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साक्षीभाव: ज्ञानमार्ग का एक अचूक यंत्र
स्वप्रकाश
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।। **-कबीर दास जी** **साक्षीभाव क्या है** साक्षी अर्थात दृष्टा, अनुभवकर्ता जो कि सभी अनुभवों का साक्षी है। साक्षीभाव को ही चेतना कहा जाता है। सदा स्वयं के आत्मज्ञान में स्थापित रहना कि मैं यह जगत, मनोशरीर (शरीर, मन, बुद्धि, अहम भाव) यन्त्र नहीं हूँ मैं इन सभी का दृष्टा हूँ, साक्षी हूँ। सदा इसी ज्ञान में रहना ही साक्षीभाव है। साक्षीभाव की साधना को निदिध्यासन भी कहते हैं। साक्षीभाव भी अन्य वृत्तियों की तरह एक चित्तवृत्ति है। जो अहम वृत्ति स्वयं को व्यक्ति अर्थात यह मनोशरीर यन्त्र मान बैठी थी और शरीर, मन, नाम, लिंग, परिवार, वर्ण, जाति, समाज, देश के द्वारा स्वयं की पहचान करती थी वह अब परिष्कृत होकर साक्षी/दृष्टा/अनुभवकर्ता पर आकर स्थिर हो जाती है (१)। **साक्षीभाव की साधना** साक्षीभाव में साधक सभी अनुभवों (जगत, शरीर, मन, बुद्धि, अहंभाव) से बिना लिप्त हुए एक असंग साक्षी की तरह निष्काम भाव से कर्म करता है। क्योंकि साधक को ज्ञात हो गया है सभी कर्म इस मनोशरीर द्वारा स्वतः होते हैं उनका कोई कर्ता नहीं है। इस अवस्था में साधक समभाव में रहता है। जब तक जीवन है कर्म तो होंगे ही। इसलिये, साधक जो भी उपयुक्त एवं आवश्यक कर्म हैं उन्हें सम्पूर्ण चेतना एवं स्वीकारभाव में करता है। चलिए इसे एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे आप सिनेमा थिएटर अथवा टेलीविजन या इंटरनेट पर कोई फिल्म, नाटक, धारावाहिक या कोई सीधा प्रसारण देखते हैं जब आप उसमें मग्न होकर देखते हैं तो उसके दृश्यों को सत्य मानकर हँसते हैं, क्रोध, प्रेम, दया एवं द्वेष की भावना से भर जाते हैं, और जैसे ही वह समाप्त होता है तो आप को ज्ञात हो जाता है कि यह तो फिल्म, नाटक था जो कि मिथ्या मनोरंजन मात्र था, तो आप फिर से सभी भावनाओं से मुक्त होकर घर चले जाते है. यहाँ पर आप केवल असंग दृष्टा थे। उसी प्रकार एक साधक साक्षीभाव में सांसारिक क्रियाकलापों को एक नाटक या लीला समझकर सभी कर्म करता है। इसे सिनेमा के एक और उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। जैसे किसी फिल्म में अभिनेता जब तक किरदार में होता है तो वह उस किरदार में पूरा मग्न होकर उसे पूर्ण करता है तभी एक अच्छा शॉट दे पाता है यदि वह इस कार्य को मग्न होकर नहीं करेगा तो वह दृश्य वास्तविक नहीं लगेगा। इसलिये, किरदार निभाने के दौरान वह सभी प्रकार की भावनाओं जैसे खुशी, उल्लास, प्रेम, क्रोध, दया आदि को स्वयं के किरदार में लीन होकर व्यक्त करता है। और जैसे ही वह शॉट को पूर्ण कर लेता है तो पुनः अपने स्वाभाविक स्वरुप में आ जाता है। तथा उस फिल्म में यदि उसका कोई सम्बन्धी मर जाता है या उसे कोई धन दौलत मिल जाती है तो वह कई दिनों, महीनों तक अपने सम्बन्धी के मरने का शोक नहीं करता या फिर धन मिलने के कारण अति उत्साहित नहीं होता क्योंकि उसे ज्ञात है वह एक किरदार निभा रहा था। अतः वह उस फिल्म के दृश्यों को सत्य मान कर स्वयं के जीवन में व्यवहार नहीं करता है। इसी प्रकार साक्षीभाव में साधक इस व्यवहारिक जगत के सभी कार्य एक लीला समझ कर जो **आवश्यक** एवं **उपयुक्त** है वह पूरी श्रद्धा, समर्पण के साथ करता है और उसके जो भी कर्म फल आते हैं उन्हें इस मनोशरीर द्वारा हुए कर्मों का फल समझ कर उनसे लिप्त हुए बिना स्वीकार करता है। क्योंकि इस जगत में, इस जीवन में कर्म तो करने ही पड़ेंगे और कार्य कारण (कर्म) के सिद्धांत के अनुसार उन कर्मों के फल भी आएंगे। इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते है। जैसे आपके शरीर में कोई रोग लग गया है तो उसका उपचार करना आवश्यक एवं उपयुक्त कर्म है क्योंकि यह मनोशरीर यन्त्र आपका उपकरण है जिसके माध्यम से आप साधना करते है। तो इसे स्वस्थ रखना, इसका भरण पोषण, आवास, प्रजनन एवं इसकी जो आवश्यक जरूरते हैं एवं इन्हें पूर्ण करने के साधन आपके पास उपलब्ध हैं तो उन्हें इस्टतम स्तर (न अति कम, न ज्यादा) तक पूर्ण करना चाहिए। साक्षीभाव के कारण जो भी अनावश्यक कर्म हैं उन पर नियंत्रण आता जायेगा तथा वे कम होते जायेंगे। यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति आपसे कहे कि यदि आप यह शरीर नहीं हो तो ऊँची ईमारत से नीचे कूद जाओ आप नहीं मरोगे तो अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वहाँ से कूदना नहीं है क्योंकि यह शरीर तो भौतिक है वह ऊपर से कूदने पर खंडित हो जायेगा (हाथ, पैर टूट जायेंगे), मृत्यु भी हो सकती है। अतः ऐसी बेवकूफी न करें। यहाँ आप कूदने का कर्म करते हैं तो इसका फल मृत्यु भी हो सकता है। क्योंकि मैं (स्व/दृष्टा/साक्षी/अनुभवकर्ता) कोई भी भौतिक या अभौतिक अनुभव नहीं है। तो यहाँ पर ऊपर से कूदना आवश्यक कर्म नहीं है ऐसा न करें। एक और उदाहरण लेते हैं, जैसे आप किसी गली से गुजर रहे हैं वहाँ एक पागल कुत्ता आपके के पीछे लग गया तो वहाँ आवश्यक है कि उससे बचने के लिए किसी पत्थर, लकड़ी का उपयोग करें यदि कुछ नहीं है तो वहाँ से भाग जाएँ अन्यथा इसके परिणाम अच्छे नहीं हो सकते हैं। तो यहाँ पर साक्षीभाव में स्वयं का रक्षण करना ही आवश्यक कर्म है। साधक को अज्ञानियों से अध्यात्म से सम्बंधित किसी भी प्रकार की बहस नहीं करनी चाहिये यह बिलकुल भी आवश्यक नहीं है। आपके शरीर की दैनिक शारीरक क्रियाएं जैसे (भूख, प्यास, निद्रा, उत्सर्जन), उत्तरजीविता के लिए आवश्यक धन अर्जित करना, आप पर आश्रित परिवार की आवश्यक जिम्मेदारी आदि आवश्यक कर्म हैं इन्हें स्वयं के जीवन को आरामदायक बनाने तक करना चाहिए तभी आप अपनी साधना निर्विघ्न होकर कर पाएंगे। एक साधक के लिए अति आरामदायक अर्थात विलासितापूर्ण जीवन आवश्यक नहीं है इससे बचना चाहिये। तो मुझे उम्मीद है कि अब आप आवश्यक एवं अनावश्यक में भेद समझ गये होंगे। इस प्रकार आप अपने आवश्यक एवं अनावश्यक कार्यों की सूचि बना सकते है। आत्मज्ञान एवं साक्षीभाव के अभाव में एक साधारण व्यक्ति के सभी कर्म अचेतन अवस्था में यंत्रवत होते हैं अर्थात उनमें पशुवृत्ति (उत्तरजीविता की वृत्ति) ज्यादा हावी होती है। ऐसे व्यक्ति स्वयं को कर्ता मानते हुए कर्मफल के कारण सुख-दुख भोगते हैं। साक्षीभाव को मैंने साक्षीदूत कहा है जो एक दूत की तरह कर्म एवं वृत्तियों पर निगरानी रखता है एवं उन्हें प्रकाशित कर देता है। साक्षीभाव में साधक स्वयं की मानसिक वृत्तियों एवं उनके कारण होने वाले सभी कर्मों (भौतिक, मानसिक) पर दृष्टि रखता है। भौतिक कर्म अर्थात ज्ञानेन्द्रियों (दृष्टि, श्रवण, गंध, स्वाद, स्पर्श) एवं कर्मेन्द्रियों [हाथ, पैर, मुख (वाणी, भोजन), मलद्वार, जननांग] द्वारा होने वाले कर्म। मानसिक अर्थात मन (विचार एवं भावनाओं) के द्वारा होने वाले कर्म (क्रोध, लोभ, मोह, प्रेम, करुणा, द्वेष, काम-वासना, इच्छा, दुर्विचार, सद्विचार)। साक्षीभाव की तीन अवस्थायें हो सकती हैं जो इस प्रकार हैं (२) । प्रथम अवस्था: कर्म करने के पश्चात साक्षीभाव आना। द्वितीय