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चैतन्य सम्बन्ध: मुक्ति का द्वार
स्वप्रकाश
इस लेख के माध्यम से मैंने सम्बन्ध किन तलों पर निर्मित हो सकते हैं उनके बारे में जानने का प्रयास किया है। इसमें लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं। <font color="blue">***रिश्ते सारे निचले तल के, उत्तम रिश्ता एक। गुरु-शिष्य का चैतन्य रिश्ता, मुक्ति का द्वार तू देख।।***</font> **सम्बन्ध क्या हैं** दो या दो से अधिक जीवों और इकाइयों के मध्य परस्पर विषय-वस्तुओं का भौतिक एवं मानसिक आदान-प्रदान। **सम्बन्धों के प्रकार** सम्बन्धों को मुख्य रूप से निम्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है; (१) उत्तरजीविता/देह के सम्बन्ध (<font color="blue">प्रजनन, भोजन एवं भोग, सुरक्षा, भावना के तल पर</font>)(<font color="green">पशु-पक्षी, अन्य जीव, दैहिक व्यक्ति, भावुक व्यक्ति</font>); (२) मानसिक सम्बन्ध (<font color="blue">भावना, व्यावसायिक, बौद्धिक तल पर</font>) (<font color="green">भावुक व्यक्ति, पेशेवर व्यक्ति, बौद्धिक व्यक्</font>ति ); (३) आध्यात्मिक सम्बन्ध (<font color="blue">परमार्थ/परोपकार के तल पर</font>) (<font color="green">आध्यात्मिक व्यक्ति</font>); (४) चैतन्य सम्बन्ध (<font color="blue">चेतना के तल पर</font>) (<font color="green">गुरु, योगी, साधक: अवैयक्ति </font>); (५) अद्वैत सम्बन्ध (<font color="blue">शून्यता के तल पर</font>) (<font color="green">ब्रह्म/अस्तित्व</font>)। संबंधो को नीचे दिए गए बॉक्स चित्र के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है।
चित्र १: संबंधो के तल, प्रकार एवं उनसे सम्बन्धी व्यक्ति/जीव **उत्तरजीविता/देह के सम्बन्ध** उत्तरजीविता के सम्बन्ध चार तालों पर निर्मित हो सकते हैं। जो इस प्रकार हो सकते हैं; प्रजनन, भोजन/भोग, सुरक्षा (धन-संपत्ति) एवं भावना के तल पर। इन्हें देह के सम्बन्ध भी कह सकते हैं। अज्ञानी व्यक्ति अक्सर देह के तल सम्बन्ध निर्मित करते हैं क्योंकि समाज से मिले मतारोपण, मान्यताओं, धारणाओं के कारण वे स्वयं को एक देह मानकर जीवन जीते है। प्रजनन के तल पर काम/वासना के सम्बन्ध निर्मित होते हैं जोकि पशुओं में नर-मादा एवं मनुष्यों में स्त्री-पुरुष के मध्य निर्मित होते है। यदि पशुओं को देखें तो उनमें भी उत्तरजीविता के तल पर सम्बन्ध बनते हैं **काम/वासना की वृत्ति पशुओं में भी सबसे निचले तल की है** सभी पशु, पक्षी कीड़े-मकोड़े, सरीसृप एवं जलीय जीव आदि सभी एक विशेष समय पर अपने जीवन साथी के साथ संपर्क में आते हैं और उसके पश्चात एक दूसरे को भूल जाते हैं उनका एक दूसरे से फिर कोई सम्बन्ध नहीं होता जो भी सम्बन्ध होता है वह केवल काम/वासना की क्षणिक पूर्ति के लिये होता है। इसके पीछे प्रकृति का मूल उद्देश्य केवल संतान उत्पत्ति का है काम क्रीडा में नर-मादा में परस्पर प्रेम हो यह आवश्यक नहीं है कुछ पशुओं में नर-मादा में