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मिथ्या अनुभवः पुष्टिकरण
जानकी
मिथ्या अनुभवः पुष्टिकरण सार सभी अनुभव मिथ्या है। ये कहना तो बड़ा आसान है। लेकिन जो हमारे सामने प्रत्यक्ष प्रकट है उसको असत्य जानना उतना सहज नहीं है। यहाँ पर निम्नलिखित बुंदाओं पर आधारित रहकर सारे अनुभव मिथ्या कैसे हैं ये क्रमबद्ध तरीक़े से मनन करके सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। * सभी अनुभवका आधार नाद है, जो केवल परिकल्पना मात्र है। * नाद से ही और सृष्टि हुआ है। नादरचनाओं का विकासक्रम चलते चलते ही सभावना से रचना और विनाश का सिलसिला निरन्तर चलता है। * नाद में प्रक्रियाएँ चलते हैं और प्रक्रियाएँ वृत्तिओं को जन्म देती है। * वृत्तियो में एक निश्चित दिशा और लक्ष्य प्रतीत होता है और ये वृत्तियाँ आपसमें निर्भर एवं सम्बंधित होते हैं। इसीलिए आपस में जुडकर वृत्तिओं के समुह से वस्तु या जीव बनता है। * नाद रचनाओं का विकासक्रम परत में होता है। आपस में निर्भर एवं सम्बंधित हो कर जीव के जीवन के लिए जितना आवश्यक है उतना बनकर स्मृति मे संचित होते है और रचना-विनास का चक्र चलता है। * कोई सीमा नहीं है तो फिर इतने परत और इतने अनुभव कैसे हो गए? * कई परतीय रचनाएँ आपस में जुड़ के चित्त परिवार बनते हैं। * सभी अनुभव अभौतिक ही है तो कैसे भौतिक प्रतीत होते हैं? * सभी अनुभव चित्तनिर्मित है और परिवर्तनशील हैं। * सभी अनुभव स्मृति का ही है, स्मृति नहीं तो अनुभव नहीं होता। स्मृति में संचिति के कारण निरन्तरता होता है। * सभी वस्तु और जीव जैसे दिखते वैसे नहीं है। इन्द्रीयाँ जैसे दिखाते है वैसे दिखते हैं और इन्द्रीयाँ सत्य को नहीं पकड पते मिथ्या रुप गढकर दिखाते है। * सभी परत में स्मृति होती है और इन्द्रीयाँ भी सभी परत में होते हैं। इन्द्रियाँ परतों का छवि बनाकर दिखाते हैं। * सभी लोग अनुभव को एक जैसे दिखते हैं और सभी को एक जैसे अनुभव होता है। * सभी अनुभव परिवर्तनीय और अस्थायी हैं तो स्थायित्व क्यूँ दिखाई देता है? * चित्त को अनुभव नहीं होता चित्त का अनुभव होता है, और चित्त का अनुभव निःसंदेह अनुभवकर्ता ही कर सकता है। १ सभी अनुभवका आधार नाद है जो केवल परिकल्पना मात्र है। अस्तित्व में अनंत संभावनाएं हैं, सम्भावना से नाद और नाद से नादरचनाएँ बनते हैं। अनंत नाद नियमित और अनियमित भी हो सकता है, परंतु नियमित नाद से ही रचनाएँ बनते हैं। अनियमित नाद बिखरा हुआ होता है, इसे पकड़ पाना संभव नहीं है, सृष्टि और उत्तरजीविता के लिए उपयोगी भी नहीं है। नियमित नादरचना में परिवर्तन भी नियमित होता है, और क्या परिवर्तन हुआ है वो भी जाना जा सकता है। २ नाद से ही और सृष्टि हुआ है। नादरचनाओं का विकासक्रम चलते चलते ही सभावना से रचना और विनाश का सिलसिला निरन्तर चलता है। नादरचना स्मृति में छपती है। स्मृति में स्वयं को संगठन करने की क्षमता होती है। स्वयं संगठित हो कर वृत्तिओँको जन्म देती है, यहीं से जीव का विकास होता है। रक्षण, भक्षण और प्रजनन का प्रक्रिया शुरू हो जाता है। सफल रचना वातावरण एवं आस पास के वृत्तिओँ से आपस में संबंध बना के जुड़ जाते हैं, अपने आप को परिस्थिति के अनुकूल बनाते