Wise Words
त्रिज्ञान
तरुण प्रधान
## त्रिज्ञान कार्यक्रम यह पाठ्यक्रम ज्ञान पथ का संक्षिप्त परिचय है। यह तीन मुख्य शिक्षाएँ प्रदान करता है - आत्मज्ञान, माया का ज्ञान और ब्रह्मज्ञान (अद्वैत)। यह ज्ञान गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार मौखिक रूप से गुरु द्वारा शिष्य को सीधा दिया जाता है। यह विधि एक व्याख्यान नहीं है, बल्कि एक वार्तालाप है। वास्तविक वार्तालाप थोड़ा अलग हो सकता है, छात्र की समझ के आधार पर, नीचे दिया गया पाठ केवल एक दिशानिर्देश है। प्रत्येक दिन एक विषय पर चर्चा की जाती है, जिसमें लगभग ४५ से ६० मिनट लगते हैं। केवल एक योग्य शिक्षक या एक छात्र जिसने ज्ञानमार्ग कार्यक्रम पूरा कर लिया है, इस पाठ्यक्रम को करवाने के लिए सक्षम हैं। जो कार्यक्रम के चरण #७ पर हैं वो साधक भी इसे करवा सकते हैं। यह सेवा पूरी तरह निशुल्क है और फ़ोन या इंटरनेट पर प्रदान की जाती है। ## सावधानियां * यह ज्ञान केवल इच्छुक और रुचि रखने वाले, विशेष रूप से ज्ञान के साधक, या आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले लोगों को ही करवाना चाहिए। साधारण लोगों या अपर्याप्त बुद्धि वाले लोगों को यह शिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। प्रतिभाशाली और जिज्ञासु बच्चों को भी पढ़ाया जा सकता है। * किसी भी परिस्थिति में यह ज्ञान उन लोगों को नहीं दिया जाना चाहिए जो मानसिक या शारीरिक रूप से अयोग्य हैं, या चरमपंथी या संकीर्ण विचार रखते हैं या रूढ़िवादी हैं। * यह शिक्षण देने वाला व्यक्ति किसी भी अप्रत्याशित परिणाम के लिए स्वयं जिम्मेदार है। * इस विद्या के एवज में पैसा या कुछ और नहीं मांगना चाहिए। इसे सेवा के रूप में निशुल्क दिया जाना चाहिए। ## परिचय: ज्ञानमार्ग ज्ञानमार्ग ज्ञान को समर्पित एक आध्यात्मिक मार्ग है, और इस मार्ग पर चलने से अज्ञान का नाश होता है। यह जानते हुए कि सभी प्रकार की अज्ञानता बंधन और दुख का मूल कारण है, इसे उचित प्रशिक्षण और एक अनुभवी शिक्षक के अधीन ही ग्रहण करना चाहिए। यह एक जीवन शैली है जिसमे हम सदा ज्ञान में रहते हैं। यह एक सीधा, सरल और अंतिम मार्ग है। अंततः यह एक मार्गहीन मार्ग है। ## ज्ञान के साधन ज्ञान कैसे प्राप्त करें? ज्ञान प्राप्त करने के केवल दो ही साधन हैं: * अपरोक्ष अनुभव (प्रत्यक्ष प्रमाण) और * तर्क (अनुमान) ## ज्ञानमार्ग के फल / सिद्धियाँ * आत्मज्ञान (आत्म-साक्षात्कार) * ब्रह्मज्ञान यानी एकता का बोध * यह जान लेना कि सभी अनुभव भ्रम हैं * दुखों का अंत * पूर्ण स्वतंत्रता * तृप्ती * मुक्ति * परम आनंद की स्थिति * तेज आध्यात्मिक विकास * और अन्य बहुत सारे लाभ हैं ## ज्ञान के प्रकार ज्ञान तीन प्रकार का होता है: * स्वयं का ज्ञान या आत्मज्ञान। मैं कौन हूँ, या मैं क्या हूँ? * संसार या माया का ज्ञान। क्या यह जगत या शरीर वास्तविक/सत्य है? * एकता का ज्ञान या ब्रह्मज्ञान। सब कुछ एक कैसे है? ## पहला दिन : आत्मज्ञान चलिये हम शुरुआत करते हैं इस प्रश्न से कि मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ और मेरा तत्व क्या है? इसको कैसे जाना जा सकता है? मैं केवल वही जान सकता हूँ जो मेरे अपरोक्ष अनुभव में है, या जिसको तर्क से जाना जा सकता है। और फिर यह जांचना चाहिये कि जो भी जाना जा रहा है, वो मैं हूँ या नहीं? यह प्रश्न अपने आप से क्रम अनुसार एक के बाद एक पूछे जा सकते हैं। ### वस्तुएं अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर 'वस्तुओं' से मेरा संबंध, निम्न लिखित प्रश्नों से जाना जा सकता है। मैं अभी कहाँ हूँ? अभी मेरे सामने क्या है? क्या मैं वस्तु को देख रहा हूँ या वस्तु मुझे देख रही है? क्या इसमें कोई संदेह है? क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं कोई वस्तु नहीं हूँ? मैं वस्तुओं को देख सकता हूँ, कोई भी वस्तु मुझे नहीं देख सकती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मैं कोई वस्तु नहीं हो सकता। इस तरह से अपने अपरोक्ष अनुभव से मैं कह सकता हूं कि जो कुछ भी मैं देख सकता हूँ वह मैं नहीं हो सकता। इसी तरह सुनने, छूने और सोचने पर भी यही बात लागू होती है। अब अगर हम वस्तु को बदल दें, तो आप क्या कहेंगे? क्या आप कहेंगे कि वस्तु बदल गई या आप कहेंगे कि मैं बदल गया? अगर वस्तु बदल गई लेकिन मैं नहीं बदला तो अपने प्रत्यक्ष अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि, अगर वस्तु बदलती है तो वह वस्तु मैं नहीं हूँ। वस्तु जो भी थी, बदल गई है, फिर भी मैं वही रहता हूँ। तो हम दो महत्वपूर्ण नियमों पर आते हैं: मैं जिसका भी अनुभव कर सकता हूँ, मैं वो नहीं हूँ। यदि कुछ बदलता है, मैं वो नहीं हूँ। क्या इन दोनों नियमों के संबंध में कोई संदेह है? यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इन दोनों नियमों को अच्छी तरह से सत्यापित किया जाए। अब हमें यह कहने के लिए कि 'यह मैं नहीं हूँ', हर चीज़ की जाँच करने की ज़रूरत नहीं है। मैं यहां तर्क का उपयोग कर सकता हूँ, कोई भी वस्तु मैं नहीं हूँ। जो कुछ भी मैं देख सकता हूँ, या वह जो बदल रहा हैं, वह मैं नहीं हो सकता हूँ। परिणाम: संसार में कोई भी वस्तु मैं नहीं हूँ। मैं वस्तुओं में नहीं पाया जा सकता