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आत्मसंवाद
तरुण प्रधान
## आत्मसंवाद भाग - १ #### याचना *नमस्ते गुरूजी। क्या मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछ सकती हूँ??* नमस्ते!! आईये, आईये , आपका स्वागत है। ज़रूर , यही तो मेरा काम है। *क्या खाना पीना, कमाना, सम्बन्ध, बुढ़ापा और मृत्यु , क्या यही जीवन है? क्या ये सब, ये सब, कुछ अर्थहीन नहीं? ज़रा से सुख के लिए, इतना संघर्ष, जो कि जाने ही वाला है, क्यों? मैं आज तक समझ नहीं पायी।* बहुत ख़ुशी हुई ये देखकर कि आपकी आखें आधी खुल गयी हैं। अब प्रगति होगी। देखिये, बहुत से लोग तो इतना भी नहीं पूछते , वो तो बस, वो तो बस जी रहें हैं , बेहोश से। *आखें आधी खुल गयी हैं? मतलब? मैं समझी नहीं !* जो आपका अनुभव है, उसपर प्रश्नचिन्ह लगाना, बुद्धिमानी है। ये प्रश्न आखें खोलने वाला है। है न ? वैसे तो सभी का अपना अपना मानना है। जीवन कैसा हो, ये क्यों हो, वो क्यों हो लेकिन जो इस अंधेरे में खुश है, वो यही रह जाते हैं, जो इस प्रश्न पर सोचता है, वो आगे बढ़ सकता है। वो अब अपनी प्रगति कर पायेगा, क्योंकि इस प्रश्न में एक असंतुष्टि है , जो जीवन के अर्थहीन होने कारण है। केवल जीवित रहना जीवन नहीं, ये तो आप को भी पता होगा ? *तो फिर, जीवन का अर्थ क्या है? और मुझे ये कौन बताएगा? कैसे जाने ये सब?* अर्थ तो होता नहीं है, देना पडता है , और ये आपको स्वयं करना है। क्योंकि अगर कोई और आपके जीवन का अर्थ तय करता है, तो वो आपका जीवन कैसे हुआ? अपने जीवन का उद्देश्य सभी अपनी अपनी समझ, बुद्धि या पसंद से चुनते हैं। आप भी चुन लीजिये जो आपको सबसे अच्छा लगे। शायद इस समय जो आपका जीवन है, हो सकता है वो आपकी पसंद का न हो, इसलिए तो ये प्रश्न आया। *सच कहा गुरूजी, पर आप ही बता दीजिये कि ये अर्थ, ये उद्देश्य कैसा होना चाहिए ? हो सकता है, मैं कुछ गलत चुन लूँ , और बाद में पछताना पडे। मैं तो कुछ जानती नहीं।* हाँ, जानने से ही शुरू करना चाहिए। मैं कुछ संकेत भर दे सकता हूँ। सभी बडे लोगों ने, महापुरुषों ने यही कहा है कि जब तक जीवन का उद्देश्य सांसारिक है, जैसा कि आपने देखा, उसमे कोई संतुष्टि नहीं, कोई सुख नहीं। अर्थहीन ही रहेगा, चाहे जो कर लीजिये। और, मेरा भी यही अनुभव है। वो अर्थ, वो उद्देश्य जो केवल उत्तरजीविता नहीं, केवल संसार नहीं, वो आध्यात्मिक लक्ष्य कहलाता है। यही हमें मनुष्यता के पार ले जाता है। बहुत से ज्ञानीजन तो यही कहेंगे, कि आप का जन्म ही इसी उद्देश्य के लिए हुआ है। पर शायद इस संसार के चक्कर में आप भूल गए हैं कि आप यहाँ किसलिए आएं हैं। बडी विचित्र बात है - मनुष्य जन्म का लक्ष्य है मनुष्य जीवन से मुक्ति ! लेकिन ध्यान रहे, ये भी आपको ही तय करना है, किसी और को नहीं। *अध्यात्म तो बहुत बडी चीज़ है। कैसे होगा? इसमें तो घर से दूर रहना पडेगा न? हिमालय मैं अकेले कैसे ? इतना सब करने में तो सारा जीवन बीत जायेगा।* अरे नहीं। अध्यात्म का मतलब है स्वयं को जानना। जो स्वयं को जान जाता है, वो सबकुछ जान जाता है। आप तो यहीं हैं, इसी समय हैं, फिर कहाँ जाना है ? फिर कितना समय लगेगा? बताईये। इसके बाद न कुछ करना है, न कहीं जाना होगा। यहाँ संघर्ष का अंत है , यहाँ उद्देश्य पूरा होता है। *आपने तो मेरी सारी कठिनाई दूर कर दी। मैं यही करना चाहती थी, बस जानती नहीं थी। गुरूजी मैं तैयार हूँ , कृपा करें।* शिष्य तैयार है, तो गुरु भी तैयार है। अब सब आसान है। कठिनाई मुझ तक आने में थी। अब बहुत आसान है। आपको अपना लक्ष्य मिल ही जायेगा। इससे अच्छा लक्ष्य कुछ नहीं, इससे बडा लक्ष्य कुछ नहीं। *** ## आत्मसंवाद भाग - २ #### ज्ञान साधन *नमस्ते गुरूजी। मैं माफ़ी चाहती हूँ, देर हो गई। मैं अध्यात्म की कोई अच्छी किताब ढूंढ़ने गई थी। पर कुछ समझ नहीं आया। क्या आप कोई अच्छी किताब सुझा सकते हैं? और आज आप कौन सी किताब से पढ़ाएंगे?* क्या आपको मीठा पसंद है? *हाँ। लेकिन। लेकिन अभी?* आपको कौन सी किताब पढकर पता चला कि शक़्कर मीठी होती है? *गुरूजी , आप तो मेरी परीक्षा ले रहें हैं। वो तो शक्कर खाकर ही पता चल जाता है। किताब से कैसे?