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स्वयं में समायी (कविता)
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://th.bing.com/th/id/OIP.ZOCL8T9xd1oXaZmw4HbyXgHaHr?pid=ImgDet&w=191&h=198&c=7" alt="Any Width"> </div> <br><br> भुलाई स्वयं को रमी थी अहम् में। यही श्रेष्ठ, सत्य होने के वहम् में॥ स्वयं में पराया, रिस, राग, द्वेष। कहाँ से मिटाऊँ अशांति ये क्लेश? कहाँ से मिटाऊँ अशांति ये क्लेश? त्रिदेव कहाँ, क्रिष्ट, ख़ुदा कहाँ है? चला सृष्टि कैसे परंधाम् कहाँ है?? सभी ये भुवन् में जगत् में विहारी। किया खोज आकाश, धर्ती निहारी॥ किया खोज आकाश, धर्ती निहारी॥ रटी वेद वाक्य हवन् यज्ञ लायी। किया दान, पुण्य, चढ़ावा चढ़ायी॥ मिला क्या असत्य झुकी हार खायी। न सुझा उपाय स्वयं से लजायी॥ न सुझा उपाय स्वयं से लजायी॥ करी ध्यान, योगा अखाड़ा जमायी। त्रिपिटक् निखारी कमण्डल समायी॥ किया त्याग् जगत् का कुटिया सजायी। उदासी मिला तो स्वयं से लजायी॥ उदासी मिला तो स्वयं से लजायी॥ मंदिर, मस्जिद व चर्चों में धायी। कुरानी तिलावत्, बाइबल् रटायी॥ पुजा, प्रार्थना, ब्रत में दिन् वितायी। मिला क्लेश, चिंता तभी चाल पायी॥ मिला क्लेश, चिंता तभी चाल पायी॥ जगत् ये जीवन् क्या व क्या है मनुष्य? जहाँ भी मिलेगा ढूँढूँगी रहस्य॥ पड़ा जो गुरु का नज़र् अंधकार् में। हुआ कल्पकाया अज्ञानी विचार् में॥ हुआ कल्पकाया अज्ञानी विचार् में॥ मिली रोशनी ज्ञान की जो गुरु से। हुआ साफ़् अशुद्धि जमी थी शुरू से॥ गुरु पर् समर्पित ये जीवन् थमायी। यहीं पा लिया तो स्वयं में समायी॥ यहीं पा लिया तो स्वयं में समायी॥ *** हार्दिक आभार गुरुदेव
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