हूँ। ### शरीर अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर शरीर से मेरा संबंध क्या है? आइए अब हम शरीर को देखें और दो नियमों के आधार पर अपने अनुभव और तर्क का उपयोग करें। क्या आप शरीर को देख रहे हैं या शरीर आपको देख रहा है? दो नियमों का उपयोग करने से पता चलता है कि यदि मैं शरीर का अनुभव कर सकता हूँ तो यह शरीर मैं नहीं हूँ। अगर यह बदल रहा है, तो भी शरीर मैं नहीं हूँ। शरीर का कोई अंग मैं नहीं हूँ क्योंकि सब कुछ बदल रहा है। यही तर्क शरीर के किसी भी हिस्से पर लागू होता है। परिणाम: शरीर का कोई अंग मैं नहीं हूँ या मैं यह शरीर नहीं हूँ। ### संवेदनाएं अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर 'संवेदनाओं' से मेरा संबंध क्या है? आईने में जो मैं देखता हूँ उसे देखने के बजाय, आइए हम शरीर की संवेदनाओं पर ध्यान केंद्रित करें जो मैं महसूस कर सकता हूँ, जैसे दर्द, भूख, नींद, थकान, आदि। चलो शरीर के दर्द को देखतें हैं। क्या आप दर्द का अनुभव कर रहे हैं या दर्द आपको अनुभव कर रहा है? क्या दर्द आता-जाता है? क्या वह बदलता है? दो नियमों का प्रयोग करें और जांचें कि क्या दर्द मैं हूँ? यदि उत्तर यह है कि मैं प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर दर्द नहीं हूँ, तो मैं तर्क के आधार पर कह सकता हूँ, कि शरीर में कोई भी संवेदना मैं नहीं हूँ। परिणाम: मैं संवेदनाएं नहीं हूँ। संवेदनाओं में से कोई भी संवेदना मैं नहीं हूँ। ### भावनाएं क्या गुस्सा आता है और चला जाता है? दो नियमों का प्रयोग करो और जांचो कि क्रोध मैं हूँ या नहीं। यदि अपरोक्ष अनुभव का उपयोग करके उत्तर यह आता है कि मैं क्रोध नहीं हूँ, तो तर्क का उपयोग करके मैं कह सकता हूँ की भावनाओं में से कोई भी मैं नहीं हूँ। परिणाम: मैं भावनाएं नहीं हूँ। भावनाओं में से कोई भी भावना मैं नहीं हूँ। ### विचार अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर 'विचारों' से मेरा संबंध क्या है? क्या मैं विचारों का अनुभव करता हूँ या वे मुझे अनुभव करते हैं? क्या "मैं यह हूँ या वह हूँ" जैसा विचार भी एक विचार नहीं है? (यह विशेष विचार अहम की वृति है, जो किसी भी चीज को मैं घोषित करती है)। यह अहम वृत्ति मैं को विभिन्न अनुभवों से जोड़ती है और यह विचार भी आता है और चला जाता है। क्या विचार आते हैं और चले जाते हैं? क्या वे बदलते हैं? दो नियमों का प्रयोग करें और जांचें कि क्या विचार मैं हूँ। यहाँ तक कि जो यह कहता है कि मैं यह हूँ या मैं वह हूँ वह तर्क के आधार पर मैं नहीं हूँ। परिणाम: मैं विचार नहीं हूँ। विचारों में कोई भी विचार मैं नहीं हूँ। ### इच्छाएं अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर 'इच्छाओं' से मेरा संबंध क्या है? क्या मैं इच्छाओं का अनुभव कर रहा हूँ या इच्छाएँ मुझे अनुभव कर रही हैं? क्या इच्छाएँ आती-जाती रहती हैं? दो नियमों का प्रयोग करें और जांचें कि क्या मैं कोई इच्छा हूँ। परिणाम: मैं इच्छाएँ नहीं हूँ। इच्छाओं में कोई भी इच्छा मैं नहीं हूँ। ### स्मृतियाँ अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर स्मृतियों से मेरा संबंध क्या है? क्या मैं स्मृति का अनुभव कर रहा हूँ या स्मृति मुझे अनुभव कर रही हैं? क्या स्मृति आती-जाती हैं? क्या स्मृति बदल रही है? क्या मैं बदल रहा हूँ, जब स्मृति बदल रही हैं? जब मैं भूल जाता हूँ तो क्या मैं कहता हूँ, कि 'मैं नहीं रहा', या मैं कहता हूँ कि 'मैं भूल गया था'? क्या मुझे यह याद है कि मैंने एक साल पहले क्या पहना था? जब हमें कोई चीज याद नहीं होती, क्या हम यह कहते है की मैं नहीं हूँ, या यह कहते है की मैं भूल गया था? तो अगर मुझे याद नहीं आता कि मैंने एक साल पहले क्या पहना था, या अगर मैं कुछ भूल गया, तो भी मैं वहीं था। स्मृति में क्या है? मेरा नाम क्या है? किसी ने मुझे नाम दिया है और मेरी स्मृति में वह नाम अंकित है। मैं इसे जल्दी याद कर सकता हूँ लेकिन वह आता तो मेरी स्मृति में से ही है। अगर स्मृति मैं नहीं हूँ, तो मैं मेरा नाम भी नहीं हूँ। यह सिर्फ एक नाम है। शिक्षा के बारे में आपका क्या मत है? क्या शिक्षा स्मृति में नहीं होती? क्या शिक्षा हमेशा रहती है? अगर स्मृति चली जाती है, तो शिक्षा भी चली जाती है। मेरा पेशा या कौशल भी मैं नहीं हूँ। यह भी स्मृति में है। मुझे कैसे अपने संबंधियों माता, पिता, पति, पुत्र आदि के बारे में पता होता है? क्या मेरे संबंधियों की जानकारी मेरी स्मृति में से नहीं आती? अगर स्मृति मिट गई तो क्या में अपने संबंधिओ को पहचान पाऊँगा? स्मृति मिट गई तो संबंध कहां हैं? क्या मैं यह कहूंगा कि मैं ही नहीं हूँ, या मैं यह कहूंगा कि मुझे अपने रिश्तेदारों की याद नहीं है? यदि स्मृति चली जाती है तो सारे रिश्ते नाते भी खत्म हो जाते हैं। जाति, धर्म, राष्ट्रीयता आदि की जानकारी कहाँ से आती हैं? क्या वे बचपन में दूसरों द्वारा थोपे गए विचार मात्र नहीं हैं? इनके बारे में मेरे विचार दूसरों द्वारा मुझे बताई गई बातों से ही आकार लेते है, लेकिन मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूँ। परिणाम: मैं स्मृति नहीं हूँ, और स्मृति में जो कुछ भी है, मैं वो नहीं हो सकता हूँ। ### लिंग क्या मैं पुरुष