* जिस तरह आप कोई किताब पढकर नहीं जान सकते कि शक़्कर मीठी होती है वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान किताब पढकर नहीं होता। जिस तरह मीठा स्वाद क्या है पढकर या सुनकर नहीं जाना जा सकता, मैं क्या हूँ पढकर या सुनकर नहीं जान सकते। हाँ, एक बार स्वाद लेने पर, आप जब भी शक़्कर के बारे में पढेंगे, सुनेंगे, तो तुरंत समझ जायेंगे। स्वाद के अनुभव के बिना बस कोरे शब्द हैं। स्वयं को जानना अनुभव से ही होगा, हाँ, बाद में आप जितना चाहे पढ सकते हैं। पर मीठा खाने में जो मज़ा है, उसके बारे में पढने में कहाँ? क्या मैंने सही कहा? *बिल्कुल सही। मुझे तो पता ही नहीं था ये सब।* बडी विचित्र बात है, लोग शब्दों को ही ज्ञान मान लेते हैं। ये उनके साथ होता है जिनको ये सब बताने वाला कोई नहीं, कोई गुरु नहीं। चलिए कोई बात नहीं, मैं आपको बताता हूँ। *जी गुरूजी।* ज्ञान याने जानना। पहली बात, ये अपने स्वयं के अनुभव से ही होगा। ये बहुत ज़रूरी बात है। *हाँ, मैं लिख लेती हूँ।* सुने-पढे शब्द सूचना देते हैं। जिसका मतलब है इशारा करना। आपके अनुभव की ओर। लेकिन सूचना ज्ञान नहीं। गलत भी हो सकती है। ये भी आपका अनुभव होगा? *हाँ। आजकल तो ऐसा ही ज़्यादा होता है। हमें बहुत सावधान रहना पडता है।* आपके घर की शक़्कर मीठी है, हैं न? और मेरे घर की ? *शक़्कर तो मीठी ही होती है किसी के भी घर में हो।* बहुत अच्छा जवाब है। लेकिन बिना खाये आपने कैसे जाना? *अरे। इतनी समझ तो सबमे होती है। बिना खाये भी ये बात जान सकते हैं। यहाँ बैठे बैठे।* हाँ जी। इस योग्यता को हम कहते हैं - तर्क। यह बुद्धि की एक योग्यता है। और इससे भी ज्ञान हो जाता है। लेकिन ध्यान रहें, आपका जानना कि सबके घर की शक़्कर मीठी है, आपके पिछले अनुभव पर आधारित है। इसलिए तर्क का उपयोग करने के लिए पहले अनुभव ज़रूरी है। इसके बाद तर्क या बुद्धि काम की है। *मैं समझ गई। बहुत सरल बात है, पर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया था। पर क्या किसी दुसरे के तर्क से या तर्क को पढ लेने से ज्ञान हो जायेगा? जैसे मान लो किसी में ये योग्यता न हो?* अच्छा सवाल है आपका। नहीं। दुसरे की बुद्धि से ज्ञान नहीं होगा, आपके कैसे जानेंगे कि उसका तर्क सही है? या किस अनुभव के आधार पर उसने तर्क लगाया है ?तो, तर्क और बुद्धि भी आपकी खुद की ही होनी चाहिए , जैसे अनुभव खुद का होना चाहिए। तब ज्ञान सही होगा, शक नहीं रहेगा। तो, नंबर दो - तर्क। लिख लीजिये। अनुभव और तर्क। इनसे ज्ञान होगा। इसलिए हम इन्हे ज्ञान के साधन या प्रमाण कहते हैं। प्रमाण वो है, जो मिलने पर ज्ञान में शंका नहीं रहती। शक रह जाये तो उसे प्रमाण नहीं कहेंगे। *अब मेरी समझ में आया, ये कितनी बड़ी सीख है। और मैं पागल, किताबों की दुकान में ज्ञान खरीदने चली थी।* हाँ, इसका बडा महत्व है। सारा अध्यात्म इसी पर टिका है। और सभी शिष्यों को ये पक्का कर लेना चाहिए कि जाना कैसे जाता है, उसके बाद ही आगे बढना चाहिए। मैं आपको होम वर्क देता हूँ , इस हफ्ते, इस विषय पर विचार कीजिये, और एक लिस्ट बनाइये जिसमे दो भाग हो। पहला आज तक अपने जीवन में जो भी आपने इन साधनों से जाना हो। दूसरा, जो बस कहीं से सुना या पढा हो। पहला है ज्ञान, दूसरा अज्ञान। *ज़रूर करुँगी। मुझे अब लग रहा है कि अध्यात्म खुद करने की चीज़ है, ये केवल बडी बडी बातें नहीं।* बिलकुल सही, ये जीवन बदल देने वाली चीज़ है। और आप में संभावना दिख रही है। *कैसी संभावना ?* मीठा खाने की। आज घर में खीर बनी है। चलिए चख कर बताईये मीठी है या फीकी। अनुभव से। *हाँ चलिए, भूख भी लगी है। लेकिन गुरु और ज्ञान से मीठी नहीं होगी खीर। ये मैं तर्क से बता सकती हूँ। है न?* *** ## आत्मसंवाद भाग - ३ #### नेति नेति *गुरूजी , क्या आज आप मुझे - मैं क्या हूँ - ये दिखाने वाले हैं ?* नहीं, आज आप क्या नहीं है वो देखेंगे। *अरे !! ऐसा क्यों?* क्योंकि , आपमें जो पुरानी मान्यताएं हैं, उनके हटने पर आप स्वयं को साफ-साफ जान पाएंगे। *पर मुझमें कोई मान्यता नहीं है।* जब आपसे कोई पूछे कि आप कौन हैं , तो आपका जवाब क्या होगा? *नाम, पता, काम और मैंने जो पढाई की है , इतना मैं बताती हूँ।