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ब्रम्हज्ञान और सहज समाधिस्थिति
जानकी
**ब्रम्हज्ञान और सहज समाधिस्थिति ** *परिचय* अनुभव और अनुभवकर्ता दो नहीं एक ही है, यही ज्ञान ब्रम्हज्ञान है । अनुभव और अनुभवकर्ता का विलय का अवस्था ब्रम्ह यानि कि अस्तित्वका मूल अवस्था ही सहज समाधि है । ये चित्त से परे का अवस्था है । इस अवस्था में कोई विशेष प्रकार का अनुभव नहीं होता । सारे अनुभव और अनुभवकर्ता को एक ही तत्व में पाया जाता है । अनुभवकर्ता स्वयं का ही मिथ्या रुप का अनुभव कर रहा है । हर सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और स्थूल से स्थूलतम रुप एक ही अनुभवकर्ता है; वही अस्तित्व है और अस्तित्व ही ब्रह्म है । यही होनापन का बोध ब्रम्हज्ञान और होनापन सहज समाधिस्थिति है । यही अनुभवक्रिया है, यही सत्य, नित्य, और निरंतर है, और केवल है । *विभाजन और एकता* अनुभव और अनुभवकर्ता का विभाजन कैसे किया जा सकता है? कब और कैसे विलय होते हैं ? ये जाना तो नहीं जा सकता लेकिन उस स्तर तक पहुँचने के लिए अपरोक्ष अनुभव और तर्क द्वारा प्रमाण संकलन करने का प्रयास किया जाता है । एक का ज्ञान संभव नहीं है । अलग करके छोड़ने से भी अस्तित्वका लयबद्धता का पता नहीं चलता । जानने के लिए ही चित्त दो रुप में भेद करता है; वास्तव में अलग नहीं है, सोने से गहना, मिट्टी से घड़ा और पानी से लहर कभी भी अलग नहीं है । अनुभव और अनुभवकर्ता का सम्बंध इसी प्रकार का है । अनुभवक्रिया के द्वरा अस्तित्व गतिमान है । सत्य यानि ब्रम्ह का ज्ञान तो सम्भव नहीं है; अज्ञेय है, परंतु नकारात्मक ज्ञान और मान्यताओं का खण्डन संभव है । अज्ञान को हटाकर सत्य तक पहुँचने का प्रयास किया जा सकता है । आत्मज्ञान में मेरा तत्व जाना जाता है । अनुभव और अनुभवकर्ता का भेद समझा जाता है, इसके लिए उसी एक को ही अलग करके देखना पड़ता है । अज्ञान हटानेका दो तरीक़ा है, पहला अपरोक्ष अनुभव और दूसरा तर्क । मेरा तत्व का खोज करने के लिए नेति नेति विधिके द्वारा अज्ञान और मान्यताओं को हटाटे-हटाते अंत में मैं अनुभवकर्ता हूँ ये जाना जाता है । अनुभवकर्ता तो हूँ लेकिन किस को अनुभव कर रहा हूँ? निस्संदेह मेरा ही मिथ्या और परिवर्तनशील रुपका अनुभव हो रहा है । क्यूँकि अनुभवकर्ता यानि तत्व दो नहीं हो सकता और तत्व के बिना कोई भी अनुभव नहीं हो सकता । इसीलिए मैं एक सम्पूर्ण अस्तित्व हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ, ये बोध होता है । ये अवस्था पहले से है, तत्व स्थाई और नित्य है । आत्मज्ञान में भेदका और ब्रम्हज्ञान में मेल का पता चलता है । दो सत्य कभी नहीं होता, अनुभवकर्ता सत्य है । एक सत्य है तो दूसरा मिथ्या होना आवश्यक है । जब अनुभव है और अनुभव स्वयं को जान नहीं सकता तो उसको जाननेवाला भी होनी चाहिए, यही अनुभवकर्ता होने का प्रमाण है । सभी अनुभव अनुभवकर्ता का ही छायां रूप है । अनुभव के माध्यम से ही सत्य और मिथ्या का पता चलता है । द्वैध में अनुभव और अनुभवकर्ता दो है । द्वैत केवल ज्ञान के लिए और उत्तरजीविता के लिए काम आता है । चित्त की क्षमता द्वैत का स्तर तक ही है । प्रमाण संकलन करने के लिए द्वैत का सहारा लेना पड़ता है । सत्य और मिथ्या अलग नहीं, तत्व और छाया रुपमे एक है; लेकिन एक है कैसे ? इसका खोज चलता है । जब प्रमाण मिलता है, तब ये ज्ञान होता है कि एक ही अवस्था है, और वो है ब्रम्ह अवस्था । अनुभव मिथ्या है, मैं सत्य हूँ, मैं अनुभवकर्ता ने अपने ही छाया स्वरूप का अनुभव कर रहा हूँ । अद्वैत में केवल एक ही है, और ये अनुभवक्रिया के द्वारा नित्य निरंतर चल रहा है । अनुभव और तत्व अनुभवक्रिया से ब्रम्ह स्वरूप में जुड़े हुए हैं । सूक्ष्मतम से लेकर स्थूलतम तक चाहे जो भी अनुभव