प्रेम हो सकता जो की जोड़े में पाए जाते हैं। और जो जोड़े में रहते हैं उनमें फिर भोजन एवं सुरक्षा के तल पर सम्बन्ध अवश्य होता है। माता पशु एवं बच्चों में भोजन एवं सुरक्षा के तल पर सम्बन्ध बनता है और वह सम्बन्ध तब तक होता हा जब तक बच्चे स्वयं का पोषण एवं सुरक्षा करने लायक नहीं हो जाते। यहाँ पर माता एवं बच्चों में एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव होता हैं, जबकि काम/वासना के रिश्तों में प्रेम भाव भी नहीं होता क्योंकि वह क्षणिक एवं अचेतन सा सम्बन्ध होता है जिसमें नर एवं मादा में काम क्रिया के पश्चात कोई प्रेम नहीं होता इसलिये कोई सम्बन्ध भी नहीं होता है। काम क्रिया का सम्बन्ध केवल आकर्षण के परिणाम स्वरुप निर्मित होता जो की उस क्रिया के पश्चात अंत हो जाता है। यदि हम समाज में देखें तो अधिकतर सम्बन्ध उत्तरजीविता के के तल पर निर्मित होते हैं। उत्तरजीविता अर्थात प्रजनन, भोजन/भोग, सुरक्षा एवं भावना। यदि हम एक परिवार को देखें तो परिवार में पत्नी के लिये पति से सम्बन्ध चारों तलों पर होता है; प्रजनन/काम वासना----भोजन/भोग----रक्षण/सुरक्षा----भावना। और पति के लिये यह सम्बन्ध केवल प्रजनन/काम-वासना, भोग एवं भावना के तल पर होता है। खास कर हमारे समाज में पुरुष, स्त्री की सुन्दरता एवं शरीर को देखकर शादी करता और स्त्री, पुरुष की नौकरी/व्यवसाय को देखकर शादी करती है यहाँ दोनों तरफ से केवल उत्तरजीविता के तल पर ही सम्बन्ध निर्मित होते हैं। किन्तु, आजकल एक ही व्यवसाय एवं नौकरी वाले स्त्री-पुरुष भी शादी कर रहे हैं जो कि उत्तरजीविता से ऊपर बुद्धि के तल तक रिश्ता निर्मित करते हैं यहाँ पर प्रजनन/काम-वासना के साथ-साथ सुरक्षा एवं बुद्धि के तल पर भी सम्बन्ध हो सकता है। क्योंकि ज्यादातर सम्बन्ध उत्तरजीविता के तल मुख्यतया प्रजनन/काम-वासना अर्थात शरीर के तल पर हैं तो ऐसे संबंधों में एक दूसरे के प्रति सम्मान एवं प्रेम का अभाव होता है यहाँ पति-पत्नी एक दूसरे को शरीर मान कर व्यवहार करते हैं और एक दूसरे के भोग की वृत्ति दोनों में प्रबल होती है। काम-वासना/प्रजनन की वृत्ति पशुओं में भी पायी जाती है अतः यह सबसे निचले तल की वृत्ति होती है जिसमे व्यक्ति यंत्रवत/पशुवत व्यवहार करता है और यहाँ यदि स्त्री एवं पुरुष में बुद्धि-विवेक एवं चेतना के तल पर सम्बन्ध नहीं है तो वे एक दूसरे को सम्मान की दृष्टी से नहीं देख सकते क्योंकि काम-वासना एक निचले तल की वृत्ति है तभी समाज में वेश्यावृत्ति, पर स्त्री/ पर पुरुष गमन एवं व्यभिचार को सबसे निकृष्ट कर्म माना जाता है। स्त्री-पुरुष में एक दूसरे के प्रति सम्मान न होने के कारण ही घरेलु हिंसा चाहे वह स्त्री के प्रति हो या पुरुष के प्रति हो आज के समय में आम बात हो गयी है, और व्यभिचार भी बढ़ गया है। यह सब हम आये दिन सोशल मीडिया एवं समाचार में देखते एवं सुनते हैं। परिवार में जब हम बच्चों एवं माता-पिता के सम्बन्ध की बात करें तो माता-पिता एवं बच्चों में साधारणतया