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सजीवता, चेतनता, अनुभवकर्ता क्या है?
स्वप्रकाश
*गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष समान। तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥* कबीरदास जी **सजीवता, चेतनता क्या है?** सजीवता (livingness) सजीव शरीर (living body) की एक विशेषता है। सजीव एवं निर्जीव का भेद आप सभी भली भांति जानते होंगे क्योंकि से आप सभी ने यह स्वयं के अनुभव से जाना होगा इसलिये हम एक पत्थर, मिट्टी या कोई पदार्थ हो उसे निर्जीव कहतेहैं। सजीव एवं निर्जीव में कई सारे भेद होते है। जिसमें मूलभूत भेद है कि सजीव स्वयं प्रजनन की इकाई हैजो स्वयं के समान कई प्रतियाँ बना सकती है। इसके अतिरिक्त एक और भेद जिसे हम मूलभूत कह सकते हैं वो है बाह्य उत्तेजनाओं (stimuli) के प्रति प्रतिक्रिया (Reflex action) करना। इसके अतिरिक्त जैसे जैसे हम एक कोशिकीय जीव से बहुकोशिकीय जीवों की और जाते हैं तो ये भेद बढ़ते जाते है।सभी सजीव एवं निर्जीव पदार्थ मूलभूत रूप से एक ही भौतिक कण क्वार्क (quark) के द्वारा निर्मित होते है।निर्जीव एवं सजीव दोनों पदार्थ ही हैं। पदार्थ वह है जिसमें गुणधर्म होते हैं। निर्जीव से सजीव का विकास क्रम इस प्रकार है क्वार्क परमाणु (प्रोटोन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रान) अणु कोशिका अंग कोशिका ऊतकअंग शरीर। निर्जीव पदार्थ परमाणु (कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, आदि मूलभूत परमाणु; वर्तमान में विज्ञान द्वारा ११८ मूलभूत परमाणु खोजे गये हैं)एवं अणु (सभी रासायनिक द्रव्य) तक ही सीमित रहते हुए प्रकृति में पाए जाते है। परमाणुओं एवं अणुओं का निर्माण प्रकृति में भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा होता है। सजीव का निर्माण भी मूलतः निर्जीव पदार्थों केउपयोगद्वारा सजीवों के शरीर के द्वारा ही होता है।सभी जीव जंतु एवं वनस्पति प्रजनन के द्वारा स्वयं की प्रतिकृति निर्मित करते है एवं बाह्य उत्तेजनाओं (stimuli) के प्रति एक इकाई के रूप में प्रतिक्रिया करते हैं। चलिए इसे एक उदाहरण से समझते है। सजीवता अर्थात जीवित होना।इस अवस्था में शरीर स्वस्थ होता है और शरीर की सभी आवश्यक जैविक क्रियाएं जो जीवित रहने के लिए आवश्यक होती हैं वे शुचारू रूप से कार्य करती है। और जीव जीवित कहा जाता है। जैसे जीवित रहने के लिए ह्रदय गति, स्वस्थ फेफड़े जो प्राण वायु का संचार करते हैं और स्वस्थ मस्तिष्क जो सम्पूर्ण शरीर की क्रियाओं का नियंत्रण करता है अति आवश्यक अंग हैं। मनोशरीर की विभिन्न गतिविधियों और अनुभव [उत्तरजीविता से सम्बंधित कार्य करना, विचार करना, जगत के विषयों के प्रति प्रतिक्रिया करना (देखना, सुनना, बोलना, भोजन करना, स्पर्श का अनुभव), भावनायें, इच्छाएं, अहम भाव, शरीर के अनुभवों (पीड़ा, भूख प्यास, काम वासना) के प्रति प्रतिक्रिया करना] को भी साधारण व्यवहार की भाषा एवं विज्ञान की भाषा में चेतन या चेतनता (Consciousness) कहा जाता है। चेतनता भी चित्त वृत्ति है। जिसमें व्यक्ति जगत, स्वयं के शरीर एवं मन की क्रियाओं के प्रति जागरूक/ सचेत (Aware) होता और प्रतिक्रिया करता है। व्यक्ति में विचार, भावनायें, इच्छाएं, बुद्धि, अहम भाव होना चेतनता को दर्शाते हैं।