Wise Words
मोक्ष/निब्बाण/विलय व विलय-भय
आदित्य मिश्रा
अद्वैत वासना कृपा से जागती है! भगवान दत्तात्रेय के इस कथन में वासना से तात्पर्य कामना है, लेकिन साथ में वे कृपा शब्द भी जोडते हैं अर्थात कामना जगाई नहीं जाती, स्वतः जागती है। जगत में दुःख है, यह देखकर या कोई उस दुःख को भोग कर, जब आध्यात्म की ओर उन्मुख होता है, तो ऐसे आध्यात्मिक साधक को जिज्ञासु या मुमुक्षु कहा जाता है क्योंकि उसमें मोक्ष की कामना होती है। तो! मोक्ष, निर्वाण और विलय ये जो शब्द प्रचलन में हैं, पहले इन शब्दों में निहित भावार्थ को संक्षेप में समझ लेते हैं। मोक्ष : सामान्यतया आवागमन के चक्र (जन्म मृत्यु) से छूट जाने को मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष का शाब्दिक अर्थ है- मोचन या छूट जाना। निब्बाण : निब्बाण, मोक्ष या निर्वाण जैसा ही शब्द है, जो पाली भाषा से है और जिसका प्रयोग भगवान बुद्ध की शिक्षाओं में हुआ है। निब्बाण का अर्थ है -बुझ जाना। यह बुझ जाना क्या है? मेरा न होना। निब्बाण का शाब्दिक अर्थ बिना व्यापार, बिना लेन -देन के हो जाना भी है अर्थात कुछ भी संग्रह न करना। क्या संग्रह न करना? स्मृति संग्रह न करना, स्मृति ही व्यापार है। जितना उत्पादित हो उतना व्यय हो जाए तो संग्रह शून्यता है। विलय : सीमित स्मृति अर्थात व्यैक्तिक स्मृति का अव्यैक्तिक स्मृति हो जाना विलय है। मोक्ष कृपा या कामना? कामना मेरी है तो मोक्ष मेरी कामना अनुसार होगा क्योंकि व्यक्ति जो भी होता है, अपनी इच्छा से होता है। व्यक्ति में मुक्ति की कामना भिन्न हो सकती है अतः मोक्ष भी सापेक्षिक होगा। जैसे : 1. अज्ञान से मुक्ति : ऐसा साधक केवल जिज्ञासु है, अध्येता है, उसे अज्ञान से मुक्ति चाहिए ज्ञान से नहीं। 2. दुःख से मुक्ति : ऐसा साधक संसार में पीडित है संसार से नहीं, उसे दुःख से मुक्ति चाहिए सुख से नहीं। 3. मानव जीवन से मुक्ति : ऐसा साधक मानव जीवन से मुक्ति चाहता है, उसे मानव योनि से मुक्ति चाहिए ऊपरी योनियों से नहीं। 4. जन्म मरण से मुक्ति : ऐसा साधक जन्म मरण से मुक्ति चाहता है, उसे जन्म मृत्यु से मुक्ति चाहिए केंद्र (अहं) से नहीं। 5. केंद्र (अहं) से मुक्ति : ऐसा साधक विलय चाहता है, उसे स्मृति से, माया से मुक्ति चाहिए ब्रह्म से नहीं। मोक्ष अवधारणा है, कैसे? मोक्ष की अवधारणा केवल मनुष्य पर लागू होती है। जीव के विकासक्रम में उत्पन्न अवरोध से ही मोक्ष की अवधारणा का जन्म होता है। प्रकृति में मनुष्य के अलावा अन्य सभी जीवों का विकास स्वतः हो रहा है। उनमें अबोधता है, वे प्राकृतिक इच्छा से संचालित हो रहे हैं, न कि अपनी कामना से। उनमें कर्ताभाव नहीं है, कर्ताभाव न होने से कर्मों का संचय नहीं है, कर्म संचित न हों तो बंधन और मोक्ष की बात ही व्यर्थ हो जाती है। बंधन अर्थात क्या? सीमायें ही बंधन हैं। अस्तित्व में कोई सीमाएं नहीं हैं, सीमाएं सदैव आभासीय होती हैं। मैं कुछ हूं! ऐसा मानना व जानना सीमाएं हैं। अहं स्मृति में चलने वाली एक वृत्ति है जो सीमित स्मृति को मेरा कहती है। मनुष्य में बुद्धि है, बुद्धि के कारण वह अपना संसार रचता है, प्राकृतिक इच्छाओं को मेरी इच्छाएं कहता है और उनकी पूर्ति अपनी इच्छानुसार करता है। इस