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साक्षीभाव के साधना में मनगढंत समस्या और समाधान के उपाय
जानकी
**साक्षीभाव के साधना में मनगढंत समस्या और समाधान के उपाय** *विषय प्रवेश* अपना सत्य स्वरुप को जानने के बाद अनुभवकर्ता के ज्ञान में स्थिर रहना साक्षीभाव है। साक्षीभाव का प्रयोजन सत्य और मिथ्या को जानना, सांसारिकता से अनाशक्त एवं दुख से मुक्त होना, माया के खेलको स्विकार करके सरल और सात्विक जीवन जीना, स्वयं को आत्मज्ञान में स्थापित करके दूसरोंको भी उस ज्ञान के प्रकासद्वारा अन्धकार से मुक्त करवाना है। नए साधक में साक्षीभाव के साधना में अनेक उतार चढाव आ सकते हैं। आत्मज्ञान बार-बार फिसल जाना, अहम को ही अनुभवकर्ता समझ लेना, अहंकार के कारण अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझना, अन्दर-बाहरका भ्रम के कारण अनुभवकर्ता को कहीं अन्दर ढुडनेका चेष्टा करना, दृश्य द्रष्टा विवेक न होने के कारण स्थूल इन्द्रीयाँ और सुक्ष्म इन्द्रीयों को ही द्रष्टा मान लेना, शून्यता को समेट लेने का प्रयास करना, अनुभवकर्ता को किसी स्थान में आकार में और समय सीमा में स्थापित करनेका चेष्टा करना, व्यक्ति के वृत्तिओं को अपना मान लेना, दिनचर्या में ही लिप्त रहना, बडा चमत्कार पानेका प्रयास करना, सत्य एवं मिथ्या पर विश्वास नहीं होना, अनुभवकर्ता को भी अनुभव कि तरह वैयत्तिक स्वरुप में देखने का प्रयास करना, साक्षीभाव के लिए समय और कर्म रहित अवस्था आवश्यक मान लेना आदि मनगढंत या कपोलकल्पित समस्याएँ आ जाते हैं। साक्षीभाव के साधना में कोई बडा समस्या नहीं होता। साधक के ज्ञान और योग्यता के कारण अनेक समस्या गढ लिया जाता है। यहाँ पर इस विषय में श्रवण, मनन, ज्ञान और अनुभव के द्वारा एैसे ही कुछ समस्या पहचान करके समाधान का उपाय सुझाने का प्रयास किया जाता है। *साक्षीभाव का अर्थ, उद्देश्य और उपयोगिता* आत्मज्ञान होने के बाद अनुभवकर्ता के ज्ञान में स्थिर रहना साक्षीभाव है। जब ये भाव आता है तब सभी अनुभव का द्रष्टा मैं हूँ ये स्मरण रहता है। आत्मज्ञान और साक्षीभाव अनुभव नहीं एक सूक्ष्म वृत्ति है, चित्त की एक उन्नत योग्यता है, जो आता जाता है। चेतना स्वयं प्रकाशित अनुभवकर्ता का छाया है। जब ध्यान में अनुभवकर्ता का ज्ञान सम्मिलित होता है वही चेतना है। अनुभवकर्ता का सीधा ज्ञान संभव नहीं, जब तक चित्त में प्रतिबिम्बित नहीं होता तब तक अनुभवकर्ताका ज्ञान नहीं होता। जो भी अनुभव हो रहा है उसका अनुभव करने वाला भी है ये ज्ञान स्मृति में जब जाता है तब चेतना बनता है। अनुभवकर्ता और चित्त (अनुभव) के बीच का मिलन बिन्दु चेतना है। चेतना में अनुभवकर्ता का होना अनिवार्य है। अनुभवकर्ता का मतलव कर्ताभाव नहीं है, केवल कर्म के साक्षी का भाव रहता है। अनुभवकर्ता