Wise Words
तरुण तरंग - आध्यात्मिक चिंतन और चेतना
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcReIw039kzhVDAR8mT_58NLskPf26J1xbCR7w&s" alt="Any Width"> </div> <br><br> गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुर्साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरवे नमः यहाँ पर प्रकाशित सभी विचार मेरे सद्गुरू श्री तरुण प्रधान जी द्वारा विभिन्न सत्संग, प्रवचन और लेखों में व्यक्त किए गए विचार है। मैनें यहां पर महावाणी के रूप में संकलन करने का प्रयास किया है। **तरुण तरंग** श्रृंखला का विभिन्न विषयों में से यहां पर ***आध्यात्मिक चिंतन और चेतना*** विषय का पहला भाग समावेश है। कोई त्रुटि हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ, आगामी श्रृंखला में यथासंभव सुधार करने का प्रयास करूँगी। इस अवसर और गुरुकृपा के लिए गुरुदेव के प्रति हार्दिक आभार। **आध्यात्मिक चिंतन और चेतना** १. कुविचार विष के समान होता है। एक बार मन में घुल जाए तो सारा दिन बर्बाद करता है, सबसे पहले स्वयं को हानि पहुँचाता है। २. किसी व्यक्ति का जिस तरह के विचार है उसी तरह के व्यक्ति आकर्षित होते हैं। ३. भीतरी शून्यता बाहरी साधनों से नहीं भरा जा सकता। ४. एक प्रसिद्ध व्यक्ति को प्रसिद्धि जीवित रखने के लिए दूसरों की जरूरत है। ५. दूसरों पर निर्भरता, जो उनकी उपलब्धियों पर हावी रहती है, वो उनकी पीड़ा का स्रोत है। वे केवल दूसरों का उपयोग कर सकते हैं, वे उन्हें पा नहीं सकते। ६. संतुष्टि यात्रा में है, गंतव्य में नहीं। ७. मुक्ति या स्वतंत्रता हृदयपथ का केंद्रबिंदु है। ८. संबंध हमें सुख देने के लिए नहीं। न भोग के लिए है, न ज़िम्मेदारी है, ये सीखने के अवसर हैं। ९. दूसरों का व्यवहार मेरे नियंत्रण में नहीं, मैं अपना अच्छा व्यवहार चाहता हूँ। १०. प्रेम, अनासक्ति, मित्रता और भाईचारा का संबंध ही अच्छे अनुभव देंगे। ११. जीव की मुक्ति नहीं होती, जीव से मुक्ति है। १२. शरीर ने मुझे नहीं पकड़ा है, मैंने शरीर को पकड़ा है, यही आसक्ति बंधन का कारण है, शरीर तो एक यन्त्र मात्र है। १३. निश्छल भोग नक़ली आध्यात्मिकता से अच्छा है। १४. संसार से पलायन वैराग्य नहीं । संसार की मिथ्या को जानते हुए, संसार से अप्रभावित रहना वैराग्य है। १५. आध्यात्मिक प्रगति मानने से नहीं जानने से होगी। मान्यताएं अज्ञान है, प्रमाण देखें। १६. मनुष्य जीवन का लक्ष्य है मनुष्य जीवन से मुक्ति, जो अज्ञान के नाश से ही संभव है। १७. इच्छाओं की अधिकता बंधन है। इच्छापूर्ति के फेर में रहना गुलामी है। इच्छाओं पर नियंत्रण स्वाधीनता है। इच्छाओं का अंत परमानन्द है। इच्छाएं मेरी नहीं, ये ज्ञान मुक्ति की कुंजी है। १८. शुद्ध जीवन धन पर निर्भर नहीं मन पर निर्भर है। १९. सुंदरता वह अनुभव है।जो आकर्षित करता है। नैतिकता वो कर्म है जो उचित लगता है मनुष्य सुंदरता की ओर जाना चाहता है। २०. अस्तित्व ना सुंदर है, ना कुरुप है। न नैतिक है, न अनैतिक है ये गुण मनुष्य ने आरोपित किया है। २१. सुंदरता और कुरूपता चित्त निर्मित धारणाएँ है। इसलिए चित्त के कर्म उनसे प्रभावित होते हैं। २२. चित्त के लिए हितकारी अनुभव को सकारात्मक और हानिकारक को नकारात्मक रंग से रंग देता है। इन्हीं मायावी अनुभव जीवन के लिए उपयोगी है। २३. मायावी जगत में जीने के लिए मायावी ज्ञान ही काम आता है। २४. चित्तवृत्ति के अभाव में अस्तित्व संपूर्ण और पवित्र है। २५. ज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति के लिए सुंदरता और कुरूपता एवं नैतिकता और अनैतिकता का आवरण हटाकर देखना चाहिए। २६. ज्ञानी सुंदरता और नैतिकता के फेर में नहीं है। वो संपूर्णता को जानता है और इसमें कोई बदलाव नहीं चाहता। २७. संपन्न, आकर्षक, व शक्तिशाली लोग असाधारण जीवन जीते हैं, वस्तुओं, संबंधों और सांसारिक गतिविधियों के माध्यम से अपने आंतरिक शून्य को भरने का प्रयास करते हैं। २८. शक्तिहीन लोग अधिक नुकसान या अच्छा नहीं करते, क्योंकि वे बाहरी परिस्थितियों की दया पर होते हैं। २९. एक धनी मरुस्थल में धनी नहीं रहेगा, धनी कहलाने के लिये उसको आसपास निर्धनों की आवश्यकता होती है। ३०. एक राजा जंगल में राजा नहीं हो सकता, उसको दूसरों पर शासन करने के लिए लोग भी चाहिए। ३१. चेतना वो है जब ध्यान में अनुभवकर्ता सम्मिलित रहता है। ३२. अचेतन में कर्म अंधकार में होते हैं और चेतना में वही कर्म प्रकाश में होते हैं। ३३. चेतना के प्रकाश में व्यक्ति जो चाहेगा वो और जो करेगा वो शुद्ध होता है। ३४. चेतना चित्त पर आधारित है। यदि चित्त शुद्ध है तो चेतना रहती है और यदि अशुद्ध है तो नहीं रहती। ३५. चेतना स्मृति में नहीं, वर्तमान में है। केवल याद करने से चेतना नहीं मिलेगी, विचार मिलेगा, जो स्मृति से उभरा है। चेतना साधना हीन साधना है। कर्महीन कर्म है। ३६. चेतना कोई जादू नहीं, प्राकृतिक घटना है। ज्ञानी में भी जिस समय में जो आवश्यक है वहीं वृत्ति सक्रिय होती है। ३७. जब तक जीवन है तब तक निचली परत रुककर केवल ऊपरी परत ही चलना संभव नहीं है। चेतना में इन पर नियंत्रण किया जा सकता है। ३८. चेतना अकेली नहीं चलती, बाक़ी वृत्तियों के साथ जुड़ जाती है। सभी परत समानांतर रूप में कार्य करते हैं। ३९. असल संगत में अच्छे संस्कार अपने आप विकसित होता है। ४०. जीव का ऊपरी परत में विकास होने से निचली परत नष्ट नहीं होती क्योंकि वो भी आवश्यक है। *** क्रमशः
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions