नहीं है । आध्यात्मिक यात्रा भी आध्यात्मिक राग से ही शुरु होता है, लेकिन अति नहीं करना है, सन्तुलन में रखना उचित होता है । व्यक्ति, वस्तु, भावना, विचार आदि से अपने आप को अलग कर लेना, विरक्त हो जाना चाहिए । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य त्यागना आवश्यक है । इच्छा, वासना, सोच, विचार, तर्क, बुद्धि आदी भी आवश्यकता से अधिक उचित नहीं है । अहम वृत्ति, मैं और मेरा का भाव, शरीर और सम्वन्धों के प्रति आवश्यकता से अधिक मोह भी अनुचित है । सांसारिक विषयों से अनासक्त होने से ही आत्म केन्द्रित हुआ जा सकता है । अनासक्ति से त्याग, त्याग से वैराग्य, वैराग्य से मुक्ति मिलेगी और मुक्ति में ही परमानंद है । सत्य और असत्य को पहचान पाते ही सांसारिक भ्रम से छुटा जा सकता है । वैराग्य और त्याग का भाव होने के लिए व्यक्ति में सेवा, करुणा, दया, सहानुभूति, प्रेम आदि भाव भी होना ज़रूरी है । सत्य दिखने के बाद वहाँ कोई भी आसक्ति, इच्छा, कर्म और गुण नहीं बचता, सभी मैं हूँ तो आसक्ति किसके लिए ? वैराग्य का भाव स्वतः ही आ जाता है । ये आध्यात्मिक प्रगति के संकेत है । सांसारिक सफलता के लिए भी ये भाव उतना ही उपयोगी है । क्यूँकि ये भाव से इच्छा, वासना कम होतें है । मिथ्या में आवश्यकता का कोई सीमा नहीं है, सभी उपभोग्य चीजों को कम से कम उपयोग करना सांसारिकता से आसक्ति छोड़ना, विलासिता से विरक्त होना, अनावश्यक इच्छा और वासना छोड़ना, जो अति आवश्यक चीज़ या वस्तुएँ है, उसका पूर्ण उपयोग करना आदि अनावश्यक हटाने के उपाय हैं । उत्तरजीविता के लिए आवश्यक प्राकृतिक व्यवस्था से उपलब्ध चीजों का उपभोग कर के सभी जीव जीवित हैं । धूप, पानी, हवा, ज्ञान आदि प्रचूर मात्रा मै प्रकृति में विखरा हुआ है, लेकिन हम जितना चाहिए उतना ही ले लेतें हैं, बांकीं प्रकृति में ही रह जाता है । साधन के बिना तो उत्तरजीविता संभव नहीं है, लेकिन जो चाहिए होता है उससे अधिक इकट्ठा करना ज़रूरी नहीं है । सभी का अपना अपना प्रयोजन है । लोभ और अन्य सभी दुर्गुण अन्तर सम्वन्धित हैं, एक को बढ़ावा देने से दूसरा बढ़ जाता है और एक को त्यागने से दूसरा छुट जाता है । आध्यात्मिक हो या सांसारिक हर क्षेत्र में लोभ का परित्याग करके ही सन्तुष्टि, सुख, चैन, शांति, मुक्ति और आनन्द मिलता है । मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म क्यूँ हुआा है ? जीवनका उद्देश्य क्या है ? क्या करने से अन्तरमन से खुशी, शान्ति, सन्तुष्टि और आनन्द मिलता है ? यही खोज सबसे महत्वपूर्ण कर्म है । जो कार्य दूसरों के, घर परिवार, आफन्त के इच्छा से आया है, किसी वाध्यता बस किया गया हो, वो अनावश्यक है । एसे अनावश्यक कर्म के कर्मफल संचित होकर कर्मबन्धन बढ़ता जाता है । पूर्वजन्म के कर्म ही प्रारब्ध बनकर इस जीवन का दिशा निर्धारण करता है । इस जन्म का कर्म ही आगे के लिए प्रारब्ध बनेगा, पुनर्जन्म या मुक्ति के लिए कारण बनेगा । इस जीवन इच्छा से नहीं चल सकता, लेकिन पूनर्जन्म वा मुक्ति के लिए यही कर्म और इच्छा संचित होकर संस्कार बनेगा । जो कर्म अज्ञान में होतें है, उनको ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करना आवश्यक है । इतना ही करने से अनैतिक कर्म नहीं होंगें, अरुचि के कर्म नहीं होंगें । मजबूरी में कर्म करना नहीं पड़ता। किसी से निर्भर होना नहीं पड़ता, जीवन में स्वतन्त्रता होता है । अधिक साधन केवल भार, बोझ है । आध्यात्मिक क्षेत्र में भी एक मार्ग, एक गुरु और एक साधना से ही प्रगति तेज़ हो जाता है । ख़ाली जगह, ख़ाली मन में ही आवश्यक चीजों और गुणों से भरा जा सकता है । जो कर्मफल भोग है, आगामी संस्कार के लिए यही नया कार्य भी है । यदि ये भोग चेतना में होता है तो बुरा नही होगा । भोग भी कर्म ही है, कम भोग में कम संस्कार