* यदि आपका नाम, पता, काम, ये सब बदल जाए तो क्या इसका मतलब है कि आप बदल गए? या आपका नाम, पता, काम, बदला? *नहीं, मैं तो वही हूँ।* हाँ जी। आप नहीं, आपका परिचय बदला है। आपका नाम, काम आदि आपका परिचय हो सकता है, पर आप स्वयं नहीं। इसी को हम मान्यता कहते हैं , जो बिना विचार किये बस मान लिया है। इस तरह की मान्यताओं को हटाने के लिए - मैं और मेरा - इन दोनों में भेद जानना ज़रूरी है। *मैं समझ गयी, नाम, पता, काम, मेरा है, मैं नहीं। सभी ऐसा ही कहते हैं तो मैं भी कहती थी। पर अब ध्यान रखूंगी। मैं और मेरा , फर्क है। जो मेरा है वो भी हो सकता है मेरा ना रहे ।* कुछ चीज़ें मेरी हो सकती है, थोडी देर के लिए , पर आनी-जानी है। बदलती है। और मैं क्या नहीं हूँ , ये जानने का ये पहला नियम है - जो बदल जाता है, जो आना-जाना है, वो मैं नहीं। *जी गुरूजी, मैं ये नियम लिख लेती हूँ। एक मान्यता तो हट गई। आज मेरा दिन अच्छा है !* जिसे मैं मेरा कहता हूँ, वो भी असल में मेरा नहीं। क्योंकि चला जाता है। लेकिन मैं वही रहता हूँ। उसकी जगह कुछ और आ जाता है। और इस को अब मेरा कहा जाता है। इसका अर्थ है वो मेरा जरुरी हिस्सा नहीं। क्या आपके पास इसका कोई उदाहरण है? *हाँ। जैसे मेरी बैग। वो मैं नहीं, पर मेरी है। अगर वो टूट जाये तो कोई नयी बैग मेरी कहलाएगी। लेकिन वो भी मेरी नहीं, मेरा जरुरी हिस्सा नहीं, कभी भी जा सकती है। आनी-जानी चीज़ है।* आपकी समझ अच्छी है। इस जगत में मिलने वाली कोई भी वस्तु मैं नहीं। हाँ, अगर जीवन के लिए उपयोगी है, तो - मेरी वस्तु है, या मेरी पहचान है, - ऐसा कह सकते हैं। मुझमें जो बदल नहीं सकता, जिसकी जगह कुछ नहीं ले सकता, वो मैं हूँ। इसको हम तत्व कहते हैं। तत्व। ये वो है, जो मेरा सबसे ज़रूरी हिस्सा है, जिसको हटा कर कुछ और नहीं रखा जा सकता, वो मेरा तत्व है , या सही मायने में वो मैं हूँ। *ये मैं समझ गयी, कि जो बदले नहीं, जिसकी कुछ और जगह न ले पाए और जो सबसे ज़रूरी है , वो तत्व है। लेकिन ऐसी क्या चीज़ है, कैसे जानेंगे? ये मैं समझी नहीं।* बहुत आसान है। जिसे भी आपने मैं मान रखा है उसे हटा कर देखें। अगर हटाने के बाद, या उसके बदल जाने के बाद भी आप रह जाते हैं, तो वो आप नहीं, या वो तत्व नहीं। हमने वस्तुओं को हटा कर देख लिया, अब बचे हैं शरीर और मन। शायद यही आप हो? आपका क्या ख्याल है? *वो तो हट नहीं सकते, आपने सही कहा, शरीर और मन ही मैं हूँ। ये न हो तो मैं भी नहीं, ये होना ज़रूरी है।* हाँ, बहुत से लोग ऐसा ही कहेंगे, और एक आम आदमी के लिए इतना मान लेना काफी है। जीवन सुख से बीत सकता है इतना जानकर। लेकिन एक खोजी जो स्वयं को खोज रहा है, और गहराई में जायेगा। जैसे एक वैज्ञानिक, जैसे एक जासूस। आप अपने अनुभव से देखकर बताईये , शरीर और मन में ऐसा क्या है जो बदल नहीं रहा, वही तत्व होगा। *मुझे तो और कुछ नहीं दिख रहा। और ऐसा तो कभी हुआ नहीं कि इनके बिना मैं रह गयी। शरीर और मन नहीं, तो मैं भी नहीं। न कोई जानने वाला बचा।* ये बात तो सच है। मनोशरीर के बिना स्वयं को नहीं जाना जा सकता। तो पहले आपको मनोशरीर में ही तत्व ढूंढना चाहिए। शरीर से ही शुरू करते हैं, अनुभव से बताईये , क्या शरीर कभी नहीं बदला ? क्या कभी बदलेगा नहीं? *हाँ। वो है, पर बदलता है। पहले छोटा था, फिर बडा हुआ, आगे बूढ़ा होगा। चेहरा, रंग रूप ये सब बदल जाता है, लेकिन ये बदलता हुआ शरीर ही मैं हूँ।* आप तत्व का मतलब भूल गयीं। ये शब्द। तत्व। बहुत महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है, वो जो नहीं बदलता, लेकिन शरीर बदलता है , तो वो तत्व नहीं हो सकता। ध्यान रहे, हम तत्व जानने की कोशिश कर रहें हैं। जैसे लकडी के बहुत-से सामान हो सकते हैं, बहुत से रंग-रूप-आकार हो सकते हैं, पर उन सब में न बदलने वाली चीज़ लकडी ही है। ऐसे ही मिट्टी के बहुत से बर्तन या वस्तुएं हो सकती हैं, पर उनमें मिट्टी तत्व है, जो रूप बदल जाने पर भी वही रहती है। *हाँ गुरूजी। एक मिनट के लिए, तत्व क्या है, मैं भूल गई थी। शायद ये भी मेरी मान्यता है कि मैं शरीर हूँ।