साक्षीभाव का भी साक्षी है। साक्षीभाव का मुख्य प्रयोजन आत्मज्ञान में स्थित रहना, अनावश्यक और पुरानी ग़लत वृत्तियों को नियन्त्रण करना, मुक्ति के मार्ग में आगे बढ़ना है। जो आत्मज्ञान और चेतनाका उद्भव हुआ है उसको बनाए रखने के लिए, चित्त शुद्धि, सिद्धि और ज्ञानके लिए, सभी अवस्था में अपना सत्य जानने के लिए साक्षीभाव उपयोगी है। साक्षीभाव के अवस्था में जो भी आवश्यक हो वही होता है, गलत कार्य नहीं होता। चेतना आते ही अनियंत्रित वृत्तियाँ नियंत्रित हो जाते हैं। सभी चित्तवृत्ति और परतें शांत और अनुशासित हो जाते है, जो आवश्यक हो उतना ही करते हैं, चेतना में वो शक्ति होती है। चित्त पर नियंत्रण कर के सांसारिक पीड़ा, दुख, कष्ट कम करने के लिए, बुद्धि तेज करने के लिए, शान्ति आनन्द स्थिरता के लिए, सही आचरण के लिए, वासना पूर्ति करने के लिए, मनोविकार और व्यसन हटाने के लिए, शारीरिक स्वास्थ्य तंदुरुस्तता एवं शुद्धिकरण के लिए, सांसारिक और आध्यात्मिक गतिविधियों पर नियन्त्रण एवं सन्तुलन रखने के लिए साक्षीभाव का प्रयोग किया जाता है। उपरी परतोंका ज्ञान, ज्ञान प्रसार, ज्ञानोद्भव आदि साक्षीभाव और चेतना के प्रयोग के लाभ है। अनावश्यक इच्छा पर नियंत्रण कर के कर्म और कर्मफल को भी नियंत्रण किया जा सकता है। यही मुक्ति प्राप्त करने का उपाय है। *साक्षीभाव साधना के तरीक़े* श्रावण, मनन और निदिध्यासन ज्ञान प्राप्त करने के विधि हैं। ज्ञान से ही चेतना जागृत होती है। चेतना चित्त की अवस्था है, शुरू में बार-बार गिर जाती है। साक्षीभावको स्थाई करने के लिए लगातार साधना आवश्यक है। साधना सरल और प्राकृतिक होना चाहिए। वो साधना केवल आत्मज्ञान और स्मरण ही है, जो अति सरल और स्वभाविक है। अन्य कोई प्रयास से नहीं होता यानि कि प्रयास ही नही लगता। दृढ संकल्प के द्वारा अधिक से अधिक समय स्मरण में रहकर चेतना को साधना पड़ता है। यही स्मरण से चेतना प्राकृतिक रुपसे अपने आप स्थिर हो जाती है। साक्षीभाव के लिए ध्यान को साध लेना जरुरी है। ध्यान मे क्रमबद्धता होनी चाहिए। आस पास के वातावरण पर चेतना युक्त ध्यान, आस पास के व्यक्ति और उनके व्यवहार पर चेतना युक्त ध्यान, अपने शरीर पर चेतनायुक्त ध्यान, सभी परतों के ऊपर चेतना युक्त ध्यान होनी चाहिए। संवेदना, भावना, विचार, बुद्धि, चित्त, चेतना, अहम् कारण शरीर आदि हर परत पर क्या चल रहा है उस पर सचेत होना चाहिए। साक्षीभाव तुरंत और चामत्कारिक रुपमें स्थापित नहीं होता। लम्बी साधना से चरणबद्ध रुपमें प्रगति हो जाता है। शुरु में कर्म होने के बाद साक्षीभाव आएगा। जब आता है तब उसको सिनेमा कि तरह देखने से वही चेतना दूसरे चरण में कर्म के समय में प्रकट होनें लगता है। तीसरे चरण में कर्म होने से पहले ही चेतना आ जाता है। जागृत अवस्था से शुरु करके