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तरुण तरंग - माया
जानकी
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुर्साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरवे नमः यहाँ पर प्रकाशित सभी विचार मेरे सद्गुरू श्री तरुण प्रधान जी द्वारा विभिन्न सत्संग, प्रवचन और लेखों में व्यक्त किए गए विचार है। उन विचारों में से यहाँ पर माया से सम्बन्धित कुछ ज्ञान तरंगों को महावाणी के रूप में इकट्ठा करके प्रकाशित करने का प्रयास किया गया है। इस अवसर और गुरुकृपा के लिए गुरुदेव के प्रति हार्दिक आभार। १. माया के दो ही कार्य है, सत्य छुपाना और असत्य दिखाना- आवरण और विक्षेप। २. माया में स्थिरता संभव नहीं है। हर अनुभव या तो ऊपर या तो नीचे की तरफ़ गति करता है। ३. बुद्धि जल्दी बदलने वाले (पकड़ में न आने वाले) अनुभवों को मिथ्या और धीरे बदलने वाले अनुभवों को सत्य कहती है। ४. चित्त नाद रचित है और नाद चित्त निर्मित है। जिस प्रक्रिया से चित्त की रचना हुई है उस प्रक्रिया को चित्त ने ही निर्मित किया है। ५. जो बदल गया वो न था, न है, न रहेगा, सभी अनुभव ऐसे ही है, माया में जो कुछ भी मिला है वो सब उधार का है, सकुशल लौटाकर अपने स्वरूप में चले जाना चाहिए। ६. माया इच्छा का खेल है। यदि किसी विषय के प्रति किसी की इच्छा और झुकाव बहुत तीव्र हो तो कारण शरीर का प्रभाव तक बदला जा सकता है। ७. अस्तित्व में कोई कारण/प्रभाव नहीं है। जो भी कारण/प्रभव है वो चित्त निर्मित मान्यता है, सत्य नहीं है। कारण/प्रभाव के अनंत श्रृंखला में कुछ नहीं मिलता। ८. अनुभव चित्तनिर्मित है, मिथ्या है, अर्थात हैं नहीं केवल प्रतीत होता है। इनमे जीव, जीवन, और चित्त स्वयं आ जाते हैं। कारण भी प्रतीत होते हैं। मिथ्या का कारण मिथ्या ही है। कारणहीनता इस अस्तित्व का गुण है। अस्तित्व किसी कारण से नहीं बंधा, और सभी कारण इसमें हैं। ९. शून्यता में ही गुणों का अभाव है, माया में तो गुण ही गुण है। १०. रचना भी माया और रचयिता भी माया है। अनुभवकर्ता कुछ नहीं करता। ११. किसी भी चीज़ का विनाश नहीं होता, केवल रुप बदल जाता है। जो व्यवस्थित रचना है हम उसको ही ध्यान देते हैं और बाक़ी को अनदेखा कर देते हैं। क्यूँकि आकर्षण सुंदरता के तरफ़ होता है। १२. सागर बूँद को जान सकता है लेकिन बूँद सागर को नहीं जान सकता। ऐसे ही अनुभवकर्ता अनुभव को जनता है; किंतु अनुभव अनुभवकर्ता को नहीं जान सकता। १३. स्वप्न और जागृति में केवल गति का भेद है, और कोई भेद नहीं है। १४. जैसे पानी भँवर में से बहता हुआ जाता है वहाँ पानी बदलता रहता है, भँवर रहता है वैसे ही अनुभव बदलता रहता है लेकिन रचना रह जाती है। १५. माया की बात माया में ही होती है। माया की बात करते समय सत्य को बाज़ू में रखना पड़ता है। १६. अनुभव नियमित इसलिए प्रतीत होते हैं क्योंकि स्मृति जड़ हो गई है। इन्द्रियां अनियमित को पकड़ नहीं पाते, इसीलिए चित्त अनियमित को छोड़ता जाता है। जो स्मृति में जा सकता है उसी को आने देता हैं। इसीलिए ज्ञान व्यवस्थिकरण करना संभव है। १७. शरीर परतों का काल्पनिक छवि है जो जीवन और ज्ञान के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोगी है। १८. भ्रम से बाहर रहने का सोच भी भ्रम ही है। व्यक्ति कभी भी माया से छुटकारा नहीं पा सकता। इसलिए मुक्ति कभी प्रयत्न से नहीं मिलती। १९. जगत में सबसे बड़ा शक्ति इन्द्रियों पर स्वामित्व है, इन्द्रियों के स्वामी के आगे देवता भी नहीं टिकते। २०. इन्द्रियाँ जीवन चलाने के लिए है, इन्द्रियों से मिथ्या का ही ज्ञान होता है, सत्य का नहीं। २१. स्मृति का तुलना करने से परिवर्तन का ज्ञात होता है। स्मृति में अनंत संभावना मात्र है, कुछ हुआ नहीं है। २२. बदलाव से समय का परिकल्पना आया है, परिवर्तन और समय दोनों ही माया है; समय में चित्त नहीं है, चित्त में समय है। रचना के लिए समय आवश्यक है, किन्तु अस्तित्व समयहीन है। इसलिए उसकी रचना नहीं हो सकती। २३. काल मिथ्या है। समय का अनुभव नहीं किया