* साधक का यही कार्य है, मान्यताओं को परखना और जो सही नहीं उन्हें हटाकर सत्य खोजना। हम यह मानते हैं, कि शरीर वही है जन्म से, बस छोटा-बडा होता है। लेकिन ये अन्न से बनी एक मशीन है। जो भोजन बाहर से आता है, वही शरीर बन जाता है। जब ये प्रक्रिया थमने लगती है तो वो घटता है और निर्जीव होकर वापस मिट्टी हो जाता है। भौतिक पदार्थों या अणुओं से बनी एक रचना है, जो लगातार बदलती है। ऐसा भरम होता है कि ये वही है जो पहले था। जैसे अगर आप अपने घर की एक ईट रोज बदल दें, तो कुछ वर्षों में वो एक नया घर हो जायेगा लेकिन बाहर से ठीक पुराने जैसा ही दिखेगा , जबकि अब वहां पुराना कुछ भी नहीं बचा। बस भरम होगा कि ये वही घर है, खासतौर से, जब आपको पता न हो कि सारी ईटें बदल चुकी हैं। ये शरीर भी ऐसी ही रचना है। शायद यह बात चौंका देने वाली है। है न? *बहुत रोचक बात है, ये सब जादू की तरह हो रहा है, लेकिन मुझे अब पता चला। अगर पुराना शरीर जा चुका है, और मैं अब भी हूँ, तो मैं शरीर नहीं हो सकती। और जो शरीर अभी है, वो भी मैं नहीं, क्योंकि वो भी बदल जायेगा। क्या मेरी समझ सही है?* आपने बहुत अच्छा तर्क दिया है। आप तो गुरु निकले ! *आपकी कृपा है गुरूजी, वर्ना मैं कहाँ। लेकिन अब मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा तत्व मन में ही मिलेगा क्योंकि वही जन्म से है, शरीर न सही।* अच्छा ? वो तो देखने से ही पता चलेगा। आप एक हफ्ते शरीर पर ही मनन कीजिये। देखिये कहीं हमसे कोई गलती तो नहीं हुई। क्या हमारा तर्क या अनुभव एकदम सही है ? सौ प्रतिशत? *ज़रूर , जैसी आपकी आज्ञा।* *** ## आत्मसंवाद भाग - ४ #### मन, विचार, स्मृति आज हम, आपके मन में क्या है देखेंगे। *मेरे मन में ??* हाँ ! शायद आप स्वयं वहां हो? मन बहुत से अनुभवों का मिला-जुला नाम है। जैसे - संवेदना, भावना, विचार, कल्पना, इच्छा, स्मृति, ये सभी मानसिक अनुभव कहलाते हैं, क्योंकि इन्हें सिर्फ आप ही जान पाते हैं, दूसरे नहीं। क्या और कुछ है मन में? *हाँ। बुद्धि, सपने, सुख-दुःख ये सब भी हैं। और मुझे सरदर्द होता है, तो वो भी मैं ही जान पाती हूँ, दुसरे नहीं।* अच्छे उदाहरण हैं। लेकिन ये कोई अलग प्रकार के अनुभव नहीं। बुद्धि, रचनात्मकता, सहनशीलता, योग्यताएं हैं, अनुभव नहीं। आप कह सकते हैं ये मन के गुण हैं। सपने, कल्पना जैसे हैं। सुख-दुःख भावनाएं हैं, और दर्द संवेदना है , जो शरीर से सम्बंधित है, जैसे ठंडा - गरम। *तो क्या, जो छह अनुभव आपने बताये, उतने ही मानसिक हैं ?* ये छह प्रकार हैं। जो भी मन में होता है, आप इन प्रकारों में बाँट सकते हैं। इससे मन को समझना आसान हो जाता है। जो कि बहुत जटिल चीज़ है। आप साधना के समय देखिये, मन में क्या-क्या होता है, और क्या वो इन प्रकारों में आता है? शायद आपको कोई नया प्रकार मिल जाये ? *हाँ गुरूजी, ज़रूर करुँगी। मैंने शायद आज तक मन को इतने ध्यान से देखा ही नहीं।* कोई नहीं देखता, सब जीवन के संघर्ष में लगे हैं। सिर्फ साधक में ही जिज्ञासा होती है। जब आप ध्यान देंगे, तो ज्ञान भी होगा। अब ज़रूरी बात। आपने कहा मैं मन हूँ , मुझे देख कर बताईये, इन छह में से कौन सी चीज़ आप हैं? *ये तो बडी मुश्किल है। शायद ये सभी मैं ही हूँ?* तत्व किसे कहते हैं याद है कुछ? इनमें से क्या नहीं बदल रहा? *सब तो वैसा ही है। मेरी सोच, भावनाएं और याद सब तो वही है?* हाँ, ये मानसिक अनुभव, या मन, हमेशा होता है , लेकिन क्या वो हमेशा एक जैसा होता है? जब आपको दर्द हुआ, तो क्या वो हमेशा से था और अब भी है? *नहीं। वो तो ठीक हो गया। थोडी देर था। अब नहीं है, और पहले भी नहीं था।* क्या आप पहले थे? और क्या अभी भी हैं? *हाँ, मैं तो वही हूँ। दर्द हो या न हो।* तो क्या दर्द तत्व है ? आप स्वयं हैं दर्द? *नहीं। तत्व नहीं, बदल गया, आना-जाना है। अब मैं समझी आप का इशारा। मैं दर्द नहीं, भले ही वो केवल मैं जान पाती हूँ। ऐसे ही तर्क से कह सकती हूँ कि मैं कोई भी संवेदना नहीं।* आपका तर्क अच्छा है, ठीक है। देखिये, गुरु को इशारा करना पडता है, भले ही वो आपका खुद का अनुभव है, लेकिन जब तक बताया न जाए, आप नहीं जान पाएंगे। मान्यता को ही सच मानेंगे। अब बाकी के अनुभवों को देखकर बताईये, इनमें से आप क्या हैं? *भावनाएं भी आती-जाती हैं, कल्पनाएं भी, इच्छाएं भी। तो ये सब तो मैं नहीं। लेकिन यदि विचार न हो तो मैं भी नहीं रहती। क्योंकि विचार या सोचना ही बताता है कि मैं हूँ।