विज्ञान में एक कोशिकीय जीव एवं बहुकोशिकीय अन्य जीव-जंतुओं एवं वनस्पति में उनके शरीर की गतिविधियों एवं प्रतिक्रियाओं को चेतनता (Consciousness) कहा जाता है। मनुष्य एक अति विकसित प्राणी है जिसमें चेतनता का एक उच्च स्तर पाया जाता है केवल मनुष्य ही है जिसमें स्वयं के होने का भाव होता है।यह स्वयं के होने का भाव भी चेतनता (Consciousness) मात्र है। जब हम जीवित होते हैं तो इस चेतनता को व्यक्त होने के लिए परिस्थितियाँ उपयुक्त होती है। और जब शरीर मृत हो जाता है तो शरीर में चेतनता को व्यक्त होने की परिस्थितियाँ उनुपयुक्त हो जाती हैं। क्योंकि इन्दिर्याँ कार्य करना बंद कर देती हैं। चलिए इसे एक उदाहरण से समझते हैं। अग्नि के उत्पन्न होने के लिए तीन चीजों (इंधन, ऑक्सीजन एवं ताप) की आवश्यकता होती है। इनमें से यदि किसी एक को भी हटा दिया जाय तो अग्नि उत्पन्न नहीं होगी। जब ये तीनों एकसाथ होते हैं तो अग्नि प्रकट हो जाती है ये तीनों भौतिक तत्व हैं और जैसे ही इनमें से किसी एक को हटा दिया जाय तो अग्नि अप्रकट हो जाती है। अग्नि यहाँ सजीव शरीर में चेतनता (Consciousness) को दर्शाती है। आम जन इस चेतनता और सजीवता को ही आत्मा समझते है और स्वयं के जीवित होने को आत्मा का प्रमाण देते है। वे तर्क देते हैं कि आत्मा शरीर से निकल गयी इसलिये शरीर मृत हो गया जबकि वस्तुतः शरीर के अंग एवं इन्द्रियों में दोष आ जाने के कारण वे कार्य करना बंद कर देती हैं जिसके कारण शरीर में सजीवता एवं चेतनता नहीं रहती यह उसी प्रकार है जैसे अग्नि के प्रकट होने के लिये आवश्यक तीन चीजों में से किसी एक के अभाव में अग्नि विलुप्त हो जाती है और जैसे ही तीनों चीजें मिल जाती हैं (उपयुक्त परिस्थिति) तो अग्नि प्रकट हो जाती है। आगे हम यदि विषाणु (वायरस) का विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि यह निर्जीव एवं सजीव दोनों की तरह व्यवहार करता है अर्थात जब यह सजीव कोशिका में होता है तो सजीव हो जाता है और यदि निर्जीव वातावरण में होता है तो निर्जीव हो जाता है। तो यहाँ परिस्थितियाँ ही निर्धारित करती हैं कि कोई पदार्थकैसे कार्य करता है माया के स्तर पर सारा खेल परिस्थितियों का है यहाँ सब कुछ सापेक्ष है। विज्ञान की भाषा में कहें तो जिस शरीर को आप मैं कहते हो वह मात्र क्वार्क कणों (प्रोटोन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रान) से निर्मित सजीव पदार्थ है। और यदि योग की भाषा में कहें तो पञ्च महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) से निर्मित एक सजीव पदार्थ मात्र हैं। जिस वातावरण में आप रह रहे हो यह उसी प्रकृति से निर्मित है प्रतिपल जो प्राणवायु आप ले रहे हैं जब वह आपके शरीर में जाती है तो वह सीमित होकर आपका शरीर हो जाती है और जैसे की बाहर आती है वह सार्वभौमिक वायु तत्व में मिलकर असीम हो जाती है। वास्तव में सजीवता और चेतनता सार्वभौमिक चेतनता के रूप में प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है जैसे ही परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं। यह स्वयं को सजीवता एवं चेतनता के रूप में प्रकट कर देती है। सारा खेल यहाँ अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का है। वही निर्जीव पदार्थ (क्वार्क), सजीव पदार्थ अर्थात जीव में परिवर्तित हो जाता है।