कर्ताभाव से ही कर्म संचित होते हैं। इन्ही संचित कर्मों का एक छोटा भाग अर्थात प्रारब्ध लेकर मनुष्य आता है और जितना व्यय नहीं होता उससे ज्यादा उत्पादित कर साथ ले जाता है। यह स्मृति संग्रह ही प्राकृतिक विकासक्रम में अवरोध है, जिसे मनुष्य लांघना चाहता है। ज्ञान, मोक्ष और मुमुक्षु? साधक को जब यह ज्ञात होता है, कि जगत मिथ्या है, नश्वर है, माया है। जगत में द्वैत है, परिवर्तन है अतः सुख- दुःख है किंतु जो सुख -दुःख में है वह वो नहीं, जीव है। जीव मिथ्या है, वो सत्य या तत्व है, जीव के सुख दुःख का साक्षी है। केवल साक्षीभाव में रह जीव से निर्लिप्त रहना है, तो! आध्यात्म व मोक्ष की बात यहीं समाप्त हो जाती है। किंतु! साक्षी तो सदा मुक्त है। मोक्ष हेतु साक्षी नहीं, जीव आया था, जीव अर्थात शरीर व मन। शरीर की भी एक निश्चित आयु है उसे छूट ही जाना है, तो! मोक्ष की कामना मन में होती है। मन ही अहं है, उसे ही मोक्ष चाहिए था। मन ने ही स्वयं को पकड रखा था, वही अब अपनी मिथ्या जान भयग्रस्त भी होता है। विलय- भय अर्थात क्या? विलय, "जानने का अंत" तो नहीं है, मिट जाना तो नहीं है! साधक इस भ्रम में पड भयभीत होता है क्योंकि मन व्यैक्तिकता को बनाए रखना चाहता है। विलय! व्यैक्तिक स्मृति का अव्यैक्तिक हो जाना है, अंत विभाजन का होता है। वास्तविक जानना चेतना का अविभाजित होना है, यही आत्मबोध है, जागृति है। विलय उस बाती का बुझ जाना है जो शरीर रूपी मिट्टी के दिए में प्रकाशित होकर स्वयं को दिया कहती है। तेल रूपी स्मृति संग्रह के समाप्त होने से बाती बुझती है अग्नि नहीं। उपस्थिति अनुभवक्रिया है, निर्विकल्पता है, जागृति है (ज्ञानं जागृति)। मेरी उपस्थिति साक्षीभाव है, सविकल्पता है, स्वप्नवत जानना है, (स्वप्नो विकल्प:)। मन की उपस्थिति आभास है, निद्रा है, (माया सौषुप्तम)। तो ! निद्रा ही जीव का बंधन है और जागृति ही उसका मोक्ष। उक्त सूत्र भगवान शिव के हैं जो साधक के जीवन में प्रमाणित और सत्यापित होते हैं। भय का समाधान क्या है? भय का आधार भी कामना है। श्रद्धा ही भय का समाधान है, श्रद्धा और समर्पण न हो तो भय होगा। बुद्धि के द्वारा व्यक्ति की मिथ्या और बुद्धि की सीमा का पता चल जाता है। अज्ञेयता की स्थिति में, बुद्धि के समर्पण के साथ, श्रद्धा का उदय होता है। यह श्रद्धा गुरु के प्रति हो, इष्ट के प्रति हो या अस्तित्व के प्रति, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है! अहं का तिरोहित हो जाना, मेरा न होना ही समर्पण है और मेरे न होने की परिणति प्रेम है। स्वयं को जान लेना ही मुक्ति है। मोक्ष! सीमाओं से परे हो जाना है, विस्तृत हो अनंत हो जाना है और मैं ही सीमा है, सीमा ही बंधन है। तो! यदि मैं स्वयं को बचाना चाहता हूं तो मैं ही तो अवरोध हूं। मेरी कामना ही तो मुझे सीमित कर रही है, कामना जैसी भी हो, उससे किसी सीमा का ही निर्धारण होता है। मैं नहीं तो मेरी कामना नहीं। कामना नहीं! तो स्मृति संग्रह नहीं। अब स्वतः ठहराव है, स्वतः गति है। क्योंकि जो ठहरा है वह भी अस्तित्व है और जो गतिमान है वह भी अस्तित्व है। आप नहीं हैं तो आप ही सब कुछ हैं, अब किससे छूटिएगा?
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