Wise Words
अनुभवक्रिया (मैं का विसर्जन)
आदित्य मिश्रा
आध्यात्म सत्य की खोज है कि "मैं क्या हूं", मैं अर्थात अज्ञान, मैं अर्थात व्यक्तित्व। आध्यात्म में मैं को, क्रमशः हटाया जाता है और मैं की मिथ्या का ज्ञान होते ही सत्य स्वतः उपस्थित होता है। सत्य की उपस्थिति मेरा न होना है। तो इसीलिए कहा जाता है कि "ज्ञान नहीं होता अज्ञान का नाश होता है" या "वह व्यक्ति ही समाप्त हो जाता है जो ज्ञान के लिए आया होता है" अर्थात मैं की मान्यता का नाश होता है और व्यक्तित्व की धारणा समाप्त होती है। "मैं" और अनुभवक्रिया ज्ञानमार्ग में आने से पहले आप शरीर-मन, धन, पद, जाति, देश को मैं कहते थे। यहां आकर आप मैं अनुभवकर्ता हूं कहने लगते हैं। किंतु अनुभवकर्ता "मैं" नहीं हो सकता क्योंकि वह तत्व है, निर्गुण -निराकार है। सिक्के के दो पहलू की तरह अस्तित्व के दो आयाम हैं, आपका तादात्म्य एक आयाम से होने के कारण गुरुजन अहं को वास्तविकता की ओर मोडने के लिए आरंभ में आप शरीर-मन नहीं अनुभवकर्ता हैं ऐसा कहते हैं किंतु बाद में "न अनुभव है और न ही अनुभवकर्ता केवल अनुभवक्रिया है" यह कह अस्तित्व विभाजन रहित है ऐसा संकेत करते हैं। क्रिया और अनुभवक्रिया अस्तित्व में सब कुछ स्वतः हो रहा है। वायु स्वतः बह रही है और बहकर आपके नथुनों में समा रही है, जल स्वतः बहकर आप तक आ रहा है, पेड स्वतः फलकर आपके समक्ष झुक रहे हैं, सूर्य से स्वतः ताप और प्रकाश का निष्कासन हो रहा है और आप तक पहुंच रहा है। आपके शरीर में भी श्वसन, रक्तप्रवाह, भूख का लगना, पाचन, निष्कासन स्वतः हो रहा है। तो! अस्तित्व में आपके हस्तक्षेप के बिना घट रहा जीवन क्रिया है। आपका हस्तक्षेप या मैं इस क्रिया को कर्म बना देता है। जहां कर्ता है वहां कर्म है, जहां कर्ता नहीं वहां क्रिया है और अस्तित्व में कर्ता कोई नहीं है। अतः जब मैं नहीं हूं तब केवल अनुभव की होने वाली क्रिया अर्थात अनुभवक्रिया है। अद्वैत और अनुभवक्रिया अनुभवक्रिया ही अस्तित्व है और अस्तित्व द्वैत नहीं अद्वैत है। मैं ही अस्तित्व में विभाजन करता है, जब तक मैं है तब तक अनुभव क्रिया नहीं हो सकती क्योंकि यदि मैं है तो कोई अन्य भी है और जब तक दो है, अद्वैत नहीं हो सकता। जानना! दो में विभाजन से ही संभव होता है अनुभवक्रिया जानना नही, होना है। होना अर्थात जीना, स्थिति। अस्तित्व है और जाना जा रहा है। जान कौन रहा है? अस्तित्व ही जान रहा है। अस्तित्व के जानने में विभाजन नहीं हो सकता और मैं विभाजित कर जानेगा। अज्ञेयता और अनुभवक्रिया मैं कभी भी वास्तविकता को जान नहीं सकता मैं केवल आभासीय जानेगा। अस्तित्व के दोनो आयाम अज्ञेय हैं, मन केवल प्रकट की व्याख्या करता है। सत्य स्वरूप निराकार है निर्गुण है जिसे बुद्धि के द्वारा जाना नहीं जा सकता हुआ जा सकता है। बुद्धि के द्वारा जो जाना गया है वह मिथ्या है आभास है, यह बोध बुद्धि का समर्पण करा देता है। यही अज्ञेयता है क्योंकि अब कुछ जानना शेष न रहा मैं की मिथ्या प्रकट हो गयी। जो जाना जा रहा है, वो चित्त है, क्या चित्त मेरा है? नहीं! विश्वचित्त है। चित्त स्मृति है, क्या स्मृति मेरी है? नहीं! विश्वस्मृति है। शरीर इंद्रियों का जोड है, क्या शरीर मेरा है? नहीं! प्रकृति है। तो! मैं के अभाव में जैसे का तैसा जानना ही अज्ञेयता है और यही अनुभवक्रिया है। साक्षीभाव और अनुभवक्रिया साक्षीभाव में साक्षी चित्तवृत्तियों का निर्लिप्त