Wise Words
बंधन से मुक्ति की ओर
स्वप्रकाश
देह कृत्य सब करत है, उत्तम मध्य कनिष्ट। सुंदर साक्षी आत्मा, दीसै मांहि प्रविष्ट॥ **- सुंदरदास जी** इस लेख में हम जानेंगे कि मानव किन प्रकार के बंधनों से बंधा हुआ है और आत्मज्ञान के द्वारा उनसे मुक्ति का क्या उपाय हो सकता है। तो चलिए शुरू करते है। **बंधन क्या है ?** जो सीमित है वह बंधन में है। बंधनों का कारण एक सीमित पहचान है। और बंधन ही दुखों का मूल कारण है। हवा को देखें तो क्या हवा ने कोई पहचान बना रखी है नहीं, जल को देखें उसने कोई पहचान बना रखी है नहीं आप जैसे ही हवा को किसी गुब्बारे में भर देते हैं तो वह सीमित हो जाती है अब वह केवल गुब्बारे का रूप बनाए रखने का कार्य करती है उससे कोई और कार्य नहीं किया जा सकता। गुब्बारे की वायु को प्राण वायु बनने के लिए अपने गुब्बारे के सीमित रूप अर्थात गुब्बारे का बंधन तोड़ना पड़ेगा तभी वह सार्वभौमिक वायु में मिलकर अनंत हो पाएगी और प्राण वायु का कार्य करेगी। पानी जैसे ही बर्फ का रूप धारण कर लेता है तो वह सीमित हो जाता है उससे प्यास नहीं बुझाई जा सकती प्यास बुझाने के लिए उसे अपने असीमित रूप जल में परिवर्तित होना पड़ेगा। जैसे की नाम रूप सीमित होता जाता है, पहचान बनने लगती है। तो अनंत संभावनाएं सीमित होने लगती हैं जिसके कारण बंधन बनने लगते हैं। आप जैसे ही अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं आप अनंत संभावनाओं को छोडकर सीमित होते जाते हैं जैसे एक रिक्त कागज है जब तक यह रिक्त है तब तक इसमें अनंत संभावना है कि इसमें कोई भी रंग भरा जा सकता है कोई भी चित्र अंकित किया जा सकता है यदि यही किसी एक रंग जैसे काला या लाल रंग का होता तो फिर उसमें और रंग नहीं भरे जा सकते या फिर लाल में केवल एक या दो रंग भरे जा सकते हैं यहाँ हमने देखा की जैसे ही एक निश्चित पहचान निर्मित हो गयी तो संभनवाएँ सीमित होती जाती हैं अर्थात बंधन बंधते जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आप जितनी अधिक पहचान बनाएँगे उतने ही अधिक बंधन बनाते जाएंगे। तो बंधनों से मुक्ति के लिए पहचान को त्यागते जाना है केवल यही एक युक्ति है या फिर पहचान केवल क्षणिक होनी चाहिए जिससे कि वह बंधन न बन पाये। या फिर यूं कहें कि पहचान तो हो किन्तु उससे लिप्त न हों तो भी बंधन नहीं बनेंगे। जैसे स्लेट पर कुछ भी लिख दिया जाय तो स्लेट उससे लिप्त नहीं होती अर्थात उस लिखावट को पकड़ती नहीं है जिसकी वजह से लिखे हुए को आसानी से मिटाया जा सकता है। जैसे सिनेमा का पर्दा जिस पर कई सारे चित्र/छवियाँ चलती हैं किन्तु पर्दा उनसे लिप्त नहीं होता और सिनेमा समाप्त होने के पश्चात वह कोरा का कोरा ही रहता है। जिस प्रकार रेत पर कुछ भी लिख दिया जाय तो रेत उससे लिप्त नहीं होती और कुछ समय पश्चात पानी की एक हल्की सी लहर उसे मिटा देती है। जिस प्रकार कच्ची मिट्टी किसी भी आकार से लिप्त नहीं होती और आसानी से कोई भी रूप धारण कर लेती है। जब हम निर्मिप्त होते हैं तो सभी बंधन आभासी होते हैं और वे बांधते नहीं हैं। तो बंधनों से मुक्ति के लिए बंधनों को पहचानना आवश्यक है। तो चलिये हम यहाँ बंधनों को पहचानने का प्रयास करते है। **बंधनों के प्रकार** **आभासी बंधन** चलिये इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। जैसे सर्कस में नियंत्रित हाथी को एक पतली रस्सी से बांध दिया जाता है उसके प्रशिक्षण के कारण उसके मन में यह विश्वास होता है कि वह किसी मजबूत जंजीर से बंधा है और वह उस कमजोर रस्सी को तोड़ने का प्रयास भी नहीं करता है यहाँ बंधन आभासीय है। **प्राकृतिक बंधन** यदि एक मेंढक का उदाहरण लें तो मेंढक एक सीमा तक ही छ्लांग लगा सकता है यह उसका प्राकृतिक/आनुवांशिक बंधन है जो उसके शरीर की संरचना के कारण है। इस प्रकार के प्राकृतिक बंधन अपरिवर्तनीय हैं। जैसे पेड़ पौधों में अनुवांशिक सीमाएं हैं जिसकी वजह से वे गति नहीं कर सकते इस प्रकार के बंधन आनुवांशिक अर्थात प्रकृतिक हैं। इनको परिवर्तित करना संभव नहीं है। जैसे एक पशु उसके शरीर से संबन्धित कार्य ही कर सकता है। जैसे कछुआ खरगोश की तरह तेज गति से नहीं चल सकता। प्राकृतिक बंधनों को तोड़ना संभव नहीं है ये प्रकृति द्वारा स्वतः चालित हैं। आभासी बंधनों को तोड़ा जा सकता है उनसे मुक्ति संभव है। सीमितता में उत्तरजीविता सुनिश्चित होती है किन्तु बंधन होता है जैसे जंगल में रहने वाले हिरण को यदि चिड़ियाघर में रख दिया जाय तो उसकी स्वतंत्रता तो छिन जाएगी किन्तु उसकी उत्तरजीविता सुनिश्चित हो जाती है। जंगल में उसके शेर का भोजन बनने का भय बना रहता है। उसी प्रकार से आज के समय में मनुष्य, समाज के कई सारे बंधनों से घिरा हुआ है। कई सारे बंधन मनुष्य के द्वारा कई सारी पहचान निर्मित करने के कारण हैं। कई सारी पहचानों का मूल कारण अत्यधिक अहम भाव है। मानव में अत्यधिक अहम भाव उसको जगत से अध्यधिक विभाजित कर देता है। ये जगत से अत्यधिक भेद ही दुखों का मूल कारण है। मनुष्य