* कितने विचार आते हैं? *उनकी तो गिनती ही नहीं है। हज़ारों। मैं बहुत सोचती हूँ।* आप एक ही हो सकती हैं, हज़ार तो नहीं? उन हज़ारों विचारों में से कौन सा विचार आप हैं? *नहीं, कोई एक विचार तो मैं नहीं। आपने सही कहा , वो सभी आकर चले जाते हैं।* हाँ, विचार भी तत्व नहीं। बाकी अनुभवों की तरह आना-जाना है। उनमें से एक प्रकार का विचार कहता है , मैं ये हूँ या वो हूँ, ऐसा अनुभव हूँ या वैसा अनुभव, या शरीर या उसका कोई अंग हूँ। इस प्रकार का विचार कहता है, ये वस्तु मेरी है, वो मेरी नहीं। ऐसे विचारों से, यही मैं हूँ, ऐसा भरम होता है। इन विचारों या भावनाओं को अहंकार या अहंभाव कहते हैं। हैं वो मानसिक अनुभव ही, और आते-जाते हैं। आप रह जाते हैं। *गुरूजी आपने ये बडी बात बताई। बहुत बारीकी से देखना पडा।* हाँ, सावधान रहना पडता है। मन बहुत जटिल है, बुद्धि को भरमा देता है। अब बची है, स्मृति या याद। *आपने कहा था जो हम हटा न सके, जो बच जाए वही मैं हूँ। तो वो स्मृति है। सही बात है, अगर मैं सब भूल गयी तो मैं कोई नहीं। है ना?* एक साल पहले, ठीक इसी दिन, आप कहाँ गए थे, क्या खाया था उस दिन? क्या कपडे पहने थे? क्या बातें हुई और किससे ? *अब ये बताना संभव नहीं गुरूजी। कुछ भी याद नहीं। लेकिन आप क्यों पूछ रहें हैं ?* कोई बात नहीं, पर क्या उस दिन आप थीं? क्या ये बताना संभव है? *हाँ, मैं उस दिन भी थी, अब भी हूँ। पर घटनाएं याद नहीं।* अगर आप कोई स्मृति हैं, और वो चली गयी, तो इस समय आप यहाँ कैसे हो सकते हैं? इसका मतलब आप वो स्मृति नहीं। पर हो सकता है आप कोई और स्मृति हो? *मैं इशारा समझ रही हूँ। कोई भी स्मृति चली जाये , पर मैं हूँ।* हाँ, स्मृति तत्व नहीं। कुछ घटनाएं या जानकारी जो आपकी स्मृति में हैं, वो जीवन के लिए उपयोगी हो सकती हैं, या आपकी सामाजिक पहचान हो सकती है , लेकिन आपका तत्व नहीं हो सकती। कभी भी बदल सकती हैं, या भुला दी जाती हैं। उसमें नयी घटनाएं, या जानकारी जमा होती है, स्मृति बदलती है। शायद अब आपको अपने जीवन की पचास प्रतिशत घटनाएं भी याद नहीं । तो क्या आप घट कर पचास प्रतिशत रह गयीं? *नहीं। स्मृति आती-जाती है, मैं नहीं। मैं हमेशा वही हूँ, कम-ज़्यादा नहीं हो सकती। वो भी इसलिए कि कोई बात भूल गयी।* ध्यान दीजिये। आपका नाम, पता, आपकी शिक्षा, काम, संबंध, जाती, धर्म, संप्रदाय, राष्ट्रीयता, पसंद-नापसंद , ये सब स्मृति में हैं। आना-जाना अनुभव है। इसलिए ये आप नहीं। शायद इनके बिना जीवन न चले, यही आपकी पहचान बन गया है। लेकिन सब बाहर से मिला है इसलिए न ये आप हैं, न ये आपका है। जब चाहे बदल सकता है, कुछ नया आ सकता है। आपका नाम भी किसी और का दिया हुआ है, वो भी आपका नहीं। *मेरा मन ये सब स्वीकार नहीं कर पा रहा। ऐसा कैसे हो सकता है?* ये मान्यताएं बहुत गहरी बैठी हैं, इसलिए इनसे छूटने में समय लग सकता है। पर हमें कहाँ जल्दी है? और बिना सोचे-विचारे, इनको फेंक भी नहीं सकते। हो सकता है स्मृति में जो भरा है, वो काम का हो? *हाँ, मैं सोचूंगी इस बारे में। लेकिन अब तो मन में कुछ नहीं बचा जो मैं हूँ। अब क्या करें?* देखिये शायद कुछ बचा हो, कहीं और ? *हो सकता है, मैं मनोशरीर नहीं, पर व्यक्ति हूँ, एक स्त्री, एक मनुष्य। इतना ही?* व्यक्ति, अहंभाव है। स्त्री या पुरुष, शरीर के प्रकार हैं, और स्मृति में संस्कार हैं, आदतें हैं । मनुष्य, मनोशरीर का ही नाम है, जैसे दूसरे जीव। ये सभी हम हटा चुके हैं। ये सभी किसी न किसी प्रकार के अनुभव हैं, या घारणाएं हैं । फिर भी, आप मनन कीजिये। जल्दी नहीं है। समय लीजिये। हो सकता है, हमसे कोई भूल हो रही हो ? आप यही पाएंगे कि, मैं कोई भी अनुभव नहीं, क्योंकि सभी आते-जाते हैं। *तो क्या मैं कुछ नहीं?* आपने सबकुछ हटा दिया लेकिन क्या आप नहीं हैं इस समय? *मैं तो हूँ। सब जाने के बाद भी मैं हूँ। यह बडी अजीब बात है। तत्व ये सब नहीं, लेकिन है। पर वो है क्या?