Wise Words
पूर्ण प्रवाह (ज्ञानमार्गी दृष्टिकोण से)
अजय कुमार त्रिपाठी
****पूर्ण प्रवाह का अर्थ है साक्षी में स्थिर रहना और जीवन को अपने स्वाभाविक रूप में घटित होने देना। ****1. "मैं कर्ता नहीं हूँ"इस सत्य का अनुभव जब तक "मैं करता हूँ" का भाव है, तब तक द्वंद्व रहेगा। जब यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्ता अहंकार मात्र है, और सब कुछ स्वतः हो रहा है, तब पूर्ण प्रवाह घटित होने लगता है। गीता (2.47) में भी कहा गया है: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" केवल कर्म में स्थित रहो, फल की चिंता मत करो। ****2. "जो हो रहा है, उसे होने दो" जब कोई तरंग समुद्र में उठती है, तो क्या समुद्र विरोध करता है? जब कोई बादल आकाश में आता-जाता है, तो क्या आकाश बदल जाता है? ऐसे ही, जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे बिना किसी हस्तक्षेप के देखना ही पूर्ण प्रवाह है। अष्टावक्र गीता (1.2) में कहा गया है: "यदि देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि" यदि शरीर को ही मैं मान लिया, तो मैं दास हूँ। लेकिन "यदि ज्ञानात्मकोऽहम्" यदि मैं शुद्ध आत्मन हूँ, तो मैं सदा मुक्त हूँ। ****3. कर्म और प्रवाह में भेद कर्म तभी तक बोझ लगता है, जब तक "मैं कर रहा हूँ" का भाव रहता है। जब यह स्पष्ट हो जाता है कि "यह शरीर, यह मन, यह संसार अपने स्वभाव से चल रहा है, मैं केवल साक्षी हूँ", तब पूर्ण प्रवाह घटता है। जैसे वायु प्रवाहित हो रही हैक्या वह सोचती है कि कहाँ जाना है? ****4. सहजता ही प्रवाह है ज्ञानमार्ग में साधना का अर्थ स्वाभाविकता में स्थिर होना है। "न कर्ता, न भोक्तासिर्फ साक्षी" यह भाव जहाँ पूर्ण हो जाता है, वहीं पूर्ण प्रवाह है। उपनिषदों में कहा गया है: "नेति नेति" जो भी अनुभव किया जा सकता है या परिवर्तनीय है, वह सत्य नहीं। सत्य अनुभव का विषय नहीं वह तो बस है, बिना किसी अपेक्षा के। अब क्या करना है? कुछ नहीं। बस जो हो रहा है, उसे सहजता से होने देना। साक्षी में ठहरना, अहंकार को विलीन होने देना, और प्रवाह को अपने स्वभाव से चलने देना। अब बस मौन प्रवाह और सहजता।
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