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त्रिज्ञान से करें अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत
स्वप्रकाश
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।। इस लेख में आप आत्मज्ञान,माया का ज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान के बारे में जानेंगे। तो चलिये आत्मज्ञान से प्रारम्भ करते है। **आत्मज्ञान:** आत्मा अर्थात तत्व। स्वयं के तत्व का ज्ञान ही आत्मज्ञान हैं। आत्मज्ञान से पूर्व सत्य क्या है इसके बारे में जानना अति आवश्यक है।तो चलिये अब सत्य की परिभाषा से प्रारम्भ करते हैं। आप व्याहरिक तौर पर सत्य किसे कहते है। **जो नित्य है अर्थात बार-बार परिवर्तित नहीं होता।** जैसे पृथ्वी एवं अन्य ग्रह कई मिलियन वर्षों से सूर्य के परिक्रमा कर रहे है; पानी को 100 डिग्री के ज्यादा गरम करने पर वाष्प के रूप में परिवर्तित हो जाता है; आप कुछ खरीदने जाते हैं तो किसी वस्तु का मूल्य निर्धारण आप इसी के आधार पर करते हैं जैसे 3-4 दुकानों से पूछने पर यदि मूल्य ज्यादा परिवर्तित नहीं होता तो उसे उस वस्तु का उचित मूल्य समझ कर खरीद लेते है। **समय एवं स्थान के अनुसार परिवर्तित नहीं होता है।** जैसे: सूर्य वर्ष के 12 महीने प्रतिदिन (समय से अप्रभावित) एवं प्रत्येक स्थान (स्थान से अप्रभावित) पर पूर्व दिशा से उदय होता है एवं पश्चिम दिशा में अस्त है इसलिये सूर्य का उदय एवं अस्त होना सत्य कहा जाता है। **जिसकी पुनरावृत्ति अर्थात दोहराव होता है।** जैसे: सूर्य प्रतिदिन पूर्व दिशा से उदय होता है एवं पश्चिम दिशा में अस्त है इसलिये सूर्य का एक निश्चित दिशा में उदय एवं अस्त होना सत्य कहा जाता है। इस प्रकार के विज्ञान एवं गणित से संबन्धित एवं अन्य व्यवहरिक उदाहरण आप अपने प्रतिदिन के जीवन में अनुभव करते हैं एवं उनके आधार पर व्यवहार करते है। **ज्ञानमार्ग में सत्य का मानदंड** **जो अपरिवर्तनशील है वह सत्य है।** जो भी परिवर्तित हो जाता है वह असत्य है। जो उत्पन्न होता है उसका अंत भी होता है। अर्थात जिसकी सृष्टि होती है उसमें परिवर्तन अवश्य होता है। जैसे जगत में विभिन्न प्रकार के चर-अचर जीव जन्तु, पेड़ पौधे,पशु पक्षी,हमारा सौरमण्डल, सम्पूर्ण ब्राह्मण आदि जो कुछ भी है जिसका हमें अनुभव हो जाता है सभी परिवर्तनशील अर्थात सभी असत्य है। **ज्ञानमार्ग में ज्ञान के मान्य साधन** **अपरोक्ष अनुभव** (स्वयं का अनुभव) एवं **तर्क** (अनुभवों के आधार पर अनुमान) अब हम सत्य के मानदंड एवं अपरोक्ष अनुभव तथा तर्क के साधन का उपयोग करके आत्मज्ञान, मायाज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान के बारे में जानेंगे। चलिए शुरू करते है। यदि मैं आप से पूछूँ की आप कौन हैं?तोआप कहेंगे कि मुझे तो ज्ञात है ही मैं कौन हूँ। आप अपना नाम, लिंग, गोत्र, परिवार, जाति, धर्म, देश, व्यवसाय आदि के द्वारा स्वयं का ज्ञान रखते हैं। और कहते हैं कि मैं यह हूँ। यदि मैं कहूँ कि यह सब आप नहीं हैं।