स्वयं को मन, शरीर, नाम, रूप, जाति, वर्ण, लिंग, परिवार, समाज, व्यवसाय, योग्यता, धर्म, देश, योनि (प्रजाति), आदि की पहचान रखने के कारण स्वयं को अन्यों से पृथक समझता है। प्रत्येक पहचान एक बंधन निर्मित कर देती है। यह पहचान ही मनुष्य में राग-द्वेष का कारण है। अब आप कहेंगे कि ये तो मेरी पहचान हैं ये बंधन कैसे हुए। तो चलिए हम बाह्य जगत से स्वयं के भीतर की यात्रा प्रारंभ करते हैं और बंधनों को जानने का प्रयास करते है। **मनुष्य प्रजाति का बंधन** मनुष्य प्रजाति स्वयं को अन्य प्रजातियों, जीव जंतुओं, पेड़ पौधों से भिन्न समझती है और श्रेष्ठ समझती है। जिसके कारण वह अन्य जीव जंतुओं एवं प्रकृति के बारे में विचार किये बिना ही अंधाधुंध प्रकृति का स्वयं के भोग के लिए दोहन कर रही है, जिसकी वजह से जीवों की कई सारी प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। एक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि१७५० से लेकर अब तक पौधों की ५७१ प्रजतियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वास्तव में ये आंकड़ा इससे भी ज्यादा है (The Guardian, २०१९). संयुक्त राष्ट्र संघ की २०१९ की एक रिपोर्ट के अनुसार पौधों और जानवरों की लगभग १ मिलियन प्रजतियाँ विनाश के कगार पर हैं (UN Report, २०१९). यदि हम मनन करें तो पायेंगे कि सभी जीव-जंतु, वनस्पति एवं यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत मूल भौतिक कण क्वार्क, प्रोटोन, इलेक्ट्रान, न्यूट्रॉन एवं उर्जा के द्वारा निर्मित हैं। परम कणों के स्तर पर सभी एक हैं। योग की भाषा में सभी पंचमहाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) के द्वारा निर्मित है। सभी सजीव एवं निर्जीव मूलरूप से पदार्थ ही हैं। सजीवों में जो चेतनता दिखाई देती है वह भी पदार्थ ही है। अतः मनुष्य एवं बाह्य जगत जिससे वह निर्मित हुआ है उस में कोई भेद नहीं है। तो स्वयं के इस बंधन को पहचानें और मुक्ति पायें। **राज्य/देश का बंधन** मेरा गाँव/शहर, मेरा राज्य, मेरा देश, मेरी भाषा इसके अति भाव के कारण व्यक्ति स्वयं के शहर, राज्य, देश एवं भाषा को अन्य से श्रेष्ट मानता है और दूसरे राज्य, देश एवं भाषा के लोगों के साथ भेदभाव का व्यवहार करता है। स्वयं के देश के श्रेष्ठ मानने के कारण एक देश दूसरे छोटे देशों पर आक्रमण करके उन पर अपना अधिपत्य जमाने की कोशिश करते है. इसके कारण की विश्व युद्ध होते है. इसकी जानकारी आप सभी ने इतिहास में पढ़ी होगी कि प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध में कितना नरसंहार हुआ था. द्वितीय विश्व युद्ध में लगभग ४५-६० मिलियन लोग मारे गए थे (highpointnc.gov). ACLED टकराव इंडेक्स (Conflict Index) जुलाई २०२३ के अनुसार एक वर्ष में पूरे विश्व में १३९,००० से अधिक राजनितिक हिंसाएँ हुई थी जिसमें १४७,००० से अधिक लोगों की हत्या हुई थी (ACLED Conflict Index, २०२३). हम यदि मनन करें तो हम पाएंगे के यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक ही है उसके पृथक खंड नहीं हैं। देश एवं राज्यों का विभाजन केवल काल्पनिक है जिसे विभिन्न देशों ने प्रशासन को सुगम बनाने एवं किसी प्रकार के मतभेद तो रोकने के लिए निर्मित किया है। किसी भी देश अथवा राज्य की भाषा केवल व्यक्तियों में सूचना के आदान-प्रदान एवं ज्ञान को वर्णित करने का साधन मात्र हैं कोई भी भाषा किसी से भी श्रेष्ठ नहीं है। तो यह बंधन भी काल्पनिक है इसे **धर्म/संप्रदाय का बंधन** वर्तमान समाज कई सारे धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों में विभाजित है जो कि मनुष्य के बंधन का कारण है। आजकल लोग अज्ञानता के कारण धार्मिक कट्टरता दिखाते हैं और आये दिन धार्मिक एवं साम्प्रदायिक दंगे करते हैं जिसमें निर्दोष लोग बेवजह मारे जाते है। २००५-२०१७ तक भारत देश में ९७२२ धार्मिक एवं साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं जिनमें १४७१ लोग मारे गये एवं २८५९१ लोग घायल हुए (Religious violence in India). अन्य की अपेक्षा स्वयं के धर्म को श्रेष्ठ समझना अज्ञानता है। कोई भी धर्म हो वह सदा ही सत्य, अहिंसा का पाठ ही देता है। सभी धर्मों का मूल उद्देश्य सत्य की खोज करना है भले ही वह सनातन हिन्दू धर्म हो, सिक्ख धर्म, मुस्लिम, ईसाई, बोद्ध, जैन, महावीर कोई भी हो सभी ने मनुष्य को उसके सत्य स्वरुप को जानने का पाठ पढाया है। **नौकरी/ व्यवसाय का बंधन** केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो उत्तरजीविता के लिये नौकरी एवं व्यवसाय करता है। नौकरी में मनुष्य को उसके मालिक या संस्था के अनुसार कार्य करना पड़ता है भले ही वह कार्य उसकी रूचि का न हो। अरुची के कार्य के कारण उसे उस कार्य में आनंद नहीं आता और चाहे नैतिक हो या अनैतिक वह उस कार्य को करने के लिये बाध्य होता है। जैसे कई नौकरियों में व्यक्ति लोभवश भ्रष्टाचार एवं अनैतिक कार्य करते हैं। साल २०२३ के भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई) में