भोजन, सुरक्षा एवं भावना के तल पर सम्बन्ध निर्मित होते हैं क्योंकि यह काम-वासना के ऊपर का तल है तो यहाँ बच्चों में माता पिता के प्रति कुछ प्रेम एवं सम्मान का भाव देखा जाता है। एक ही परिवार के भाई-बहनों के मध्य मुख्यतया भोजन, सुरक्षा एवं भावना के तल पर सम्बन्ध निर्मित होते हैं। और यदि माता पिता ने उन्हें उचित शिक्षा एवं सात्विक संस्कार दिए हैं तो उनमें बुद्धि के तल पर भी सम्बन्ध बनते हैं इसलिये उनमें प्रेम भाव एवं सम्मान भी हो सकता हैं। अन्यथा आजकल परिवारजनों में (माता-पिता एवं बच्चों तथा परस्पर भाई-बहनों में) में मुख्य रूप से सुरक्षा: (धन-संपत्ति) के तल पर सम्बन्ध होते हैं जिसके कारण वे धन-सम्पत्ति के लिये एक दूसरे का रक्त बहाने से भी तनिक भी नहीं कतराते। इस प्रकार की ख़बरें हम आये दिन समाचार एवं सोशल मीडिया पर देखते एवं सुनते हैं। अज्ञानी व्यक्ति सजीव विषय-वस्तुओं के साथ स्वार्थ/भोग के सम्बन्ध निर्मित करता है जैसे आज के समय में मनुष्य प्रजाति पृथ्वी लोक पर स्थित अन्य सभी जीव-जंतुओं जैसे घरेलू दुग्ध देने वाले पशु, मांस देने वाले पशु-पक्षी (गाय, भेंस, भेड़, बकरी, मुर्गी, बटेर, सूकर आदि कई), चमड़ा देने वाले पशु, ऊन देने वाले पशु (भेड़, बकरी, मुर्गी, मछली), सुन्दर दिखने वाले/ एस्थेटिक उपयोग के जीव (सुन्दर पक्षी जैसे मोर, तोता, अन्य पक्षी, कुत्ता, खरगोश, मछली, मोती का जीव, एवं जंगली पशु), प्रतिस्पर्धा में उपयोगी पशु (घोडा), परिवहन में काम आने वाले पशु (घोडा, खच्चर, ऊंट आदि), शक्तिशाली कार्य करने वाले पशु (घोडा, खच्चर, बैल) आदि को केवल अपने भोग-विलास की वस्तु के रूप में उपभोग करता है क्योंकि वह उनके साथ केवल उत्तजिविता के तल (भोग) पर सम्बन्ध निर्मित करता है। भोग की लालसा से सभी इन्द्रियों के माध्यम जो अनुभव लिये जाते हैं वह जीव के शरीर एवं मन के लिये एक प्रकार का भोग ही है। सुन्दरता का भोग आँखों से, भोजन का भोग जिव्हा से, आरामदायक स्पर्श का भोग त्वचा से, प्रशंसा एवं सम्मान का भोग कर्ण से एवं गंध का भोग नासिका से किया जाता है। इस प्रकार से एक अज्ञानी सभी इन्दिर्यों के माध्यम से केवल भोग करने के उद्देश्य से प्रकृति के सभी जीव-जंतुओं एवं व्यक्तियों से सम्बन्ध निर्मित करता है। भले ही इसके लिये उसे अन्य जीव जंतुओं को बंधक बनाना पड़े, उनके ऊपर हिंसा करनी पड़े वह तनिक भी सोच विचार नहीं करता। निर्जीव विषय-वस्तुओं के साथ भी एक अज्ञानी के स्वार्थ/भोग के संबध ही होते हैं निर्जीव प्रकृति जैसे पञ्च महाभूत (वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश) एवं प्रकृति के खनिज पदार्थो (सोना, चांदी, हीरा, रत्न, पत्थर, मिट्टी, रेत, कोयला, पेट्रोलियम उत्पाद, एवं अन्य खनिज लवण, लकड़ी, जल आदि) एवं प्रकृति के मूल तत्व (आवर्त तालिका के तत्व) को एक अज्ञानी मात्र भोग के दृष्टि कोण से देखता है और भोग के सम्बन्ध निर्मित करता है। आजकल विज्ञान एवं तकनीकी के व्यवसायीकरण के मूल में मनुष्य की