Wise Words
विचार
शैल
कहा गया है, विचार वस्तुएं हैं। हम जैसा सोचते हैं, वही हो जाते हैं। विचार हमारा भाग्य निर्मित करते हैं विचार कर्म बीज है, इसलिए ये हमारे जीवन की दशा और दिशा दोनों तय करते हैं। विचार का भावनाओं और इच्छाओं से गहरा संबंध है। इच्छाएं भावनाएं पैदा करती हैं, और भावनाएं विचारो को जन्म देती है। विचार कर्म बनते हैं, कर्म के प्रभाव पुनः इच्छाओं और भावनाओं पर पड़ते हैं। कर्म से संस्कार बनते हैं, और संस्कार से चरित्र निर्मित होता है। चरित्र हमारा भाग्य गढ़ता है। इस प्रकार यह एक चक्रीय प्रक्रिया है। चेतना ना हो तो अवचेतन मनोदशा में विचार कर्म में परिणत होंगे। विचारों के प्रति सजगता अथवा चेतना में साक्षी भाव रखने से ये कर्म में नहीं बदलते। ये चित् की पटल पर उठने वाली तरंगें मात्र है। जैसे बिजली के तारों में विद्युत दौड़ती रहती है, किंतु जब तक उपकरण उससे ना जुड़े वह विद्युत ऊर्जा, कार्य ऊर्जा में परिणत नहीं होगी। इस प्रकार विचार शक्ति है। विचारों में अद्भुत शक्ति होती है, किंतु वह कार्य की गुणवत्ता नहीं तय करता। गुणवत्ता हमारी इच्छाएं और भावनाएं तय करती हैं। विचार शुद्ध ऊर्जा है। और वह जब भावनाओं और इच्छाओं से जुड़ जाती हैं तो उनको दिशा मिल जाती है। इस प्रकार चेतना रहने पर पूर्ण सजगता में करता भाव के बिना कार्य पूरा होगा और कर्म फल किसी पर आरोपित नहीं होगा। और अगर चेतना नहीं रहे तो अवचेतन मन की अवस्था में संस्कारों से प्रेरित कर्म होंगे। यहां तक कि विचार भौतिक शरीर पर भी प्रभाव डालते हैं। और वातावरण भी उन्हीं के अनुरूप हो जाता है। इसलिए एक ही घर में रहने वाले व्यक्तियों के लिए एक ही बाह्य वातावरण समान रूप से अलग अलग व्यक्ति पर प्रभाव छोड़ता है। जबकि आंतरिक वातावरण अलग-अलग होने के कारण एक ही स्थिति में चार व्यक्ति अलग-अलग प्रकार से प्रभावित होते हैं। और उनमें विचार प्रक्रिया भी उसी प्रकार चलती है। व्यक्ति की भाव दशा मनोदशा निर्मित करती है। और मनोदशा विचार उत्पन्न करते हैं। सचेतन रूप से चुनाव न करें तो बुद्धि सही निर्णय नहीं ले पाती। चेतना आवश्यक विचारों को कर्म में बदलती है, अनावश्यक विचारों को कर्म में परिणत होने नहीं देती। एक व्यक्ति के विचार दूसरे व्यक्ति, अथवा आसपास के वातावरण पर प्रभाव छोड़ते हैं। इसलिए संतों की उपस्थिति मात्र व्यक्तियों को प्रभावित करती है। यहां तक कि पेड़ पौधों का जीवन भी उससे प्रभावित होता है। उसी प्रकार नकारात्मक व्यक्तित्व रखने वाला व्यक्ति के विचार अलग तरीके से प्रभावित करते हैं। प्रभाव विचार की तीव्रता और व्यक्ति के ग्रहणशीलता पर भी निर्भर करेगा। विचार संचारित होते हैं, और प्रभाव छोड़ते हैं। विचारों की प्रकृति को जानकार व्यक्ति की इच्छाओं को जाना जा सकता है। जब यह एक प्रक्रिया के रूप में, स्वचालित रूप से चलती है, तो इसमें बल नहीं होता। किंतु चेतन सजगता से यदि उन पर ध्यान केंद्रित करें तो उसमें बल आ जाता है। अर्थात सजगता ही विचारों को बल देती है। और सजगता से हमारा ध्यान इस ओर जाएगा, और विचार के प्रभाव उतने ही गहरे होंगे। जैसी हमारी इच्छाएं और भावनाएं होगी, वैसे ही विचार भी होंगे। जैसे वाण की नोक पर सभी ऊर्जा केंद्रित होकर किसी चीज को भेदने में सक्षम हो जाती है, और ध्यान के अभाव में यह ऊर्जा विसर्जित हो जाती है। विचार