भारत ९३वें स्थान पर था। यह रैंकिंग ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल (टीआई) ने जारी की थी। कभी-कभी न चाहते हुए भी दबाव में आकार उन्हें अनैतिक कार्य करने पड़ते है। नौकरी भले ही सरकारी हो अथवा निजी सभी में व्यक्ति एक मुक्त, स्वतंत्र एवं रूचिकर कार्य नहीं कर पाता है। व्यवसाय में नौकरी की अपेक्षा कुछ स्वतंत्रता होती है। किन्तु ऐसे व्यवसाय जो किसी सरकारी तंत्र या आम जनता से जुड़े होते हैं उनमें भी कुछ हद तक बंधन होते है। जैसे आजकल बड़े बड़े व्यवसायी अपने निजी लाभ के लिये सत्ता/सरकार के अनुसार कार्य करते है। कई समाचार चैनल सत्ताधारी पार्टी के अनुसार कार्य करते हैं और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं करते हैं। २०२४ के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार वर्तमान में वैश्विक पत्रकारिता राजनीतिक दबाव में कार्य कर रही है। ज्यादातर व्यवसाय स्वार्थ पूर्ति के लिये होते है। उनमें रूचि एवं परमार्थ को अलग रख कर व्यक्तिगत लाभ एवं धनार्जन के उद्देश्य से व्यवसाय होता है जो व्यक्ति के बंधन का कारण होता है। यदि संभव हो सके तो अपनी रूचि की नौकरी एवं व्यवसाय चुनें एवं निस्वार्थ भाव से नैतिकता पूर्ण कार्य करें जिसको करने में आनंद आता हो। **विवाह एवं परिवार का बंधन** शादी समाज के द्वारा निर्मित, क़ानूनी रूप से स्वीकार्य व्यवस्था है जिसका मूल उद्देश्य, स्त्री-पुरुष की संतान उत्पत्ति (प्रजनन), कामवासना की इच्छा की पूर्ती एवं सामाजिक सुरक्षा को प्रदान करना है. इसका एक और उद्देश्य समाज में काम वासना के वशीभूत होकर होने वाले अनैतिक व्यवहारों (यौन शोषण) को रोकना भी है। हिन्दू धर्मं के अनुसार मनुष्य जीवन के चार प्रमुख पुरुषार्थ माने गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। विवाह को इन सभी पुरुषार्थों को पूर्ण करने का एक आवश्यक साधन माना गया है।विवाह के तीन मुख्य लक्ष्य हैं - स्त्री एवं पुरुष को स्वयं के धर्म को पूर्ण करना, संतान उत्पत्ति करना और काम क्रिया का उपभोग करना. विवाह का मुख्य उद्देश्य संतान उत्पत्ति करना है। धर्मं अर्थात समाज में नैतिकता (कर्त्तव्य, अधिकार, नियम-कानून, अदाचार) का व्यवहार करना है। स्त्री-पुरुष के मध्य सम्भोग संतान उत्पत्ति के लिए आवश्यक है किन्तु विवाह के उद्देश्य से इसे सबसे कम महत्व दिया गया है (Marriage in Hinduism). वर्तमान समय में यदि देखा जाय तो मनुष्य जीवन अर्थ एवं काम तक ही आकर सीमित हो गया है। हिन्दू धर्म के दर्शन (philosophy) के अनुसार सभी सुखों, अनुभवों को भोगने के पश्चात, मोक्ष ही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है। विवाह का मूल उद्देश्य स्त्री-पुरुष को एक दुसरे के विचारों, भावनाओं का सम्मान करना, एक-दुसरे को बंधन में बांधने कि बजाय पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करना है न कि एक दुसरे को स्वयं की सम्पत्ति/ वस्तु के रूप में देखना है। कालांतर में विवाह का मूल उद्देश्य पूर्ण रूप से परिवर्तित होकर केवल भोग (भौतिक सुखों) तक ही सीमित हो गया है जिसके कारण विवाह मनुष्य जीवन में मुक्ति की एक सीढ़ी के स्थान पर एक बहुत बड़ा बंधन बनकर रह गया है। विवाह की व्यवस्था में स्त्री-पुरुष की काम-वासना की पूर्ति तो हो जाती है किन्तु परिवार (पत्नी, संतान) निर्माण के साथ पुरुष पर उनके भरण-पोषण, शिक्षा, गृह-निर्माण एवं रक्षण की जिम्मेदारी भी आ जाती है। पुरुष परिवार के भरण-पोषण, रक्षण के लिए जीवन भर मेहनत करता है, दिन रात उनके सुख-सुविधाओं एवं भविष्य के लिए चिंतित रहता है। परिवार के लिए मनुष्य धन अर्जन के लिए किसी भी प्रकार के नाजायज कार्य, भ्रष्टाचार के कार्य करते समय तनिक भी विचार एवं संकोच नहीं करता है। यह अक्सर देखा गया है कि व्यक्ति अज्ञानवश अपने परिजनों एवं समाज के दबाव में अज्ञानवश ऐसे स्त्री/पुरुष के साथ विवाह कर लेता जिससे उसके विचार एवं भावनायें मेल नहीं खाती है। पुरुषों की ओर से प्रायः स्त्री की सुन्दरता एवं स्त्री के परिवार की ओर से पुरुष का व्यवसाय या नौकरी को देखकर शादी की जाती है उसमें भले ही उनके विचार, भावनायें, एवं बौद्धिक परिपक्वता मेल खाये या नहीं। ऐसी शादी में दोनों ही पति पत्नी में प्रेम रहित, बेहोश अज्ञान युक्त जीवन बीतता है जिसके कारण वे आजीवन दुखी रहते है. और शादी के बाद जीवन भर पछताते हैं। ऐसे में पुरुष/स्त्री का सारा जीवन परिवार केन्द्रित हो जाता है। बच्चे पैदा करना है, उनकी शिक्षा, पालन पोषण, उनके भविष्य के लिए योजना बनाना, घर बनाना, उनकी शादियाँ करना आदि कार्यों में ही एक पुरुष/स्त्री का सम्पूर्ण जीवन खप जाता है। इन कार्यों के पूर्ण करने के लिए उसका सम्पूर्ण जीवन, तनाव, दुख, एवं कष्टों से पूर्ण बीतता है। दोनों पति-पत्नी की अज्ञानता के कारण घरेलू-उत्पीडन के मामले बहुत ही आम हैं। जिसमें दोनों पति-पत्नी जीवन भर पिसते हैं. मालिक एवं नड्डा (२०१९) ने हरियाणा राज्य के एक अध्ययन में यह पाया कि ५२.