हैं। इसको रक्षण कहा जाता है। जो नादरचना स्मृति में संगठित नहीं हो सकती उसको असफल संरचना मानते हैं। असफल संरचना नश्वरता के सागर में बह जाते हैं, या सफल संरचना में विलीन हो जाते हैं, या फिर सफल संरचना अपना छाप छोड़ देती है, इसको भक्षण के वृत्ति कहते हैं। स्वयम संगठन और विकास के क्रम जारी रखने के लिए अपना प्रतिकृति बनाकर विकासक्रम बढ़ा लेती हैं। इसी को प्रजनन वृत्ति कहते हैं। सभी सफल वृत्तियॉ उत्तरजीविता में लिप्त है, अपने आप को फैलाता रहता है, नया कार्य, नई संरचना और नया सम्बंध बनता है। आवश्यकता के अनुसार आपस में कभी नय संबंध बनते हैं, कभी विलीन हो जाते हैं, कभी प्रतिकृति बनाकर पुरानी रचना को नियंत्रण करती है, सहायता करती हैं और विकासक्रम चलाती रहती है। इस प्रकार नए और पुराने दोनों संरचना संगठित होते होते सरल से जटिल नादरचना के परतीय संरचना बनता है और चक्र में चलता है। परतीय रचना को ही चित्त कहते हैं। विकासक्रम जितना तेज़ी से होता है उतनी तेज़ी से फैलता है, कोई सीमा नहीं है। परत अनेक हो सकते हैं, निचली और ऊँची परत का एक समान कार्य को स्वसमानता के नियम लगाकर अनुमान लगाया जा सकता है। ३ नाद में प्रक्रियाएँ चलते हैं और प्रक्रियाएँ वृत्तिओं को जन्म देती है। नाद रचना जो नियमित रूप में चक्र में चलती है, स्वयं को दोहराती रहती है, उसे प्रक्रिया कहते हैं। प्रक्रिया नाद रचनाओं को सृजन, समायोजन और नियंत्रण करते हैं। पत्थर जैसे रचनाओं के प्रक्रिया धीमी चलती है, और कोई रचनाओँ का प्रक्रिया जल्दी चलती है, इन्द्रियां ही पकड़ नहीं पाता। एक वस्तु में संरचना और प्रक्रिया दोनों होते हैं। जितने जटिल संरचना होती है उतना ही जटिल प्रक्रिया होता है। प्रक्रिया के प्रमुख प्रकार और उनके उदाहरण इस प्रकार हैः चक्रीय प्रक्रिया - ग्रह उपग्रह की गति। प्रतिकृति - जीवों से संतान को जन्म देना। चक्रीय प्रक्रिया - ग्रह उपग्रह की गति। प्रतिकृति - जीवों से संतान को जन्म देना। स्वयोजनकारी - पेड़ का भोजन प्रक्रिया। संगठनकारी - जहाँ संगठन का कारण मिलता है, जैसे चीटियों का बिल कार्यालय संचालन। स्वसमान - समान देश, जाति, और वर्ग के व्यवहार। बाध्य - घड़ी की गति। एक सुई ने दूसरे को बाध्य करता है। कलनीय - एक के बाद एक प्रक्रिया। जैसे कंप्यूटर संचालन। परिवर्तनकारी - कीड़े से तितली बनना। सूचक - शरीर में दर्द का अनुभव। प्रेरक - अपमान ने ग़ुस्सा करने के लिए प्रेरित करता है। अनुकरणीय - वास्तविक प्रक्रियाका अग्रिम कल्पना।(बाद में किए जाने प्रक्रिया/कार्य को मन में कल्पना करना) जटिल - कई प्रक्रिया एक साथ होते हैं, एक समय में कौनसा प्रक्रिया चल रहा है, पहचान करना भी कठिन हो जाता है। जैसे घर बनाने की प्रक्रिया। यौगिक - कई प्रक्रिया स्वतंत्र रूप में साथ साथ या क्रमशः होते हैं जैसे पेड़ में पत्तियां उभरने की प्रक्रिया। विनाशकारी - जटिल से सरल-मृत्यु। ४ वृत्तियो में एक निश्चित दिशा और लक्ष्य प्रतीत होता है और ये वृत्तियाँ आपसमें निर्भर एवं सम्बंधित होते हैं। आपस में जुडकर वृत्तिओं के समुह से वस्तु या जीव बनता है। वस्तु या जीव नाद रचनाएँ के समूह से बनते हैं। नियमित और धीरे से परिवर्तन होने के कारण स्थाई प्रतीत होते हैं। क्रमशः परिवर्तन होने के कारण कोई भी वस्तु परिवर्तन होने के बाद भी वही वस्तु है ये जानने कठिन नहीं होता। प्रक्रियाएं भी एक के बाद एक क्रमबद्ध रूप में चल सकते हैं, क्रमबद्धता का एक तार्किक शृंखला में चलने को वृत्ति कहते हैं। वृत्ति में कई प्रक्रिया एक साथ, एक दिशा में चल सकते हैं, और इनका एक लक्ष्य भी प्रतीत होता है, बिना कारण वृत्ति नहीं चलती। जैसे भूख लगना, अहम् वृत्ति आदि। वृत्ति दोहराते रहते हैं। वृत्तियॉ तार्किक रूप से आपस में जुड़ जाते हैं, और समूह बना लेते हैं इसी परस्पर निर्भर वृत्तियों का समूह को जीव कहते हैं। ये इतना जटिल होता है कि प्रक्रिया संचालन के क्रम में जीव में लक्ष्य, दिशा और बुद्धिमता प्रतीत होता है। उत्तरजीविता जीव का मूलभूत वृत्ति है। इसमें तीन तरह के मुख्य वृत्तियाँ होते हैं - रक्षण, भक्षण, प्रजनन। इनमें भी असंख्य प्रक्रिया और वृत्तियॉ होते रहते हैं। सभी जीव इन्ही वृत्तियों में लीन हैं। जीव वृत्तिओँ के कारण है, वृत्ति प्रक्रिया के कारण है और प्रक्रिया नादरचनाओं के कारण है। यही सृष्टि और उत्तरजीविता के रहस्य हैं।(नाद>नादरचना>प्रक्रिया>वृत्ति>वस्तु/जीव)। नाद जब तक स्मृति में नहीं छपता तब तक भौतिक और मानसिक भेद नहीं किया जा सकता है। स्मृति और नाद पराभौतिक परामानसिक है। स्मृति स्वयं को स्थाई रखने का प्रयत्न करती है, दूसरे से प्रभावित होना नहीं चाहती। इसलिए स्मृति में एक जडत्व होता है, जिसने जल्दी परिवर्तन होने नहीं देता। ऐसे स्मृतियाँ दो जन्मों के बीच सेतु बनाते है और लंबे समय तक चलते हैं। ५ नाद रचनाओं का विकासक्रम परत में व्यवस्थित होता है। आपस में निर्भर एवं सम्बंधित हो कर जीव के जीवन के लिए जितना आवश्यक है उतना बनकर स्मृति मे संचित होते है और रचना-विनास का चक्र चलता है। अनुभवकर्ता के पटलपर अनन्त संभावनाएं हैं, इसको संभावित स्मृति कहते हैं। उपर जो बताया गया है उसके अनुसार नियमित नाद जहां है उस क्षेत्रको विश्वस्मृति कहते हैं। विश्व स्मृति सम्भावित स्मृति क्षेत्र का छोटा सा भाग है और ये अस्तित्व का प्रकट रूप है। यहीं पर माया का सारा खेल चल रहा है। अनेक महास्मृति मिल के विश्वस्मृति बनता है। महास्मृति पर सारे लोक, सारे स्मृति,सारे जगत, सारे जीव आते हैं। सभी महास्मृति विश्व स्मृति में विलीन हो जाते हैं। महास्मृति भी अनेक हो सकते हैं। समुहस्मृति और नियमित/अनियमित लोक मिलकर महास्मृति बनता है। समूह स्मृति में अनयमित और नियमित लोक मिलता है। स्वप्न लोक अनियमित लोक है। यहाँ पर कोई नियम लागू नहीं होता, और कुछ भी प्रकट हो सकता है। नियमित लोक पर अनुभव अर्थपूर्ण और नियमित होता हैं, जल्दी नहीं बदलता है। ये अनुभव कर के सीखने के लिए उपयोगी है, परंतु अधिक नश्वरता है, दुख है, पीड़ा है, बंधन है। परत के ऊपरी क्षेत्रों में स्थित सूक्ष्म व्यक्तिक क्षेत्र कारण शरीर है। कारण शरीर के क्षेत्र में अनेक कारण शरीर मिल के अव्यक्तिक क्षेत्र बनाते हैं। उनके बीच का कर्मबंधन के कारण ऐसा होता है। ये मृत्यु लोक की तरह नश्वर नहीं है, जल्दी नष्ट नहीं होते, यानी की अधिक स्थायी होते हैं। सूक्ष्म लोक में अन्य अव्यक्तिक क्षेत्र मिल के समूह स्मृति बनता है। समूह स्मृति में कारण शरीर के अलावा पृथ्वी लोक जैसे नियमित लोक भी मिलते हैं। इस प्रकार संभावित क्षेत्र से पृथ्वीलोक तक का सिलसिला देखा जा सकता है। नादरचनाएँ पराभौतिक परामानसिक होने के कारण यदि कभी संपूर्ण परतीय रचना नष्ट हो भी जाए तो विश्व स्मृति मे उसका जो छाप छूट जाता है, उसी से उसका वैसा ही पुनर्संरचना होता है। अस्तित्व में अनंत संभावना है। इसका कोई सीमा नहीं, कभी अंत नहीं होता है। वृत्तियॉ आती जाती रहती हैं, प्रक्रिया चलता रहता है रचना-विनाश के क्रम चलते रहते हैं। एक जगह रुकी भी तो दूसरी जगह चलते हैं। इस क्रिया को रोका नहीं जा सकता, बदला नहीं जा सकता है। ६ कोई सीमा नहीं है तो फिर इतने परत और इतने अनुभव कैसे हो गए? वृत्तियों और संरचनाओं का समूह को चित्त कहते हैं। वृत्तियॉ आवश्यक रूप से परतों में व्यवस्थित होती हैं। सभी अनुभव (वस्तु, जीव, प्रक्रिया आदि) चीत्त में समाहित है। विश्वचित्त सभी चित्तों का समूह है, और यही प्रकट अस्तित्व है। सभी परतों में प्रक्रिया, वृत्तियॉ, इंद्रियां होते हैं। संपर्क सेतु के माध्यम से जुट के नई वृत्तियॉ, संरचनाएँ बनते हैं। ये सब विश्वस्मृति में होता है। परतीय रचना में समय और स्थान का कोई सीमा नहीं होता, विभाजन नहीं होता है, परंतु वृत्तियों के विशेषता और विकास के आधार में अधिक भिन्नता आने के कारण पहचान करना (समान रूप में देखना) कठिन हो जाने पर मनगढ़ंत वर्गीकरण किया जा सकता है। निचली परतों में जो होता है उच्ची परतो में भी वही चलता है, क्योंकि सभी परत में इन्द्रिय है और आपसी निर्भरता है। सम्बंध निकटतम में होता है। जब तक उत्तरजीविता के लिए अर्थपूर्ण होता रहता है तब तक फैलता रहेता है, और आवश्यकता के अनुसार विभक्त भी हो जाता है। निचले और ऊपरी परत में अधिक दूरी होने पर आपस में संकेत आने बंद हो जाने के अवस्था में या आवश्यक ऊर्जा कम होने के कारण निष्क्रिय होने से वृद्धि रुक जाता है, और विभक्त हो जाते हैं। जितना सूक्ष्म है उतना ही स्थाई, और जितना स्थूल है उतना ही नश्वर होता है। कई परतीय रचनाएँ आपस में जुड़ के चित्त परिवार बनते हैं। ७ कई परतीय रचनाएँ आपस में जुड़ के चित्त परिवार बनते हैं। चित्त के परतें अनेक हो सकते हैं, ज्ञानमार्ग में मुख्य रूप से दश प्रकार के व्याख्या किया गया हैः १. सम्भावित चित्त २. खानीजिक चित्त ३. वानस्पतिक चित्त ४. सरीसृप चित्त ५. स्तनपायी चित्त ६. मानव चित्त ७. बुद्धिमान चित्त ८. स्व चेतन चित्त ९. मुक्त चित्त १०. विलीन चित्त। संभावना से प्रारम्भ में खानिजिक चित्त मिलता है। यहाँ धीमी गति, एवं परिवर्तन दिखाई देता है। सरल संरचनाएं बन्ने शुरू हो जाते हैं, जैसे खनिज, तरल पदार्थ, वायु आदि निष्क्रिय पदार्थ मिलते हैं। इसके बाद सक्रिय पदार्थ दिखाई देता है, इसमें गति और क्रियाशीलता दिखाई देता है। परिवर्तनशील एवं स्वयम् संगठित है, अधिक स्थाई है, संभावना सीमित है, यात्रिक है। जैसे की बहती हुई नदी, हवाएँ, सूर्य, अग्नि, ज्वालामुखी आदि। इसके ऊपर जैविक पदार्थ मिलते हैं, ये बहुत सक्रिय और जटिल होता है, जैसे की कार्बन, रसायन, खाद्य पदार्थ, अणु वांशिक कण, रक्त, मांस, हड्डी, तेल आदि। इनमें अणुओं की लंबी श्रृंखला बनाने की योग्यता होता है। वानस्पतिक चित्त से जीवन की पहली झलक मिलता है। सरल एवं एक कोशिकीय जीव विकास शुरू होता है। स्वेत रक्त कोशिकीय जीव इस वर्ग में आते हैं। इनमें स्वयं ताप उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती है, परंतु परिधीय जानकारी के स्नायु तंत्र होता है, कर्मेन्द्रीय और नियंत्रण प्रणाली होते हैं। जीव ने जिस परत तक का विकास किया है, उन सब में उस स्तर तक के सारे परतें, वृत्तियॉ, रचनाएँ पाए जाते हैं, यानी की विकसित परत की किसी जीव में निचली परतें ग़ायब नहीं होंगे। उसके बाद बच्चों को अपना दूध पिलाने वाला जीव विकसित होता है। जाति वृत्ति, समूह वृत्ति एवं अहम् वृत्ति होती है। उत्तरजीविता के बुद्धि होता है। जैसे विकास होता जाता है वैसे उन्नत योग्यताएं बढ़ते जाते है। सुरक्षा, रचनात्मक बुद्धि, कला, भावनात्मक नियंत्रण, बुद्धि विवेक आदि गुण विकसित होते हैं। ८ सभी अनुभव अभौतिक ही है तो कैसे भौतिक प्रतीत होते हैं? चित्त के अनेक परत और चित्त परिवार ही अनुभव के रुपमें प्रतीत होते हैं, जो जगत, शरीर और मन के अनुभव के रुपमें इन्द्रीयोंद्वारा अनुभव में आते हैं। समझने के लिए सभी अनुभवको मुख्य तीन प्रकार में बांटा जा सकता है:- १. जगत का अनुभवः जगत के सारे पदार्थ, जीव, जन्तु, चराचर आदि बाहरी इन्द्रियों द्वारा पंच महाभूत भौतिक जगत का अनुभव इस प्रकार में आते हैं। इस प्रकार के अनुभव वस्तुनिष्ठ होते हैं, सभी को क़रीब क़रीब एक जैसा ही अनुभव होता है। २. शरीर का अनुभवः शरीर का अनुभव में आधा भौतिक और आधा अभौतिक अनुभव होते हैं। इस प्रकार के अनुभव व्यक्तिनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों होते हैं। ख़ासकर के आंगिक अनुभव वस्तुनिष्ठ और संवेदनात्मक अनुभव व्यक्तिनिष्ठ होते हैं। ३. मन का अनुभवः मन का अनुभव पूरी तरह से अभौतिक और व्यक्तिनिष्ठ होता है। विचार, भावना, कल्पना, इच्छा आदि सारे मानसिक अनुभव इस श्रेणी में आते हैं। अनुभव को समझने के लिए ही विभिन्न प्रकार में बांटकर के देखा जाता है, नहीं तो सारे अनुभव एक ही प्रकार के होते हैं। वस्तु, भावना और विचारों का सीधा अनुभव नहीं होता। अनुभव तनमात्राओं को होता है। भौतिक अनुभव इन्द्रियों को माध्यम से होता है और अभौतिक अनुभव इन्द्रीय जो बताते हैं वही होते हैं। मानसपटल में जो उभर गया वही जगत का अनुभव, शरीर का अनुभव, और मन का भी अनुभव होता है। इस प्रकार से सभी अनुभव अभौतिक ही होते हैं। सभी अनुभव अभौतिक है तो बाहर का अनुभव कैसे और किसका होता है यह प्रश्न भी स्वाभाविक है। जिसका अनुभव होता है वह पूरी तरह से अज्ञेय है, जो बाहर है उसका अनुभव कभी नहीं होगा, सत्य और शुन्य का अनुभव कभी नहीं होता। ब्रम्ह स्वयम् को स्वयम् का ही छाया का यानी कि मिथ्या रुपका अनुभव होता है। इसलिए अनुभव असत्य है, मिथ्याका अनुभव और मिथ्या का ही ज्ञान होता है। सत्य जानने के लिए संवेदना के परे देखना होता है। प्रकाश एवं आवृत्ति, और दृष्टिपटल का संवेदना से रंग बनते हैं, जो मन गडन्त है। वस्तुओं का रंग नहीं होता है। रूप को दिखाने के लिए सीमा रेखा का भूमिका होता है, अनियमित आकार होता तो वो वस्तु क्या है बताना कठिन हो जाता, इसलिए रूप भी भ्रम है। अपरोक्ष अनुभव ये दिखाता है की नक्कली रंग, रूप, स्वाद, गति संभव है। नादरचनाओं का भी ज्ञान नहीं होता, सैद्धांतिक है। संवेदन परिवर्तन का परिचायक है, वो परिवर्तन जीवनोपयोगी प्रारूप में गड़ दिया जाता है। सारे अनुभव इन्द्रियों से ही आता है, और इसी प्रणाली से तन्मात्राओं में बदलते हैं, इस प्रकार सारे अनुभव मिथ्या है। ९ सभी अनुभव चित्तनिर्मित है और परिवर्तनशील हैं। अनुभव चित्तनिर्मित है। इन्द्रियां नहीं होते तो अनुभव भी नहीं होता। इन्द्रियों का कथन (समझ) बाहर नहीं होता है। इन्द्रीय अधिक विश्वसनीय नहीं है, क्योंकी इन्द्रिय स्वयं मिथ्या है। उत्तरजीविता के लिए उपयोगी होता है, इसीलिए भ्रम पैदा करता है। जीव मिथ्या अनुभव में ही जीता है। जीवन जीने के लिए सत्य नहीं झूठ आवश्यक है। सभी जीवों को उनके विकासक्रम, आवश्यकता और उत्तरजीविता के अनुसार अलग अलग स्तर में मिथ्या अनुभव होते हैं। सभी अनुभव परिवर्तनशील होते हैं। जो परिवर्तित है, अनित्य है वह असत्य है। कोई अनुभव तेज़ी से बदलता है और कोई धीरे बदलता है। सभी अनुभव परिवर्तित है इसलिए ही इन्द्रियां इनकी भेद पकड़ पाता है, यानी की परिवर्तन से ही इन्द्रियॉ प्रतिक्रिया करते हैं। हमेशा यथास्थिति में परिवर्तन का पता नहीं चलता है। यथास्थिति (शून्य) मैं किस का अनुभव करें ? शून्य सदा सत्य है और शुन्य में परिवर्तन संभव नहीं है। असत्य में ही परिवर्तन संभव है और परिवर्तन में ही अनुभव संभव है। परिवर्तन भी भ्रम और मिथ्या है। १० सभी अनुभव स्मृति का ही है, स्मृति नहीं तो अनुभव नहीं होता। स्मृति में संचिति के कारण निरन्तरता होता है। स्मृति अर्धस्थायी नादरचना मात्र है। क्यूँकि सभी अनुभव पहले से ही स्मृति में संग्रहित हैं और जब अनुभव होता है तब सभी इन्द्रीयों के छोटे छोटे तन्मात्राएँ जुडकर वो वस्तु का पूर्ण अनुभव होता है। अर्धस्थायी नादरचना स्मृति है जो स्मृति में ही संचित होता है। नाद के मिट जाने पर भी जो प्रतिकृति बनके फिर से स्मृति में छपता है, इसी से स्मृति में स्थायित्व का भ्रम सृजना होता है। जो स्मृति में छपा है उसको फिर से नाद में बदला जा सकता है और इन्द्रियां द्वारा अनुभव किया जा सकता है। वो स्मरण बार बार नाद रूप में स्मृति में प्रकट होता है। अर्थपूर्ण संचय संस्कार बनकर छपता है। संस्कार कर्मेन्द्रीय मार्फत कर्म में परिवर्तन होता है। नाद को इन्द्रियों ने ग्रहण करके स्मृति में भेज देता है और स्मृति से अनुभव की रचना होते हैं। छोटा छोटा नाद स्मृति में संकलित होकर पूर्णता का अनुभव होता है। छोटे छोटे नादरचना और संबंधित संपूर्ण घटनाओं के बीच भिन्न अवस्थाओं पर भी स्मृति ने सेतु के मार्फ़त अनुभवों को निरंतरता देता है। ११ सभी वस्तु और जीव जैसे दिखते वैसे नहीं है। इन्द्रीयाँ जैसे दिखाते है वैसे दिखते हैं और इन्द्रीयाँ सत्य को नहीं पकड पते मिथ्या रुप गढकर दिखाते है। जीवों के स्तर और योग्यता के अनुसार जितना और जिस प्रकार का अनुभव आवश्यक है उतना ही अनुभव होता है। इन्द्रियों ने सत्य स्वरूप को पकड़ नहीं पाता है। ज़ो नहीं है उसका प्रतिरूप बना के विकृत रूप में दिखाई देता है। दो स्मृतियों को तुलाना करके परिवर्तन ज्ञात हो जाता है। धीरे परिवर्तन और संचय का कारण स्थायी प्रतीत होता है। इन्द्रियों ने नाद का प्ररुपण, व्यवस्थापन करता है, अनावश्यक और निरर्थक को निकाल देता हैl स्मृति में नाद का प्रारूप संचित होता है। इंद्रियों से प्रतिक्रिया करने से एक तरह के नाद में परिवर्तन होता है l स्मृति में स्थित वस्तुएँ नाद प्रसारित करती रहती है और इन्द्रियॉ नाद को पकड़ती रहती है। संवेदनद्वारा स्मृति इन्द्रियों तक आता है। नाद के द्वारा संवेदन स्मृति के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक अनुनाद और प्रवर्तन द्वारा सभी दिशाओं में प्रसारित होता है। विश्व स्मृति के नाद को छान कर सीमित करके जीव स्मृति में भेजा जाता है। यही से जीव स्मृति ने पकड़ के अपने भीतर प्रसारित करता है। प्रकाश ध्वनी वस्तुएँ सभी नाद है। विभिन्न इन्द्रियां जो पकड़ती है वह सभी नाद ही है। संवेदन समय और स्थान से परे हैं। प्रसारित हर नाद इन्द्रियॉ ग्रहण नहीं करती, जीव के आवश्यकता और उपयोगिता के अनुसार छान कर प्रारूप बदल के सीमित करती है और व्यवस्थित करती है। इन्द्रियाँ उपकरण मात्र है, अनंत प्रकार हो सकते हैं। अनेक तरह के नाद समेट कर केंद्र में भेजा जाता है। जैसे की दृष्टि, ध्वनी, स्पर्श, गंध, स्वाद आदी के अनुभव इकट्ठे होकर एक साथ होता है। इससे ही आवाज़ वस्तु क्या है, कहाँ से आवाज़, प्रकाश आदि आया है सो जानना सरल होता है। विश्व स्मृति ही प्रसार का माध्यम है । १२ सभी परत में स्मृति होती है और इन्द्रीयाँ भी सभी परत में होते हैं। इन्द्रियाँ परतों का छवि बनाकर दिखाते हैं। हर परत में अपनी इन्द्रिय होते हैं। इन इन्द्रियां परतों का छवि बनाते हैं। इन्ही काल्पनिक छवियों को शरीर कहते हैं । शरीर को विश्वस्मृति के रचना के रूप में नहीं बल्कि वस्तुओं के रूप में दिखाई देता है। परतों का छवि ही शरीर है, इसलिए परतों के इन्द्रीय शरीर के इन्द्रीय प्रतीत होते हैं। ये इंद्रियां परतों का और आस पास के वातावरण का जानकारी देते हैं, विश्व स्मृति के लिए जानकारी देते हैं। कुछ परतों के समूह से संबंधित शरीर भी होते हैं। इन्द्रियां अपने परत से संबंधित विश्व स्मृति की छवि बनाते हैं, यही छवि लोक कहलाते हैं। कुछ परतों के समूह से संबंधित लोक होते हैं। इन लोकों के बीच में कोई सीमा नहीं होता, शरीर, इन्द्रिय लोक के आवश्यकता के अनुसार बदलते रहते है। लोक विभिन्न जगत में विभक्त होते हैं। लोक के उदाहरण के रूप में मृत्युलोक और जगत के उदाहरण के रूप में ग्रह नक्षेत्र सहित का जगत को ले सकते हैं। इस प्रकार के लोक और जगत असिमीत है। अनुभव तन्मात्रा का होता है। तन्मात्रा का अनुभव संवेदना द्वारा निरंतर प्रसारित होता है। स्मृति में जो अंकित है वो समझ में नहीं आता है। अनुभव जैसे हैं, वैसे दिखने लगें तो जीवन कष्टकर होगा, और जीवन संभव नहीं होगा। इसलिए सत्य छुपाकर मिथ्या प्रारूप बना के दिखाता है जो जीवन के लिए उपयोगी हो। १३ सभी लोग अनुभव को एक जैसे दिखते हैं और सभी को एक जैसे अनुभव होता है। जागृत अवस्था के कारण व्यक्ति को जगत का अनुभव एक जैसा प्रतीत होता है। सभी को एक जैसे अनुभव इसलिए होता है, क्योंकि स्मृति का ऐसा क्षेत्र है जो कई लोग/जीव द्वारा साझा किया है। इसको सहभागी लोक कहते हैं। कर्म, कर्मफल, प्रशिक्षण और विकास के लिए सहभागी लोक उपयोगी है। जागृत अवस्था में अहम् के द्वारा अन्य परत से अपने आपको को पृथक परत के रूप में देखता है। ये एक वृत्ति है, जो कुछ परतों - शरीर और लोकों कों मैं या मेरा मानती हैं। उत्तरजीविता के लिए ऐसा करना आवश्यक है। अहम् के कारण मनुष्य अपने आप को संपूर्णता से अलग मान लेता है, अहम् के कारण ही उसके उत्तरजीविता सरल हो जाता है। अन्य रचनाएँ अपने आपको जगत का ही भाग समझते हैं। १४ सभी अनुभव परिवर्तनीय और अस्थायी हैं तो स्थायित्व क्यूँ दिखाई देता है? जो वस्तु धीरे बदलता है उसने स्मृति में स्थाई होने का भ्रम पैदा करता है। जीवन के उपयोगी वस्तु और संबंधों को स्थायी मान लिया जाता है। स्थायित्व केवल एक मान्यता मात्र है। अनुभव बदलेगा भी तो स्मृति में छाप छोड़ता है और स्थाई प्रतीत करवाता है। इसको उत्तरजीविता के लिए विसत्य के रूप में स्वीकारा जाता है। जो स्मृति में है वो मिथ्या है, छाया मात्र है। स्मृति में जो है उसको भौतिक रूप में प्रयोग में लाया नहीं जा सकता है, इसीलिए समय का अवधारणा अनुसार निश्चित समय के लिए स्थायित्व दिखाई देता है। वास्तवमें सारे अनुभव अस्थाई होते हैं। जो नहीं है उसको होने का प्रतीति ही माया है। माया को देवी यानी शक्ति का स्वरूप माना जाता है, यह अस्तित्व और अनुभवकर्ता का ही छाया स्वरूप है, एक ही है, परंतु मिथ्या है। १५ चित्त को अनुभव नहीं होता चित्त का अनुभव होता है, और चित्त का अनुभव निःसंदेह अनुभवकर्ता ही कर सकता है। अनुभव का सबसे छोटा इकाई तन्मात्रा है। ऐसे इकाई अनंत है। हर इन्द्रीय से संबंधित तन्मात्राएँ होते हैं। संवेदन तन्मात्राओं का होता है। सभी तन्मात्राएँ अनुभवकर्ता है, अस्तित्व है। सभी अनुभव केवल महास्मृति का प्रक्षेप मात्र है। एक ही स्मृति से प्रक्षेपित है तो सभी को अनुभव होनेका भ्रम होता है। जिस प्रकार स्वप्न में अन्य व्यक्ति और वस्तु का अनुभव भ्रम है उसी तरह जागृति में भी अन्य लोग नहीं है। सभी लोग मेरे ही (अनुभवकर्ता के) रूप है। अहम् सहित अन्य लोगों की अवस्था नहीं होती, अव्यवस्थाओं के साथ लोग आते जाते हैं। लोगों को नहीं लोगों का अनुभव होता है। सभी अवस्था अनुभवकर्ता के ही है। अवस्था बदलता है अनुभवकर्ता नहीं बदलता। माया अनुभव के रूप में प्रकट है, प्रकट होने वाला हर चीज़ अनुभव है। इसलिए अनुभव सगुण है। अनुभव का वास्तविक स्वरूप शून्य है, शून्य ही संपूर्ण है, इसलिए जटिल है। मिथ्या है इसलिए अस्तित्व में प्रकट होने वाला अनंत गुण दिखाया जा सकता है, ख़ाली है कुछ भी भर दिया जा सकता है। अनुभवकर्ता के मयारूप अस्तित्व है। जो देख रहा है वही दिख रहा है। अनुभवकर्ता ने स्वयं का ही अनुभव करता है। सभी ज्ञान विज्ञान के सीमा से परे हैं, न अंधकार है न प्रकाश है, केवल शून्य है। *** आभार - सद्गुरु श्री तरुण प्रधान जी, बोधि वार्ता ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम से।
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