तो आप शायद मुझ से सहमत न होंगे इसलिये हम मिलकर सत्य का जो मानदंड है उसके आधार पर इसे प्रमाणित करते हैं। जैसा कि मैंने पूर्व में बताया कि स्वयं के तत्व को जानना ही आत्मज्ञान है तत्व को जानना क्यों आवश्यक है। तो मैं कहता हूँ कि तत्व ही एकमात्र सत्य है बाकी सब असत्य है। इसलिये पहले तत्व क्या है इसे जान लेते हैं। किसी विषय वस्तु का तत्व वह है, जो उसमें से सभी अनावश्यक चीजों को हटाने के पश्चात शेष रह जाता है। तत्व अंतिम अविभाज्य है जिसे हटाया नहीं जा सकता। जिसे भी हटाया जा सकता है वह सब नाम-रूप हैं। जैसे मिट्टी के घड़े में घड़ा नाम-रूप है एवं मिट्टी तत्व है। स्वर्ण के आभूषणों में, आभूषणों के प्रकार जैसे हार, कड़े, कंगन, अंगूठी इत्यादि नाम-रूप हैं तथा स्वर्ण इन सभी का तत्व है। तत्व के बिना उस विषय-वस्तु का अस्तित्व संभव नहीं है। जैसे मिट्टी के घड़े में से मिट्टी को हटाना संभव नहीं है,अतः मिट्टी ही तत्व है। और स्वर्ण के आभूषणों में से स्वर्ण को हटाना संभव नहीं है,अतः स्वर्ण ही तत्व है। सभी नाम-रूप परिवर्तनशील हैं किन्तु तत्व अपरिवर्तनशील है। सभी नाम-रूप परिवर्तनशील होने के कारण मिथ्या (असत्य) हैं एवं केवल तत्व ही सत्य है क्योंकि वह अपरिवर्तनशील है। जैसा कि हमने जाना कि ज्ञानमार्ग में सत्य का एकमात्र मानदंड अपरिवर्तनशीलता है। अतः शास्त्रों में वर्णित बहूउपयोगी नेति नेति की विधिके द्वारा ज्ञानमार्ग में स्वयं के तत्व को जाना जाता है।नेति नेति की विधि के अनुसार.... **जो भी परिवर्तित हो जाता है वह मैं नहीं हूँ।** **जिसका भी अनुभव हो जाता है वह भी मैं नहीं हूँ।** चलिये अब इस विधि का उपयोग करते हैं। द्वैत के स्तर पर एक मैं हूँ और दूसरा जगत है। जगत को भौतिक एवं अभौतिक जगत में विभाजित किया जा सकता है। भौतिक जगत का हम सभी भौतिक इंद्रियों के द्वारा अनुभव करते हैं जैसे आँखों से सभी रूपों,रंगों को देखते हैं,कानों के द्वारा सभी ध्वनियाँ सुनते हैं,त्वचा के द्वारा स्पर्श का अनुभव करते हैं, नाक के द्वारा सूंघने का अनुभव तथा जिह्वा द्वारा स्वाद के अनुभव। जगत को देखने एवं सुनने के अनुभव सभी को होते हैं। जैसे यह सम्पूर्ण सृष्टि (सभी वनस्पति, जीव-जन्तु,पहाड़, मिट्टी, जल, वायु, प्रकाश, अन्य ग्रह,उपग्रह, तारे, आकाश गंगायें, यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड) सभी को दिखाई एवं सुनाई देती है। इनमें जो भी विषय-वस्तु हमारी इंद्रित्यों की सीमा से बाहर होती है उन्हें हम उपकरणों जैसे सूक्ष्मदर्शी,दूरदर्शी (टेलीस्कोप), सैटेलाइट, इंटरनेट एवं अन्य आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणो के माध्यम से अनुभव कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमें स्वयं के शरीर का अनुभव होता जो कि व्यक्तिनिष्ठ है जैसे भार का अनुभव, संवेदनाओं का अनुभव (दर्द, भूख, प्यास, मल मूत्र के आवेग, तापमान का अनुभव, हृदय गति, भार का अनुभव), भावनाओं का अनुभव (क्रोध, प्रेम, करुणा, खुशी, काम वासना, लोभ, ईर्ष्या) ये सभी भौतिक अनुभव हैं। अभौतिक जैसे मन (स्मृति, इच्छायेँ, विचार, कल्पनाएँ, स्वप्नावस्था के अनुभव, बुद्धि, अहम भाव) इत्यादि। सभी अभौतिक अनुभव सूक्ष्म मानसिक इंद्रियों द्वारा होते हैं। इस प्रकार जगत के सभी अनुभवों एवं स्वयं के शरीर एवं मन के सभी अनुभवों का मुझे ज्ञान हो जाता है। ये सभी परिवर्तनशील हैं। जन्म से लेकर अब तक मेरा शरीर(रंग, रूप,आकार), मन (स्मृतियाँ,विचार, इच्छाएं, बुद्धि,अहमभाव) लगातार