* इस हफ्ते आप, मैं क्या नहीं हूँ, इसी विषय पर मनन करें। अब तत्व जानना दो मिनट का काम है। *जैसी आपकी आज्ञा गुरूजी। नमस्ते।* *** ## आत्मसंवाद भाग - ५ #### साक्षी, निर्गुण, प्रेम *नमस्ते गुरूजी। काफी देर सोचने के बाद मुझे लगता है कि मुझे मेरे दर्शन किसी ध्यान में होंगे। जो शरीर या मन नहीं वो कोई बडा चमत्कारी अनुभव होगा।* ज़रूर , आप प्रयास कर सकते हैं। लेकिन वो अनुभव किसको होगा? *मुझे।* और वो अनुभव हो जाने के बाद आप कहाँ होंगे? *यहीं , और कहाँ??* फिर तो वो भी एक आना जाना अनुभव ही हुआ। बस, क्योंकि रोज के अनुभवों से अलग है, इसलिए विचित्र या चमत्कारी लगेगा। उस अनुभव के पहले भी आप थे, बाद में भी। तो जिसका भी अनुभव हुआ वो कुछ और है। पर शंका हटाने के लिए ऐसा कोई अनुभव ले सकते हैं, उसमे लंबी साधना और कई साल लग सकते हैं। *नहीं, शंका नहीं है। मेरा मानना गलत था। वो भी आना जाना अनुभव होगा। मेरा तत्व नहीं।* हाँ। तत्व तो यहीं है, अभी है। अनुभव विचित्र हो सकते हैं, तत्व नहीं। वो सरल और साधारण है। *पर वो क्या है?* हमने अब तक जितने भी अनुभवों की जांच की, सब आकर चले जाते हैं। बदलते हैं , इसलिए वो सारे तत्व नहीं। ऐसा क्या है जो इन बदलते हुए अनुभवों में एक समान रहता है? ध्यान दीजिये। इन सभी अनुभवों को आते जाते देखने वाला हमेशा रहता है। वही तत्व होगा। वो भी चला गया तो अनुभव किसको होंगे? *पर वो कैसे दिखेगा?* किसको दिखेगा? यदि दिख गया , तो वो भी कोई आना-जाना अनुभव होगा। *हाँ। यह बात सच है।* मैं या मेरा तत्व कोई अनुभव नहीं। यही हर अनुभव के बदलने पर रह जाता है। क्या किसी को हर प्रकार के अनुभव हो रहे हैं? *हाँ। हो रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं।* वो जिसको अनुभव हो रहे हैं, वो साक्षी कहलाता है। इसे अनुभवकर्ता या दृष्टा भी कह सकते हैं। मैं सभी अनुभवों का साक्षी हूँ। अचरज की बात ये है कि सभी अनुभव, वस्तुएं, शरीर, मन, अकेले नहीं पाए जाते, इनका साक्षी भी है। *और भी बड़ी अचरज की बात है कि साक्षी कोई वस्तु, शरीर, मन नहीं , फिर भी है। और तो और , वो मैं हूँ?* हाँ। साक्षी को देखकर नहीं, होकर जाना जाता है। क्या आप यहाँ , इस समय हैं? *हाँ। इसमें कोई शक नहीं।* यदि सारे अनुभव, मान्यताएं, निकाल दें, तो भी हैं? अब क्या रह जाता है? *केवल मेरा होना।* यही आप हैं। यही आपका ज्ञान है। यही आत्मदर्शन, आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार है। *गुरूजी , आपने मुझे मुझसे ही मिला दिया। ये जीवन में पहली बार हुआ है। आज से पहले तो मैं अंधेरे में जी रही थी? खुद को कुछ और ही मान रखा था।* ऐसा ही होता है। जैसे हीरा अपनी कीमत नहीं जानता, जैसे सोना अपनी सुंदरता नहीं जानता , मनुष्य, वो स्वयं क्या है, नहीं जानता। किसी और को बताना होता है। जो स्वयं से मिला दे , वही सच्चा गुरु है। *मैं इतना तो जानती थी, आप ही मेरे सतगुरु हैं। लेकिन एक बात तो है, ये साक्षी बहुत अजीब चीज़ है। कुछ छुपा हुआ, रहस्य सा है। इसे जानना कठिन है।* साक्षी कोई चीज़ नहीं, वस्तु नहीं। न ये छुपा है। यह हमेशा से है, हर समय , हर जगह। क्या कोई ऐसा अनुभव है, या घटना है, जहाँ उसका साक्षी न हो? शायद इसको जानना कठिन इसलिए होगा, क्योंकि आप इसे तरह तरह के अनुभवों में ढूंढ रहे थे। अनुभव करने वाले को खोजना नहीं पडता , वो हमेशा मौजूद है। *हाँ, यही हुआ है। यहाँ तक कि ऐसा कभी विचार भी नहीं आया कि मैं क्या हूँ। खोजना तो दूर की बात है। आप नहीं मिलते तो मुझे अपने तत्व का ज्ञान कभी नहीं होता। मैं थोडा समझ तो गई, पर मुझे अपने बारे में और जानना है। ये साक्षी कैसा है? कहाँ से आया? ये इस शरीर में कैसे आया?* जानने की कला मैं आपको सिखा चुका हूँ। कुछ याद है? *बिलकुल याद है। अनुभव और तर्क। पर मेरा तो अनुभव नहीं होता , और तर्क किस पर लगाएं, जब वो दिखता ही नहीं?* बहुत आसान है। अनुभव और तर्क से जानिये क्या आपकी मान्यताएं सही हैं? जवाब मिल जायेंगे। *कौन सी मान्यताएं?* यही कि साक्षी ऐसा होगा, वैसा होगा। या कहीं से आया है, या शरीर में है। ये सारी मान्यताएं ही तो हैं ? *कैसे? ये तो बस सवाल हैं।