हो अनुभवकर्ता से अलग करके देखना सम्भव ही नहीं । यही एक ब्रम्ह होने का प्रमाण है । अनुभव और अनुभवकर्ता सदा एक साथ आपस में व्याप्त है, अविच्छिन्न है । यही सम्पूर्ण अस्तित्व है । अद्वैत में एक दो कर के गिनती नहीं होता है । अद्वैत का मतलब दो नहीं है लेकिन एक भी नहीं कहा जा सकता है । अनुभवक्रिया में समय और स्थान का भेद नहीं होता और अनुभव का बोध भी होता है । *सहज समाधिस्थिति* सहज समाधि यानि कि तुरीया चित्त कि एक ऐसी अवस्था है जिसमें केवल शून्यता और आनन्द मात्र है; ब्रम्हका मूल स्वभाव है, अवस्थाओं से परेका अवस्था है जो शाश्वत है । ये अवस्था पहले से है और हमेशा है । नित्य और सत्य यही है । जब व्यक्तिमें तत्व का चेतना रहता है, तब वो यही समाधि अवस्था में होता है । जब चेतना चला जाता है, इस अवस्था विस्मृत होती है, अवस्था कहीं नही जाता । ये अवस्था नित्य और निरन्तर है, समय के बन्धन में नहीं है, जो क्षणिक प्रतीत होता है वो चेतना के कारण है । चेतना हमेशा नहीं रहती, थोड़ी देर आकर चली जाती है । जो साधक हमेशा चेतना में रहते हैं, वो यही अवस्था में रहते हैं । सहज समाधि में स्थित होने का कोई प्रक्रिया नहीं है, जो पहले से ही परम अवस्था है । कोई ध्यान, साधना, स्पर्श, योग, जादु-टोना, शाब्दिक ज्ञान आदि किसी भी प्रयास से ये अवस्था में आया नहीं जा सकता । जो पहले से पूर्ण है, उसमें कैसे आया जाए ? बना नहीं जा सकता, जाना भी नहीं जा सकता, केवल मैं इस अवस्था में नहीं हूँ ये मान्यता को हटाना चाहिए । ये अवस्था होना मात्र है, जैसा है वैसा ही है । ये अवस्था में कोई भी मिलावट नहीं है । शुद्ध और शास्वत है, क्यूँकि ये अनुभवकर्ता यानि अस्तित्वका मूल स्वरुप है । अज्ञान को हटाना आवश्यक है, हर अनुभव का अवस्था यही है, योग है । ये अवस्था स्वयं में सम्पूर्ण है, कोई खण्ड या विभाजन नहीं है । मोटा और पतला नहीं है, सतही और गाढ़ा भी नहीं है । नये साधक को ये क्षणिक प्रतीत हो सकता है । सतही और पतला सा प्रतीत हो सकता है, क्यूँकि अज्ञान पूरी तरह से नहीं छुटा है, चेतना स्थापित नहीं हुईं है । इसीलिए इस अवस्था में रह नहीं पाते । कोई जीव इस अवस्था में न रहने से ये अवस्था कम नहीं हो जाता है । तुरीय अवस्था सभी अनुभव के लिए समान है । किसी के लिए कम या अधिक नहीं है । जो भी अज्ञान नाश करके स्वयंमें स्थित हो पाता है, वही इस अवस्था का लाभ उठा सकता है । योगी, ज्ञानी, ऋषिमुनी आदि जिसने तत्व को जानकर चेतनाको साध लिये हैं वो जब चाहे तब इस अवस्था में रह सकते हैं । एक ज्ञानमार्गी साधक जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर के चेतना का प्रयोग कर रहा है वो भी यदि हमेशा अपना तत्व स्वरुप में स्थित हो कर चेताना को साध लिया तो ये परम अवस्था पा सकता है, अस्तित्व का मूल यानि कि तत्व जो एक है वही अवस्था में रहा जा सकता है । ब्रह्मज्ञान के द्वारा सहज समाधिस्थिति तक पहुँचा जा सकता है, यहीं पर सभी साधना का भी अंत हो जाता है । यही संपूर्ण ज्ञान है, मनुष्य के बुद्धि के सीमा में इसके आगे कोई भी ज्ञान सम्भव नहीं है । सत्य की खोज का और ज्ञानका अंत हो जाता है, क्योंकि यहॉ से आगे जानने के लिए कुछ भी नहीं बचता है, आगे का विषय अज्ञेय है । इसीलिए अद्वैत वेदान्त है । दुःख-सुख, लाभ-हानी, नैतिक-अनैतिक आदि सभी यहीं विलीन है । जिसने इस अवस्था को पा लिया उसने सर्वस्व पा लिया; पाने के लिए और कुछ बाक़ी नहीं होता । इस अवस्था पूर्ण भी है और शुन्य भी है, भाव भी है, अभाव भी है, जो भी है पूर्ण और सुन्दर है, केवल आनन्द है । *** आभारः सद्गुरू श्री तरुण प्रधान जी, बोधि वार्ता, ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम।
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