परिवर्तित हो रहे हैं किन्तु मैं इनके साक्षी के रूप सदा से मौजूद हूँ। अर्थात यह सभी अनुभव मैं नहीं हूँ। मैं इन सभी को अनुभव करने वाला हूँ। अर्थात मैं अनुभवकर्ता हूँ। अनुभवकर्ता को दृष्टा, साक्षी, आत्मन, ब्रह्मन, ज्ञाता के नाम से भी जाना जाता है। इसी प्रकार अनुभव को दूसरे अन्य नामों जैसे दृश्य, नाम-रूप, ज्ञेय, माया, मिथ्या आदि नामों से भी जाना जाता है। अतः जो कुछ भी परिवर्तित हो जाता है एवं जिसका अनुभव हो जाता है उसे माया कहते है। इसलिये सम्पूर्ण जगत को माया कहा गया है क्योंकि यह परिवर्तनशील है। इसी प्रकार जिसे हम व्यक्ति कहते हैं वह एक भौतिक एवं अभौतिक अनुभवों का एक समूह मात्र है। मैं यह व्यक्ति अर्थात मनोशरीर यंत्र नहीं हूँ क्योंकि यह भी परिवर्तनशील होने के कारण मुझे इसका भी अनुभव होता है। सारांश में यदि कहें तो मैं यह जगत, यह मनोशरीर यन्त्र एवं कोई भी भौतिक या अभौतिक अनुभव नहीं हूँ मैं इन सभी का दृष्ट/साक्षी/अनुभवकर्ता हूँ। यही **आत्मज्ञान** है। अब यदि आप ध्यानपूर्वक देखेंगे तो ज्ञानमार्ग का सत्य का मानदंड इतना कारगर है कि मात्र एक शब्द **परिवर्तनशीलता** सत्य (तत्व) एवं असत्य (माया) को एकदम सटीकता से परिभाषित कर देता है। इसे ज्ञानमार्ग का मूलमंत्र कह सकते है। जो भी अपरिवर्तनशील है वह मैं हूँ (आत्मज्ञान) एवं जो परिवर्ततनशील है वह **माया** है। क्योंकि अनुभवकर्ता का अनुभव नहीं हो सकता तो उसका ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञानमार्ग में अनुभवकर्ता का नकारत्मक विश्लेषण कई शब्दों से किया जाता है। इन्हे अनुभवकर्ता का स्वरूप या उपनाम कह सकते हैं। अनुभवकर्ता निर्गुण (गुण,दोष, लक्षण रहित),निराकार,समयहीन, सर्वव्यापी (प्रत्येक स्थान पर व्याप्त), अजन्मा, अजर, अमर, अरचित, स्वयंभू (स्वयं उत्पन्न), स्वयंसिद्ध (कारणहीन, प्रक्रिया हीन), आनंद (सुख-दुख का अभाव), शांति, शून्यता है। मूलरूप से अनुभवकर्ता एक ही है। यह शुन्यता मात्र है जिसमें अनुभवों के प्रकट होने कि अनंत संभावनाएँ हैं। **ब्रह्मज्ञान:** इस प्रकार हमने पाया की मूलरूप से दो ही हैं। एक अनुभव (जगत, शरीर, मन) एवं इनको अनुभव करने वाला अर्थात मैं (अनुभवकर्ता/दृष्टा/साक्षी)। अनुभव एवं अनुभवकर्ता यह दोनों ही मिलकर सम्पूर्ण अस्तित्व है। दूसरे शब्दों में कहें तो अनुभव एवं अनुभवकर्ता एक सम्पूर्ण अस्तित्व के दो आयाम है। सम्पूर्ण अस्तित्व को ही ब्रह्म कहा जाता है। अनुभव एवं अनुभवकर्ता का विलय ही ब्रह्मावस्था है। अनुभव एवं अनुभवकर्ता दो नहीं एक हैं यही ब्रह्मज्ञान है। इसे ही अद्वैत या एकता या अनुभवक्रिया या सहज समाधि भी कहा जाता है। जैसे सिक्का के दो पहलू दोनों अलग प्रतीत होते है। किन्तु हैं एक सिक्का ही। जैसे मिट्टी के घड़े में मिट्टी (तत्व)एवं घड़ा (नाम-रूप)। मिट्टी को कभी भी उसके नाम-रूप से पृथक नहीं किया जा सकता मिट्टी मिलेगी तो सदा ही किसी नाम-रूप में ( जैसे घड़ा, बर्तन, मूर्ति,खिलौने या अनियमित रूप जैसे मिट्टी का ढेर); इसी प्रकार स्वर्ण (तत्व) भी सदा ही किसी न किसी नाम-रूप (स्वर्ण हार,कंगन, चेन, अंगूठी, सोने का बिस्किट, सोने का तार, या कोई और अनियमित रूप जैसे सोने के टुकड़े आदि) में होगा। इस प्रकार से अनुभव (नाम-रूप) को