Wise Words
गुरु! है या नहीं?
आदित्य मिश्रा
कोई कहता है, 'गुरु बिन ज्ञान न होय', तो कोई 'गुरु: साक्षात् परब्रह्म' कह जाता है। वहीं कोई गुरु को नकार भी देता है। ऐसा क्यों? तो पहले नकार के कारणों को समझते हैं। (1) कालचक्र के परिणामस्वरूप जब योग्य गुरुओं की संख्या नगण्य रह जाती है, अयोग्य व ढोंगी गुरुओं की संख्या बढ जाती है, तब सही मार्गदर्शन के बजाय शिष्य की श्रद्धा व विश्वास का दोहन होता है। इससे गुरु के प्रति धारणा बदलती है। (2) कुछ महापुरुष स्वतः ही सहज स्थिति में स्थित हुए क्योंकि वे जन्म से ही, मानवचेतना के पूर्ण चेतन भाग से संबद्ध थे अर्थात गुरुतत्व से संबद्ध थे, इसलिए गुरुव्यक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगा। (3) अद्वैत है, दूसरा है नहीं तो आत्मबोध के उपरांत शिष्य -गुरु का भेद ही समाप्त हो जाता है। तो क्या गुरु है? आप हैं! तो है, अन्यथा नहीं है। उदाहरणस्वरूप पोखर है, तो नदी भी है क्योंकि नदी ही उसे सागर तक बहाएगी। मूलतः सब जल ही है। जब कभी कृपा वर्षा होती है तब पोखर का बंध (अहं) तडकता है, वह नदी से मिलता उसमें विसर्जित होता है और फिर सागर की ओर स्वतः गति होती है क्योंकि वह नहीं बचता, वही तो अवरोध था क्योंकि सीमाओं में कैद था। अब कोई कहेगा कि फिर कुछ पोखर अर्थात महापुरुष, गुरु अर्थात नदी की सहायता के बिना भी सागर रूपी अस्तित्व तक कैसे पहुंच गए? तो! ऐसे अल्प, धरातल के पोखर नहीं शिखरों से बहने वाले नद होते हैं, उनमें बंध नहीं गति होती है, वो सीमित जल नहीं जलराशि होते हैं, जो उन्मुक्त बहते और संग पोखरों व छोटे नदों को बहाते भी हैं। क्या गुरु की भूमिका है? आप जब आध्यात्म में आए तब आपने जाना की मैं नहीं, ब्रह्म है। तो क्या आध्यात्म में आने से पहले आप ब्रह्म नहीं थे, थे न। इससे यही स्थापित होता है कि सब कुछ सदैव ब्रह्म ही है, कुछ अन्य है ही नहीं तो यहीं समस्त विशेषणों की बात समाप्त हो जाती है और इसी के साथ संसार- आध्यात्म, दर्शन की बात भी समाप्त हो जाती है किंतु व्यवहार में ऐसा नहीं है। ब्रह्म है तो ब्रह्म की लीला भी है, दोनो भिन्न नहीं हैं। लीला रूपी नृत्य नर्तक में ही है। ब्रह्म अपनी ही लीला में भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में है। ब्रह्म यानि आप इतने अभिनय पारंगत हैं कि भूमिका में ऐसे खो जाते हैं, कि भूमिका को सच मानने लगते हैं। इसी लीला में एक भूमिका गुरु की भी है, और यह भूमिका ही 'गुरु' को आधार देती है। भूमिकाएं क्यों हैं? जीवन में विकासक्रम है यदि विकसित से, अविकसित या अल्प विकसित की सहायता नहीं होगी तो उसका जीवन कष्ट व पीडा में ही रहेगा या नष्ट हो जाएगा। प्राकृतिक नियमों को आधार मानने वाले यह कह सकते हैं कि समस्त भूमिकाएं मानव बुद्धि तय करती है। तो प्रश्न उपस्थित होता है, कि क्या बुद्धि प्रकृति के अन्तर्गत नहीं है? प्रकृति में सभी जीवों में बुद्धि है मनुष्य में कुछ ज्यादा विकसित है। प्रकृति में भूमिकाएं स्पष्टतः देखी जा सकती हैं। क्या एक चिडिया की, चूजे के प्रति भूमिका स्पष्ट नहीं है? है न! तो फिर ऐसी ही भूमिकाएं मानव में भी हैं। यदि प्रकृति में माता पिता की भूमिका है, तो फिर गुरु की भी भूमिका है, क्योंकि माता-पिता भी प्राथमिक गुरु ही होते हैं। मेरा गुरु कौन है? जब भी आप किसी के सम्मोहन में होते हैं, किसी का प्रभाव ग्रहण कर रहे होते हैं, चाहे वह जीवित हो या नहीं, वह स्वयं को आपका गुरु कह रहा हो या