Wise Words
अज्ञान
शैल
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानाज्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नमः जिसने ज्ञानरूपी शलाका से अज्ञानरुपी अंधकार से युक्त, इन आँखों को ज्ञान का अंजन प्रदान कर दृष्टि प्रदान की उस गुरु को प्रणाम है। कोटि वंदन गुरुदेव! अज्ञान, जो ज्ञान नहीं है, अर्थात् ज्ञान का आभाव! सर्वप्रथम ज्ञान को समझे बिना अज्ञान को नहीं जाना जा सकता। 'ज्ञान" अर्थात् चित् में अनुभवों के व्यवस्थीकरण से स्मृति का संयोजन! संयोजन, अर्थात पूर्व ज्ञान के साथ अर्थपूर्ण संयोजन। ज्ञानदीक्षा में अज्ञान को आरोपण बताया गया है, अर्थात ज्ञान का आभाव। मान्यताओं, धारणाओं एवम भ्रांतियों से निर्मित संस्कारों पर आधारित ज्ञान अज्ञान है। मैं ज्ञानी हूं, यह अज्ञान है। मैं जानता हूँ, यह अज्ञान है और वह सीखने के लिए भी तैयार नहीं होगा। इससे अच्छा वो है, जो अबोध है अज्ञान से नहीं बंधा है। जैसे छोटे बच्चे अबोध होते हैं। यहां उल्टा ज्ञान नहीं होता।असत्य का ज्ञान अविधा है। अहम् का कारण है। अध्यारोपण अज्ञान के कारण होता है। अनुभवों से तादात्म कर्ता और भोक्ता को जन्म देता है। इसलिए अज्ञान दुःख का कारण बनता है। अज्ञान वस्तु पर अवस्तु का आरोपण,स्वयं के सत् स्वरूप पर अहम का आरोपण है। ज्ञान वह है जो स्वयं के तत्व को प्रकाशित कर दे और अज्ञान स्वयं से दूर ले जाता है। अज्ञान अंधकार है, और दुःख का कारण है! ज्ञान अनुभव से आता है, और अनुभव परिवर्तन का ही हो सकता है जो इंद्रियों द्वारा संवेदनाओं को सीमित करने पर चित् में आरोपित होते हैं। परिवर्तन मिथ्या है, इसलिए ज्ञान भी मिथ्या ही होगा। अर्थात ज्ञान नहीं अज्ञान का नाश ही होता है। इंद्रियां बर्हिमुखी हैं, इसलिए स्वयं से अलग का ज्ञान कराती हैं। और इस प्रकार अर्जित ज्ञान अज्ञान है, जो मान्यताएं अवधारणाएँ और भ्रम पैदा करता है। अज्ञान की विडम्बना यह है, कि व्यक्ति, जो स्वयं मिथ्या है। अपने ऊपर एक और मिथ्या को आरोपित कर लेता है, वह मैं" है। सारा अज्ञान इसी की पृष्ठभूमि पर आरोपित है। इस प्रकार यह और, और बड़ा और पुख्ता होता जाता है। अज्ञान से भरा चित्त बुद्धि में अशुद्धि के रूप में व्यक्त होता है। इससे दोषपूर्ण संस्कार निर्मित होते हैं और उनसे भाव विचार वाणी और अंतत: कर्म प्रभावित होते हैं। इनसे जीवन प्रभावित होता है जो दुःख अथवा प्रमाद के रुप में अभिव्यक्त होता है। मनुष्य अन्य जीवों से अलग जान पड़ता है, क्योंकि चेतना के उच्चतम शिखर पर जहां दिव्यता को उपलब्ध होकर देवत्व को प्राप्त करने की संभावना है, वहीं निम्नतम गहराईयों में गिर कर नारकीय दुःख भी पा सकता है। उसके होने, एवम जीने के दोनों तलों में जब समन्वय नहीं होता, तो जीवन अव्यवस्थित जान पड़ता है। वे तल सूक्ष्म और भौतिक हैं। जिन संभावनाओं को लेकर मनुष्य पैदा होता है, उनके पूर्णता में व्यक्त होने, एवम विकृत होने अथवा समाप्त होने की संभावनाएं समान रूप से होती हैं। यह उसके ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर करेगा। ये दूसरे शब्दों में कहें तो अज्ञान का ही ज्ञान होता है। आरोपण और विक्षेप, अज्ञान की ये दो शक्तियाँ हैं। सत्य के ऊपर आरोपण के कारण विक्षेप रूप में संसार की सृष्टि होती है, जिसमें मैं के परितः पूरा संसार निर्मित होता है। संबंध निर्मित होते हैं। इस प्रकार अज्ञान आभाव नहीं, मेरे होने का भाव है जो स्वयं के ज्ञान के आभाव में निर्मित होता है। सबसे बड़ा अज्ञान स्वयं के तत्व के ज्ञान का न होना है। स्वयं के अज्ञान का ज्ञान हो जाना कृपा है। अन्यथा अज्ञान में ही जीवन बीतता है। आत्मज्ञान सबसे बड़ा ज्ञान है,जो सभी बंधनों से मुक्ति है। अज्ञान बंधन है, ज्ञान, मुक्ति है। अपरोक्ष अनुभव से नेति नेति द्वारा इतना ही जाना जाएगा कि जाना नहीं जा सकता, अज्ञेयता है। इस प्रकार मैं की अवधारणा गिरते ही सभी आरोपित मान्यताओं एवं अवधारणाओं का विसर्जन हो जाता है और बुद्धि प्रखर होकर शुद्ध होती है। प्रज्ञा का जन्म होता है और व्यक्ति की मिथ्या समाप्त होकर व्यष्टि से समष्टि में विलीन हो जाती है। ज्ञान में ध्रुवीयता नहीं' बचती और द्वैत समाप्त हो जाता है। अनुभवों की ध्रुवीयता विदा होकर संपूर्णता में साक्षी को प्रगट करती है। और अंत में साक्षी भाव भी विदा हो जाता है, फिर केवल मौन उतरता है। जैसे सूर्य का प्रकाश अनेक छिद्र वाले काले परदे से अलग-अलग प्रतीत होता है, किन्तु परदे के पीछे एक ही सूर्य संपूर्णता में प्रगट है। व्यक्ति की अवधारणा उसी प्रकार सीमित अनुभवों से तादात्म के कारण आती है। जैसे वृक्ष अपने को जंगल से अलग मान ले, फूल अपने को पौधे से अलग मान ले। अहम की दीवार बहुत कठोर होती है जिसे भेद पाना कठिन होता है। अज्ञान के नाश से ही ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश जो सदा से ही था, प्रगट होता है। फिर अज्ञानता में निर्मित सभी बेड़ियां गिर जाती हैं और जो पीछे रह जाता है, वह सत्त चित्त आनंद! जो शाश्वत है! जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि कहनेवाला और सुनने वाला दो नहीं हैं। दृश्य और दृष्टा का भेद मिट जाता है।
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