तीनों अवस्थाओं में साक्षीभाव का साधना करना चाहिए। जब जागृति में चेतना स्थिर होता है तब वही चेतना स्वप्नावस्था में और सूक्ष्म अवस्था में प्रकट होता है। धीरे धीरे संपूर्ण चेतना आ जाएगी। संपूर्ण जीवन चेतना युक्त हो जाएगा, यही तुर्यावस्था है। साक्षीभाव अलग-अलग अवस्थाओं में अलग-अलग नहीं मिलेगा, क्यूँकि ये एक ही है, साक्षी एक ही है। अवस्थाएं बदलती है। यदि चेतना जागृत हो गयी तो बुद्धि को भी जागृत कर के अवस्था पर नियंत्रण आ जाता है। *साक्षीभाव के साधना में कपोलकल्पित समस्या, समाधान के उपाय और नतिजा* १. अनुभव अहम् को होता हुआ प्रतीत होना। अहंकार के कारण अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझ लेना। ज्ञानद्वारा अहम् भी एक अनुभव ही है ये जानना आवश्यक है। अहम् का भी तो अनुभव होता है, केवल अहम् का ही नहीं विश्वचित्त का भी अनुभव हो जाता है। व्यक्ति दूसरे व्यक्ति तक के वृत्तियाँ नहीं जान सकता है तो विश्वचित्त का अनुभव उसे कैसे होगा? इसपर मनन करके उस भ्रम को छोड देना चाहिए। ज्ञान के लिए ध्यान और अज्ञानका दिशा बदलनी है; तब अज्ञान ज्ञान में बदल जाता है। आत्मज्ञान ही ज्ञान का अंत है। ज्ञान के बाद समर्पण और, स्विकार भाव आवश्यक है। बुद्धिको परिष्कृत करके चेतना बढा लेना चाहिए। जो बुद्धि के सीमा में हो उसको होस पूर्ण होकर पालन करना एवं बुद्धि के बाहर जो है उसको अज्ञेय समझ कर अस्तित्व पर छोड़ देना पड़ता है। २. पूराना स्वभाव बार-बार आकर आत्मज्ञानको ढक लेता है। स्मरण साधनका प्रयोगद्वारा स्मरण वापस लाया जा सकता है। आत्मज्ञान को पक्का और स्थिर करना आवश्यक है। ध्यान में चेतना को लाना आवश्यक है। जब ध्यान में चेतना मिलता है, पर्दे पर चित्र कि तरह अनुभव आते जाते दिखते हैं, चित्त शांत होने लगता है और साक्षी भाव स्थिर होने लगता है। ३. अन्दर-बाहरका भ्रम के कारण अनुभवकर्ता को कहीं अन्दर ढूँढने का चेष्टा अहम् ने करता है। स्मृति में कोई स्थान नहीं है। ये जगत, शरीर और मन का सीमा रेखा काल्पनिक है। शरीर, मन, सर आदि सभी एक ही स्मृति में हैं। सभी अनुभव स्मृति में हैं और अनुभवकर्ता वही अनुभवका तत्व है। कोई अन्दर नहीं है और कोई बाहर नहीं है। दोनों अभी, यहीं, एकसाथ है। ४. दृश्य-द्रष्टा विवेक न होने के कारण स्थूल इन्द्रीयाँ और सुक्ष्म इन्द्रीयों को ही द्रष्टा मान लेना। स्थूल से लेकर सूक्ष्मतम इन्द्रीयाँ भी अनुभव ही है। अनुभव नहीं देख सकता। फिर भी कुछ दिख तो रहा है। किसने देखा है? जिसने भी देखा है वही अनुभवकर्ता है। सरल है, जटिल बनाना आवश्यक नहीं है। ५. तत्व (शून्यता) को समेट लेने का प्रयास करना और नहीं समझ पाना। अनुभवकर्ता और अनुभव सदा एकसाथ होते हैं। जो दिख रहा है वो मिथ्या है और जो देख रहा है वो तत्व है जो अदृष्य है। जो अनन्त है