केवल भोग की वृत्ति होती है। **मानसिक सम्बन्ध** मानसिक सम्बन्ध दो तलों पर निर्मित हो सकते हैं। जो इस प्रकार हो सकते हैं; व्यवसाय के तल पर, बौद्धिक तल पर। व्यवसाय के सम्बन्ध एक मालिक-नौकर, मालिक एवं उसके कर्मचारी , एक व्यवसायिक अध्यापक-विद्यार्थी, एक ही व्यवसाय के व्यक्ति जिनमे केवल पेशेवर प्रतिस्पर्धी सम्बन्ध होते हैं जैसे उद्यमी, कलाकारों, खिलाडियों, शोधकर्ता, लेखकों, कर्मियों, नेताओं, प्रतिष्ठित व्यक्तियों आदि के मध्य सम्बन्ध। बौद्धिक तल पर सम्बन्ध इस प्रकार हो सकते हैं; माता-पिता एवं बच्चों के मध्य, शिक्षक एवं विद्यार्थी, मित्रों के मध्य, एक ही क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति (वैज्ञानिक, शोधकर्ता, लेखकों, दार्शनिकों, खिलाडियों, शिक्षकों, उद्यमियों, नेताओं आदि ) जिनमें व्यवसाय से ऊपर के मित्रवत एवं सम्मान के सम्बन्ध होते हैं। यदि बच्चों के साथ माता-पिता बुद्धि के तल पर भी सम्बन्ध स्थापित करते हैं अर्थात उनमें सात्विक संस्कार जैसे जैसे प्रेम, करुणा, शांति, साझा करना, सेवा, दान, क्षमा, स्वतंत्रता, अहिंसा, सम्मान, धर्म, सदव्यवहार, ज्ञान अर्जन, सत्य वचन, सत्संग, स्वाध्याय, आध्यात्मिक कर्म आदि का विकास करते हैं और उनके बौद्धिक विकास में सहायक होते हैं तो उनका उनके माता-पिता के प्रति भावुकता के साथ सम्मान का रिश्ता भी जुड़ जाता है। उत्तरजीविता के ऊपर बुद्धि की परत आती है और इस तल पर बने सम्बन्ध उत्तरजीविता से ऊपर रखे जाते हैं। जैसे हम सभी का अनुभव होगा कि हम अपने शिक्षक जिनसे हम शिक्षा प्राप्त करते हैं उनके प्रति हमारा एवं हमारे बच्चों का हमारी अपेक्षा उनके शिक्षकों के प्रति अधिक आदर सम्मान होता है। हम सभी हमारे शिक्षकों के प्रति अति विनम्रता एवं आदर का भाव रखते हैं। इसे एक और उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। हम सभी हमसे अधिक बुद्धिमान एवं अधिक योग्यवान व्यक्तियों के प्रति अधिक आदर भाव रखते हैं, क्योंकि वहां बुद्धि के तल पर सम्बन्ध है। इसलिये हम अक्सर देखते हैं जो व्यक्ति शरीर के तल पर होते हैं वे अधिकतर लोगों के साथ केवल उत्तरजीविता के तल पर ही सम्बन्ध निर्मित करते हैं और जो व्यक्ति बुद्धि के तल पर होता है वह इसलिये अधिकांशतः अपने से अधिक बुद्धिमान लोगों की संगत पसंद करता है और शरीर के तल पर रहने वाला व्यक्ति उसी प्रकार के लोगों के साथ अधिक समय बिताता है। **आध्यात्मिक सम्बन्ध** आध्यात्मिक सम्बन्ध परमार्थ/परोपकार के तल पर निर्मित होते हैं। जो व्यक्ति निष्काम परोपकार के भाव से सम्बन्ध बनाता है वह अपनी चेतना के अधिक निकट है। इसलिये उसके मन में समाज एवं प्रकृति के प्रति परोपकार एवं सेवा का भाव रहता है। जो परोपकार के भाव से सम्बन्ध बनाता है मैंने उसे आध्यात्मिक व्यक्ति कहा है। **चैतन्य सम्बन्ध** बुद्धि से ऊपर चेतना/साक्षीभाव की परत होती है। बुद्धि अज्ञान के नाश से परिष्कृत होकर विवेक/प्रज्ञा कहलाती है प्रज्ञावान व्यक्ति में ही