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आवेग नियन्त्रण
जानकी
**परिभाषा** आवेग किसी विषय पर चित्तका एक शीघ्र प्रतिक्रिया और वासना का गतिशील उद्वेग है। ये चित्त का एक गतिविधि है जिसमें जीव का आनुवंशिक एवं अर्जित व्यवहारों का मिश्रण होता हैं, क्रिया करने के लिए एक शक्तिशाली उत्प्रेरणा पैदा करता है। आवेग सामान्य व्यक्ति के नियंत्रण से परे होता है, आवेग ही चित्त पर नियंत्रण कर लेता है, आवेगों में व्यक्ति बिना सोचे समझे क्रिया/प्रतिक्रिया करता है, और क्रिया होने के पश्चात् ही उसके बारे में अवगत होता है। जब तक व्यक्ति आवेग के चंगुल मे रहता है, अतार्किक सोच विचार मान्यताओं को पकड़ के रखता है और इन्हीं से आवेग को सही ठहराने और पुष्टि करने का प्रयास करता है। **आवेग के लक्षण** किसी विषय पर व्यक्ति का प्रतिक्रिया, व्यवहार और शारीरिक गतिविधियों को देख कर आवेगी अवस्था को पहचाना जाता है, ऐसे कुछ लक्षण इस प्रकार हैः * आवेग क्रोध को बढ़ाता है। चित्त बेचैन दुःखी और भ्रम में रहता है। * शारिरीक गतिविधि एवं स्वास/प्रस्वास क्रिया बदल जाता है। * व्यक्ति परिस्थितियों से प्रतिवाद के लिए तैयार हो जाता है। * चित्त अपनी तार्किक क्षमता खो देता है, कुछ भी स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता है, व्यक्ति वही देखता और सुनता है जो आवेग उसे देखने और सुनने के लिए प्रेरित करतें हैं। * आवेग छोटे छोटे घटनाओं पर भी बार-बार घटित होता रहता है। * आवेग में व्यक्ति उस आवेगी भावनाओं को पुष्टि करने वाले विचारों को और मजबूत एवं कठोर बनाता जाता है। * आवेगी व्यक्ति हमेशा निरर्थक विषयों में व्यस्त रहता है। * विषयों को गम्भिरतापूर्वक और विश्लेषणात्मक रुपसे नहीं देख सकता, सतही होता है। **आवेगों पर नियन्त्रण** तत्काल या अल्पकाल के लिए व्यक्ति उस आवेगपूर्ण कार्य से क्षणिक सन्तुष्टि या तृप्ति महशूस कर सकता है, लेकिन दीर्घकाल में आवेगपूर्ण कार्य का परिणाम अधिकतर हानिकारक ही होते हैं। व्यक्ति बाद में पश्चाताप करता है। आवेग चित्त और इंद्रियों को वश में कर लेता है। शरीर, मन और वाणी के द्वारा क्रिया/प्रतिक्रिया करने के लिए विवश करता है, परिणाम स्वरुप ग़लत निर्णय और अनावश्यक कार्य भी हो सकता है। आवेगों पर नियन्त्रण पाने के लिए कुछ उपाय इस प्रकार हैं: *१. आवेगों का आत्मनिरीक्षण करना* आवेग को रोकने की विधि उसका निरीक्षण करना है। कैसे आवेग उठता है? क्या वो आवश्यक है या नहीं? ये क्षणिक प्रभावी है या दीर्घकाल के लिए हानी पहुँचाता है? इन प्रश्नो पर विचार करके आवेग और उस पर होनेवाले क्रियाओं को पूर्व निरीक्षण करना चाहिए। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को जागरूक और दृढ़ संकल्पित रहना चाहिए। जब व्यक्ति जागरूक होता है, तो क्रिया में आवेग को पहचानकर पकड़ सकता है; इसका तार्किक रूप से विश्लेषण कर सकता है, और चाहे तो इसे रोक सकता है। ऐसा करने से भावनाओं के प्रति जागरूक होने में भी मदद मिलता है। *२. आवेग को महत्वहिन वर्ग में सुचीबद्ध कर देना* आवेग एक चित्तवृत्ति है, चित्त में चलता रहता है। उसको व्यक्ति किस प्रकार ग्रहण करता है? ये उस व्यक्ति का स्वभाव पर निर्भर करता है। व्यक्ति प्रायः किसी सांसारिक वस्तु की चाहत, आवश्यकता या किसी बहुत