* मान्यताएं नहीं होती, तो सवाल नहीं होते। पर कोई बात नहीं, ये सब जानना संभव है। याद रखिये कि साक्षी कोई अनुभव नहीं, कोई वस्तु, विचार या कल्पना नहीं। अब अपने अनुभव से बताईये वो कैसा है। उसका रूप, रंग, पदार्थ, ऊंचाई, या भार, क्या है? *न रूप रंग दिखता है , न किसी पदार्थ का बना दिखता है। वस्तु नहीं तो न ऊंचाई, लम्बाई है, न भार।* हाँ, सही बताया। ये आपका अपना अनुभव हुआ। यदि साक्षी का पदार्थ , रूप रंग होता , तो क्या होता? क्या वो आप होते? क्या वो तत्व होता? *नहीं। फिर वो कोई वस्तु होता। अनुभव होता। और घटता बढता , टूटता बनता , बदलता। और फिर वो तत्व नहीं होता।* बहुत अच्छा जवाब। ये हुआ आपका तर्क। आ गए उत्तर? *हाँ, गुरूजी। ये तो आसान था।* ऐसे ही आप देख सकते हैं, साक्षी शरीर में नहीं होता। कहीं नहीं होता। वो वस्तु नहीं, जो कहीं रखी जा सके। वो कोई प्रक्रिया भी नहीं जो कहीं चल सके। ये सभी अनुभव होंगे , अनुभवकर्ता नहीं। नाम-रूप होंगे, तत्व नहीं। *आपने सही कहा। ये भी मेरी मान्यता ही थी।* आप इतना कह सकते हैं कि मैं निराकार हूँ। अरूप हूँ। और कोई वस्तु, शरीर, या मानसिक अनुभव नहीं इसलिए पराभौतिक और परामानसिक हूँ। *इतने बडे बडे शब्द ? मैं लिख लेती हूँ। मैंने ये सब कहीं पढा था, लेकिन आज समझ आया।* अब कोई रहस्य नहीं रहेगा। अब आप सब जान सकते हैं। क्या आपका ये मानना है कि आप कहीं से आयी हैं? *हाँ। सभी चीज़े कहीं से तो आती हैं, बनती हैं, नष्ट होती हैं।* पर आप कोई चीज़ नहीं, वस्तु नहीं। ये याद है न? *हाँ , लेकिन मेरा तत्व कहीं से तो आया होगा? जब मैं पैदा हुई, तो तत्व बना होगा। अब तो मुझे कुछ याद नहीं। मैं बहुत छोटी थी।* जो छोटा सा था, जो पैदा हुआ, वो शरीर है। हाँ, शरीर आते-जाते हैं, पर आप शरीर नहीं। शरीर से साक्षी का संबंध वही है जो हर अनुभव से है। साक्षी को शरीर के पैदा होने का, बढने का और मरने का अनुभव होता है। यदि साक्षी भी पैदा हुआ है, तो उसका भी अनुभव होना चाहिए , और फिर वो भी आना जाना होगा। कोई शरीर या वस्तु होगा। लेकिन अब वो तत्व नहीं कहलायेगा। *तो क्या मैं, यानी साक्षी कभी पैदा नहीं हुई?* नहीं, जन्म की धारणा वस्तुओं या शरीरों पर लगाई जा सकती है, पर तत्व पर नहीं। जैसे, हमारे घडे को ले लीजिये , मिट्टी उसका तत्व है, और जब मिट्टी से घडा बना, तो क्या आप कहेंगे कि मिट्टी का घडे के साथ जन्म हुआ है? *नहीं , मिट्टी पहले से है, बस रूप बदला। मिट्टी नहीं, घडा बना।* वैसे ही, आपके शरीर का रूप बना, आपके तत्व का नहीं। तत्व, याने साक्षी के बनने, पैदा होने, या कहीं से आने की धारणा तार्किक नहीं है। वो तत्व है, आता जाता नहीं। इतना ही कह सकते हैं, कि वो है, और शरीरों के रूप लेता है। *तो गुरूजी, साक्षी न बढेगा, न बूढा होगा, और मरेगा भी नहीं?* नहीं, ये धारणाएं साक्षी पर लागू नहीं होती , शरीर पर लागू होती हैं। आप समझ सकते हैं कि जिसका न जन्म होता है, न रूप या आकार है , न किसी पदार्थ का बना है। उसकी मृत्यु की बात करना अर्थहीन है। हम कह सकते हैं कि साक्षी , अजन्मा, अजर और अमर है। वो बस होना मात्र है। *क्या सभी का तत्व ऐसा ही है?* हाँ। यदि उसका अनुभव हुआ, या रूप-रंग हुआ, या जन्म-मरण हुआ , तो वो तत्व नहीं है। सबका तत्व साक्षी ही है। इस बात को आप अपने अनुभव से जांच सकते हैं, दुसरे लोगों के तत्व को जानकर। इस हफ्ते आप यही कीजिये। सबका तत्व खोजिये। *जी गुरूजी, ज़रूर। फिर मेरा और आपका साक्षी एक जैसा ही हुआ। है न?* न केवल एक जैसा, एक ही है। क्योंकि निर्गुण है, सभी गुण मेल खाते हैं। वो वस्तु नहीं इसलिए उसकी सीमा भी नहीं हो सकती। कह सकते हैं कि साक्षी असीम है। और क्योंकि मैं और आप किसी भी दृष्टी से अलग नहीं हो सकते, एक ही है। ये एक हो जाना ही प्रेम है। साक्षी स्वयं प्रेम स्वरुप है। इसे हम आध्यात्मिक प्रेम कह सकते हैं, जो प्रेम का सबसे ऊँचा रूप है। *कितनी सुन्दर बात है। ये ज्ञान कितना मधुर है, दिव्य है। लेकिन मैं और आप प्रेम है, ये तो मैं पहले से जानती थी।