Wise Words
अस्तित्व का स्वभाव: प्रेम और आनंद
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://previews.123rf.com/images/cooperr007/cooperr0071911/cooperr007191100054/133550717-image-of-two-swans-and-a-lotus-flower-on-the-water.jpg " alt="Any Width"> </div> <br><br> प्रेम ब्रम्ह की अभिव्यक्ति है । शान्ति और आनंद अस्तित्व का मूल स्वभाव है, जहां हर अनुभव पूर्ण और सुन्दर होते हैं, कोई दुःख का भाव नहीं होता; जहां सभी भाव विलीन होते हैं, खुशि, सन्तुष्टि, पूर्णता, तृप्ति और शांति के भाव मुखरित होते है; यही आनंद है । प्रेम निर्मल और निर्गुण भाव है, सच्चिदानन्द का साक्षात् स्वरुप है । प्रेम में कोई भी शर्त या मिलावट नहीं होता । प्रेम, शांति और आनंद सभी अनुभवकर्ता के ही प्रयाय हैं। आशा अपेक्षा वा अन्य कोई भी भाव है तो वो प्रेम नहीं भ्रम होगा, स्वार्थ, मोह और आशक्ति होगा । प्रेम एक दूसरेके प्रति आसक्ति, आकर्षण या मोह के कारण उनत्पन्न होनेवाला भाव नहीं है । प्रेम मुफ़्त में है, निर्बाध है, अविराम है, सत्य और नित्य है । प्रेम में कोई अपना पराया नहीं होता, सबके प्रति समान दृष्टिकोण होता है । सब बराबर है, सभी का स्वरुप एक ही है, दूसरा कोई नहीं, कोई भिन्न नहीं, सभी स्वरुप मैं ही हूँ, मेरे होनेका भाव जैसा होता है वही प्रेम है । जहाँ प्रेम है वहीं शांति और आनंद है। संसारी व्यक्ति प्रेम को मात्रा में तोलना चाहते हैं । अधिकांशतः दो विपरित लिङ्गी के बीचका मोह, आकर्षण या आसक्ति को प्रेम समझा जाता है । इसी गलत समझ और अज्ञान के कारण समाजमें दुःख है, प्रेम के नाम में अशांति, असन्तुष्टि, हिंसा, अनैतिकता और व्यभिचार फैल रहा है । माता-पिता, पति-पत्नी, सन्तान या अन्य कोई भी रिश्ते-नाते, सम्बन्धी के प्रति जो माया, ममता होता है वो भी प्रेम नहीं है । क्यूँकि वहाँ भी कुछ इच्छाएँ, कामनाएँ, वासनाएँ, अपेक्षाएँ और स्वार्थ होतें है, ये मिलावट है, मोह, आसक्ति, असुरक्षा का भय, सही होनेका कामना आदि भाव मिला हुआ होता है । जिसने प्रेमको नहीं पहचान सका, अज्ञान के अन्धकार में ही ढके रहना दिया, गलत और विपरित अर्थ में समझा है, उसमें कठोरता, घृणा एवं नफ़रत प्रकट होता है, वो सदा व्याकुल रहता है, कुण्ठित और भ्रमित होता है, उसको प्रेम नहीं मिलेगा । जहाँ आसक्ति और स्वार्थ है वहाँ आनंद का विस्मरण होता है यानि कि आनंद लुप्त होता है । आनंद और प्रेम न मिलने का कारण जीव का अज्ञान और भ्रमपूर्ण जीवन है । प्रेम में मेरा-तेरा भाव नहीं होता । लेना-देना, खोना-पाना नहीं, स्वयंको होनेका भाव है, स्वयं प्रसारित है, अविरल है । प्रेम और आनंद कम या ज़्यादा नहीं हो सकता । सभी में समान और सभी के लिए समान होता है । प्रेम स्वयं में परिपूर्ण है । मोह, माया, आकर्षण स्वार्थ और अपेक्षाओं से परे है । जीव भ्रम में जीता है । लोभ लालच, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, दम्भ घमण्ड, आदि के कारण भौतिक और सांसारिक सुख में प्रेम और आनंद ढूँढने का प्रयास कर रहा है । जो मिथ्या है, मेरा स्वभाव ही नहीं उसमें आनंद कैसे मिलेगी ? रेगिस्तान में पानी के तरह केवल भ्रम ही मिलेगा । कौन कितना बेचैनि में या आनंद में रह सकता है ये उस जीव पर निर्भर होता है । मैं बेचैनी में हूँ मेरे साथ शान्ति और आनंद नहीं है, मुझे कोई प्रेम नहीं करता आदि भाव भ्रम है, बेचैनी या कोई विकार मुझे छु भी नहीं सकता । में निर्विकार हूँ, निर्गुण हूँ, में हमेशा आनंद में हूँ । जो मेरा स्वभाव है, वो तो नित्य है, उसको कोई भी उपायद्वारा हासिल करना असंभव है । क्यूँकि वो तो पहले से है; और शास्वत है । जीव में जो मान्यता और मतारोपणद्वारा अज्ञान भरा है उसने आनंद को ढक लेने का और प्रेम को संकुचित करने का चेष्टा करता है । जो बुद्धिमानी और ज्ञानी हैं वो इस प्रपंचको समझते हैं और अज्ञान को नाश करके आत्म स्वरुप में स्थित होते हैं । अन्धविश्वास और अनावश्यक का त्याग करना, जो भी है पूर्ण और सुन्दर है; उसमें सन्तुष्ट होना, स्विकार भाव में रहना, आत्मज्ञान लेकर उसमें में अवस्थित होना, कोई भी अपेक्षाओं से मुक्त होना, सभी अनुभव अपना ही रुप जानना आदि प्रेम और आनंद में स्थित रहने का उपाए हैं जो केवल होना मात्र है, बनाना या प्रयास करना नहीं । सभी जीव आनंद में रहना चाहता है, क्यूँकि सभी का तत्व यानि की स्वभाव ही आनंद है । प्रेम बिना अस्तित्वका परिकल्पना सम्भव नहीं है । प्रेम ही अन्य सभी अनुभव उद्भवका श्रोत है । प्रेम के प्रति श्रद्धा और समर्पण जरुरी है, उसके बाद प्रेम व्यक्तिको सम्पूर्णरुपसे ओतप्रोत कर देगा, आनंद के सागरमें डुबो देगा । परम शांति में स्थापित करवाएगा । शांति, आनंद और प्रेम अद्वैत अवस्था है, इसलिए इसको बुद्धि और शब्द में व्यक्त करना असम्भव है । सुख-दुःख, सत्य-असत्य,अच्छा-बुरा,नैतिक-अनैतिक, शुन्यता-पूर्णता, स्विकार-अस्विकार आदि भाव होते हुए भी सभी भाव में सन्तुलन है, समाधि की अवस्था है । अनुभवकर्ता यानि कि तत्व ही प्रेम और आनंद मूल है । सम्पूर्ण अस्तित्व प्रेममय है । हर अनुभव में प्रेम व्याप्त है, सर्वत्र एक समानरुपमें वरष रहा है । जो प्रेम में भीगना चाहेगा वो प्रेम में समा जाएगा । उसमे कोई भी विकार उत्पन्न नहीं होंगे । जिसने शास्वत प्रेम को पहचान पाया उसी में शाश्वत प्रेम प्रकट होता है । जहाँ प्रेम है वहीं करुणा और सेवा भाव से सभी का मुक्ति के कार्य होते हैं, वहीं सुख शांति और आनंद होता है । *** साभारः- बोधि वार्ता कार्यक्रम, सद्गुरु श्री तरुण प्रधान जी
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