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दृष्य-द्रष्टा विवेक
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://img.freepik.com/free-photo/international-day-education-cartoon-style-with-open-book-fantasy-world_23-2151007439.jpg?t=st=1710775392~exp=1710778992~hmac=7f30b10a9dd483037dba1bc45a0546d30f40986a0109b8e4291c882cb5266dc6&w=1380" alt="Any Width"> </div> <br><br> दृष्य एवं द्रष्टाबीच में कहाँ भेद करना आवश्यक है और कहाँ एक हो जाना आवश्यक है ये जानने कि क्षमता, या चित्त कि योग्यता ही दृश्य-द्रष्टा विवेक है । मैं कौन हूँ ? क्या तत्व है और क्या छायाँ है ? क्या दिखाई दे रहा है और उस दृष्य को कौन देख रहा है ये जानना आत्मज्ञान है । जिस प्रकार से लहर और पानी एक है अनुभव और अनुभवकर्ता भी एक ही है। लहर को पानी से अलग नहीं किया जा सकता, ये ब्रम्हज्ञान है । ब्रम्ह यानि कि अस्तित्व एक ही है । आत्मज्ञान के लिए अलग करना और ब्रम्हज्ञान के लिए एक हो जाना ज़रूरी है । दृश्य-द्रष्टा विवेक से ही ये तथ्य समझ में आता है । यही विभाजन और एकता को सही अर्थ में समझना दृष्य-द्रष्टा विवेक है । सत्य और मिथ्या जानने के लिए, मनुष्य बुद्धि के स्तर तक सम्पूर्ण ज्ञान के लिए, साक्षीभाव में स्थित रहने के लिए, सहज समाधि के लिए, आध्यात्मिक प्रगति और मुक्ति के लिए दृश्य-द्रष्टा विवेक होना आवश्यक है । आत्मज्ञान के बाद उस ज्ञान में स्थित रहना यानि की द्रष्टा के भाव में रहना साक्षीभाव है । साक्षीभाव में रहने के लिए कौन साक्षी है और क्या साक्ष्य है ये दोनों को पहचानकर कहाँ अलग करना है और कहाँ एक होना है ये विवेक से ही जाना जाता है; नहीं तो द्वैत और अद्वैत समझ में नहीं आएगा, उल्झन हो जाएगा । जब तक चेतना पूरी तरह से स्थापित नहीं होता तब तक ये विवेक का प्रयोग जरुरी है । साक्षीभाव से जब ज्ञान पक्का हो जाता है तब सहज समाधि स्वतः घटित हो जाता है । यही प्रगति और मुक्ति है । नया साधक में अनेक उल्झन होते हैं । अहम् को ही द्रष्टा मान लेना, अनुभवकर्ता को रुप या आकार में देखने की चेष्टा करना, कोई स्थान में स्थापित करने का प्रयास करना, समय से आबद्ध करने का प्रयास करना, आने जाने अनुभव या अस्थिर वस्तु मान लेना, कोई बढ़ी चमत्कार या अद्भुत होने का भ्रम होना, अहंकार, मन्द बुद्धि, मान्यता धारणा और अज्ञान जैसे अनेक समस्या के कारण दृश्य-द्रष्टा विवेक सही अर्थ में नहीं होता । जब ये विवेक नहीं होता तो विभाजन और एकता भी ज्ञात नहीं हो सकता है । जब तक विभाजन और एकता (द्वैत और अद्वैत) समझ में नहीं आता तब तक आत्मज्ञान और ब्रम्हज्ञान संभव नहीं है । जो भी भौतिक/अभौतिक, प्रकट/अप्रकट अनुभव है वो सभी दृष्य है । अनुभव अपने आपको नहीं देख सकता और जो देख रहा है वो शरीर, जगत, मन जैसे कोई भी अनुभव नहीं है । स्थूल से लेकर सूक्ष्मतम अनुभव और चित्तवृत्ति भी मैं नहीं, चेतना भी मैं नहीं । जब वृत्ति सूक्ष्म होने का ज्ञान हो जाता है तब समझ में आता है कि कोई भी अनुभव मैं नहीं हूँ । यदि कुछ दिखाइ दे रहा है या प्रतीत हो रहा है तो उस प्रतीति के पिछे कुछ तो अवश्य होगा, ये क्या है? अनुभव स्वयंको जान नहीं सकता तो फिर जाननेवाला कौन है? मैं कौन हूँ और क्या नहीं हूँ? इस प्रकार के प्रश्न करते करते सत्य और मिथ्याका भेद पहचान हो जाता है । इन सभी दृश्यों को आते जाते देखनेवाला साक्षी मैं हूँ । चित्त ही ये विभाजन करता है । अहम् बार-बार प्रकट होता है । अनुभव अति सूक्ष्म हो गया तो चित्त वृत्ति कम हो जाती है, लेकिन अहम् भाव बाक़ी रह सकता है, उस सूक्ष्म वृत्ति को मैं मान सकता है, अनुभव और अनुभवकर्ता एक साथ है तो नया साधक में चेतना स्थायी न होने के कारण कभी अहम् कभी द्रष्टाभाव प्रकट होता है । जैसे अंधेरे में घर में रखे वस्तुओं नहीं दिखाई देती, लेकिन वहीं होते हैं उसी तरह चित्त कही नहीं जाता; अनुभवकर्ता भी कही नहीं जाता । साथ हैं, एक सामने है तो दूसरा दिखाई नहीं देता । बादल ने सूर्य को ढकने के तरह होता है, साक्षीको भूला दिया जाता है । जैसे बादल के ढकने से सूर्य को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता वैसे ही अहम् के ढकने से अनुभवकर्ता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, वैसा ही चमक रहा होता है । हमेशा वहीं स्थिर होता है । व्यक्ति जब सत्य के खोज में लग जाता है तब सही मार्ग और गुरु के मार्गदर्शन से उसका आध्यात्मिक साधना गतिमान होता है और ये विवेक भी विकसित होता है । दृश्य-द्रष्टा विवेक कि क्षमता मनुष्य चित्त के उपरी परत में बुद्धिके साथ होता है, चेतना के स्तर पर निर्भर होता है । जो बुद्धिमान और चेतनशील है उसमें अधिक विवेक होता है और जल्दि प्रगति कर लेता है, उसमें चेतना या साक्षीभाव स्थापित होता है । जो अज्ञानी है उसमें ये विवेक शून्य या न्यून होता है । सांसारिक जीवन यापन के लिए ये विभाजन और एकीकरण करना आवश्यक भी नहीं है । जो स्वयं को और अस्तित्व के रहस्य को जानना चाहता है, आध्यात्मिक प्रगति करना चाहता है उसमें ये विवेक होना ज़रूरी है । नेति नेति विधिके द्वारा अज्ञान को हटाकर तत्व या सत्य तक पहुँचा जाता है । निरन्तर साधना से सत्य और मिथ्या का भेद स्पष्ट होता है, स्वयंमें स्थित होनेका भाव विकसित होता है । जब चेतना है, सभी काम प्रकाश में होते हैं, और जब चेतना नहीं होती तो वही काम अंधकार में होते हैं । जब केवल साक्षी और साक्ष्य स्पष्ट हो जाता है, वो चेतना की अवस्था है । अनुभवकर्ता पहले से है, बना नहीं जा सकता, हुआ जा सकता है, केवल ज्ञान हो सकता है । चेतना वृत्ति के रूप में आती जाती है, द्रष्टा स्थिर है, अपरिवर्तनीय है । कोइ भी चिज से प्रभावित नही होता । द्रष्टा चेतनाको आते जाते हुए देख रहा है । जो व्यक्ति जिज्ञासु और मुमुक्षु है उसमें स्वयंको और अस्तित्वको जानने कि अभिलाषा होती है । भ्रमको हटाकर सत्य जानना ही मनुष्य जीवनका लक्ष्य है और यही मुक्ति है । दृष्य-द्रष्टा विवेक ही सत्य असत्य जाननेका मूलभूत आधार है । द्रष्टा के प्रकाश से ही दृष्य प्रकट है, प्रकाशित है । दोनों का भेद पहचान करने के लिए दृष्य और द्रष्टा को अलग करना पडता है । कौन देख रहा है और क्या दिख रहा है ? ये विवेक का प्रयोग करके ही जाना जाता है । अनुभव नहीं देख सकता और अनुभवकर्ता नहीं दिख सकता । यदि अनुभव को देखने वाला द्रष्टा नहीं होता तो अनुभव भी नहीं होता । केवल ज्ञान के लिए दो है, जानने के बाद दो नहीं एक ही है । अनुभव और अनुभवकर्ता हमेशा एकसाथ होते हैं, आपस में व्याप्त हैं, तत्व और छाया के रुपमें । ऐसे में क्या सत्य और क्या मिथ्या है ये जानने के लिए, दृष्य-द्रष्टा विवेक आवश्यक एवं उपयोगी है । *** आभार: बोधि वार्ता, ज्ञान दीक्षा कार्यक्रम - सद्गुरु श्री तरुण प्रधान जी ।
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