दृष्टा है और मैं भी चित्तवृत्ति है। साक्षीभाव में निराकारता का आलोक है और मैं की मिथ्या का आभास है, अतः साक्षीभाव में कर्ताभाव नहीं है और कर्ता न होने से साक्षीभाव में भी कर्म नहीं क्रिया है। साक्षी भाव में साक्षी का प्रकाश नहीं आता जाता मैं की मिथ्या का बोध आता जाता है, अनुभवक्रिया में मैं का बोध ही अनुपस्थित होता है। जिस प्रकार स्मृति के विभाजन से द्वैत या मैं स्वतः उपस्थित होता है उसी तरह स्मृति के अविभाजित रहने में मैं नहीं हूं का भाव भी स्वतः उपस्थित होता है, कहने का आशय यह है कि "मैं नहीं हूं" यह विचार मात्र नहीं होता है। अनुभवक्रिया में न देखने वाला है, न जानने वाला है और न सुनने वाला है फिर भी सब हो रहा है क्योंकि अस्तित्व अविभाजित ही है। ध्यान, विधियां और अनुभवक्रिया व्यवहार में ध्यान शब्द का उपयोग एकाग्र होने या केंद्रित होने के लिए किया जाता है किंतु आध्यात्म में ध्यान से तात्पर्य विस्तारित होना है एकाग्र होने में केंद्र निर्मित होता है जबकि ध्यान घटित ही तब होता है जब केंद्र समाप्त होता है। ध्यान करने वाला जब तक बना रहता है तब तक ध्यान नहीं ध्यान विधियों का दोहराव होता है। ध्यान विधियां साधन हैं। जब तक यह धारणा है कि मैं ध्यान कर रहा हूं या मुझे ध्यान करना है तब तक ध्यान घटित नहीं हो सकता। ध्यान घटित होने की एक ही शर्त है! कि ध्यानी अर्थात मैं बीच से हट जाए। तो! अनुभवक्रिया के लिए ध्यान विधियां क्यों बताई जाती हैं? मात्र प्रमाण के लिए, संकेत के लिए। (1) समावेशी ध्यान : सभी इंद्रिय द्वारों से सभी अनुभवों को एक साथ ग्रहण करना बिना विभाजन के, बिना प्रतिक्रिया के जिसमें अनुभव करने वाला न हो, समावेशी ध्यान है, अनुभवक्रिया है। (2) सहज अवलोकन : दर्पण के समान दृश्यों को बिना विभाजन, बिना प्रतिक्रिया के जस का तस देखना, जिसमें देखने वाला न हो, सहज अवलोकन है, अनुभवक्रिया है। सहज समाधि और अनुभवक्रिया "धी" अर्थात बुद्धि के समता में न होने से सहज समाधि का बोध भंग होता है। यदि बुद्धि समता पर स्थित हो अर्थात मैं भाव दृश्य और दृष्टा में विभाजन न करे तो यही सहज समाधि है। जब मैं अर्थात आप नहीं होते तब समग्रता उपस्थित होती है। आपके न होने में जब सब कुछ स्वतः घट रहा होता है, तब यही सहज समाधि होती है, अस्तित्व में सदैव ऐसा ही है अर्थात सदैव सहज समाधि ही है। मैं ही मन है, मन द्वंद्व उपस्थित करता है, चीजों को बांट कर देखता है। मैं को हटा लीजिए, अभी सहज समाधि है। काव्यमयी भाषा में कहें तो : जागा हुआ जगत ही जग में, जग जैसा भी कोई नहीं। गगन भीगता है बारिस से, न बूंद बादल गगन है कहीं।। अर्थात् अनुभवक्रिया उपस्थिति है, शून्यता है, अभाव है लेकिन अभाव का भी अभाव है। एक दृश्य है लेकिन दृश्य का भी अभाव है। एक देखना है लेकिन देखने का भी अभाव है। एक सुनना है लेकिन सुनने का भी अभाव है। यह जीवन है, शुद्ध जीवन, सार्वभौमिक जीवन जिसमें मैं की कोई भूमिका नहीं है। जीवन ही जीवन है बहा जा रहा है लेकिन मेरा जीवन कहने वाला कोई नहीं है। यह अमृत से भीगा जीवन है लेकिन इस भीगने में न बूंद है न बादल आकाश ही भीगा हुआ है। मैं की मिथ्या जान लेने के बाद मैं की धारणा समाप्त हो जाती है और उसका स्थान लेता है- ध्यान, जागृति। अंततः "मैं क्या हूं" से आरंभ हुआ आध्यात्म "मैं नहीं हूं" से समाप्त होता है।
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