Wise Words
साधक की अभिलाषा
स्वप्रकाश
श्री माखनलाल चतुर्वेदी की रचना पुष्प की अभिलाषा से प्रेरित होकर मैंने साधक की अभिलाषा पर एक कविता लिखने का प्रयास किया है। आशा है की सभी साधकों को पसंद आयेगी। मेरी तरह और भी साधकों की इसकी प्रकार की अभिलाषा हो सकती है। **साधक की अभिलाषा** चाह नहीं धन पाकर के, बड़ा धनी मैं कहलाऊं। चाह नहीं कोई पद पाकर के, मन ही मन इठलाऊं।। चाह नहीं मैं शक्ति पाकर, सभी लोकों का स्वामी हो जाऊं। चाह नहीं कि सिद्धि पाकर, सिद्धियों का स्वामी कहलाऊं।। चाह नहीं कि शास्त्र रट कर, शास्त्र ज्ञानी मैं कहलाऊं। चाह नहीं कि प्रसिद्धि पाकर, विश्व प्रसिद्ध मैं कहलाऊं।। चाह नहीं देव योनि पाकर, स्वर्ग लोक को जाऊं । चाह नहीं सब वृत्ति शून्य कर, विश्वचित्त मैं हो जाऊं।। चाह यही कि देहभाव नाश कर, आत्मन में स्थित हो जाऊं। चाह यही कि द्वैत भुलाकर, अद्वैत ब्रह्म मैं हो जाऊं।। चाह यही कि अज्ञान नाश कर, बोधि सत्व मैं हो जाऊं। चाह यही कि गुरु को पाकर, गुरु में ही विलीन हो जाऊं।। अज्ञान मिटाकर हे गुरुदेव, मुझे गुरुक्षेत्र में देना फेंक। अज्ञान का नाश करने, जिस पथ जावें गुरु अनेक।। >सभी सुखी हों, सभी समृद्ध हों, सभी ज्ञानवान हों .....श्री गुरुवे नमः ....ॐ शांति शांति शांति ..... **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। **संपर्क सूत्र..** साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल: swaprakash.gyan@gmail.com
Share This Article
Like This Article
© Gyanmarg 2024
V 1.2
Privacy Policy
Cookie Policy
Powered by Semantic UI
Disclaimer
Terms & Conditions