चेतना की परत विकसित होती है जिसके कारण ही व्यक्ति उत्तरजीविता एवं बुद्धि की परत के परे चला जाता है और उसे ज्ञान होता है कि मैं यह मनोशरीर यन्त्र नहीं हूँ मैं इसका दृष्टा हूँ साक्षी हूँ। योगी/ साधक चेतना (साक्षीभाव) के तल पर सम्बन्ध निर्मित करते हैं इसलिये इन्हें चैतन्य सम्बन्ध कह सकते हैं। चैतन्य सम्बन्ध को भी आध्यात्मिक संबंधों की श्रेणी में रख सकते हैं क्योंकि यहाँ भी निस्वार्थ सम्बन्ध होते हैं। द्वैत के स्तर पर एक गुरुजन, योगी, साधक अन्य व्यक्तियों, जीव-जंतुओं एवं प्रकृति के साथ चेतना के तल पर सम्बन्ध निर्मित करते हैं। द्वैत के तल पर गुरु, योगी एवं साधक के सम्बन्ध अवैयक्तिक होते हैं क्योंकि यहाँ कोई व्यक्ति नहीं रह जाता है और अहमभाव अनुभवकर्ता के तल पर स्थिर हो जाता है जो कि अपनी वैयक्तिक पहचान को छोड़कर अवैयक्तिक, असीमित पहचान को अपना लेता है। आत्मज्ञान के पश्चात साधक के सभी सम्बन्ध चेतना के तल पर बनने लगते हैं भले ही उससे सम्बन्ध रखने वाले उसके साथ उत्तरजीविता के तल पर सम्बन्ध निर्मित करें। चेतना के तल पर सम्बन्ध निर्मित होने से वह सभी को समभाव में देखता है और सभी का सम्मान करता है और यदि वह उचित सम्मान नहीं दे पाता तो उन रिश्तों से दूरी बनाना उचित समझता है क्योंकि कभी कभी ऐसे रिश्ते उसे नीचे के तल पर खींचने का प्रयास करते हैं। पूर्व में आश्रमों/गुरुकुलों में रहने वाले पुरुष एवं स्त्री साधक इसलिये विवाह के संबंधों में आते थे जिससे की दोनों की ओर से आध्यात्मिक एवं चैतन्य सम्बन्ध बने और उसी प्रकार का सम्बन्ध उनके बच्चों में भी विकसित हो जो की सम्पूर्ण परिवार में आध्यात्मिक /चैतन्य सम्बन्ध विकसित करता था। गुरुजनों ने आध्यात्मिक /चैतन्य संबंधों के महत्त्व को जाना इसलिये इस प्रकार की व्यवस्था विकसित की गयी जो कि कई सारे आश्रमों में अभी भी चल रही है। इसलिये यदि कोई साधक अविवाहित हैं तो उनके पास आध्यात्मिक एवं चैतन्य जीवन साथी चुनने का विकल्प है जो की उनकी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हो। प्रकृति (सजीव एवं निर्जीव) के साथ भी साधक/योगी, चेतना के तल पर ही सम्बन्ध निर्मित करते हैं और प्रकृति को भी उसी सम्मान, प्रेम, करुणा एवं समभाव से देखता हैं क्योकि वह जानते हैं कि सभी सजीव एवं निर्जीव प्रकृति एक अस्तित्व ही है और वह उनका उपयोग, आवश्यकता के अनुसार ही करते हैं कभी उनको भोग की दृष्टि से नहीं देखते क्योंकि प्रकृति भी वही ब्रह्म है जो कि वह साधक/योगी स्वयं है। गुरुजन सभी शिष्यों के साथ चेतना के तल पर सम्बन्ध निर्मित करते हैं भले ही शिष्य कितना ही अज्ञानी हो वे सदा ही शिष्य के साथ प्रेम, करुणा, क्षमा, स्वीकार भाव के साथ व्यवहार करते हैं और शिष्य के अज्ञान का नाश करके उसे भी एक गुरु बना देता हैं इसके कारण ही गुरु का स्थान इस सृष्टि में सर्वथा उच्च रखा गया है। एक शिष्य भी यदि गुरु के साथ चेतना का सम्बन्ध निर्मित करता है तभी वह सम्पूर्ण समर्पण के भाव