भावनाओं से जुड़कर आवेग बन जाते हैं। और आवेग में कर्म को रोका नहीं जा सकता। चेतना विचारों से जुड़कर भावनाएं भी नियंत्रित कर्म करवाते हैं। विचारों को समाप्त नहीं किया जा सकता उन्हें सकारात्मक विचारों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि हम निरपेक्ष रूप से यह देख सके कि विचार कहां से उठ रहे हैं। यदि कोई बच्चा यह विचार कर रहा है कि उसे अपना परीक्षा फल घर में नहीं बताना चाहिए, तो वह भय अथवा स्वयं की छवि बनाने की इच्छा से प्रेरित है। और यदि वह विचार करता है कि उसे अपनी कमजोरी पर कार्य करना चाहिए तो उसमें स्वीकार भाव है और स्वयं पर कार्य करने को तैयार है। विचारों से प्राण बल पाते हैं। विचार वस्तुएं और वास्तविकता बन जाते हैं। हमारी ही संकल्प की ऊर्जा पाकर स्मृतियों के अनुरूप सघन हो जाते हैं और नाद ठहर जाता है। गति धीमी होने के कारण वस्तुओं के रूप में प्रगट होते हैं। इसके लिए विचारों का सचेतन चुनाव एवम केंद्रीकरण आवश्यक है। विचार भाग्य निर्मित करते है। अज्ञानता दूर होने से विचार परिवर्तित होने लगते हैं, और शुद्ध विचार शुभ कर्म करवाते हैं। शुभ कर्म अच्छे संस्कार निर्मित करते हैं, और अच्छे संस्कार अच्छा चरित्र बनाते हैं। और यही भाग्य की उपलब्धि है। विचार व्यक्ति की प्रकृति को दर्शाते हैं। यदि विचार सकारात्मक है तो उसे स्व धर्म में स्थित करती है, यदि नकारात्मक है तो उसे स्वयं के धर्म से दूर ले जाती है। व्यक्ति की मनोदशा उसके विचारों को प्रभावित करती है। मेरा भाग्य ही खराब है, एक नकारात्मक विचार है। यदि परिणाम सकारात्मक नहीं आ रहे तो मुझे अपने सोच को बदलने की आवश्यकता है। यह एक सकारात्मक विचार है। अंततः, विचार शुद्ध ऊर्जा है, जो कार्य की प्रेरणा शक्ति है। विचार ना उठे तो कार्य भी नहीं होंगे। तीन प्रकार के कर्म हैं मनसा वाचा एवम कर्मणा विचार सूक्ष्म कर्म है। जब ये वचन में बदलते हैं तो वाणी के कर्म होते हैं, और जब यह कर्मेंद्रिय से कर्म करवाते हैं, तो भौतिक कर्म है, जो भाग्य निर्मित करते हैं। इन तीनों में सबसे अधिक प्रभावी विचार के कर्म होते हैं क्योंकि सभी कर्मों की प्रेरणा विचार ही है। और इसमें इतनी शक्ति होती है कि यह कई लोगों को एक साथ प्रभावित कर सकता है। इसीलिए इस सूक्ष्म कर्म कहा गया है।और जो ऊर्जा जितनी सूक्ष्म होगी वह उतनी ही बलशाली होगी, और लंबे समय तक इसका प्रभाव बना रहेगा। वाणी द्वारा किए गए कर्मों के प्रभाव दीर्घकालिक होते है। कर्मेंद्रियों के कर्मों का प्रभाव और कम समय के लिए रहता है। लेकिन विचारो के कर्म अधिक प्रभाव डालते हैं। जैसे यदि मैने किसी को थप्पड़ मारा तो उसकी चोट थोड़ा प्रभाव डालेगी, किंतु यदि उस चोट को उसे व्यक्ति ने अपनी हीनता से जोड़ लिया, अब वह भावनात्मक कर्म बन गया।और यह आवेग में आकर प्रत्युत्तर में भी कर्म कर सकता है। और जब यह भावना उसके भीतर हीन भावना को जन्म देती है तो वह सूक्ष्मकर्म हो गया अब वह व्यक्ति कई कई जन्मों तक प्रतिस्पर्धा और बदले की भावना से ग्रसित रहेगा। तो इस प्रकार से विचार सूक्ष्म कर्म है। विचारों को जानकर और उनकी वृत्ति को समझकर हम अपने जीवन में इनका अच्छा उपयोग कर सकते हैं। अन्यथा अचेतन मन की अवचेतन अवस्था में शरीर यांत्रिक रूप से इनका गुलाम रहता है।
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