Wise Words
श्रवण
शैल
श्रवण क्रिया नहीं है, श्रवण मात्र सुनना है, जिसे बिना किसी पूर्व मान्यता अथवा धारणा के सुना जाए। जब भी कोई जानकारी व्यक्ति को मिलती है तो उसे वह अपने ज्ञान के रूप में संयोजित करता है। यह संयोजन उसके पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर होगा। इसलिए एक ही जानकारी अथवा एक ही लेख अलग अलग व्यक्तियों को अलग अलग रूप में प्रभावित करते हैं। और उनके अर्थ व्यक्ति अलग अलग निकालता है। इसका कारण उसके पूर्व अनुभव और बुद्धि का स्तर हो सकता है। क्या ऐसा भी सुनना हो सकता है, जिसमें सुनने वाला ही न हो! अर्थात मैं के बिना सुना जाना। यहाँ मैं का अर्थ स्मृति से है। एक पहचान जो सुनने वाले को परिभाषित करती है। फिर सुनने के बाद जो ज्ञान निर्मित होगा वह शुद्ध नहीं होगा, क्योंकि एक छन्नी से सुना गया। और एक अलग अवधारणा निर्मित हो जाएगी। हम ऐसी ही व्यवस्था के परिणाम हैं। इसलिए सुनना शुद्ध नहीं होता । यदि गुरु के सानिध्य में सुना जाए तो वहाँ कुछ संभावना होगी, क्योंकि गुरु पहले शिष्य को सुनने के लिए तैयार करता है, और उसकी जाँच भी करता है कि वह श्रवण के लिए तैयार है अथवा नहीं। जैसे बीज बोने से पहले मिट्टी तैयार करनी होती है। अन्यथा बीज स्वस्थ पौधे नहीं बनेंगे। इसी प्रकार शिष्य को मैं के सभी सूक्ष्म मान्यताओं और पूर्वधारणाओ से स्वयं को मुक्त करना होता है। यह एक शल्य चिकित्सा की तरह है। मानसिक शल्य चिकित्सा! जो भौतिक शल्य प्रक्रिया से अधिक चुनौतिपूर्ण एवम जटिल होती है। कई कारण है उसकी जटिलता के: * एक तो यह भौतिक नहीं होता तो भौतिक इंद्रियों से देखा नहीं जा सकता। * सूक्ष्म होने के कारण शिष्य उन्हें स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होता है, क्योंकि उसकी चेतना और बुद्धि का उस स्तर तक विकास नहीं हुआ होता है जहां से गुरु उसे निर्देश दे रहे होते हैं। * यदि शिष्य उपलब्ध नहीं हो, तो इन्हें हटाना संभव ही नहीं है। रहे होते हैं। * इसलिए गुरु आज्ञा और गुरु कृपा दोनों की इतनी महिमा है। * यदि शिष्य आज्ञाकारी है तो समर्पण स्वयं आ जाता है और परिणाम शीघ्र आते है। एक आज्ञाकारी और गुरु के प्रति समर्पित शिष्य की प्रगति शीघ्र हो जाती है, क्योंकि ऐसा शिष्य गुरु कृपा को स्वयं उपलब्ध हो जाता है। फिर श्रवण उसे भ्रम में नहीं डालेगा और सही अर्थों में श्रवण हो पाएगा। जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान भी, सही रूप में उतर पाएगा, और श्रवण की यही भूमिका है। इसलिए शास्त्रों का अध्ययन नहीं, श्रवण किया जाना होता था जो कि गुरु के सान्निध्य में ही उनके ही द्वारा दी जाती थी। एक पण्डित शास्त्रों की व्याख्या करता है, वह जो भी करेगा उसमें वह स्वयं मौजूद होगा। इसलिए ऐसे व्याख्याताओं को को शास्त्री कहा. जाता है। शास्त्रों को जाननेवाला। और जहां जानने वाला मौजूद हो फिर ज्ञान सहज नहीं हो सकता। गुरु ही शास्त्रों में निहित ज्ञान को शिष्यों तक पहुँचा सकते हैं और यह सबसे बड़ी कृपा है। शिष्य उपलब्ध होना ही उसे सुपात्र बना देता है, फिर बाकी योग्यताएं साधना निर्मित कर देती हैं, जो गुरु के मार्ग दर्शन में चल कर की जाए। इसलिए गुरु का स्थान सर्वोपरि और पूजनीय है, क्योंकि वो ज्ञान ही नहीं देते उसके लिए पहले उसे तैयार कर पात्रता भी देते हैं। ज्ञान के प्रकाश को शुद्ध रूप में फैलाने के लिए समर्पित गुरु जनों को शत शत नमन !
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