हूँ या स्त्री हूँ? मुझे यह कैसे पता चला? स्वाभाविक है कि अपने शरीर के कारण, क्योंकि दो तरह के शरीर होते हैं - पुरुष का और स्त्री का। पर हम यह पहले ही देख चुके हैं कि मैं शरीर ही नहीं हूँ। मैं पुरुष हूँ या स्त्री हूँ, यह मुझे शरीर के आधार पर ही बताया जाता है। यदि यह मतारोपण हटा दिया जाये तो मुझे किसी भी तरह का लिंग भेद करने की आवश्यकता नहीं है। अब सब लिंग भेद, पुरुष स्त्री का भेद, जो एक काल्पनिक मतारोपण मात्र ही है, छूट गया है। यह सब केवल एक स्मृति ही है। क्या कुछ बचा है, जो मैं कह सकता हूं कि मैं हूं? मैंने जो कुछ भी सोचा था, वह सब स्मृति का हिस्सा है। और दो नियमों का उपयोग करके मैं पाता हूं कि कोई भी स्मृति मैं नहीं हूं। जो तार्किक रूप से मुझे यह जानने के लिए प्रेरित करता है कि कोई भी अनुभव मैं नहीं हूं। सभी अनुभव स्मृति में संग्रहीत हैं, और यदि स्मृति मैं नहीं हूं तो जो कुछ भी अनुभव किया जा सकता है वह भी मैं नहीं हो सकता। परिणाम: मैं कोई अनुभव नहीं हूं। कोई भी अनुभव मैं नहीं हूं। ### अनुभवकर्ता अब प्रश्न पूछें- यदि मैं संसार की वस्तु नहीं हूँ, न शरीर हूँ, न संवेदनाएं, न भावनाएं, न विचार, न इच्छाएं, न स्मृति और न ही अनुभव हूँ; तो क्या फिर भी 'मैं' हूँ? अगर कुछ है ही नहीं, तो सभी अनुभवों को कौन देख रहा है? मैं तो अभी भी हूँ। मैं ही तो सब कुछ देख रहा हूँ। मैं ही अनुभवकर्ता हूँ। मैं ही साक्षी हूँ। अनुभवकर्ता को केवल होने से जाना जाता है, अनुभव करने से नहीं। मैं कोई अनुभव नहीं हूँ। क्या मैं कभी भी यह कह सकता हूँ कि मैं अनुभवकर्ता नहीं हूँ? ### आकार आइए अब साक्षी के बारे में जानें । क्या मैं साक्षी में कोई आकार, रूप, रंग, सामग्री, पदार्थ का अनुभव करता हूँ? अगर कोई रूप होता तो मेरी आंखें उसे पकड़ लेती। अगर कोई रूप है भी, तो वह रूप मैं नहीं हूँ। साक्षी अभी भी है। लेकिन ढूंढने पर वहां कुछ मिलता भी नहीं है। साक्षी खाली है, शून्य है। साक्षी का कोई रंग, आकार, रूप, पदार्थ आदि नहीं है, लेकिन वह अभी भी है। क्या साक्षी में कोई आयतन, ऊर्जा, अवस्था, विद्युत, परमाणु आदि पदार्थ है? इन चीजों को या तो देखा जा सकता है या फिर अनुभव किया जा सकता है, या ये बदल जाती हैं। साक्षी में ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं किया जा सकता है। परिणाम: मैं निराकार हूँ। ### परिवर्तन जैसे ही कोई परिवर्तन होता है हम उसे देख सकते हैं, लेकिन नियम#२ कहता है की जो बदलता है, वह मैं नहीं हूँ। जो भी परिवर्तन होता है वह अनित्य होता है, और जो नहीं बदलता वह स्थायी होता है। मैं ही हूँ जो स्थायी है, बाकी सब कुछ परिवर्तनशील है। परिणाम: मैं अपरिवर्तनीय हूँ। ### जन्म मेरा जन्म कब हुआ था? जन्म बच्चे के शरीर का निर्माण है। यह एक शरीर का जन्म था और अब वह छोटा शरीर चला गया है। एक शरीर का जन्म हुआ और मुझे बताया गया कि मैं पैदा हुआ हूँ। हालाँकि, मैं वह शरीर नहीं हूँ और न ही मैं यह वयस्क शरीर हूँ। यह शरीर अंगों, पदार्थों, भोजन आदि का संग्रह है। मैं यह नहीं कह सकता कि मैं पैदा हुआ था, लेकिन फिर भी मैं तो हूँ। जन्म परिवर्तन की एक प्रक्रिया मात्र है, लेकिन मैं अपरिवर्तनशील हूँ, इसलिए मेरा जन्म असंभव है। कोई भी जन्म प्रमाण पत्र मुझे यह नहीं बता सकता कि मेरा (साक्षी) का जन्म कब हुआ था। साक्षी में ऐसा कुछ भी नहीं है जो रूप धारण कर सके, वह निराकार है, इसलिए वह जन्म नहीं ले सकता। केवल शरीर ही पैदा हो सकते हैं, मैं (साक्षी) नहीं। इसलिए मेरा (साक्षी) जन्म होना असंभव है। परिणाम: मैं अजन्मा हूँ, मैं जन्महीन हूँ। ### आयु और मृत्यु क्या मैं बूढ़ा हो रहा हूँ? अगर मैं पैदा ही नहीं हुआ तो मेरी उम्र कैसे हो सकती है? बुढ़ापा परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। लेकिन मैं कभी नहीं बदलता, इसलिए मैं कभी बूढ़ा नहीं होता। साक्षी में ऐसा कुछ भी नहीं है जो समय के साथ बूढ़ा हो सकता है या बिगड़ सकता है। अगर कुछ पैदा होता है तो क्या वह मर जाएगा? पेड़ पौधे जीव आदि पैदा होते हैं और मर जाते हैं, मिट्टी वापस मिट्टी में चली जाती है। मनुष्य शरीर जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं। वस्तुओं का निर्माण, संयोजन और विघटन होता रहता है। कुछ शेष नहीं रहता। जो कुछ भी पैदा होता है उसका मरना तय है। मृत्यु भी एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन मात्र है। अगर मैं पैदा नहीं हुआ तो क्या मैं मर सकता हूँ? मैं कभी पैदा नहीं हुआ, मैं मर नहीं सकता। मृत्यु भी एक घटना है जो एक रूप का दुसरे रूप में परिवर्तन है। परिणाम: मैं अविनाशी और अमर हूँ। ### मुक्ति और पुनर्जन्म अगर मेरा जन्म या मृत्यु नहीं होती तो क्या मेरा पुनर्जन्म संभव है? मैं कभी पैदा नहीं हुआ, मैं कभी नहीं मरूंगा और मेरा कभी पुनर्जन्म नहीं होगा। जो बार-बार जन्म ले रहा है, वह मैं नहीं हूँ। परंपरागत रूप से मुक्ति क्या है? यह मान्यता है कि व्यक्ति को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने की आवश्यकता है। क्या मेरा फिर से जन्म लेना संभव है? नहीं ! तो मैं इस चक्र से पहले से ही मुक्त हूँ। यहीं इसी क्षण मेरी मुक्ति संभव है। स्वतंत्रता क्या है: किसी चीज से बंधा नहीं