४% पुरुष लिंग आधारित हिंसा का शिकार हुए हैं। पुरुष अधिकतर भावनात्मक हिंसा (५१.६%) का शिकार होते है (doi: 10.4103/ijcm.IJCM_222_18). राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) २०१९-२०२१ के अनुसार तक २९.३% विवाहित स्त्रियाँ घरेलु/लिंग हिंसा का शिकार हुई हैं (Business standard). शादी करके परिवार निर्मित करना मनुष्य का सबसे बड़ा बंधन है ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। मैं यह नहीं कहता कि शादी न करें यदि शादी करना भी है तो परिवार एवं समाज के दबाव में न आयें और सोच समझकर, एक खुली सोच वाला, आध्यात्मिक जीवनसाथी चुनें और एक दूसरे पर अधिक अधिकार जमाने कि बजाय एक दूसरे को स्वतंत्रता दें और हो सके तो सर्वप्रथम दोनों आत्मज्ञान प्राप्त करें जो कि दोनों की अथ्यात्मिक प्रगति में सहायक हो। व्यक्ति परिवार में विभिन्न प्रकार के रिश्तों के बंधनों में बंधा हुआ है। परिवार एवं समाज के सभी बंधन मोह एवं आश्रय के हैं जिसमें व्यक्ति की उत्तरजीविता सुनिश्चित होती है । परिवार के रिश्तों में प्रेम के स्थान प्रमुखतया मोह एवं उस रिश्ते से पुनः पाने की आशा अधिक होती है । आज के समय में अधिकतर माता-पिता उनकी महत्वाकांक्षाओं का बोझ बच्चों पर थोप देते हैं जिसके तले बच्चों को दबना पड़ता है । बच्चों की रूचि एवं क्षमताओं को जाने बिना ही उन्हें उनकी इच्छा के विपरीत शिक्षा प्रदान करें की कोशिश करते है । जैसे आज के समय में लोक सेवाओं, चिकित्सकों एवं अभियंताओं के क्षेत्र में अधिक वर्चस्व महसूस होता है जिसके कारण वे बच्चों को इनमें प्रवेश दिलाने के लिए २-४ वर्षों तक कोचिंग करवाते हैं । इनकी प्रतियोगी परीक्षाओं में लाखों विद्यार्थी भाग लेते हैं और सीटें बहुत ही कम होती हैं। वर्ष २०२४ में ११०५ सीटों के लिए १३.४ लाख विद्यार्थियों ने सिविल सेवा की परीक्षा दी थी । यहाँ विद्यार्थी कितने दबाव में होते हैं यह आप इस आंकड़े से अंदाजा लगा सकते है (google search on ०३ February). २०२५). बच्चों से अत्यधिक अपेक्षा एवं उसका दबाव बच्चों में मनोविकार एवं आत्महत्या का कारण बनता जा रहा है। NCRB (२०२२) की रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक (२०१३-२२) में भारत में १,०३,९६१ विद्यार्थियों के द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ हुई हैं। मोह बंधन देता है और प्रेम मुक्ति देता है। आज के समय में माता-पिता मोह वश अपनी संतान को स्वयं से दूर नहीं जाने देते और चाहते हैं कि वह उनके शहर के आस-पास ही नौकरी व्यवसाय कर ले। एक ही स्थान पर रहने से उनकी संतान का विकास किसी दूसरे अति विकसित शहरों के बच्चों कि बजाय कम होता है । जैसे हम आम के पेड़ को गमले में लगा कर अपने घर के नजदीक रख लें तो उसका विकास जमीन में उगने वाले पेड़ की अपेक्षा अवरुद्ध हो जाता है । यहाँ मोहवश व्यक्ति कार्य करता है और बंधनों में बंध जाता है। सच्चा प्रेम संबंधों में स्वतंत्रता प्रदान करता है जिससे दोनों व्यक्तियों की मुक्ति होती है। अपने संबंधों में स्वतंत्रता प्रदान करें और हर एक रिश्ते को खिलने दें एवं महकने दें । एक दूसरे से ज्यादा उम्मीदें न रखें । अपनी महत्वाकांक्षाएँ संतान पर न थोपें । तभी हर सम्बन्धी पक्षी की तरह मुक्त आकाश में उड़ सकेगा । संबंधों को मुक्त करेंगे तो स्वयं भी स्वतः ही मुक्त हो जायेंगे। **शरीर का बंधन** स्वयं को शरीर (स्त्री/पुरुष) समझना भी एक बंधन है। इसकी वजह से मनुष्य स्त्री एवं पुरुष का भेद करता है. प्राचीनकाल से ही पुरुषों ने स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा है। पुरुष स्त्री को स्वयं की सम्पत्ति एवं मान-सम्मान का साधन मानता आया है। इसलिये ही किसी भी व्यक्ति का अपमान करने के लिए अक्सर उसे स्त्री से सम्बंधित अपशब्दों का उपयोग करना बहुत ही आम बात है। स्त्रियाँ भी स्वयं की स्त्री काया का उपयोग स्वयं के व्यक्तिगत लाभ के लिए करती है। देह केन्द्रित स्त्री अक्सर रूठती है, अत्यधिक साज-सृंगार करती है, स्वयं में शैक्षणिक या कोई कार्य कुशल योग्यताएं विकसित करने की बजाय देह को सजाने एवं संवारने में लगी रहती है, अक्सर पुरुषों पर आश्रित रहती हैं. शरीर का बंधन प्राकृतिक है। दो विभिन्न प्रकार की देह निर्मित करने के पीछे प्रकृति का एक मात्र उद्देश्य प्रजनन के चक्र द्वारा जीव (प्रकृति कि कृति) को बनाये रखना एवं उत्तरजीविता के लिए उपयुक्त कृति को विकसित करना है। स्त्री-पुरुष में दोनों की देहों के प्रति आकर्षण प्रकृति द्वारा निर्मित है और एकमात्र प्रजनन के द्वारा अधिक से अधिक संतान उत्पत्ति के उद्देश्य से किया गया है। यदि मनन करें तो स्त्री एवं पुरुष दोनों भौतिक पदार्थ द्वारा निर्मित शरीर मात्र हैं दोनों जीव ही है। अणुओं के तल पर दोनों ही परम कणों (क्वार्क, प्रोटोन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन्स, उर्जा) के द्वारा निर्मित हैं।