से गुरु से ज्ञान प्राप्त कर पाता है अन्यथा जो शिष्य गुरु को यदि केवल शरीर के तल देखते हैं और शरीर के तल पर सम्बन्ध बनाते हैं वे गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण नहीं कर पाते और अज्ञानी ही रह जाते हैं क्योंकि गुरुजन सदा ही चेतना के तल पर होते हैं या फिर यूँ कह सकते हैं की चेतना ही गुरु के रूप में प्रकट होती है जैसे की आत्मज्ञान के पश्चात साक्षीभाव गुरु के अंश के रूप में एक साधक के साथ रहता है और उसका मार्गदर्शन करता है ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। **अद्वैत सम्बन्ध** शून्यता अर्थात अद्वैत के तल पर एक गुरु, योगी, साधक सम्पूर्ण अस्तित्व ही हो जाता है अर्थात यहाँ पर आकर सभी सम्बन्ध विलीन हो जाते हैं और गुरु, योगी, साधक स्वयं शून्य हो जाता है और अस्तित्व/ब्रह्म हो जाता है। **चैतन्य सम्बन्ध ही मुक्ति का द्वार है** उपनिषदों के अनुसार मानव जीवन के चार पुरुषार्थ बताये गए हैं; (१) **काम:** इच्छाओं/वासनाओ की पूर्ति करना; (२) **अर्थ:** सुख एवं सुरक्षा; (३)**धर्म:** मूलज्ञान प्राप्त करना एवं सात्विक कर्म करना (जो सभी के लिये कल्याणकारी हो एवं उनकी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हो); (४) **मोक्ष:** अपने सत्य स्वरुप का ज्ञान एवं उसमें स्थापित होना। (Swami Dayanand, 1989) उत्तरजीविता के पुरुषार्थ (**काम, अर्थ**) यदि **धर्म** के साथ किया जाय तो वह **मुक्ति** का मार्ग प्रसस्त करते हैं। तो **धर्म (मूलज्ञान एवं सात्विक कर्म**) यहाँ उत्तरजीविता एवं मुक्ति के मध्य सेतु का कार्य करता है। उत्तरजीविता के कर्म यदि धर्म के बिना किये जाय तो व्यक्ति के पतन एवं दुखों का कारण बनते हैं। तो धर्म/मूलज्ञान अति आवश्यक है। आत्मज्ञान के पश्चात साधक में बोधिसत्व वृत्ति विकसित होती जिसके परिणाम स्वरुप वह अपने परिवार जनों, संबंधियों एवं मित्रों को भी ज्ञान प्रदान करना चाहता है और सभी से चेतना के तल पर सम्बन्ध निर्मित करने की कोशिश करता है क्योंकि चेतनावान व्यक्ति की संगत एक साधक के विकास में भी सहायक होती है इसलिये एक साधक अन्य साधकों, गुरुओं की संगति अधिक पसंद करता है क्योंकि उनके साथ साधक के सम्बन्ध चेतना के तल पर निर्मित होते हैं इसलिये उसमें प्रेम एवं आदर का भाव होता है। परिवार में सर्वप्रथम शुरुआत हम बच्चों से कर सकते हैं क्योंकि उनमें अज्ञान कम होता है वे, कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं। हम उनका बौद्धिक विकास के साथ आध्यात्मिक विकास जैसे **मूलज्ञान (आत्मज्ञान, मायाज्ञान, ब्रह्मज्ञान)** दे सकते हैं और उनमें आध्यात्मिक पुस्तकें, एवं दर्शन शास्त्र की ओर, प्रकृति की और एवं धर्म संगत व्यवहार के साथ उनमें सात्विक संस्कारों का विकास कर सकते हैं, क्योंकि सात्विक संस्कार चेतना की परत के विकास में सहायक होते हैं क्योंकि इनसे चित्त का शुद्धिकरण होता है। आध्यात्मिक पुस्तकों एवं दर्शन शास्त्र के ज्ञान से तर्क बुद्धि, विवेक विकसित होता है। ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। मूलज्ञान एवं सात्विक संस्कार ही धर्म के स्तम्भ हैं। संस्कारों के बारे में और अधिक जानने के लिये आप आत्मज्ञान: संस्कार परिवर्तन की कुंजी वाला लेख देख सकते हैं। **धर्म (मूलज्ञान एवं सात्विक कर्म) ही उत्तरजीविता एवं मुक्ति के मध्य सेतु का कार्य करता है**। एक गुरु, साधक, योगी द्वैत के तल पर चैतन्य सम्बन्ध निर्मित करता है और अद्वैत के तल पर ब्रह्म/अस्तित्व/शून्य हो जाता है। शून्यता ही मुक्ति है। तो स्वयं के सत्य स्वरुप को जानने के लिये गुरु की शरण में जाएँ और चैतन्य सम्बन्ध निर्मित करना सीखें क्योकि चैतन्य सम्बन्ध ही मुक्ति का द्वार है। <font color="green">**प्रथम चैतन्य सम्बन्ध गुरु-शिष्य का होता है और यही सम्बन्ध मुक्ति का द्वार है।**</font> **सारांश:** आत्मज्ञान के अभाव में अज्ञानी व्यक्ति के अधिकतर सम्बन्ध पशुओं के समान स्वार्थ (देह/ उत्तरजीविता/मानसिक) के तल पर निर्मित होते हैं। पशुओं के पास धर्म संगत व्यवहार करने का एवं ज्ञान प्राप्त करने का कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि बुद्धि एवं स्वचेतना की परत कम विकसित होने के कारण वे यंत्रवत व्यवहार करते हैं। मानव में बुद्धि की परत अधिक विकसित होने के कारण उसके पास विकल्प होते हैं और वह धर्म संगत व्यवहार करके एवं आत्मज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो सकता है जो कि वह पहले से ही है। केवल अज्ञान के कारण स्वयं को एक मनोशारीर यन्त्र मानकर सम्पूर्ण मानव जीवन व्यर्थ कर देता है। एक गुरु, साधक, योगी द्वैत के तल पर चैतन्य सम्बन्ध निर्मित करता है और अद्वैत के तल पर ब्रह्म/अस्तित्व/शून्य हो जाता है। शून्यता ही मुक्ति है। इसलिये गुरु की शरण में जाकर देह भाव को त्याग कर स्वयं के सत्य स्वरुप को जानें और चैतन्य सम्बन्ध निर्मित करना सीखें क्योकि चैतन्य सम्बन्ध ही मुक्ति का द्वार है। मुक्ति ही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। <font color="green">**सभी सुखी हों, सभी समृद्ध हों, सभी ज्ञानवान हों .....श्री गुरुवे नमः ....ॐ शांति शांति शांति .....।।**</font> **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। इस विषय पर मनन के दौरान गुरुदेव एवं गुरुक्षेत्र से मिले संकेत बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। मैं इस विषय पर आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं का भी आभारी हूं। **संपर्क सूत्र..** साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल: swaprakash.gyan@gmail.com **सन्दर्भ:** तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ भाग), नोशन प्रेस. बोधिवार्ता चैनल यूट्यूब विडियो. Swami Dayanand. 1989. Introduction to Vedanta. Understanding the fundamental problem. Published by Vision Books Pvt. Ltd.
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