होना ही स्वतंत्रता है। क्या ऐसा कुछ है, जो साक्षी को बाध्य कर रहा है? क्या मुझे खाने, सोने, आराम करने की ज़रूरत है? क्या कोई मुझे जेल में डाल सकता है? इस तरह से जांच करने पर, मुझे कोई बंधन या सीमा नहीं मिलती है। मैं असीम हूं। परिणाम: मैं मुक्त, स्वतंत्र, असीम, और अनंत हूँ। ### शांति और आनंद जब कोई इच्छा नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भावना नहीं, कुछ भी नहीं करना है तो क्या मैं शांत नहीं हूँ? क्या ऐसा कुछ है जो इस शांति को भंग करता है? यहां वास्तव में कुछ भी नहीं होता है। सुख और दुख दोनों का पूर्ण अभाव है। इस अवस्था को परमानंद कहते हैं। यह मेरा वास्तविक स्वरूप है। परिणाम: मैं नित्य, शान्त और आनंदमय हूँ, जो कभी मिटता नहीं। ### प्रेम अगर मैं आपके द्वारा पूछे गए सभी प्रश्न पूछूं, तो मैं क्या कहूंगा कि 'मैं क्या हूँ'? क्या आप में और मुझमें मूल रूप से कोई अंतर है? क्या बोतल का पानी गिलास के पानी से अलग है? जब बोतल और गिलास टूट जाते है, तो क्या हम पानी को अलग कर सकते हैं? जल ही सार है, भिन्न-भिन्न पात्रों में एक ही जल है। आप जो भी हो, मैं भी वही हूँ। आपमें और मुझमें कोई अंतर नहीं है। मैं अनुभवकर्ता हूँ, और आप भी वही हैं। सागर में दो लहरें - एक कहती है की मैं पानी हूँ और दूसरी कहती है कि मैं भी पानी हूँ। क्या वे समान हैं या भिन्न हैं? शायद रूप अलग हैं, लेकिन हैं तो वो एक ही। रूप भिन्न हो सकते हैं जो मैं नहीं हूँ, लेकिन अंत में केवल सार ही रहता है। जब कोई रूप नहीं होता तो हम और आप एक हो जाते हैं। मैं आप बन जाता हूँ, और आप मैं बन जाते हो। क्या एक होने से बेहतर कोई रिश्ता हो सकता है? क्या इससे ज्यादा निकटता हो सकती है? जब दो एक हो जाते हैं तो वह प्रेम होता है। कोई अलगाव नहीं है। हम वास्तव में एक ही साक्षी हैं। तो संक्षेप में, मैं हूँ: * अजन्मा * अमर * अविनाशी * निराकार * निरंतर * खाली / शून्य * शुद्ध * शाश्वत * स्वतंत्र / मुक्त * शांति * परमानंद * प्रेम यह मेरा अस्तित्व है, यही मैं हूं। यही आत्म-साक्षात्कार या आत्मज्ञान है। ## दूसरा दिन : मायाज्ञान हम फिर से वही दो साधन यानी, अपरोक्ष अनुभव और तर्क, का प्रयोग करके देखते हैं कि जो कुछ भी अनुभव में आ सकता है, सभी अनुभव मिथ्या हैं। या यह भी कह सकते हैं कि सभी अनुभव असत्य हैं। ### अपरोक्ष अनुभव आप अपने आप से ही यह प्रश्न एक के बाद एक क्रमानुसार पूछें - मैं अभी कहां हूँ? (या अभी मेरा शरीर कहां है?) अभी मेरे सामने क्या है? (उसका नाम क्या है?) अब केवल इस एक वस्तु पर ही ध्यान केंद्रित करें। क्या मैं वस्तु को देख रहा हूँ, या क्या मैं इस वस्तु का अपरोक्ष अनुभव कर रहा हूँ, या फिर मैं केवल वही जान पा रहा हूँ जो संकेत उस वस्तु के बारे में आंखों के माध्यम से आ रहे हैं? आप यह अच्छी तरह से जान पाएंगे कि मैं केवल उन्हीं संकेतों का अनुभव कर रहा हूँ जो आँखों के माध्यम से आ रहे हैं। क्या इसमें कोई संदेह है? उदाहरण के लिए कल्पना कीजिये कि अभी आपके सामने एक लाल रंग का टमाटर रखा हुआ है। कोई आपसे पूछे कि इस टमाटर का रंग क्या है? आशा है कि आप यही कहेंगे कि लाल रंग का है। पर यदि उसी टमाटर पर नीले रंग का प्रकाश पड़ता है, तो अब टमाटर का रंग क्या है? अब वो काले रंग का प्रतीत होगा। टमाटर लाल रंग का इसलिये प्रतीत हो रहा था क्योंकि टमाटर सूर्य के प्रकाश में से सभी रंग सोख लेता है और केवल लाल रंग ही प्रतिबिम्बित करता है। जब उसपर नीला प्रकाश पड़ता है तो वो सभी रंग सोख लेता है और काले रंग का प्रतीत होता है। तो टमाटर का असली रंग कौनसा है? कोई कहेगा की जो रंग सूर्य के प्रकाश में दिखता है वही असली रंग है। कोई कहेगा की असली रंग वही है जब उसपर नारंगी रंग पड़ता है, ना कि जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है या नीला प्रकाश पड़ता है। इस तरह यदि अलग अलग व्यक्ति भिन्न भिन्न रंग के प्रकाश में टमाटर को देखते हैं तो टमाटर का असली रंग कौनसा है? दरअसल कोई भी रंग वास्तविक नहीं है। यह मनमानी कल्पना मात्र है। अधिकतर लोग मानेंगे कि टमाटर का असली रंग लाल ही है। परन्तु यदि सूर्य का प्रकाश सफेद होने की जगह पर नीला हो जाये तो अधिकतर लोग मानेंगे कि टमाटर का असली रंग काला है। फिर यही सत्य मान लिया जायेगा। हम उतना ही रुप, आकार और रंग अनुभव करते हैं जो की हमारी इन्द्रियां हमें संकेत देती हैं। जो वास्तविक है उसका अनुभव नहीं किया जा सकता है, उसको कोई जान नहीं सकता है। तो हम यह स्पष्ट समझ सकते हैं कि दरअसल कोई भी रंग वास्तविक नहीं है, यह मनमानी कल्पना मात्र है। यदि किसी व्यक्ति की आँखों में कोई दोष है जिसके कारण उसको सब कुछ दो दिखाई देता है। और वो कहता है कि एक नहीं यहां दो टमाटर हैं। पर क्या वास्तव में दो टमाटर हैं? यदि ऐसा दोष सभी व्यक्तियों की आँखों में हो, तो सभी को कितने टमाटर दिखाई देंगे? दो। सत्य केवल एक सहमति या समझौता मात्र ही है। कुछ लोग ट्रैफिक की बत्ती का रंग नहीं देख सकते हैं। एक जन्म से अंधे व्यक्ति के लिए चाँद और तारों का कोई अस्तित्व नहीं है। यह जगत केवल इन्द्रियों के कारण ही प्रतीत होता है। अलग अलग जीवों में भिन्न भिन्न इन्द्रियां होती हैं। कुछ जीवों में मनुष्य से