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अस्तित्व = आत्मन /चैतन्य (मैं) + माया /चित्त (मेरा) = अस्तित्व
रमाकांत शर्मा
**मैं आत्मन**, साक्षी, अनुभवकर्ता, शुद्ध अहंदेव, नित्य, शुद्ध, मुक्त, चैतन्य, होना मात्र, तत्व, अस्तित्व, शून्य अथवा सम्पूर्ण, **माया का नाद प्रतिरूप** आत्मन /चैतन्य की चेतना में हलचल /परिवर्तन से नाद, एक नाद से दूसरा नाद मिल युगल नाद, युगल नाद से युगल मिल जटिल नाद, जटिल नाद से स्मृति स्मृति में गति से चित्त, (चैतन्य - चेतना - चित्त) चित्त - रचनाएं - जगत - वस्तुएँ - शरीर, चित्त की पर्तें - अनेक, मुख्य 10/36 इनमें मानव और बुद्धिमान चित्त की परत विशेष, मानवचित्त पर चित्तवृत्तियां - पशुवृत्ति, भोगवृत्ति, जातिवृत्ति, भाववृत्ति, बुद्धिमान वृत्ति, आध्यात्मिक वृत्ति, मुक्त/विलीन, अध्यात्मिक वृत्ति पर ज्ञान की तड़प, आध्यात्मिक प्रश्न, गुरु की खोज, गुरु मिलन, गुरु कृपा से चेतना का प्रकटीकरण, अथवा **प्रकृति प्रतिरूप** होना मात्र - अहंभाव - अहंकार - तन्मात्राएं तन्मात्राएं - रूप, शब्द, रस, स्पर्श, गंध रूप - अग्नि तत्व, शब्द - आकाश, रस - जल तत्व, स्पर्श - वायु, गंध - पृथ्वी तत्व पांच तत्व - जड़ शक्ति क्रिया शक्ति - तीन गुण - सात्विक, राजसी, तामसी पांच तत्व और तीन गुण मिलकर अष्टधा प्रकृति, अर्थात माया । पांच ज्ञानेन्द्रियों से पांच तत्वों के दर्शन, मन से तीन गुणों के दर्शन, माया /प्रकृति अनुभव में है। आत्मन/आत्मा को गुरु द्वारा प्रदत्त बुद्धी से जाना, आत्म ज्ञान, चित्त/माया का ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान माया को माया समझ कर माया का साक्षात्कार (स्वयं के मिथ्या रूप के दर्शन) ब्रह्म भाव में स्थित अस्तित्व मैं ही हूँ। मुझे (अस्तित्व को) अनुभवकर्ता (अस्तित्व) के रूप में अनुभव (अस्तित्व) के दर्शन हो रहे हैं। गुरु कृपा से जान गया। अपने को पहचान गया। अपने जीवन का शेष भाग ब्रह्म भाव में सर्वत्र ब्रह्म का साक्षात्कार करते हुए, अपने को प्राप्त योग्यताओं /सिद्धियों से ब्रह्म के प्रति समर्पित भाव से ब्रह्म की सेवा /कार्य करना ये अभीष्ट रह जाता है। इससे साक्षी भाव /ब्रह्म भाव पक्का हो जाता है, उसी में स्थित हो जाता है। अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना ही परमपद है.
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