वो शून्यता को समेट लेना असंभव है। सभी अनुभव अनुभवकर्ताद्वारा ही प्रकाशित है, इसीलिए वो दिखाई नहीं देता। ६. ध्यान अधिकतर स्थूल अनुभव में ही जाता है और सुक्ष्म (मन, बुद्धि, विचार आदि) को मैं मान लेता है। मन, बुद्धि, विचार आदिको भी देखनेवाला है। ये देखने से ध्यान अहम् के परे जाकर चेतना में स्थित होता है। ध्यान इंद्रियों से हटाकर जो इंद्रियों के स्वामी हैं, जो इंद्रियों को जानता है उसकी तरफ ले जाना चाहिए। ७. मन अनुभवकर्ता को किसी आकार में और समय सीमा में स्थापित करनेका चेष्टा करता है। जो निराकार है उसका आकार ढूँढना निरर्थक प्रयास और अज्ञान है। इस पर मनन करना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति को ही ले लें तो वहाँ पर भी तो एक शरीर है और एक मन है। मन के आकार को तो कभी व्यक्ति ने नहीं देख सकता। फिर भी उसका अस्तित्व स्विकार कर लेता है। इसी तरह से वो सम्पूर्ण निराकार पर समर्पण भाव आवश्यक है। ८. व्यक्ति के वृत्तिओं को अपना मान लेना और अशान्त रहना। आते जाते वृत्तियाँ और दिनचर्या में ही लिप्त रहना। व्यक्ति एक माध्याम मात्र है, कुछ अनुभव अनुभवकर्ता तक पहूँचने का मार्ग मात्र है। अनुभवकर्ता अहम् के परे है। साक्षीभाव में यही देखा जाता है। अनुभवकर्ता नित्य निरन्तर है। शान्ति और आनन्द में है। कोई भी वृत्तियाँ और गतिविधियाँ उसके पटल पर आतेजाते हैं। क्या वृत्तियाँ चल रहे हैं और क्या गतिविधियाँ हो रहे है इन सभी को देखना ही साक्षीभाव है। जो भी वृत्तियाँ और गतिविधियाँ चलें ये देखने से आनन्द नहीं खोता। ये देखनेका जो सिलसिला है उसको टूटने नहीं देना है, तब साक्षीभाव स्थापित हो जाता है। ९.बडा चमत्कार पानेका प्रयास करना और सत्य एवं मिथ्या पर विश्वास नहीं होना। अनुभवकर्ता अभी यहीं सब के सामने जो है सो है। वो हमेशा से यहीं था केवल अज्ञान के बादल ने ढक लिया था। अज्ञान के बादल हटाते ही उसका प्रकाश दिख जाता है। चाहे इसको चमत्कार मान लें चाहे सामान्य मान लें यही सम्पूर्ण सत्य है। सत्य दो नहीं हो सकता। अपरिवर्तनीय सत्य है तो परिवर्तनशील निःसन्देह मिथ्या है। १०. अनुभवकर्ता को भी अनुभव कि तरह वैयत्तिक स्वरुप में देखने का प्रयास करना। अनुभवकर्ता किसी रुप या आकार में नहीं मिलता। यदि रुप में ही दिखता होता तो वो तो अनुभव हो जाता। जब तक चेतना स्थापित नहीं होता तब तक किसी सहारा कि आवश्यकता हो सकता है। इसीलिए कोई रुप गढ़ना ही चाहें तो ये प्रकट अस्तित्व के सभी रुप ही उसका मिथ्या आकार है। उदाहरण के लिए व्यक्ति अहम् को अपना लेता है लेकिन उस अहम् को नहीं देख सकता उसी तरह से अस्तित्व का अहम् अनुभवकर्ता है, उसे कभी नहीं देखा जा सकता। ११. साक्षीभाव के लिए समय और कर्म रहित अवस्था आवश्यक मान लेना। चेतना का कार्य कर्मों को प्रकाशित