बेहतर इन्द्रियां भी होती हैं। कल्पना कीजिये कि आपकी स्पर्श की इन्द्रियों में भी दोष है, और आप जिसको भी छूते हैं वह एक की जगह दो प्रतीत होती है। अब तो आपको कोई संदेह नहीं रहेगा कि यहां एक नहीं दो टमाटर हैं। टमाटर का भ्रम इन्द्रियों द्वारा बनाया गया है। इन्द्रियों के माध्यम से हमें पता चलता है कि जगत में क्या है। परन्तु जगत वास्तव में क्या है वो कोई नहीं जान सकता है। यदि किसी को बुखार है तो सभी कुछ स्वादहीन प्रतीत होता है। वास्तव में खाने में कोई स्वाद नहीं होता है। यह तो जिह्वा है जिसके कारण हमें स्वाद का आभास होता है। वास्तव में किसी भी वस्तु में कोई स्वाद नहीं होता है। एक और उदाहरण से इसको समझते हैं। तीन कप में पानी भरा हुआ है। एक में उबलता हुआ, एक में बर्फीला और जो बीच में है उसमें कमरे के तापमान का। अब यदि आप गरम पानी में हाथ डालने के बाद बीच वाले कप में हाथ डालेंगे तो आपको वह ठंडा लगेगा। पर यदि आप ठंडे पानी में हाथ डालने के बाद बीच वाले कप में हाथ डालेंगे तो आपको वो गरम लगेगा। तो बीच वाले कप में पानी ठंडा है या गरम है? उसमें एक कप की तुलना में पानी ठंडा है, और दूसरे कप की तुलना में पानी गरम है। यह सापेक्षिक है। इंद्रिय जनित है। वास्तव में ठंडा गरम कुछ नहीं होता है। एक और उदाहरण लेते हैं। यदि आप किसी भिखारी को एक वासी रोटी का टुकड़ा फेंककर देते हैं तो उसको कैसा लगेगा? यदि आप उसे दस रुपये देते हैं तो उसे खुशी होगी। अब आप यही रोटी का टुकड़ा या दस रुपये एक बहुत अमीर आदमी को देंगे तो उसे कैसा लगेगा? वह अपमानित और क्रोधित होगा। यह कैसे सम्भव है कि एक ही वस्तु एक व्यक्ति को खुशी देती है और एक को दुख? यह पूर्णतया व्यक्तिनिष्ठ है। सुख और दुख दोनों नहीं हैं। यदि वो हैं भी तो दोनों किसी पर निर्भर नहीं हैं। दोनों भ्रम या मिथ्या हैं। यह हमारा अपरोक्ष अनुभव है। अब तर्क पर दृष्टि डालते हैं। ### तर्क यदि मैं कहता हूँ कि मेरा नाम विजय है, और यह मैं हर दिन दोहराता हूँ तो मेरा नाम क्या होगा? परंतु यदि एक दिन मैं कहूँ कि मेरा नाम राजीव है, दूसरे दिन अशोक और तीसरे दिन गणेश है, तब मेरा नाम क्या होगा? तब कह सकते हैं कि मेरा कोई सही नाम नहीं है क्योंकि यह बदलता रहता है। आप ये देख सकते हैं कि सभी नाम असत्य है। आप कुछ खरीदना चाहते हैं, एक दिन दुकानदार एक ही चीज का ५० रुपये बताता है, दूसरे दिन ७० रुपये और तीसरे दिन ३० रुपये, हर दिन कीमत बदलता रहता है, तो उस चीज की सही कीमत क्या है? उसकी कोई वास्तविक कीमत नहीं है क्योंकि वो बदलती रहती है। यदि मुझे कुछ सम्पत्ति खरीदनी है और कोई व्यक्ति मुझे उसका ब्यौरा देता है। पर जब उसके सम्बंधित कागजात देखता हूँ तो कुछ और ही निकलता है। तो क्या मैं उस सम्पत्ति को खरीदूंगा? नहीं, क्योंकि वो जानकारी बदल गई है। मैं एक अच्छे आदमी से मिलता हूँ, पर एक महीने में मैं यह देखता हूँ कि वो झूठ बोलता है, हेरफेर करता है, गलत काम करता है, अब मुझे उसपर कोई विश्वास नहीं होता है। हम कहते हैं कि वह विश्वसनीय नहीं है। अब क्या मैं उस पर विश्वास रखूँगा? नहीं, क्योंकि वो बदलता रहता है। एक सामान्य तरीका यह जानने का की कुछ सत्य है या असत्य है, यह है कि हम यह परखें कि वो बदल रहा है या नहीं। जब मैं समुंद्र को देखता हूँ, तो मैं लहरों को भी देखता हूँ। पर क्या मैं समुंद्र को वहीं छोड़कर केवल लहरें अपने साथ ले जा सकता हूँ? क्या बदल रहा है, लहरें या पानी? क्योंकि लहरों का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है इसलिये वो सत्य नहीं हैं। वो पानी के द्वारा लिया हुआ एक आकार हैं, एक धारणा मात्र हैं। हम पानी की आकृति को ही लहर कहते हैं। पर केवल आकार बदलता रहता है, पानी नहीं। एक और उदाहरण लेते हैं, मिट्टी और घड़े का। क्या मिट्टी को छोड़कर केवल घड़ा अपने साथ ले जा सकता हूँ? यहां क्या बदल रहा है, आकार या घड़ा? वही मिट्टी कई रूप ले सकती है - घड़ा, दिया, मूर्ति, ईंट आदि, लेकिन मिट्टी में बदलाव नहीं होता है। एक उदाहरण और है, सोना और आभूषण का। आभूषण का आकार बदलता रहता है, पर सोना वही रहता है, सोने के बिना आभूषण का कोई अस्तित्व नहीं है। आकार बदलता रहता है, तत्व नहीं। तत्व कभी नहीं बदलता है। ज्ञान मार्ग पर हम कहते हैं कि जो बदल रहा है, तो वो है ही नहीं, वह मिथ्या है, एक विचार मात्र ही है। तत्व ही अपरिवर्तनीय है, वही सत्य माना जा सकता है। अब हम अपने विभिन्न अनुभवों को देखते हैं। क्या आपके अनुभव में ऐसा कुछ भी है जो बदल नहीं रहा है? सब कुछ बदल रहा है। इसलिये सभी कुछ असत्य है। मिथ्या है। कुछ भी सत्य नहीं है क्योंकि सबकुछ बदल रहा है, इसलिये सब असत्य है। केवल एक ही है जो कभी नहीं बदलता है। वो आप ही हैं। इन्द्रियों के माध्यम से कुछ अनुभव में आता अवश्य है, पर हम यह नहीं जानते हैं कि उसका तत्व क्या है। हम किसी दृश्य को वास्तविक मान लेते हैं क्योंकि सभी को एक ही दृश्य दिखाई देता है। जिनको हमसे भिन्न कुछ दिखता है तो हम कहते हैं कि देखने में कुछ दोष है, मेरे मैं नहीं। जैसे एक कलाकार एक चित्र बनाता है, उसको उसमें बहुत कुछ दिखता है, एक ग्रामीण व्यक्ति को केवल आड़े तिरछे रंग दिखते हैं। अब क्या चित्र सुन्दर है या कुरूप? सब मानसिक धारणा