पड़ता है, कम कर्मफल और फिर से कम भोग होता है । कोई भी कार्य को सिद्ध या सम्पन्न करने के लिए कार्य के प्रति लगाव, निष्ठा एवं कार्य सिद्धि का प्रयत्न छिपा हुआ होता है, लेकिन फल के अपेक्षा नहीं होता । जो भी कर्म निष्ठा और विश्वास के साथ होता है, वो कर्म से सन्तुष्टि और आनन्द मिलता है । आनन्द के लिए फल कि प्रतिक्षा करना नहीं पड़ता, फिर भी अच्छे विचार और अच्छे कर्म के फल भी अच्छे ही होते है । जो अति आवश्यक है वही करना, स्विकार भाव में रहना ज़रूरी है । इससे बुरे संस्कार नहीं पड़ेगा, कर्म अच्छा होगा और आध्यात्मिक यात्रा सुगम होगा । # ४ अहम् और मोह मनुष्य ही नहीं सभी जीव में अपने जीवन के प्रति अत्यधिक मोह है । इसलिए कोई भी असुरक्षा या खतरा से सदा भयभीत रहता है । अपने प्रतिरक्षा के लिए भय आवश्यक वृत्ति है । अहम् अपना सुरक्षा, विकास और स्वतन्त्रता चाहता है । ये प्राकृतिक नियम है, स्वभाविक है, लेकिन सदा मिथ्या में उलझना, भ्रम में जीकर अपना सत्य स्वरूप को छुपाना चाहता है । सत्य का सामना करने से डरता है । इसीलिए व्यक्ति अध्यात्म में आना नहीं चाहता और आया भी तो कुछ समय के बाद वहीं पुरानी वृत्ति में लिप्त हो सकता है । क्षणिक भ्रामक सन्तुष्टि के लिए चिरस्थायी परम आनंद को भूलाकर आध्यात्मिक प्रगति को रोक देना कदापि उचित नहीं है । जहाँ कुछ इच्छाएँ, कामनाएँ, वासनाएँ, अपेक्षाएँ, स्वार्थ, आसक्ति, असुरक्षा का भय आदि का भाव है वहाँ प्रेम नहीं मोह है । यही मोह हमेशा संसार मे ही जकड़ता रहता है, उन्मुक्ति नहीं देता । <br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://t4.ftcdn.net/jpg/04/81/89/83/240_F_481898338_ov5a9EdZgEwFzTGCjgcIHKHhT6xxzGLf.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> # प्रेम और करुणा कोई भी सांसारिक सम्बन्ध, जीवन और मृत्युका जो बन्धन प्रतीत होता है वो माया का खेल है । ये चक्र कभी नष्ट नहीं होता, निरन्तर है । ज्ञान और चेतना से व्यक्ति में विवेक और सम भाव आ जाता है । दूसरों को भी अपना ही स्वरूप जानते ही प्रेम और करुणा का भाव स्वतः आता है । सत्य और नित्यता को जानने के बाद ही वास्तविक प्रेम प्रकट होता है । प्रेम से ही करुणा और सेवा भाव उभरता है । प्रेम में लेना-देना, खोना-पाना नहीं है । प्रेम में कोई अपना पराया नहीं होता, समर्पण और एकत्व का भाव होता है । दया, स्नेह, नैतिकता, सदाचार, सत्य निष्ठा, ईमानदारीता आदि जैसा सद्गुण बढ़ाने से सभी के प्रति प्रेम और करुणा भाव स्थापित होने लगता है । जो सांसारिक विषय सुख में आसक्त नहीं होता, सत्य और मिथ्या को जान जाता है, जीवन मृत्यु के मिथ्या खेल को समझ जाता है वो जीवनमुक्त है । जब अपना नित्यता और सत्यता जाना जाता है तब भय और असुरक्षा से भी मुक्ति मिल जाता है और आध्यात्मिक प्रगति हो जाता है । अस्तित्व आपसी अन्तर्निर्भरता पर टिका है, जिसका आधार प्रेम है । इसी भाव के कारण अस्तित्व में सन्तुलन और जीवन सम्भव है । संसार में दुःख-कष्ट कम करने और सुखपूर्ण उत्तरजीवीता के लिए प्रेम आवश्यक है । भय को सन्तुलन में रखने के लिए नियन्त्रण आवश्यक है । प्रेम, मुक्ति, शांति और आनंद के अलावा अन्य किसी चीज़ से कभी किसी को सन्तुष्टि नहीं मिला है । रक्षण, भक्षण, प्रजनन जीव की मूल वृत्ति है, अपने आप होता है । इसीलिए सदा सांसारिक बन्धन और उलझन में उलझकर गिरने के बदले सही आध्यात्मिक पथ पर मुक्ति के दिशा में अग्रसर होना ही बुद्धिमानी है । हर जीव की मूल इच्छा मुक्ति और स्वतंत्रता है क्योंकि सभी का तत्व या स्वभाव सदा मुक्त और स्वतंत्र है, यही अन्तिम गन्तव्य है और यहाँ तक आध्यात्मिक पथ पर चलकर ही पहुँचा जा सकता है । *** आभार - सत्गुरु श्री तरुण प्रधान जी
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