रुचिपूर्ण या अरुचिकर विषय पर बातचीत करते समय आवेग में आता है। आवेग पर नियन्त्रण पाने के लिए किस किस विषय पर कैसे और कितने आवेग उठते हैं इनको औचित्यहिनता के सूची में सूचीबद्ध करके लिख लेने से अगली बार आवेग कुछ दुर्बल एवं धीमा होता है, क्योंकि यहाँ आवेगों के पास औचित्य का समर्थन नहीं होता, चित्त में इसके लिए उत्तरदायी संरचनाएं भी दुर्बल हो जाते हैं। जब आवेग को महत्व नहीं दिया जाता और इसका औचित्य सिद्ध नही होता तो आवेग स्वयं ही निस्तेज हो जाता है। *३. दृढता के साथ नियंत्रण का अभ्यास करनाः* जब कोई आवेग बार-बार आता है और हानिकारक सिद्ध हुआ है तो दृढ एवं सचेत रूप से आवेगी कार्य को मना करना चाहिए। विगत में हुए कर्यों का गलत परिणाम से शिक्षा लेकर वो गलती फिर से दोहराने का मूर्खतापूर्ण विचार और गलत कार्यों को त्याग देना चाहिए। ऐसा करने से धीरे-धीरे चित्त प्रशिक्षित होता है और आवेग खत्म होने लगता है। *४. सकारात्मक पुष्टिकरण या सही विकल्प को महत्व देनाः* अस्थिर और आवेगी व्यक्ति जब सामान्य अवस्था में अपना आवेगी स्वभाव और इसका नतीजा के बारे में आत्मनिरीक्षण करता है तो जिस आवेग के कारण उसको हानिकारक परिणाम मिला है उस पर और जो अनावश्यक आवेग थे उनपर पश्चाताप करता है। पश्ताताप के भाव में जो आवेगी कार्य था उसके विपरित सही कर्यका कल्पना भी करता है। उदाहरण के लिए किसी को मसालेदार खाना बहुत पसंद है लेकिन इसके कारण उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, अब क्षणभर के लिए ही सही वो मन पसंद अस्वास्थ्यकर खाना के बदले दूसरा विकल्प (स्वास्थ्यकर खाना) खानेका प्रण करता है। ये भाव भी एक विशेष आवेग के साथ उठता है और अस्वास्थ्यकर खाना खाने का विरोध करता है, यानी की स्वस्थकर खाना का विकल्प चुनता है। हर बार खाने के समय में उस विकल्प के प्रति जागरूक हो जाता है और हानिकारक आवेगों को वहीं रोक सकता है। सकारात्मक पुष्टिकरण आवेग नियन्त्रण के लिए एक बहुत शक्तिशाली उपाय है। **सार** आवेग संयम और नियंत्रित व्यवहार का बाधक है। आवेग के अवस्था में व्यक्ति द्वारा सोच विचारपूर्ण और योजनाबद्ध कार्य नहीं हो सकता। तत्काल के घटना और वासनाओं के प्रति मन में जो विचार आता है बिना सोचे समझे उस पर कार्य करता है तो ऐसे कार्य का परिणाम अधिकतर पश्चाताप युक्त ही होते हैं। आवेग में संयम, धैर्यता, नियंत्रण, शांति जैसे गुणों का अभाव होता है। आवेग व्यक्ति का आदत और आचरण बन जाता है, जिसका फल स्वरूप व्यक्ति का सारा जीवन कष्टपूर्ण और निरर्थक होकर गुज़र जाता है। कर्मचक्र को सही दिशा देने के लिए, चित्त यानि मन को नियंत्रण कर के सांसारिक और आध्यात्मिक सफलता हासिल करने के लिए आवेगों पर नियंत्रण पाना और आवेग को सही दिशा देना आवश्यक है। आवेग हमेशा हानिकारक ही नहीं होता। जब आवेग सचेतनायुक्त, सही कार्य के लिए और सही दिशा में हो तो ये शीघ्र लक्ष्य प्राप्ति में सहायक भी बन सकता है। *** श्रोत सामग्री १. विशुद्ध अनुभूतियाँ- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान २. ज्ञानरत्न शृंखला- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान ३ बोधिवार्ता सत्संग शृंखला- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान
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