करना है। कर्म पर चेतना के प्रकाश आवश्यक है। विते हुए कर्मो पर भी चेतना के प्रकाश डाल देना चाहिए । चेतना आने के बाद कर्महीनता नहीं होता। वृत्तियाँ नष्ट नहीं होते, नियंत्रित होते हैं। चेतना में कर्मों पर अहं भावना नहीं होता है। कर्म सही और प्राकृतिक रूप से होते हैं। अनावश्यक कर्म नहीं होंगे, और जो भी होगा आनंद और शांति के पृष्ठभूमि में होगा। १२. साक्षीभाव को समस्या के रुपमें लेना और साक्षीभाव लाने के लिए प्रयास करना। डर, अनिच्छा, दुर्बल संकल्प, अशुद्धियां, समाज, सांसारिकता में लिप्तता आदि अशुद्धि जल्दी प्रगति ना होने का कारण है। अशुद्धि के कारण अवनति होती है। इसीलिए आत्ममूल्याँकनद्वारा कहाँ अशुद्धि है पहचान करके शुद्धिकरण करना चाहिए। *खतरे और सावधानी* साक्षीभाव प्रयोगिक विषय है। निदिध्यासन और साधना के क्रम में अशुद्धि और अज्ञान के कारण विघ्न आ सकते हैं, हानी हो सकता है। आत्मज्ञान होने के बाद यदि चेतना है तो सभी अशुद्धियाँ दिखने लगता है। जो भी बचपन से था उसके उपर ये बाहर से जो आया है उसको चित्त ने स्विकार नही करता। इसलिए जीवका विकास रुक जाता है, पतन होने लगता है। व्यक्ति व्यभिचारी, अत्याचारी, दुखी , भयभित और हिंसक हो सकता है। इसका प्रभाव व्यक्ति स्वयं और घर समाज को भी पड़ता है। त्रुटीपूर्ण और मनमानी साधना से शारीरिक विमारी, असक्तता भी आ सकते है और मानसिक विचलन भी हो सकता है। इसिलिए आत्मज्ञान होने के बाद गुरु के निर्देशानुसार प्रयोग करना चाहिए। जल्दबाजी और उत्सुकता हानिकारक है। साधक के योग्यता के अनुसार चेतना सध जाती है। बिना प्रयास के स्वभाविक साधना उचित है, अति नहीं करना चाहिए। पुरानी साधना मिश्रण नहीं करना, मनगढ़ंत साधना नहीं करना, श्रवण मनन और निद्धिध्यासन में रहना, अहम् और अन्य वृत्ति पर नियन्त्रण, सरल और स्वभाविक जीवन शैली अवलम्वन करना चाहिए। *निष्कर्ष* चेतना की शुद्धि आत्मज्ञान से होता हैं। चेतना शुद्धिकरण से अन्य शुद्धिकरण भी साथ साथ होता है । चेतना शुद्धि हो गयी तो निचले परत अपने आप शुद्ध हो जाते हैं। जो भी परिस्थिति में कर्म होते हैं वो चेतना के प्रकाश में होना ही शुद्धिकरण है। साक्षीभाव में रहने के लिए आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान और मायाज्ञान के विषय में श्रावण, मनन और सत्यापन अच्छे से होनी चाहिए। साक्षीभाव और ध्यान की समझ, परतों का समझ वृत्ति और अवस्थाओं का समझ साक्षीभावके लिए अति आवश्यक है। जब साक्षीभाव सध जाता है तब सभी अवस्था चेतनायुुक्त होता है। अभी और यही मुक्त, शांत और आनन्द अवस्था में रहा जा सकता है। *** आभार:-सद्गुरु श्री तरुण प्रधान जी, बोधि वार्ता-ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम।
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