माया/प्रकृति में परिस्थितियों के अनुसार अनुभव परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिये भी हम कह सकते हैं कि माया मिथ्या है क्योंकि यह कभी भी वह नहीं दिखाती जो कि सत्य है। इस प्रकार से माया में निर्जीव कण (क्वार्क) में अनंत निर्जीव पदार्थों से लेकर अनंत एक कोशिकीय जीव से लेकर बहुकोशिकीयजीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों रूपी सजीव पदार्थों मेंप्रकट होने की अनंत संभावनाएँ हैं। साधारणतया जो सजीव है वह चेतन भी होता है जैसे एककोशिकीय जीवों में उनकी गति/प्रतिक्रिया के आधार पर सजीव एवं चेतन कह दिया जाता है। पेड़ पौधों में उनके भागों (जड़, तना, पत्तियाँ, फूल, फल, बीज आदि) में वृद्धि के आधार पर उनको सजीव एवं चेतन कहा जाता है। जैसे तने का प्रकाश के स्रोत या सूर्य की ओर वृद्धि एवं जड़ों की भूमि में जल स्रोत की ओर वृद्धि आदि। जब तक कोई जीवित है तभी तक उसमें चेतनता होने की संभावना होती है। निर्जीव पदार्थ जब सजीव पदार्थ के संपर्क में आता है तभी वह सजीव का भाग बन जाता है। सजीव में विशेष रसायनिक प्रक्रिया के द्वारा निर्जीव पदार्थ, सजीव हो जाता है। निर्जीव पदार्थ, सजीव बीज एवं सजीव वनस्पति की प्रक्रिया के द्वारा सजीव हो जाता है और जब इन वनस्पतियों से प्राप्त सजीव भोजन अन्य जीव जन्तु एवं मनुष्य करता है तो वह उस जीव का अंग एवं शरीर बन जाता है । तो मूलतः पदार्थ से ही पदार्थ का निर्माण होता है। उन्नत जीव जंतुओं जैसे स्थानपायी पशु एवं मनुष्य में शरीर के अतिरिक्त मन (बुद्धि, अहम, इच्छायेँ, विचार, भावनाएं आदि) भी अति विकसित होता है मन भी एक प्रकार का पदार्थ है। इसलिए इसका भी अनुभव हो जाता है। मन शरीर की अपेक्षा अभौतिक एवं सूक्ष्म पदार्थ है। सजीवता और चेतनता को एक और उदाहरण से समझने का प्रयास करते है। निद्रावस्था में चेनतना शरीर की आंतरिक इंद्रियों में चली जाती है क्योंकि बाह्य इंद्रियाँ कार्य नहीं करती हैं जैसे निद्रा में यदि हम किसी को साधारण तीव्रता की आवाज दें, उसे हल्का छूए या हल्का ताप का स्पर्श कराएं तो उसको अनुभव नहीं होता और वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है और जैसे ही हम साधारण से अधिक तीव्रता से यह क्रियाएँ करें तो उसमें तुरंत चेतनता आ जाती है। इसी प्रकार निश्चेतावस्था (coma), संज्ञाहरण (anesthesia), बेहोशी (unconscious) आदि में शरीर तो जीवित होता है किन्तु मनुष्य में चेतनता नहीं रहती है। इसी प्रकार जब शरीर के किसी भाग में लकवा मार जाता है तो वह अंग जीवित तो होता है किन्तु उसमें चेतनता नहीं होती है। मृत्यु की अवस्था में मनुष्य के शरीर के अंग कुछ समय तक तो जीवित होते है। किन्तु चेतनता तुरंत चली जाती है। जैसे ह्रदय एवं फेफड़े ४-६ घंटों तक जीवित रहते है, यकृत ८-१२ घंटों तक जीवित रहता है एवं वृक्क २४-३६ घंटों तक जीवित रहते हैं इसलिए मृत्यु के पश्चात कुछ घंटों तक अंग दान संभव होता है।