जा सकता। समय एक अवधारणा मात्र है। भूतकाल स्मृति का अनुभव है, भविष्य कल्पना है, वर्तमान समयाभाव है। सारा अनुभव परिवर्तन का है जो हमेशा वर्तमान में होता है। २४. परिवर्तन के कारण समय प्रतीत होता है लेकिन परिवर्तन समय शून्यता मैं होता है। बुद्धि समय आधारित है और समय बुद्धि आधारित है। २५. अस्तित्व समयहीन है सारे अनुभव वर्तमान में समाए हुए है। जो अनुभव प्रतीत होता है वो सब पूर्व निर्धारित है। इसीलिए घटनाएँ समय में होते हुए प्रतीत होते हैं। पूर्वाभास होना पूर्वनिर्धारण का उदाहरण है। पूर्व निर्धारण किसी एक घटना में नहीं बल्कि समग्र सृष्टिचक्र और कर्मचक्र में है। २६. चित्त सभी अनुभवों को आसानी से सुलभ अनुक्रम में रखने के लिए एक युक्ति के रूप में समय नामक अक्ष का उपयोग करता है और उस पर घटनाओं को अंकित करता है। अनुभव होते हैं, वे अपने साथ समय की मोहर लगाकर नहीं आते, चित्त मोहर जोड़ता है। यह अनुभवों को अधिक व्यवस्थित बनाता है और उन्हें स्मरण करना आसान बनाता है। २७. जब भी कोई परिवर्तन होता है, तो एक अनुभव होता है, अथवा हम एक अनुभव को परिवर्तन के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। २८. घटनाएँ बस घटित होती हैं, उन्हें किसी निश्चित समय पर घटित होने की आवश्यकता नहीं होती। समय एक विशिष्ट घटना पर घटित होता है। २९. स्वतंत्रता में ख़तरा है, बंधन में सुरक्षा है इसलिए जीव बंधन पसंद करता है। निर्भरता में बुद्धि का कोई कार्य नहीं है। यही आलस्य के कारण प्रगति रुक जाता है। ३०. हम जो भी जानने का प्रयास करते वो बुद्धि की अशुद्धि है। जहाँ कुछ नहीं था वहाँ कुछ बना लिया और जो बनी है उसी में फँस गए। अगर इसी अज्ञान को उल्टा कर दिया जाये तो ज्ञान आ जाता है। चाक़ू को उल्टा पकड़े तो हात कटता है, सीधा पकड़ें तो वस्तुएँ कटती है ऐसे ही माया है। ३१. उद्देश्य चित्त निर्मित शब्द है। अस्तित्व उद्देश्यहीन है। मनुष्य किसी भी चीज़ पर अपने उपयोगिता के अनुसार उद्देश्य थोपना चाहते हैं। ३२. शुद्धिकरण का अर्थ घटाना है बढ़ाना नहीं। ज्ञान के लिए अपने मन और बुद्धि से धारणा और मान्यताओं को निकालना होगा। ३३. जो नहीं है उसको जानना असंभव है, इसलिए माया को कभी नहीं जाना जा सकता। यदि सत्य होता तो जाता नहीं कभी। जो परिवर्तन हो गया है वो नहीं है। ३४. मया को माया में रहकर नहीं समझा जा सकता है। माया को नकारने से या उपयोग करने से भी माया से छुट्टी नहीं हो सकती। बुद्धि की शुद्धिकरण करके अज्ञान हटाने से माया के फेर से निकला जा सकता है। ३५. माया शून्यता को छुपाने का प्रयास है लेकिन वो प्रयास सफल नहीं होता। जब चेतना प्रकट होता है, असत्य दिखता है और सत्य प्रकट होता है। ३६. चित्त अनुभव और अनुभवकर्ता में भेद करता है और चित्त ही भेद मिटा देता है। भेद कर देना माया में जाना है और भेद मिटा देना माया से बाहर आना है। ३७. मनोशरीर एक यन्त्र है। यन्त्र समर्पण कर सकता है, प्रयास नहीं कर सकता। ३८. विनाश के नदी में एक छोटी सी नाव जो विपरीत दिशा में जाने का प्रयास कर रही है वो है जीवित रहने के इच्छा। ये हर कोशिका और हर परत में होती है। ये अपनी रक्षा स्वयं करने की वृत्ति है, मूलभूत वृत्ति है। ये न हो तो कोई अनुभव, रचना, जीवन आदि कुछ भी नहीं होगा। ३९. चित्त मैं चलने वाले प्रक्रियाओं के कारण सभी घटनाएँ व्यवस्थित और नियमित होता हुआ प्रतीत होता है। यदि कोई घटना हमेशा वही प्रक्रिया से चलता है तो उसे नियम कहते हैं। ४०. सभी अनुभव शीर के अंदर होता हुआ प्रतीत हो सकता है। क्यूँकि सभी इन्द्रियों का केंद्र वहीं पर है। इन्द्रियों के अनुभूति को मैं मान लेना बड़ी गलती है। अनुभवकर्ता और अनुभव एक ही है लेकिन अनुभवकर्ता और शरीर (कुछ भी अनुभव) का कोई लेना देना नहीं है। जीवन को सरल बनाने के लिए विभिन्न संज्ञाओं का कोई स्थान प्रक्षेपण करना पड़ता है। इस का अर्थ ये नहीं कि अनुभव वहाँ पर हो रहा हो। स्थान मन गढन्त है। *** क्रमशः
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