दोनों प्रकार के शरीर केवल मांस के समूह हैं जिनमें रासायनिक क्रियाएं चल रही है विभाजन केवल नाम-रूप का है। आत्मज्ञान के द्वारा शरीर का बंधन जो कि प्रकृति निर्मित है उससे भी मुक्ति पाना एवं इस शरीर से परे जाना संभव है। मनुष्य में बुद्धि एवं चेतना अधिक विकसित होने के कारण आत्मज्ञान प्राप्त करने की सम्भंवना अन्य जीवों की तुलना में अधिक है। जिससे कि इस प्राकृतिक शरीर के परे जाया जा सके। **मन का बंधन** विचार, इच्छाएं/वासनाएँ, भावनायें, बुद्धि, स्मृति, अहम भाव आदि के द्वारा मन निर्मित होता है इसे चित्त भी कहते हैं। अहंभाव ही मन का एवं शरीर का केंद्र है। इन परतों पर हम एक एक करके विचार करते हैं। अधिकतर विचार समाज, वातावरण जिसमें हम रहते हैं उससे प्रेरित होते है। अधिकतर इच्छाएं जिन पर हम कर्म करते हैं वे स्वतः यन्त्र वत होती है। उन्हें करने के लिए हमें ज्यादा विचार एवं ध्यान करने की आवश्यकता नहीं है। किसी भी कर्म को करने के लिए हमें केवल कुछ समय तक पूर्ण विचार एवं ध्यान की आवश्यकता होती है जिसके पश्चात उसका ज्ञान स्मृति में संचित होने के पश्चात वे कर्म यंत्रवत होते है। जैसे हम साइकिल या कार चलाना सीखते हैं तभी हमें कुछ समय के लिए पूरे ध्यान एवं सोच विचार करके साइकिल या कार चलाते हैं। और जैसे ही हमें उसका अनुभव (ज्ञान) हो जाता है तो कार चलाने का कार्य स्वतः ही यंत्रवत शरीर द्वारा होता है। इच्छाएं/वासनाएँ भी समाज एवं शरीर के द्वारा प्रेरित होती हैं जैसे हम किसी के पास नयी कार देखते हैं या नया फ़ोन देखते है या फिर किसी वस्तु का विज्ञापन देखते हैं तो वह इच्छा हमारे मन में रोपित हो जाती है कभी आपने विचार किया है कि कंपनिया अपने उत्पादों को बेचने के लिए विज्ञापनों पर इतना पैसा क्यों खर्च करती हैं वे जानती हैं कि हमारा मनोशरीर यंत्र किस प्रकार से कार्य करता है जिसका लाभ ये कंपनिया/ या कोई भी समान का विक्रेता उठता है। राकूटेन इनसाइट (Rakuten Insight) के २०२३ सर्वेक्षण के अनुसार लगभग ३६% लोग सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया) विज्ञापनों को देखकर उत्पाद खरीद करते हैं। एक अन्य सर्वेक्षण में एग्जाक्ट टारगेट (Exact Target) ने बताया कि ३७.२% वयस्क टेलीविजन विज्ञापनों के आधार पर खरीददारी करते हैं. विज्ञापनों के अतिरिक्त हमारे आसपास का समाज जिसमें हम रहते हैं उनको देख कर हमारी इच्छाएं प्रेरित होती हैं जैसे मेरा कोई मित्र विदेश भ्रमण करने जाता है या फिर मेरा पडोसी शहर में किसी रेस्तरां में भोजन करने जाता है और वे वहाँ की फोटो सोशल मीडिया पर प्रकाशित कर देते हैं तो उसको देखकर मेरे मन में भी वे इच्च्यायें एवं उनके विचार सूक्ष्म रूप में आरोपित हो जाते हैं इस परिदृश्य में यदि मैं सजग नहीं हूँ कि ये इच्छा मेरी नहीं है किसी और के द्वारा आरोपित है तो में भी परिवार के साथ उसी रेस्तरां में भोजन करने चला जाऊंगा और अपने मित्र की तरह विदेश भ्रमण या महँगी गाड़ी खरीदने की योजना बनाने लग जाऊंगा भले ही मेरे पास उतने पैसे नही हैं तो फिर मैं विदेश भ्रमण, गाड़ी खरीददारी और एक महंगा घर बनाने के लिए कर्ज (loan) लूँगा और जीवन भर उस कर्ज को चुकाने के लिए गधे की तरह कार्य करूँगा। इसी प्रकार यदि हम विचारों की उत्पत्ति की बात करें तो वे भी हमारी कंडीशनिंग, शेक्षणिक ज्ञान, हमारा परिवार, समाज और आज के समय में सोशल मीडिया के द्वारा रोपित किये जाते हैं। हम जिस प्रकार की सामग्री (कंटेंट) सोशल मीडिया/ विज्ञापन, टेलीविज़न में देखते और सुनते हैं उसी प्रकार के विचार हमारे मन में भी आने लगते है और हमारे सोचने समझने का तरीका उसी प्रकार का होने लगता है। तो आप जो भी देखते, सुनते हैं और जिन लोगों की सांगत आप करते हैं आपके विचार एवं भावनायें भी उसी प्रकार की हो जाती हैं ऐसा मेरा स्वयं का भी अनुभव है । तो अपने विचारों एवं भावनाओं के बंधक न बने एवं उनके प्रति सजग रहें कि वे कहाँ से आ रहे हैं उनसे प्रेरित होकर अनावश्यक कर्म न करें। यदि आप समर्थ हैं तो अवश्य ही इन विषय-वस्तुओं का एक सीमा तक रस लें किन्तु उनके पीछे भागे नहीं अपनी इच्छाओं/वासनाओं के बंधन में न बंधें और कर्ज लेकर शौक पूरे न करें अन्यथा आप कर्ज में फंस कर अपने जीवन को नरकीय बना सकते है। इन विज्ञापनों एवं सोशल मीडिया का शिकार अधिकतर स्त्रियाँ होती हैं। बोस्टन विश्वविध्यालय (Boston University) के मीडिया एवं तकनीकी सर्वेक्षण में यह पाया गया कि सोशल मीडिया स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक नकारात्मक तरीके (body perception, lifestyle and self-esteem) से प्रभावित करता है। तो आप अपनी इच्छाओं/वासनाओं एवं विचारों के बंधक न बनें एवं उनके प्रति सजग रहें और ध्यान दें कि वे कहाँ से प्रेरित हो रहे हैं और उनको पूर्ण करने की क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है। स्वयं की बुद्धि का प्रयोग अपने विचार, इच्छाओं, भावनाओं की उत्पत्ति एवं उनके वर्गीकरण (सही/गलत; आवश्यक/अनावश्यक) के लिए करें और जो आवश्यक हो वही करें। यदि हम स्मृति का अवलोकन करें तो स्मृति केवल भूतकाल के अनुभवों का संग्रह मात्र है। यदि हम स्मृतियों में जीते हैं तो इसका अर्थ है कि हम भूतकाल में जी रहे हैं। जीवन केवल वर्तमान में अभी इसी समय घटित होता है। स्मृतियों में जीवन जीना उनके बंधनों में बंधना है। स्मृतियाँ अधिकतर दुख देती हैं। किसी भी विषय-वस्तु से अत्यधिक आसक्ति उससे सम्बंधित स्मृतियों को निर्मित करती है जिसके कारण वर्तमान में दुख भोगना पड़ता है। जैसे किसी ने आपको अपशब्द कहे या फिर किसी ने हमारा सम्मान किया यदि उस समय जिस समय यह घटना घटित हो रही है आप सजग हैं या साक्षीभाव में हैं तो आप उससे लिप्त न होंगे अब जब इसकी स्मृति भी निर्मित होती है तो वह आपको दुख या सुख की अनुभूति नहीं देगी क्योंकि सुख एवं दुख केवल चित्त निर्मित है जो कि अधिक आसक्ति के कारण होते हैं। इसे एक और उदाहरण से समझते हैं। जैसे मैंने एक नयी गाड़ी खरीदी, जैसे ही मैंने इसे ख़रीदा इससे बंधन बना लिया कि यह मेरी है। और अगले दिन इसमें यदि थोडा सी खरोंच (डेंट), भी आ जाती है तो मैं दुखी हो जाता हूँ और यही यदि दूसरे की गाड़ी में डेंट लगता है तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैंने दूसरे की गाड़ी से अपनी पहचान नहीं जोड़ रखी है अर्थात कोई बंधन नहीं बनाया है। और जहाँ भी आप अधिकार की बात करते हैं वहाँ बंधन भी बनेंगें। तो किसी पर अधिकार जमाने से पूर्व सोचें। तो सांसारिक विषय-वस्तुओं एवं अपने मनोशरीर यन्त्र को अपनी पहचान न बनायें और किसी प्रकार का बन्धन बनाने से पूर्व सोच विचार करें ये आपके दुख का कारण बन सकते हैं। यहाँ तक हमने बन्धनों के प्रकार क्या हो सकते हैं उनके बारे में जानने का प्रयास किया है। चलिए अब आत्मज्ञान के द्वारा इनसे मुक्ति किस प्रकार संभव है ये जानते हैं। **आत्मज्ञान** आत्मज्ञान अर्थात स्वयं के तत्व का ज्ञान। किसी विषय-वस्तु का तत्व वह है जिसके बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है (तरुण प्रधान, २०२४). चलिए इसे उदाहरण से समझने का प्रयास करते है। जैसे स्टील के बर्तनों में स्टील तत्व है और विभिन्न प्रकार कर के बर्तन (गिलास, कटोरी, थाली, चम्मच, घड़ा आदि) नाम रूप हैं। यहाँ केवल तत्व (स्टील) ही है जिसने विभिन्न प्रकार के रूप लिए है यदि स्टील को हटा दें तो विभिन्न प्रकार के बर्तनों का स्वतंत्र अस्तित्व संभव नहीं है। इसी प्रकार सोने के आभूषणों में सोना तत्व है और आभूषणों के प्रकार (अंगूठी, चेन, कंगन, झुमके, हार आदि) नाम रूप हैं। तो यहाँ हमने देखा कि केवल तत्व ही सत्य है बाकी नाम-रूप मिथ्या हैं उनका कोई अस्तित्व नहीं है। यहाँ यदि आप देखेंगे तो पाएंगे कि जो मिथ्या है वह परिवर्तनशील है और जो सत्य है वह अपरिवर्तनीय है। चलिए फिर से वही उदाहरण लेते है। सोने के आभूषणों में मात्र स्वर्ण सभी आभूषणों में पाया जाता है अर्थात वह नित्य है अर्थात अपरिवर्तनशील है और आभूषणों के प्रकार (चेन, अंगूठी, हार, झुमका, कंगन आदि) परिवर्तनशील हैं चेन को तोड़कर कोई और रूप जैसे अंगूठी, झुमका आदि कोई भी रूप दिया जा सकता है। तो यहाँ चेन का रूप परिवर्तित हो जाता है या कुछ समय पश्चात चेत खंडित हो जाती है। यहाँ चेन नित्य नहीं है अतः चेन केवल एक रूप है जिसे व्यवहारिक तौर पर एक नाम दे दिया जाता है। इसी प्रकार से आप किसी भी विषय वस्तु का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि सभी नाम रूप परिवर्तनशील हैं केवल मनुष्य के द्वारा निर्मित एक अवधारणा मात्र हैं इसलिये मिथ्या हैं। इस प्रकार से हम सम्पूर्ण अनुभवशील जगत का अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि यह सम्पूर्ण जगत ही परिवर्तनशील है मनुष्य ने व्यवहार की दृष्टि से विषय-वस्तुओं का नामकरण कर दिया है। पूरे विश्व में अलग अगल धर्म संप्रदाय के लोगों के द्वारा इस व्यवहारी जगत की वस्तुओं को विभिन्न नाम दे दिए गए हैं। मूल रूप से सभी विषय-वस्तु, भौतिक पदार्थ हैं जो कि परम कणों (प्रोटोन, न्यूट्रॉन,इलेक्ट्रान) एवं उर्जा के द्वारा निर्मित है। सभी में कोई भेद नहीं है। भौकित जगत के अधिक विश्लेषण के लिए आप सजीवता, चेतनता का लेख देख सकते है। अब हम स्वयं के तत्व को जानने के लिए नेति नेति विधि का उपयोग करेंगे जिसके अनुसार जो भी परिवर्तनशील है वह मैं नहीं हूँ। और जिसका भी मुझे अनुभव हो जाता है वह भी मैं नहीं हूँ। अब हम शरीर से शुरुआत करते है। यह शरीर जो बचपन में था या कुछ वर्षों पूर्व था वह अब नहीं है यह बचपन से लेकर अब तक परिवर्तित (रंग,रूप, वजन, आकार, वाणी, शारीरिक शक्ति आदि) हो गया है और इसका मुझे अनुभव भी होता है तो यह शरीर मैं नहीं हूँ। अब मन (विचार, भावनायें, इच्छाएं, स्मृति, बुद्धि, ध्यान, अहम भाव) को देखते हैं। सभी प्रकार के विचार, भावनायें एवं इच्छाएं जो भी हमारे मन में आते हैं हमें उनका अनुभव हो जाता है और सभी परिवर्तनशील भी