है। यह इसपर निर्भर करता है कि कौन देख रहा है। सुन्दरता भी एक भ्रम है। क्योंकि सबकी सहमती नहीं है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सुन्दर चित्र है। ### नश्वरता आइए टमाटर का एक और उदाहरण लेते हैं। अगर हम एक टमाटर लें और उसे ५ दिनों के लिए मेज पर रख दें, तो क्या होगा? वो ४-५ दिनों में सड़ जायेगा , पानी और मिट्टी हो जायेगा और फिर पूरा गायब हो जायेगा। यदि हम सब कुछ वैसा ही रखें जैसा वह है, यानी इंद्रियां जैसी हैं वैसी ही रहने दें, जगत के नियम जैसे हैं वैसे ही रहने दें, यहां तक कि मन और बुद्धि भी जैसा है वैसा ही रहने दें, लेकिन कल्पना करें और केवल समय की गति तेज कर दें। जिस तरह हम किसी चलचित्र को तेजी से आगे बढ़ाते हैं, उसी तरह हम समय की गति को तेजी से आगे बढ़ाने की कल्पना करें। अब मान लीजिए कि समय की गति इतनी बढ़ा दी गई है कि वो टमाटर ५ दिन के बजाये ५ घंटे में सड़ जाता है और वह नहीं रहता है। अब टमाटर के बारे में आपकी क्या सोच है, क्या वह वास्तविक है? अब हम समय को और तेज करते हैं, और अब टमाटर ५ मिनट में सड़ जाता है। क्या टमाटर आपको अब भी वास्तविक लगता है? अब हम समय को और तेज करते हैं, और अब टमाटर ५ सेकंड में सड़ जाता है। आप टमाटर को मेज पर रखतें हो, उसे काटने के लिये चाकू उठाते हों, और ५ सेकेंड में वह गायब हो जाता है। अब आप टमाटर के बारे में क्या सोचेंगे? आप सोच सकते हैं कि आप शायद सपना देख रहे थे। आपको संदेह हो सकता है कि क्या आपके पास वास्तव में टमाटर था। अब समय को और भी तेज कर दो और टमाटर एक पल में चला जाता है। अब क्या कोई टमाटर है? आप समय की गति को इतना तेज कर सकतें है की टमाटर में होने वाले परिवर्तन को आपकी आंखे न देख सके न ही बुद्धि समझ पाए। इससे पहले कि आप टमाटर को देखें, वह गायब हो जाता है। क्या उसका होना सत्य है ? क्या वो उपयोगी है? समय को तेज करके हम यह जान सकते की हमें जो वस्तु वास्तविक और उपयोगी लगती है, वह पूरी तरह नकली और निरर्थक है। अगर समय बहुत तेजी से बढ़ता है तो वहाँ कुछ भी नहीं है। यह केवल एक परिवर्तन है। क्या इस विचार से आप सहमत नहीं हैं? वस्तुओं की स्मृति और उनमे बहुत धीमी गति से होने वाले परिवर्तन की वजह से हमें वह वस्तुएं स्थायी और वास्तविक लगती है। टमाटर के परिवर्तन काल के दौरान, उदाहरण के लिए ५ दिनों तक, वह हमारी स्मृति में रहता है; उत्तरजीविता के लिए यह उपयोगी है, इसलिए यह वास्तविक लगता है। सब कुछ ऐसा ही है, जब हम समय को तेज करते हैं तो यह एक सपने जैसा हो जाता है। एक सपना तेजी से आगे बढ़ता है और इसका कोई मतलब नहीं होता है। हम कह सकते हैं कि उस सपने में सब कुछ असत्य, झूठा, अर्थहीन था। अगर आपके सापेक्ष सब कुछ बदलने लगे, तो आप इसे एक सपने के रूप में देखते हैं। आइए एक और उदाहरण लेते हैं। एक दिन आप बाहर जाते हों और एक सुंदर बगीचा देखते हैं। अगले दिन आप सुंदर बगीचे के स्थान पर एक खंडहर और रेगिस्तान देखते हैं, जैसे कि १०० साल बीत चुके हों। अगले दिन जब आप उठते हैं तो आपको उस रेगिस्तान के स्थान पर एक पहाड़ दिखाई देता है, एक बार और १०० साल बीत चुके होते हैं। क्या आप इस पर विश्वास करेंगे? क्या सब कुछ पहले से ही ऐसा नहीं हो रहा है? फर्क सिर्फ इतना है कि यह धीरे-धीरे हो रहा है, और जो चीजें धीरे-धीरे बदलती हैं, वे वास्तविक लगती हैं। विचारों और भावनाओं के साथ भी ऐसा ही होता है। भावनाएं बहुत तेजी से बदलती हैं, विचार और भी ज्यादा तेजी से बदलते हैं। हम उन्हें वास्तविक मानते हैं क्योंकि वे दोहराते हैं। हर अनुभव ऐसा है। अनुभव की स्मृति होती है इसलिए यह वास्तविक लगता है। माया में स्थिरता होती हैं। इसलिए अगर आप रोज क्रोध में होते हैं, तो क्रोध आपके लिए वास्तविकता बन जाता है। लेकिन अगर आप अपने जीवन में पहली बार क्रोध का अनुभव करते हैं, तो आपको पता नहीं चलेगा कि क्रोध वहां है। क्योंकि आप क्रोध को दोहरा रहे हैं, आप मानते हैं कि वह वास्तविक है। अगर आप क्रोध को दोहराना बंद कर दे, तो वह आपके लिए वास्तविक नहीं रहेगा। स्मृति केवल दोहराव है और इसलिए वास्तविक प्रतीत होती है। कभी-कभी प्रेम, क्रोध आदि भावनाएं उत्तरजीविता के लिए उपयोगी होती है। क्योंकि स्मृति केवल दोहराव है, हम मान लेते हैं कि यह सच है। सत्य के मानदंड इस प्रकार मनमाने और व्यक्तिनिष्ठ हैं। कोई भी अपनी समझ और पसंद/नापसंद के हिसाब से कोई भी मानदंड तय कर सकता है। टमाटर को अगर २० लोग देखें और सब कहें कि यह लाल, गोल और स्वादिष्ट है, तो यह वास्तविक हो जाता है। क्या होगा यदि आपने सपना देखा कि टमाटर २० लोगों द्वारा देखा गया और सबने यही कहा कि यह लाल, गोल और स्वादिष्ट है, और जब आप जागे, तो क्या वो टमाटर सचमुच में था? जागृत अवस्था और स्वप्न अवस्था में मानदंड समान था, लेकिन फिर भी एक अवस्था में यह वास्तविक था, दूसरे में नहीं था। वास्तविकता मनमानी है। ### स्मृति कुछ लोग कह सकते हैं कि यद्यपि सभी घटनाओं और चीजों में भारी परिवर्तन होते हैं, वे वास्तविक हैं क्योंकि वे और उनमें होने वाले सभी परिवर्तन हमारी स्मृति में संग्रहीत हैं। अगर आपकी स्मृति में टमाटर है, तो क्या आप इसे अभी खा सकते हैं? अगर नहीं खा सकते हैं, तो क्या वह वास्तविक है? स्मृति में जो कुछ भी संग्रहीत है, केवल छाया है। आपकी स्मृति में कुछ भी वास्तविक नहीं है। आपका पूरा जीवन एक छाया है, उसमें कोई व्यक्ति नहीं है, कोई जीवन ही नहीं है। सब कुछ पूरी तरह अवास्तविक है, मिथ्या है। आप कह सकते हैं कि आप चिकित्सक या अभियन्ता या वैज्ञानिक या लेखक आदि है, किसी के बेटे या पति है, आपने अपने जीवन में बहुत कुछ किया है, आप एक महान देश और श्रेष्ठ जाति के हैं; ये सब स्मृति में संग्रहीत है, जो की केवल एक छाया मात्र है। स्मृति वास्तविक नहीं है। स्मृति में संग्रहीत कुछ भी वास्तविक नहीं है, लेकिन स्मृति उत्तरजीविता के लिए उपयोगी है। यदि आपको जीवित रहने के लिए इसकी आवश्यकता नहीं है, तो इसे त्याग सकते है। आप यह समझ चुके होंगे कि आपको (साक्षी) उत्तरजीविता की आवश्यकता नहीं है, किन्तु इस शरीर को आवश्यकता है। लेकिन शरीर आप नहीं हैं। आपको स्मृति की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है, आपको जगत की भी जरूरत नहीं है, लेकिन शरीर को जगत की जरूरत है। आपने जगत को वास्तविक मान लिया क्योंकि आप स्मृति को त्याग नहीं सकते। हमारा जीवन स्मृतिओं से बुना हुआ एक मायाजाल है, और हम उसको सत्य मान कर अपना पूरा जीवन अज्ञान में ही व्यतीत करते है। जब हम साक्षीभाव में रहते हैं तो हम वही जीते हैं जो सत्य है, यही ज्ञान है। साक्षीभाव में रहकर हम सच और झूठ के बीच अंतर कर सकते हैं। यही मिथ्या का ज्ञान है, यही माया का ज्ञान है। साक्षी के अलावा सब कुछ माया है। ## तीसरा दिन : ब्रह्मज्ञान यहां हम जांच करते हैं कि: सब कुछ एक कैसे है? यहां द्वैत क्यों नहीं है? अस्तित्व अद्वैत क्यों है? अस्तित्व पहले अस्तित्व क्या है यह देखते हैं। जो भी कुछ है वो अस्तित्व ही है। यहां क्या क्या है? आप कहीं भी जायें, आप कुछ भी देखें, आप यही पायेंगे कि अनुभव है और एक अनुभवकर्ता है। और यह दोनों सर्वदा एक साथ ही होते हैं। बस यही मूल है, और यही अस्तित्व है। हम देख सकते हैं कि यह एक ही हैं, और इसी को अस्तित्व कहते हैं। क्या आपने कभी अनुभव और अनुभवकर्ता के सिवा कुछ और कभी भी देखा है? जैसे ही आप कहते हैं कि अस्तित्व में कुछ है तो आपको उसका अनुभव करना अनिवार्य है। आपको प्रमाण चाहिये होगा, और प्रमाण अनुभव पर ही आधारित होता है। यदि आप कहते हैं कि उसका अनुभव नहीं किया जा सकता पर वो है, तो वही अनुभवकर्ता है। सर्वदा ऐसा ही है। यानी अनुभव मिथ्या है और अनुभवकर्ता सत्य है या तत्व है। यदि अस्तित्व अनुभव और अनुभवकर्ता ही है, तो अस्तित्व का तत्व क्या है? यदि अनुभव असत्य है और अनुभवकर्ता सत्य है तो अस्तित्व का तत्व अनुभवकर्ता हुआ। अनुभव तो मिथ्या रूप है अर्थात है नहीं। और स्पष्ट रुप से मैं ही अनुभवकर्ता हूँ। इसलिये इस अस्तित्व का तत्व मैं ही हूँ। सम्पूर्ण अस्तित्व मैं ही हूँ। क्या इस बात में कोई संदेह है? ### सर्वदा साथ साथ आइये इसको एक और दृष्टिकोण से देखते हैं और कुछ और प्रमाण ढूंढते हैं। क्या आपने अनुभव को अनुभवकर्ता के बिना कभी भी देखा है? या अनुभवकर्ता कभी भी अनुभव के बिना हो सकता है? यह दोनों सर्वदा एक साथ ही होते हैं। ऐसा क्यों है? यदि कुछ सर्वदा एक साथ ही है, हम उनको कभी भी भिन्न रुप में देख ही नहीं सकते हैं, तब हम यह कह सकते हैं कि वो एक ही हैं। जैसे कि घड़े को मिट्टी के बिना, आभूषण को सोने के बिना, और लहरों को पानी के बिना कभी देखा नहीं जा सकता है। सोने में आभूषण परिवर्तनीय है, मिट्टी में घड़ा परिवर्तनीय है, और पानी में लहरें परिवर्तनीय हैं। अनुभव और अनुभवकर्ता में अनुभव परिवर्तनीय हैं, अनुभवकर्ता अपरिवर्तनीय है, और दोनों एक ही हैं। इसलिये जो भी है वह मेरा ही रुप है। इसलिये कोई भी रुप (आकार) मेरे बिना नहीं है। मन अनुभव और अनुभवकर्ता में विभाजन करता है। लेकिन मन तो अपने आप ही एक अनुभव मात्र ही है। अर्थात मिथ्या ही है, और मिथ्या ही कह रहा है कि द्वैत है। ### विभाजन अब हम दो हैं, इसका प्रमाण ढूंढते हैं। क्या अनुभव और अनुभवकर्ता में कोई दूरी है? इस तरह हम अपरोक्ष अनुभव पर आ जाते हैं। अपने आप से यह सवाल इसी क्रमानुसार पूछें: आप कहां हैं? आपके सामने क्या है? आपके सामने जो भी वस्तु है उसकी अनुभवकर्ता से कितनी दूरी है? किसी फीते से दूरी को नापें। परंतु यह दूरी शरीर से नहीं बल्कि आपसे यानी अनुभवकर्ता से नापनी पड़ेगी। मन कह रहा है कि वस्तु बाहर कहीं दूर है। अज्ञानवश ये आभास होता है कि मैं यह शरीर हूँ, और शरीर से तो वह वस्तु दूर लगती है , पर आपसे (साक्षी से) कितनी दूर होगी? क्या फीते से ये नापना संभव है? जहां कहीं भी अनुभवकर्ता है, वहीं पर अनुभव भी है। और वो दोनों सर्वदा अभी हैं और यहीं हैं। बाकी सब केवल मन द्वारा रची गई कोरी कल्पना मात्र है। यदि हर वस्तु वहीं पर है जहां पर आप हो, तो यह सारा संसार वहीं पर है जहां आप हो। बाकी सब केवल इन्द्रियों का रचा मायाजाल है, वहां कुछ है नहीं। इन्द्रियों के माध्यम से जो भी अनुभव होते हैं सभी मानसिक होते हैं। मुझे आपके अनुभव ज्ञात नहीं हो सकते हैं, आपको मेरे अनुभव ज्ञात नहीं होते हैं। इसलिये हम काव्यात्मक रुप से कह देते हैं, सब कुछ मुझमें ही है। मुझसे भिन्न कुछ नहीं है। सब कुछ मुझमें ही है। मैं ही अस्तित्व हूँ, सब कुछ मुझमें