नहीं, या आप उसे अपना गुरु मान रहे हों या नहीं, वह आपका गुरु ही होता है। व्यक्ति का मनोशरीर यंत्र रेडियो की तरह मानवचेतना (विश्वचित्त) के, जिस भाग के प्रभाव में होता है, वही व्यक्त होता है। जब वह मानवचेतना के कम चेतन भाग का प्रभाव ग्रहण करता है, तब अज्ञान प्रकट होता है और जब पूर्ण चेतन भाग का प्रभाव ग्रहण करता है तब ज्ञान प्रकट होता है, वही गुरु, ज्ञानी या महापुरुष होता है। आपका वास्तविक गुरु वह होता है, जो आपका दायित्व लेता है और बदले में आपसे कुछ नहीं चाहता सिवाय श्रद्धा व प्रेम के। क्या गुरुव्यक्ति नहीं, गुरुतत्व है? दोनो एक साथ हैं, गुरुव्यक्ति नहीं है तो गुरुतत्व भी नहीं है। भौतिक में पराभौतिक गुरुतत्व प्रकट होता है, गुरुतत्व साधक में सीधे भी प्रकट हो सकता है और गुरुव्यक्ति के माध्यम से भी। यदि बल्ब नकारा जाएगा तो प्रकाश का भी नकार स्वतः हो जाएगा, प्रकाश हेतु विद्युत बल्ब संयोग आवश्यक है। व्यक्ति नहीं है, मनोशरीर यंत्र है, यह बात तो अध्यात्म में आये को पहले दिन ही स्पष्ट हो जाती है लेकिन व्यवहार में प्रभाव ग्रहण और उत्पन्न करने के लिए क्या शरीर की भूमिका को नकारा जा सकता है? जो महापुरुष कभी शरीर में थे, जैसे- कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर, ओशो आदि, उनकी वाणी को जब हम उनके व्यक्तित्व और जीवन से जोडते हैं, तब ही प्रभाव उत्पन्न होता है। भौतिक में भौतिक ही ज्यादा कारगर होता है। क्या जीवित गुरु आवश्यक नहीं है? एक पोखर को बहने के लिए जीवंत नदी की आवश्यकता होती है मृत नदी की नहीं। मृत नदी में बहाव क्षेत्र तो निर्मित है लेकिन बहाव नहीं है और बिना बहाव के पोखर का सीमित जल, मृत या सूखे बहाव क्षेत्र से सागर तक नहीं पहुंच सकता। अतः जीवित गुरु ही महत्वपूर्ण है। सभी महापुरुष, सभी शास्त्र एक ही मूल बात को अलग-अलग ढंग से दोहराते पाए जाते हैं, परिवर्तन निरंतर है तो कालांतर में जन भाषा परिवर्तित होती है, शब्दों के अधिकारी परिवर्तित होते हैं, शब्दाशय भ्रष्ट कर दिये जाते हैं। इसी लिए जीवित गुरु जोर देकर जिज्ञासु से कहता है, मृत इतिहास की ओर नहीं, मेरी ओर देखो, मुझे सुनो। इस अधिकार में अहं नहीं, शिष्य का कल्याण निहित होता है। गुरु सच्चा है! जांचे कैसे, खोजें कैसे? शिष्य गुरु को नहीं खोज सकता, गुरु शिष्य को खोज लेता है। जैसी आपकी प्यास होगी वैसा आपका गुरु होगा। जब आप अपने आपा को खोने के लिए तैयार होते हैं तो गुरु स्वतः उपस्थित हो जाता है। तो गुरु को नहीं स्वयं को जांचें। गुरु एक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत भूले की घरवापसी होती है, आध्यात्म का मूल है क्या? अहं नाश। तो जिस प्रकार पोखर की नदी में विलय से, सहज घरवापसी होती है, उसी प्रकार गुरु के समक्ष समर्पण से शिष्य के अहं का नाश होता है। समस्त प्रक्रियाएं माया में हैं, प्रकृति में हैं जो कि प्रकट तथ्य हैं, अद्वैत स्तर पर कोई प्रक्रिया नहीं है, पोखर जल भी धरती के आंतरिक जल से अर्थात सागर से मिला हुआ ही है। अस्तित्व में जैसे ही आप "नहीं है" कहते हैं, तत्क्षण प्रमाणित होता है कि कुछ है। अस्तित्व अज्ञेय है, यदि उसमें सब है अर्थात अनंत संभावनाएं हैं तो कुछ नकारना, उसका अधूरा स्वीकार होता है। यहां बुद्धि किसी पक्ष में निर्णय दे रही होती है। किसी भी प्रकार का सम्मोहन माया है और सर्वस्वीकार अस्तित्व। तो गुरु है भी और नहीं भी है।
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