अवस्था: कर्म करने के दौरान साक्षीभाव होना। तृतीय अवस्था: कर्म करने से पूर्व ही साक्षीभाव में कर्म एवं उसके फल का अनुमान लगाना। साधारण व्यक्ति प्रथम अवस्था के निचले तल पर होता है क्योंकि ज्यादातर की चेतना कर्म होने के बाद भी नहीं आती है क्योंकि वे सभी कार्य यंत्रवत अचेत अवस्था में करते हैं एवं कर्म होने के बाद भी उन्हें उसका भान नहीं होता तथा जब कर्म फल आते हैं तो भी उन पर मनन नहीं करते कि यह कर्म फल क्यों आया बस उनमे लिप्त होकर उनको भोगते हैं। किन्तु कुछ व्यक्ति जिनकी बुद्धि प्रखर होती है जैसे शिक्षक, लेखक, वैज्ञानिक, अभियंता, गणितज्ञ, विचारक, चतुर नेता, प्रतिष्टित व्यक्ति उपरोक्त वर्णित तीनों अवस्थाओं में हो सकते हैं किन्तु वे स्वयं को कर्ता मानने के कारण कर्म फल के परिणाम से लिप्त होकर उसे भोगते हैं। एक साधक की चेतना प्रथम अवस्था से प्रगति करते हुए तृतीय अवस्था तक पहुँच जाती है और वह एक अचेत तथा एक बुद्धिमान व्यक्ति की अपेक्षा कर्म एवं कर्म फल से अलिप्त हुए सुख-दुख की अवस्था से परे समभाव एवं स्वीकार भाव में रहता है। प्रारम्भ में साधक कुछ स्मृति चिन्ह जैसे आध्यात्मिक वस्तुओं, चित्रों, संगीत आदि के द्वारा साक्षीभाव में रहने का प्रयास कर सकता है। एवं जैसे ही वह प्रगति करने लगता है उसकी चेतना जब आवश्यक हो तब स्वतः आ जाती है उसे बार-बार स्मरण करने कि आवश्यकता नहीं होती (२)। मैंने भी प्रारंभ में इन स्मृति चिन्हों का उपयोग किया है, यह अवश्य कार्य करता है ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है। इसी प्रकार आपको अपना अनुभव स्वयं लेना होगा क्योंकि ज्ञान तो स्वयं के अनुभव से ही प्राप्त होता है। **साक्षीभाव के परिणाम** साक्षीभाव होने पर चित्त कि वृत्तियों एवं कर्मों पर दृष्टि रखने के कारण उन पर कुछ हद तक नियंत्रण आ जाता है जिसके कारण जो भी अनावश्यक वृत्तियाँ एवं कर्म हैं वह कम हो जाते हैं। साधक कर्मों एवं वृत्तिओं में लिप्त नहीं होता और सुख-दुख की परिस्थितियों में समभाव में रहता है क्योंकि वह जानता है कि कर्म एवं कर्मफल उसके नहीं हैं। क्योंकि कोई कर्ता नहीं है। जिसके कारण कर्म बंधन नहीं बंधते। चित्त की अशुद्धियाँ प्रकाशित हो जाती हैं एवं उनका नाश होने लगता है। जिसके कारण चित्त की शुद्धि होने लगती है तथा उसका विकास तीव्र होने लगता है। साधक उसके मूल स्वरुप अर्थात अनुभवकर्ता के स्वरुप (आनंद, शांति, प्रेम, एकता, पूर्णता, मौन, शुन्यता) में रहने लगता है। **सारांश** ज्ञानमार्ग के साधक की केवल एक ही साधना है वह है साक्षीभाव की साधना जो जीवन पर्यन्त चलती है। साक्षीभाव, आत्मज्ञान का फल है जिसका स्वाद मैंने अनुभव किया है। अतः, गुरुकृपा की तरह साक्षीभाव सदा साथ रहता है। जो भी साधक एक बार इसका स्वाद चख लेता है, वह इसके चमत्कार को स्वयं के अनुभवों में देखता हैं और ज्ञान को ही जीवन साधना बना लेता है। अतः आप भी ज्ञान प्राप्त करें एवं साक्षीभाव के परिणाम का स्वयं अनुभव करें। **आभार:** मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तरुण प्रधान जी एवं गुरुक्षेत्र का उनकी शिक्षाओं एवं मार्गदर्शन के आभारी हूँ। **सन्दर्भ** १. साक्षीभाव से सम्बंधित बोधिवार्ता चैनल यूट्यूब विडियो. २. तरुण प्रधान (२०२४) विशुद्ध अनुभूतियाँ (तृतीय एवं चतुर्थ भाग), नोशन प्रेस, पृष्ठ संख्या ४६४. **संपर्क सूत्र..** साधक: स्वप्रकाश....... ईमेल: swaprakash.gyan@gmail.com
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