हैं। इसके अतिरिक्त हम भूतकाल की स्मृतियों का स्मरण करते है, और उसके अनुसार कई सारे कर्म करते है। हमारे सभी कर्म चाहे शारीरिक हों सा मानसिक सभी स्मृति के रूप में हमारे चित्त (मन) में संगृहीत होते जाते हैं इस स्मृति के आधार पर ही हमारा यह मनोशरीर यन्त्र एक स्वचालित यंत्र की तरह कार्य करता है। जिस प्रकार से एक कंप्यूटर या स्मार्ट फ़ोन में डेटा संगृहीत होता है और उसी संगाहित डाटा के आधार पर वह कंप्यूटर कार्य करता है उसी प्रकार से बचपन से लेकर अब तक जो भी अनुभव हम प्राप्त करते हैं वे सभी स्मृति के रूप में संगाहित होते जाते हैं जिसके अनुसार ही वह व्यक्ति (मनोशरीर) कार्य करता है। ध्यान किसी विषय वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता है यह मन की अन्य वृत्तियों कि तरह एक चित्त वृत्ति है। इसका भी हमें अनुभव हो जाता है यदि किसी विषय-वस्तु में हमारी रूचि नहीं होती है तो हम उस पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते जिसके कारण उस अनुभव कि स्मृति हमारे चित्त में संगृहीत नहीं होती है। बुद्धि हमारे चित्त की निर्णयात्मक क्षमता है जिसके आधार पर व्यक्ति निर्णय लेता है और कर्म करता है। जब व्यक्ति का चित्त शांत होता है तभी बुद्धि कार्य करती है अन्यथा शरीर यंत्रवत कार्य करता है। और यदि किसी विषय वस्तु का ज्ञान हमारी स्मृति में संग्रहित नहीं है तो भी चित्त यंत्रवत कार्य करता है। जैसे यदि हम क्रोध में होते हैं तो भावनायें हावी होती हैं और यह शरीर यंत्रवत कार्य करता है और क्रोध में किये गए कर्मों के परिणाम अक्सर बुरे ही आते हैं। अतः क्रोध में भावनाओं के वशीभूत होकर कार्य न करें। बुद्धि कैसे कार्य करती है इसे एक और उदाहरण से समझते है। जैसे कोविड-19 महामारी का जब प्रकोप हुआ तो इस बीमारे के विषाणु की नियंत्रण की जानकारी पूरे विश्व में कहीं भी उपलब्ध नहीं थी तो प्रथम दृश्या सभी देशों नें इसके सक्रमण को रोकने के लिए लॉक डाउन लगाना प्रारंभ कर दिया और जैसे ही इसके विषाणु का वैज्ञानिकों के द्वारा ज्ञान अर्जित कर लिया गया एवं उसके नियंत्रण के उपाय (दवाएं, वैक्सीन) खोज लिए गए तो इस बीमारी के पुनः प्रकोप होने पर कोई लॉक डाउन नहीं लगाया गया। तो यहाँ हमने देखा कि बुद्धि केवल संगृहीत अनुभवों/ज्ञान जो कि स्मृति है उसी के आधार पर निर्णय लेती है। अधिक अभ्यास एवं ज्ञान अर्जन के द्वारा बुद्धि तीव्र हो जाती है। अतः यह भी निरंतर परिवर्तनशील है। अहंभाव भी चित्त की अहम वृत्ति है जो कि मैं और मेरा कहती है। इसी वृत्ति के द्वारा व्यक्ति विभिन्न प्रकार की पहचान निर्मित करता है। एक व्यक्ति स्वयं की पहचान कई स्तरों पर रखता है जैसे मन, शरीर, लिंग, नाम, घर, परिवार, कुल, जाति, वर्ण, धर्म, गाँव, जिला, राज्य, देश, कार्य, पद, व्यवसाय, प्रजाति आदि के द्वारा अपनी पहचान रखता है। आप यदि मनन करें तो पाएंगे कि जिसके द्वारा भी अहम भाव पहचान रखता है वह सभी परिवर्तनशील हैं इनमें से कुछ भी नित्य और स्थायी नहीं है। और सभी मनुष्य के द्वारा निर्मित एक अवधारणा मात्र है। व्यक्ति भी समाज के द्वारा निर्मित एक अवधारणा ही है। व्यक्ति के अधिक विश्लेषण के लिए आप व्यक्ति कि अवधारणा वाला लेख देख सकते है। तो इस प्रकार हमने एक एक करके चित्त/मन की विभिन्न परतों/वृत्तियों (विचार, इच्छाएं, भावनायें, बुद्धि, स्मृति, ध्यान शक्ति , अहम भाव) का अवलोकन किया और पाया कि मन भी परिवर्तनशील है और इसका अनुभव भी हो जाता है। इस प्रकार नेति नेति विधि के द्वारा हमने पाया कि यह जगत, शरीर एवं मन भी मैं नहीं हूँ। तो फिर मैं कौन हूँ? मैं वह हूँ जो इन सभी को देख रहा है, मैं वह हूँ जो इन सभी का अनुभव कर रहा है। अर्थात हम यह कह सकते हैं कि मैं यह जगत, यह मनोशरीर (मन एवं शरीर) नहीं हूँ मैं इन सभी का अनुभव करने वाला अनुभवकर्ता हूँ, इनको देखने वाला दृष्टा हूँ, इनको जानने वाला ज्ञाता हूँ, मैं इस दृश्यमान जगत, इस मनोशरीर यंत्र, इसकी वृत्तियों एवं कर्मों का साक्षी हूँ। अनुभवकर्ता को कई नामों जैसे दृष्टा, साक्षी, ज्ञाता, चेतन्य आदि कई नामों से जाना जाता है। सदा आत्मज्ञान के स्मरण में रहना साक्षीभाव है। साक्षीभाव की साधन ज्ञान मार्ग के साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसलिये ज्ञानमार्ग का साधक केवल साक्षीभाव की साधना करता है जिसे निदिध्यासन भी कहते है। आत्मज्ञान के लिए एक जीवन्त गुरु अतिआवश्यक है मैंने ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त किया है आप भी आत्मज्ञान के लिए बोधि वार्ता के त्रिज्ञान एवं ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम में सम्मिलित हो सकते हैं जहाँ पर पर वरिष्ठ साधकों एवं गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी द्वारा निशुल्क ज्ञानदीक्षा दी जाती है। मुझे आशा है कि आप अपने बन्धनों का अवलोकन करेंगे एवं आत्मज्ञान के द्वारा उनसे मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। **सारांश:** यहाँ इस लेख में हमने मनुष्य के विभिन्न प्रकार के बन्धनों के बारे में जानने का प्रयास किया है। यदि देखा जाय तो सभी बंधनों के मूल में व्यक्तिगत लाभ एवं भोग की भावना होती है। इस भोग की भावना का मूल कारण चित्त की विभाजन वृत्ति है। विभाजन वृत्ति के मूल में अत्यधिक अहम भाव होता है। अत्यधिक अहम भाव, अत्यधिक विभाजन एवं कई सारी पहचानों को धारण करने के कारण होता है। इन पहचानों का कारण अज्ञान अर्थात मान्यताएं, धारणाएं, मतारोपण हैं जो व्यक्ति में परिवार एवं समाज के द्वारा आरोपित कर दी जाती हैं। तो यहाँ आप देख सकते है कि यहाँ एक चक्र निर्मित हो जाता है (अहम भाव-विभाजन-पहचान-बंधन-अहम भाव)। बन्धनों से मुक्ति के लिये इस चक्र तो नष्ट करने की आवश्यकता है। हमने देखा कि सभी बंधन आभासी हैं या फिर समाज के द्वारा आरोपित हैं। मनुष्य जिस मनोशरीर यंत्र को मैं कहता है और जिसके लिये सारे बंधन निर्मित करता है वह उसका दृष्टा एवं साक्षी मात्र है तो इस मनोशरीर को मैं मानना मनुष्य का केवल अज्ञान मात्र है। ज्ञानमार्ग में आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया जाता है। जैसे ही आत्मज्ञान होता है तो व्यक्ति की मैं की वृत्ति (अहम भाव) अनुभवकर्ता/साक्षी पर आकर केन्द्रित हो जाती है और वह बंधन के चक्र से मुक्त हो जाता है। ज्ञानमार्ग का साधक साक्षीभाव की साधना के द्वारा इन बन्धनों से मुक्त जीवन व्यतीत करता है। **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। संपर्क सूत्र.. साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल:swaprakash.gyan@gmail.com **सन्दर्भ:** ACLED Conflict Index, २०२३. https://acleddata.com/conflict-index/index-july-2023/#:~:text=How%20much%20conflict%20is%20occurring,July%202022%20to%20June%202023. Boston University https://www.bu.edu/com/articles/social-media-negatively-impacts-women-more-than-men-americans-say-in-survey/#:~:text=The%20latest%20Media %20%26%20Technology %20survey,17%25%20disagree). (accessed on 18 January, 2025). Business standard. Nearly 30% of married Indian women face domestic violence, shows data. Saturday, January 18, 2025. (https://www.business-standard.com/india-news/nearly-30-of-married-indian-women-face-domestic-violence-shows-data-123051400486_1.html) (accessed on 18 January, 2025). Exact Target. https://smallbusiness.chron.com/percentage-customers-buy-based-reference-vs-advertising-71990.html). (accessed on 18 January, 2025). highpointnc.gov:https://www.highpointnc.gov/2111/World-War-II#:~:text=1939%2D1945,of%20 nuclear%20weapons%20in%20war. Marriage in Hinduism: https://en.wikipedia.org/wiki/Marriage_in_Hinduism#:~:text=In%20Hinduism%2C% 20the%20four%20goals,traditional%20Hindu%20schools%20of%20thought (accessed on 2 February, 2025). NCRB (२०२२). https://thepienews.com/five-states-account-for-half-of-all-student-suicides-across-india/#:~:text=%E2%80%9CThe%202022%20NCRB%20report%20recorded,(2003%2D12).%E2%80%9D Religious violence in India. https://en.wikipedia.org/wiki/Religious_violence_in _India#cite_note-gede-172 (Accessed on 2 February, 2025) Rukaten Insight .https://www.statista.com/statistics/1404372/india-purchases-made-due-to-social-media-ads/#:~:text=Purchases%20made%20after%20watching%20 social%20media%20ads%20India%202023&text=A%20Rakuten%20Insight%20survey%20on, advertising%20formats%20employed%20in%20India (accessed on 18 January, 2025). The Guardian २०१९. Frightening number of plant extinctions found in global survey https://www.theguardian.com/environment/2019/jun/10/frightening-number-of-plant-extinctions-found-in-global-survey (accessed on 20 Jan, 2025) UN Report २०१९: Natures Dangerous Decline Unprecedented; Species Extinction Rates Acceleratinghttps://www.un.org/sustainabledevelopment/blog/2019/05/nature-decline-unprecedented-report/ (accessed on 20 Jan, 2025) तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ भाग), नोशन प्रेस, पृष्ठ संख्या ४६४. बोधिवार्ता चैनल यूट्यूब विडियो. मालिक जे एस एवं नड्डा ए. २०१९. A Cross-sectional Study of Gender-Based Violence against Men in the Rural Area of Haryana, India. Indian J Community Med. 2019 Jan-Mar;44(1):3538. doi: 10.4103/ijcm.IJCM_222_18 (doi: 10.4103/ijcm.IJCM_222_18). विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक २०२४: https://rsf.org/en/2024-world-press-freedom-index-journalism-under-political-pressure
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions