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अध्यात्म और अनुभव
Himanshu Nautiyal
### **अध्यात्म और अनुभव: अद्वैत वेदांत का दृष्टिकोण** आज के युग में अध्यात्म को अनुभवों के आधार पर परखा जाता है। यदि किसी व्यक्ति को विशेष प्रकार के आध्यात्मिक अनुभव नहीं होते तो उसे आध्यात्मिक नहीं माना जाता। अनेक संत एवं साधक अपने ध्यान, मंत्र जाप, तपस्या आदि के अनुभवों को आध्यात्मिकता का प्रमाण मानते हैं। अनेक साधक विशेष अनुभव की खोज में या तो मार्ग से भटक जाते हैं या फिर अनेकानेक मार्गों पर जीवन भर प्रयासरत रहते हैं, यह जानते हुये कि कोई भी अनुभव सदैव नहीं रहता कुछ छण में ही परिवर्तित हो जाता है, साधक प्रत्येक साधना में प्राप्त होने वाले अनुभव को ही साधनापूर्ति मान लेता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार सभी अनुभव मानसिक ही होते हैं और इसलिए वे मिथ्या हैं। यदि सभी अनुभव मिथ्या हैं, तो उन्हें आध्यात्मिकता का प्रमाण कैसे माना जा सकता है? इस लेख में हम अद्वैत वेदांत के शास्त्रीय प्रमाणों सहित इस विषय पर गहन विचार करेंगे। ### **1. अनुभवों की प्रकृति और उनका मिथ्यात्व** अद्वैत वेदांत के अनुसार, समस्त अनुभव मन और इंद्रियों के माध्यम से होते हैं। चूॅकि मन एवं इन्द्रियॉ स्वयं माया का उत्पाद हैं, अतः इनके द्वारा होने वाले सभी अनुभव भी माया के दायरे में आते हैं। इन्द्रियॉ विकृत होने अथवा बदल जाने पर अनुभव भी बदल जाता है, तो जो अनुभव प्रतिक्षण बदल रहा है जिसकी इतनी सत्ता नहीं है कि वह कुछ छण अपरिवर्तित रह सके वह आध्यात्म का प्रमाण कैसे हो सकता है। **शंकराचार्य** विवेकचूड़ामणि में कहते हैं: "*यत् दृश्यम् तत् नश्यति*" अर्थात जो कुछ भी देखा जाता है, उसका नाश निश्चित है। यदि कोई अनुभव सत्य होता, तो वह नाशवान नहीं होता। माण्डूक्य उपनिषद् में भी कहा गया है: "*मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः*" अर्थात मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। जब तक मन की सत्ता है, तब तक अनुभव होते रहते हैं और जब मन का विलय हो जाता है, तब केवल अद्वैत सत्य रह जाता है। ### **2. अनुभवों की परीक्षा: मिथ्या अनुभवों से सत्य की खोज?** अनेक संत एवं साधक अपने अनुभवों को प्रमाण मानते हुए कहते हैं कि उन्होंने मंत्र जाप, ध्यान, योग आदि से दिव्य दर्शन, आकाशवाणी, प्रकाश आदि अनुभव किए। तो मेरा यह कहना है कि अनुभव चाहे विशिष्ठ हों अथवा सामान्य हैं तो मानसिक ही, मन ही किसी अनुभव को विशिष्ठ अथवा किसी को सामान्य श्रेणी में चिन्हित करता है, कोई भी अनुभव विशिष्ठ कैसे हो सकता है यदि वह बदल रहा है, सभी एक समान ही तो हैं, तो यदि मंत्रजाप, ध्यान, योग मात्र किसी विशिष्ट अनुभूति हेतु किया गया है तो वह सब व्यर्थ ही सिद्ध होता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, यह सभी अनुभव मानसिक प्रक्षेपण मात्र हैं। उदाहरण के लिए: - जब कोई स्वप्न में सुंदर दृश्य देखता है, तो जागने पर वह सब लुप्त हो जाता है। इसप्रकार स्वप्न में हुये सुन्दर अनुभव का क्या मोल। - जब कोई सम्मोहन (हिप्नोटिज्म) में होता है, तो उसे भी भिन्न-भिन्न अनुभव होते हैं, जो अवस्था परिवर्तन पर असत्य ही सिद्ध होते हैं । - ध्यान में गहरे जाने पर मन के संस्कारों से उत्पन्न अनुभव होते हैं, लेकिन वे भी मन की ही रचना होते हैं, यथार्थ में उनका कोई मोल नहीं । अतः किसी अनुभव को सत्य मानना केवल मन की भ्रांति है। सत्य तो वह है जो अनुभवों से परे है। ### **3. अद्वैत वेदांत में सत्य की परिभाषा** अद्वैत वेदांत के अनुसार, जो नित्य, अपरिवर्तनीय और स्वयं सिद्ध है, वही सत्य है। ब्रह्म को ही सत्य माना गया है: ****ब्रह्मसूत्र में कहा गया है: "*जन्माद्यस्य यतः*" अर्थात जिससे इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय होती है, वही ब्रह्म है। अर्थात जिस पृष्ठभूमि पर समस्त श्रृष्टि की लीला प्रतीत हो रही है वही ब्रह्म है। ### **4. अनुभवों से परे जाकर सत्य का साक्षात्कार** यदि हम सत्य की खोज अनुभवों में करेंगे, तो हमें केवल भ्रम ही प्राप्त होगा। सत्य का साक्षात्कार अनुभवों से मुक्त होकर ही संभव है। सत्य हुआ जा सकता है किन्तु अनुभवों में नहीं खोजा जा सकता। उदाहरण के लिए: - जब कोई व्यक्ति दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखता है, तो उसे लगता है कि वह प्रतिबिंब ही उसका स्वरूप है। लेकिन जब वह दर्पण को हटा देता है, तब उसे ज्ञात होता है कि उसका वास्तविक स्वरूप दर्पण से परे है। - एक व्यक्ति अंधेरे में रस्सी को साँप समझकर डर जाता है, लेकिन जब उसे प्रकाश में लाया जाता है, तब वह देखता है कि वह केवल रस्सी थी। इसी प्रकार, जब हमें ज्ञान प्राप्त होता है, तो मिथ्या अनुभव स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं। ### **5. अनुभवों के प्रति आसक्ति से मुक्त होने का मार्ग** शास्त्रों के अनुसार, यदि कोई साधक अनुभवों को सत्य मानकर उन पर आश्रित हो जाता है, तो वह मोक्ष की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। अनुभवों के प्रति आसक्ति से मुक्त होने के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं: 1. **श्रवण (सत्य का अध्ययन)**: वेदांत के सिद्धांतों को समझने के लिए उपनिषदों, गीता और शंकराचार्य की रचनाओं का अध्ययन करें। 2. **मनन (चिंतन)**: सत्य और मिथ्या की सही समझ के लिए अपने अनुभवों का विवेचन करें और शास्त्रों की रोशनी में उनका परीक्षण करें। 3. **निदिध्यासन (ध्यान)**: केवल साक्षीभाव में स्थित रहकर समस्त अनुभवों को असंग भाव से देखें। 4. **वैराग्य**: मिथ्या अनुभवों से विरक्त होकर कर्ता एवं भोक्ता भाव को त्याग दें। ### **6. निष्कर्ष** किसी भी अनुभव को आध्यात्मिकता का प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि वे सभी मानसिक ही होते हैं। सत्य का अनुभव करने के लिए अनुभवों से परे जाना आवश्यक है। आत्मा को अनुभव की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वह स्वयं साक्षी है। उसे केवल "ज्ञान" के द्वारा ही जाना जाता है। अतः साधकों को अनुभवों से परे जाकर, ज्ञानमार्ग का अनुसरण करना चाहिए और अनुभवों को सत्य मानने की भ्रांति का नाश करना चाहिए। केवल ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। *तस्मात् आत्मा ज्ञेयः, न तु अनुभवाः!*
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