* *** ## आत्मसंवाद भाग - ६ #### मुक्ति, आनंद, साक्षीभाव आज आपके प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा , कि आप जो सुख, शांति और संतोष खोज रहें हैं वो कहाँ मिलेगा। एक आम आदमी सुख और मुक्ति चाहता है, और कुछ नहीं। वो इसे वस्तुओं, लोगों, शरीर या मन में खोजता है। लेकिन क्योंकि ये सब आना जाना है, और इन सब पर उसका कोई बस नहीं है, उसको कुछ हाथ नहीं लगता। *मेरा भी यही अनुभव है। कहीं भी सुख नहीं, होता भी है, तो दो पल। यही लगता है कि मैं अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिए आज़ाद नहीं हूँ। पूरी भी होती हैं, कभी कभी, लेकिन फिर उसकी बडी कीमत चुकानी पडती है।* हाँ, फल तो आएंगे। इच्छाएं, पूरी हो या अधूरी, दुख ही देती हैं। सुख और मुक्ति बाहर नहीं। इतना तो आपने अपने अनुभव से जान लिया होगा। अब अपने अंदर देखिये। आप स्वयं क्या है देखिये , और बताईये वहां क्या है। *मैं साक्षी हूँ। इच्छाएं, सुख, दुख ये सब मनोशरीर में हैं। मुझ में कुछ नहीं। न ही ये सब मेरे हैं।* हाँ। इच्छाएं, दुख दर्द , आना जाना सुख , ये सब शरीर की या मानसिक प्रक्रियाएं हैं , जो इस मनोशरीर की मशीन में चलती हैं। इन सबका प्रभाव भी मन या शरीर में ही होता है। आप में, साक्षी में, बस शांति है। और क्योंकि इसमें कोई इच्छा नहीं, न कोई पसंद नापसंद है, इसकी अवस्था आनंद की है। जो भी अनुभव होते हैं, आप उनके साक्षी हैं , आप पर उनका प्रभाव नहीं होता। हमेशा शांति और आनंद होता है। *अब मुझे साफ़ दिख रहा है। जिन विचारों या भावनाओं को मैं अपना, या अपना हिस्सा मानती थी, वो केवल एक मशीन है। मैं तो हमेशा शांत ही थी , हमेशा आनंद ही था।* हाँ, और ऐसा हमेशा रहेगा। क्योंकि आप में कोई बदलाव नहीं होता, ये शांति और आनंद आना जाना नहीं। हमेशा से ऐसा ही था। मनोशरीर से अपनी पहचान हो जाने से आपका स्वभाव छुप गया था। न आपको अभी कोई दुख है, न पहले कभी था , न कभी होगा। *और ये इच्छाएं भी इस मशीन की ही हैं , मेरी नहीं। मुझे तो कुछ नहीं चाहिए , मैं तो पूरी तरह संतुष्ट पहले से हूँ। अब तो पुराने जीवन पर मुझे हंसी आ रही है। मैंने क्या क्या नहीं किया, खुशी के लिए, कुछ पाने के लिए।* देखिये, साक्षी पूर्ण है। उसमें कोई कमी नहीं। क्या वो कुछ जोड देने से साक्षी होगा? या क्या वो कुछ घटाने से साक्षी होगा? क्या वो अच्छा साक्षी है? या बुरा साक्षी है? वो बस है, इन सभी विकारों से खाली। शुद्ध। निर्गुण। शून्य। सारी कमियां, दोष, अच्छा, बुरा इस मनोशरीर मशीन में है। जो न आप हैं, न आपकी। *पर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं बंधी हूँ, जो चाहे करने के लिए आज़ाद नहीं हूँ?* क्या साक्षी कुछ चाहता है? या कुछ करता है? *नहीं, मैं तो बस साक्षी हूँ। करता तो ये मनोशरीर ही है।* ये बंधन भी मनोशरीर के ही हैं। आप इसके भी साक्षी है। ये मनोशरीर सीमित है, कुछ दिनों का खेल है। जिसे कुछ नहीं करना, जो कुछ नहीं चाहता , उसे कैसा बंधन? उसकी तो जन्म, मृत्यु भी नहीं। आप तो जीवन मुक्त हैं। हमेशा से, और हमेशा रहेंगे। जब कोई इच्छा आती है, और पूरी नहीं होती, तब बंधन लगता है, तब दुख होता है। लेकिन साक्षी में ये सब नहीं। वो पहले से मुक्त है। ये मनोशरीर सीमित है, लेकिन एक अच्छा जीवन जीने के काबिल है। उसका अज्ञान उसकी समस्या है। है न? जो भी हो , वो मिट्टी से बना है, कुछ दिनों में मिट्टी हो जाता है। वो मैं नहीं। खेल जैसा है। जीवन आना जाना सपना है बस। इससे क्या लगाव? *इस मिट्टी के पुतले से लगाव ही मेरे दुखों का कारण था। ये भी मेरी मान्यता ही थी। आपने तो मुझे इस पिंजरे से आज़ाद कर दिया गुरूजी।* न लगाव आपका , न मान्यता आपकी , न अज्ञान आपका। अब पुराना भूल जाईये , वो अँधेरा सपना था, गलती थी। ये नया जीवन है। ज्ञान के उजाले से भरा। अपने ज्ञान में बने रहना ही अब आपकी साधना है। यह साक्षीभाव कहलाता है। इससे बडी और इससे शक्तिशाली कोई साधना नहीं। *मैं ये साधना जीवन भर करुँगी। अब मैं खुद को खोना नहीं चाहती। और अगर मैं फिर भूल गयी तो ?* तो मैं हूँ न। याद दिलाने के लिए। मेरी याद आएगी तो मेरी शिक्षा भी याद आएगी। स्मरण रखना। मुझे मत भूल जाना। *आपको कैसे भूल सकती हूँ? मैं और आप एक ही तो हैं।*
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