अनुभवकर्ता (तत्व) से पृथक नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों एक ही हैं। अनुभव मिथ्या है। एवं अनुभवकर्ता ही सत्य है। द्वैत के स्तर पर दोनों में भेद दिखाई देते हैं। किन्तु अद्वैत के स्तर पर दोनों एक ही है। अद्वैत का ज्ञान संभव नहीं है। अद्वैत हुआ जा सकता है। जो कि आप और मैं पहले से ही हैं। हम सदा ही ब्रह्मवस्था में ही होते हैं। एक और उदाहरण से इसे समझते हैं, जैसे दिन में आपको जागृत अवस्था के अनुभव होते है। जब आप स्वप्नवस्था में होते हैं तो आपको स्वप्न के अनुभव होते हैं तथा जब आप गहन निद्रा में होते हैं तो आपको निद्रा की अवस्था का अनुभव होता है जिसे आप जागने के बाद बताते हैं कि मैं तो सो रहा था। इन तीनों अवस्थाओं में आप पाएंगे कि आपके शरीर की केवल अवस्थाएँ परिवर्तित हो रही है। और आप इन सभी अवस्थाओं के साक्षी के रूप में सदा ही बने रहते है। इस प्रकार आप यदि ध्यान दें तो आप पायेंगे कि अनुभव निरंतर हो रहे हैं (जागृत अवस्था में जगत के अनुभव;स्वप्नवस्था में स्वप्न के अनुभव;निद्रावस्था)। आप यदि अपने सम्पूर्ण जीवन को देखेंगे तो पायेंगे की जीवन अनंत अनुभवों की एक श्रृंखला है। जीवन में केवल घटनाएँ शुरू एवं अंत होती हैं किन्तु अनुभव तो सदा ही रहता है। अनंत घटनाएँ एक ही अंतहीन अनुभव का भाग हैं। आप यदि चाहें तो भी कभी भी अनुभव को रोक नहीं सकते क्योंकि अनुभव एवं अनुभवकर्ता दोनों एक ही है। दोनों में स्थान एवं समय की कोई दूरी नहीं है। इस प्रकार अभी जो आपकी अवस्था है वह ब्रह्मावस्था है। ब्रह्मावस्था अद्वैत अवस्था है और अद्वैत या एकता को जाना नहीं जा सकता क्योंकि जानने के लिए दो (ज्ञेयया अनुभव:- जिसका ज्ञान हो रहा है;ज्ञाताया अनुभवकर्ता:- जानने/अनुभव करने वाला) का होना आवश्यक है जबकि वास्तव में दो नहीं हैं केवल एक ब्रह्म है इसलिए ब्रह्म को जाना नहीं जा सकता, केवल ब्रह्म हुआ जा सकता है। जोकि आप अभी हैं इसी समय जब यह लेख पढ़ रहे है या कोई भी कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार उपरोक्त तत्व के एवं अनुभवों के जो उदहारण मैंने प्रस्तुत किये हैं। ऐसा आपका भी अनुभव होगा। आप इसी प्रकार और भी उदाहरण के द्वारा एवं तर्क के द्वारा स्वयं के तत्व को सत्यापित कर सकते है क्योंकि ज्ञान तो स्वयं के अनुभव और तर्क के द्वारा ही सत्यापित होता है। तभी आप इस ज्ञान को आत्मसात कर पाएंगे। इस प्रकार ज्ञानमार्ग आत्मज्ञान (द्वैत, भेद ) से शुरू होकर ब्रह्मज्ञान (अद्वैत, एकता) पर अंत हो जाता है। यह ज्ञान मैंने अपने गुरु के संकेतों द्वारा जाना एवं इसे स्वयं के अनुभव एवं तर्क के द्वारा सत्यापित किया है। अतः आप भी स्वयं के अनुभव एवं तर्क के द्वारा स्वयं को जाने एवं अपनी आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ करें। **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के आभारी हूँ। **सन्दर्भ** त्रिज्ञान से सम्बंधित बोधिवार्ता चैनल यूट्यूब विडियो. तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (तृतीय एवं चतुर्थ भाग), नोशन प्रेस, पृष्ठ संख्या ४६४. **साधक** स्वप्रकाश............ ईमेल:swaprakash.gyan@gmail.com
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