मृत्यु की अवस्था में सभी इंद्रियाँ (बाह्य, आंतरिक एवं सूक्ष्म) कार्य करना बंद कर देती हैं क्योंकि उनमें दोष आ जाता है। चेतनता का न होना अर्थात विभिन्न प्रकार के अनुभवों (ठंडा, गर्म, स्पर्श, पीड़ा, दबाव) के प्रति कोई प्रतिक्रिया (रीफ्लैक्स एक्शन) न होना। चेतनता न होने का कारण या तो शरीर, या शरीर के किसी अंग (मुख्यतया मस्तिष्क एवं मेरुरज्जू) में दोष आना या रीफ्लैक्स एक्शन की सम्पूर्ण प्रक्रिया में बाधा आना होता है जो कि संज्ञाहरण के समय होता है। चेतनता जीव की उत्तरजीविता के लिए बहुत आवश्यक होती है। यदि किसी अंग में चेतनता नहीं है तो उसके नष्ट होने की संभावना अधिक हो जाती है। जिन्हें आत्मज्ञान नहीं हुआ है वे इस चेतनता (Consciousness) या सजीवता (Livingness) या स्वयं के होने के भाव को या स्मृति को ही आत्मा या दृष्टा/साक्षी/अनुभवकर्ता समझते है। यह चेतनता भी चित्त वृत्ति है। यह चेतनता अतिविकसित मस्तिष्क की जटिल गतिविधियों के द्वारा उत्पन्न होती है। अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में मनुष्य में यह चेतनता अधिक होने का कारण उसका अधिक संज्ञानात्मक विकास होना है। मानव मस्तिष्क की संरचना एवं उसमें स्थित लगभग ८६ मिलियन न्यूरॉन की परस्पर जटिल क्रियाओं के द्वारा उच्च स्तर की चेतनता उत्पन्न होती है। **अनुभवकर्ता/ साक्षी क्या है?** ज्ञानमार्ग में जब हम स्वयं के तत्व को जानने का प्रयास करते हैं तो द्वैत से शुरुआत करते हैं। द्वैत केस्तर पर केवल दो हैं अनुभव एवं अनुभवकर्ता। अनुभव अर्थात जो भी प्रतीत होता है या जिसका भी अनुभव हो जाता है। जो कुछ भी परिवर्तनशील है उसका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण भौतिक जगत एवं यह मनोशरीर यन्त्र (शरीर, भावनायें, विचार, संवेदनाएं, स्मृति, मन, बुद्धि, अहम भाव) अनुभव ही हैं। ये सभी अनुभव जिसे हो रहे हैं वह अनुभवकर्ता है। अनुभवकर्ता को ही आत्मन/ब्रह्मन/दृष्टा/ साक्षी/स्व/तत्व/आत्मा/चेतन्य भी कहा जाता है। केवल अनुभवकर्ता ही अपरिवर्तनशील है इसलिये यही तत्व है। अपरिवर्तनशील होने के कारण इसे जाना नहीं जा सकता है।तत्व अंतिम अविभाज्य है, अपरिवर्तनशील है इसलिए तत्व ही सत्य है। इसमें कोई गुणधर्म नहीं है, इसका कोई रूप, रंग, आकार नहीं है इसके होने का कोई एक निश्चित स्थान नहीं है अर्थात यह सर्वव्यापी है। इसके होने की कोई प्रक्रिया एवं कोई कारण नहीं है। यह स्वयंसिद्ध है। अपरिवर्तनशील होने के कारण यह समय से परे है अर्थात इसका जन्म एवं मृत्यु नहीं होती है। यह अजर, अमर, शाश्वत, अनन्त है। इस प्रकार अनुभवकर्ता केवल शुन्यता मात्र है यह वह पृष्ठभूमि है जिस के पटल पर सभी अनुभव/परिवर्तन होते हुए प्रतीत होते है।यह साक्षी के रूप में इन सभी अनुभवों से निर्लिप्त सदा ही बना रहता है। केवल अनुभवकर्ता ही एकमात्र सत्य है। अनुभव एवं अनुभवकर्ता/साक्षी के अधिक विश्लेषण के लिए आप त्रिज्ञान वाला लेख देख सकते है। अनुभवकर्ता वह है जो कि जीव की चेतनता (awareness/consciousness/alertness), ध्यान (concentration), स्मृति (memory), प्रतिक्रियाओं (responses), कर्मों (actions), विचार (thoughts), इच्छाओं, भावनाओं, संवेदनाओं एवं शरीर आदि जो भी परिवर्तनशील है उन सभी का असंग निर्लिप्त साक्षी है। अनुभवकर्ता सचेत अवस्था (चेतनता) और निश्चेत अवस्था (कोमा, संज्ञाहरण, बेहोशी) दोनों अवस्थाओं का साक्षी मात्र है । और यदि एक एक कर के शरीर के सभी अंगों को हटा दिया जाय तो भी अनुभवकर्ता इन अंगों को हटाने की प्रक्रिया को देखने वाला, इनके अभाव का साक्षी मात्र है। निर्गुण, निराकार, अनन्त, शुन्यता होने के कारण अनुभवकर्ता को जाना नहीं जा सकता है अर्थात यह अज्ञेय है। इसलिए इसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह मौन मात्र है। केवल इसका नकारात्मक ज्ञान नेति नेति विधि के द्वारा संभव है। अनुभवकर्ता केवल हुआ जा सकता है जो की आप अभी इसी समय हैं। सदा आत्मज्ञान के स्मरण में रहना कि मैं यह जगत एवं मनोशरीर यन्त्र नहीं हूँ मैं इन सभी का दृष्टा/ साक्षी हूँ यह साक्षीभाव है। साक्षीभाव भी चेतनता अर्थात चित्तवृत्ति ही है। अनुभवकर्ता (साक्षी) इस वृत्ति (साक्षीभाव) का भी साक्षी है। साक्षीभाव के अधिक विश्लेषण के लिए साक्षीभाव वाला लेख देख सकते हैं। **सारांश:** निर्जीव से सजीव प्राणियों में जब हम एककोशिकीय जीवों से बहुकोशिकीय जीवों की ओर जाते हैं तो बुद्धि एवं चेतानता का विकास होता जाता है बुद्धि की परत का विकास होने के साथ साथ स्वयं के होने का भाव एवं अहम वृत्ति भी दृढ होती है जीव का विकासक्रम इस प्रकार है एक कोशिकीय जीव (वायरस, अमीवा, बैक्टीरिया, कवक, प्रोटोज़ोआ, शेवाल आदि) बहुकोशिकीय जलीय जीव अकशेरुकी जीव (कीड़े मकोड़े) - उभयचरी जीव (मेंढक आदि)- सरीसृप (सांप, छिपकली आदि रेंगने वाले जीव) पक्षी - स्थनपायी (बन्दर, मनुष्य आदि)। मनुष्य में बुद्धि की परत अतिविकसित होने के कारण उसमें स्वयं को जानने की इच्छा भी प्रबल होती है। प्राचीन काल में हमारे गुरुओं, ऋषि मुनियों, दार्शनिकों, ज्ञानियों में यह जिज्ञासा इतनी प्रबल होने के कारण सम्पूर्ण विश्व में लगभग एक ही समय में दर्शन शास्त्रों का विकास हुआ है जिसके परिणामस्वरुप उन्होंने स्वयं के सत्य स्वरुप अर्थात तत्व (अनुभवकर्ता/दृष्टा/साक्षी) को जाना है। इसलिये अक्सर यह कहा जाता है कि मानव जीवन अनमोल है क्योंकि मानव में बुद्धि एवं चेतनता का अधिक विकास होने के कारण स्वयं के तत्व को जानने की संभावना है जबकि अन्य प्रजातियाँ मात्र अपनी योनियों के अनुसार कर्मों में लिप्त होकर भोग कर रही है। प्रकृति अर्थात माया में अनंत प्रकार के निर्जीव पदार्थ से अनंत प्रकार के सजीव पदार्थों के निर्मित होने की प्रक्रिया एक शून्यता की पृष्ठभूमि में घटित हो रही है जो कि अनुभवकर्ता/ साक्षी/ दृष्टा है। अनुभवकर्ता अचेतन शरीर या अंग में या किसी खंडित अंग में सजीवता एवं चेतनता के अभाव एवं पूर्ण रूप से क्रियाशील अंगों में सजीवता एवं चेतनता का भी साक्षी है अनुभवकर्ता इन अवस्थाओं के पूर्व में भी था और इनके बाद भी है। सजीवता, चेतनता एवं यह मनोशरीर यंत्र आते जाते अनुभव मात्र हैं और अनुभवकर्ता इनके साक्षी के रूप में सदा ही अलिप्त, असंग बना रहता है। तो मुझे विश्वास है कि अब आप इन शब्दों (सजीवता, चेतनता, अनुभवकर्ता) का अर्थ समझ गए होंगें। मैंने गुरुकृपा से स्वयं के अनुभव द्वारा अपने तत्व को जाना है अतः आप भी आत्मज्ञान प्राप्त करें और अपने सत्य स्वरुप को जाने जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। तभी इस मानव जीवन में जन्म लेना सार्थक है अन्यथा मनुष्य भी अन्य जीव जंतुओं की तरह मात्र उत्त्तरजीविता की वृत्तियों (प्रजनन, रक्षण, भक्षण) में लिप्त है उसमें एवं अन्य जीवों में कोई भेद नहीं है। **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के आभारी हूँ। संपर्क सूत्र.. साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल:swaprakash.gyan@gmail.com
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