Wise Words
धर्म
शैल
तस्मै श्री गुरुवे नमः वह जो गुणों को प्रगट करे धर्म है। जब भी निर्गुण शून्य प्रगट होता है नाम रूप में, तो कुछ गुणों के कारण ही प्रगट होता है। इस प्रकार गुण उसका स्वभाव बन जाता है। जिनके कारण होना मात्र संभव है। सूर्य का होना उसके प्रकाश और ताप के गुणों को धारण करने के कारण ही वह सूर्य है। सूर्य को दिया गया नाम और पहचान है, जिससे उन गुणों को जोड़ दिया जाता है। गुण स्वभाव को व्यक्त करता है। स्वभाव का अर्थ होने का भाव। ताप और स्वप्रकाशित पुंज जिसकी किसी पर निर्भरेता नहीं है, सूर्य है। यदि वही सूर्य पानी की बूंदों में अथवा दर्पण में प्रतिबिंबित होता हो, तो वह सूर्य नहीं हो जाएगा। इस प्रकार सूर्य को प्रतिबिम्बित करने के कारण पानी का धर्म नहीं बदल जाता। अथवा दर्पण का स्वभाव बदलकर सूर्य नहीं हो जाएगा। थोड़ी देर के लिए सूर्य की प्रतीति होने पर भी उसके गुण परिलक्षित नहीं होंगे। आभास मात्र होगा। यदि इस कारण से पानी की बूंद अथवा दर्पण को सूर्य समझ लिया जाए तो यह उनके गुणों का आच्छादन होगा। धर्म स्वभावगत गुणों को उजागर करता है। उन्हें प्रकाशित करता है। इसमें प्रयास नहीं लगता। उसका होना ही प्रमाण है। स्वभाव के अनुरूप व्यवहार प्रकृति के साथ तारतम्यता है। यदि कोई पदार्थ, वस्तु अथवा जीव अपने स्वभाव के विपरीत व्यवहार करे तो निश्चित ही वह उसके स्वभाव से मेल नहीं खाएगा। एक संघर्ष पैदा होगा। फिर उस पहचान को बनाए रखने के प्रयास में वह अपने स्वभाविक गुणों को खो देगा। धर्म का आरोपण नहीं हो सकता । धर्म गुणों का प्रगटीकरण है। धर्म स्वभाव में होना मात्र है। मनुष्य का धर्म स्वयं को जानना है। अन्यथा जीव की वृत्ति से मनस तक महीं पहुँच सकता । जिन-जिन क्रिया कलापों अथवा आडम्बरों में लिप्त होने को धर्म कहा गया है वे एक प्रकार से सामाजिक मतारोपण का परिणाम है। धर्म की गलत व्याख्या है। एक बच्चा जब अपने स्वभावगत संस्कारों के विपरीत किसी सामाजिक व्यवस्था में डाल रहा होता है, तब वह अपने गुणों से दूर अलग होने के संस्कारों को मजबूत कर रहा होता है। गुणों के अनुरूप व्यवहार धर्म की अभिव्यक्ति है। यदि उस पर आरोपण न हो तो उसके द्वारा जो भी अभिव्यक्त होगा, वह उसके स्वभाव के अनुरुप होगा। जिस प्रकार पानी का धर्म अग्नि को बुझाना है। वह अग्नि को प्रज्जवलित नहीं कर सकता। इस प्रकार अग्नि को पानी द्वारा बुझाए जाने में उसका गुण परिलक्षित होता है । उससे अलग नहीं है। शक्कर की मिठास शक्कर का धर्म है। उसके द्वारा कर्तव्यपरायणता के भाव में अपनाया गया गुण नहीं है। धर्म ऋग्वेद में विशेषण अथवा संज्ञा की तरह, अथर्ववेद में आचरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण में सकल धार्मिक कर्तव्य के रूप में वर्णित है। धर्म वह है जो मुक्ति की ओर ले जाए। धर्म आचरण है, वह आचरण जो मनुष्य को धारणाओं से अलग कर सत्य में स्थापित करने में सहायक हो, धर्म है। जो मैं से मुक्त कर दे, धर्म है। सत्य में रहना धर्म है। जब व्यक्ति अपने धर्म में स्थित होगा तब उसे सही और गलत, उचित अनुचित के द्वंद पर निर्भर नहीं रहना होगा। वह अपना धर्म स्वयं के स्वभाव के अनुरुप निर्मित करेगा। किन्तु यदि उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग अथवा निर्णय को कोई और केवल इसलिए मानकर बनेगा कि चले कि वही उसके लिए भी श्रेयष्कर है तो वही आचरण दूसरे व्यक्ति के लिए अधर्म हो सकता है। इसलिए धर्म को वैयक्तिक कहा गया है। धर्म अनुसरण नहीं है अवधारणा नहीं है। धर्म भय में नहीं ले जाता। धर्म सत्य निष्ठताता से उपजता है। इसलिए सत्य को जानना, सत्य में स्थित होने जैसा है। यह अहम् से मुक्ति का साहस देता है। अज्ञान के कारण व्यक्ति अहम् से मुक्त कर परम जीवन को मृत्यु समझ कर अमूल्य जीवन से वंचित रह जाता है, और जीवन भर दुःख पाता है। मनुष्य का स्वभाव आनन्द है : किन्तु वह सर्वथा दुःखों से ही घिरा होता है। जीवन में मनुष्य दुःख ही इसलिए पाता है कि वह स्वयं को जानता नहीं और अपने झूठे अहम पर मान्यताओं का आरोपण धर्म के नाम पर कर लेता है। प्रकृति में धर्म के विपरीत कुछ भी नहीं है। मैं ही धर्म से दूर ले जाता है और स्वभावगत गुणों का दमन ग्रन्थियाँ निर्मित करता जाता है। इसलिए जैन धर्म शास्त्र में निग्रन्थ हो जाने को मोक्ष कहा गया है। अर्थात् किसी प्रकार के द्वन्द का न होना। प्रकृति में जब सभी अपने गुणों के अनुरुप धर्मानुसार आचरण करें तो प्रेम निर्वाध बहता है। प्रेम के सिवा और कुछ भी नहीं। इसलिए अस्तित्व के सृजन और विलीनता की प्रक्रियाओं में सम्पूर्णता है। सुन्दरता है। स्वभाव में होना निःप्रयास है। प्रयास सभी धारणाओं और मान्यताओं से निर्मित अशुद्धियों से मुक्त होने में है। तभी तो गीता में श्री कृष्ण ने कहा है सर्व धर्म परित्यज्य मामेक शरणं व्रज । अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि या शुचः।
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