है। यही अपरोक्ष अनुभव है। आइए एक और उदाहरण लेते हैं। क्या अनुभव पहले होता है और अनुभवकर्ता बाद में आता है? क्या अनुभवकर्ता पहले आता है और अनुभव बाद में? हर जगह और हर पल, अनुभवकर्ता और अनुभव एक साथ हैं, एक समय हैं। सैद्धांतिक रूप में वे अलग-अलग प्रतीत होते हैं, हालांकि, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। अनुभव हर पल बदल रहे हैं, और उनमें भिन्नता होती हैं, लेकिन सारे अनुभव अनुभवकर्ता से अलग नहीं हैं। लहरें बदल रही हैं लेकिन क्या वे पानी से अलग हैं? मिट्टी का आकार बदल जाता है लेकिन क्या घड़े और मिट्टी के बीच अलगाव होता है? मन अनुभव और अनुभवकर्ता में विभाजन करता है, लेकिन वास्तव में दोनों एक ही है। ### सीमा एक और तरीका है यह जानने का की यह सब कहां है? मेरे और वस्तु के बीच में सीमा रेखा कहां है? यदि वस्तु बाहर कहीं दूर है, तो कहां पर अनुभवकर्ता शुरू होता है, और कहां पर अनुभव खत्म होता है। मतारोपण के कारण हम वस्तुओं को शरीर से कहीं बाहर देखता हैं, परन्तु शरीर खुद कहां है? हम कह सकते हैं मन के बाहर, पर फिर मन कहां है? कुछ लोग कह सकते हैं कि मन मुझसे बाहर है, मैं मन नहीं हूँ। मेरे और मन के बीच में सीमा रेखा कहां है? आप कह सकते हैं कि वस्तुएं कहीं बाहर हैं पर विचारों के बारे में क्या कहा जा सकता है? वास्तव में कहीं भी कोई सीमा रेखा नहीं है। अज्ञान के कारण भ्रम है। अनुभव और अनुभवकर्ता एक ही हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अर्थात वही एकमात्र अस्तित्व मैं ही हूँ। फिर दूसरे व्यक्ति कौन हैं? वो भी तो यही कहेंगे कि मैं ही अस्तित्व हूँ। तो क्या इसका अर्थ यह है कि अनेक अनुभवकर्ता हैं और अनेक अस्तित्व हैं। ऐसा नहीं हो सकता है। एक ही अनुभवकर्ता जिसको अनगिनत अनुभव हो रहे हैं। अनुभवकर्ता का तत्व क्या है? खालीपन, या शून्यता। अस्तित्व का तत्व क्या है? शून्यता। केवल शून्यता ही है, पर हम केवल अनुभव और अनुभवकर्ता को ही देखते हैं। अस्तित्व शून्यता है, जो स्वयं का ही अनुभव अनेक रूपों में कर रहा है। यही एकता या अद्वैत का ज्ञान है। ### अद्वैत कोई अद्वैत का अनुभव किस तरह कर सकता है? अद्वैत का कोई अनुभव नहीं होता है। जैसे ही कोई अनुभव होता है, साथ ही अनुभवकर्ता भी होता है। केवल होना मात्र ही है। जो है वही होना ही अद्वैत है। आप अभी इस क्षण भी वह ही हैं। मन अद्वैत में विभाजन करता है, पर मन का ही प्रयोग करके यह जान सकते हैं कि कोई विभाजन नहीं है। मन का स्वभाव है कि वो अद्वैत में विभाजन करता है, और बुद्धि उस विभाजन के आर पार देख सकती है कि और जान सकती है कि दो नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि दो नहीं हैं। केवल अद्वैत ही है। इस होने मात्र को हम अनुभवक्रिया कह सकते हैं। केवल अनुभवक्रिया मात्र है। आपकी अवस्था अभी भी अनुभवक्रिया की ही है। इसी को अद्वैत की अवस्था भी कहते हैं। इसके अलावा और कोई अवस्था सम्भव नहीं है। यही अस्तित्व की अवस्था है। वैराग्य से इस स्थिति में बने रहना सम्भव है। एक जगह शांती से बैठ जाइये और विरक्त भाव से अपने ध्यान को फैलने दीजिये, और शरीर, विचार, इच्छाओं और अहम भाव को अपने ध्यान में शामिल कर लीजिये, और आप केवल अनुभवक्रिया को ही देख पायेंगे। यही समाधि है। हम हमेशा समाधि में ही होते हैं, पर मन की गतिविधियों या चित्त वृत्ति उसको छुपा देती है। सब कुछ जागृत अवस्था के पीछे छुप जाता है, परन्तु यदि हम ध्यान देंगे तो पाते हैं कि केवल शून्यता मात्र है। मैं, अहम कहीं नहीं है। यही खाली या शून्य होना है, एक होना, पूर्ण अस्तित्व होना भी यही है। अस्तित्व के परदे पर सब कुछ एक स्वप्न की तरह प्रतीत हो रहा है। यदि आप समाधि में स्थित होना चाहते हैं, तो वो यहीं है और अभी है। तुम स्वयं ही अद्वय अस्तित्व हो, जो स्वयं को ही मिथ्या रुपी स्वप्न के रुप में अनुभव कर रहे हो। यही साधना का अन्त है, अध्यात्म का अन्त है, ज्ञान का अन्त है। ## अतिरिक्त संस्करण ### अनुवाद निम्नलिखित भाषाओं में इस त्रिदिवसीय कार्यक्रम का रूपांतर उपलब्ध है। * अंग्रेजी * मराठी * गुजराती * नेपाली * फ़ारसी * जर्मन * मलयालम * उर्दू * कन्नड़ * तेलुगु * मैथिली * भोजपुरी * तमिल ## सहायता इस कार्यक्रम के बाद, वैसे तो अधिकतर साधक आनंद, हल्कापन, सकारात्मक विचारों का अनुभव करेंगे, परन्तु कुछ साधकों को कार्यक्रम के बाद कुछ दिनों तक सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। कुछ लक्षण और कुछ भावनाओं की अभिव्यक्ति हो सकती है। कुछ में चरम भावनायें भी प्रकट हो सकती हैं। कुछ को रोना आ सकता है या विरक्ति हो सकती है। इसको करने के कुछ दिनों या कुछ सालों में जीवन शैली, सम्बन्धों, व्यवसाय आदि में बहुत बड़ा बदलाव भी आ सकता है। इससे अधिकतर कुछ हानि नहीं होती है, परंतु कुछ साधकों में भय, बेचैनी, निराशा, अवसाद, बीमारी आदि भी पैदा हो सकता है। पर यह सब स्वाभाविक रूप से कुछ ही दिनों में अपने आप चला भी जाता है। परंतु इस तरह के साधकों को सुझाव है कि वो अपनी डाक्टरी जांच करवा लें, और फिर समर्पण भाव में रहें, और जब तक आवश्यक है तब तक अपने शिक्षक के सम्पर्क में रहें।
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions