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इच्छाएँ और उनका उचित व्यवस्थापन
जानकी
**परिभाषा** इच्छा सम्भावना को नाद में परिवर्तन करने की के मूलभूत वृत्ति है। इच्छा ही गति हैं इच्छा के कारण ही जीवन है और जन्म होता है। इच्छाएँ सबसे पहले चित्त में प्रकट होती हैं। उत्तरजीविता के लिए जीव उसको ग्रहण करता है, अपना मान लेता है और कर्म के माध्याम से इच्छा पूर्ति कर देता है। यदि जीव उस इच्छा को नही अपना लेता तो कर्म नहीं होंगे। कर्म से फल और फल से संकार बनते हैं। विश्वचित्त में सग्रहित संस्कार ही इच्छाओं के रूप में प्रकट होता है। इच्छा प्रकट होने मात्र से संस्कार नहीं बनते। इच्छाएं ही कार्य करने और वस्तुओंको प्राप्त करने का श्रोत हैं। कार्यों के कारण होने वाले क्षणिक आनंद से प्रेरित होते हैं। दूसरों को किसी कार्य या वस्तु से आनंद प्राप्त करते हुए देखकर भी प्रेरित होते हैं और प्रकट होते हैं। **इच्छा/वासनावृत्ति** इच्छा अनंत है, नदी की तरह बहती रहती है। आधुनिक जगत में अधिकांश इच्छा बाहरी वातावरण और गतिविधियों के प्रभाव से अर्जित की जाती हैं। इच्छाएँ जीवन की घटनाओं और अनुभवों से घटित होती हैं, स्थापित होती हैं। इच्छाएँ रुचिपूर्ण होती हैं, कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। इच्छाएँ जब तक पीड़ा और हानि नहीं पहुँचातीं तब तक स्वीकार्य होती हैं। जैसे ही वे हानिकारक होते हैं, पीड़ा का कारण बनते हैं या सत्मार्ग पर चलने से रोकते हैं, वे एक विकार बन जाते हैं। इच्छा स्वयं दुःख का कारण नहीं बनती है, अधूरी इच्छाएं दुःख और पीड़ा देती हैं। वो कहीं भी कभी भी प्रकट हो सकती है। प्रबल इच्छाएँ जुनून को जन्म देती हैं। इच्छाएँ तीन तरह से प्रकट होती है: विचार से, वाणी से एवं शरीर से। इसी के आधार में सूक्ष्म और स्थूल रुप लेती है। इच्छा जीतनी स्थूल रुप लेगी उतना बड़ा प्रभाव पड़ता है। कोई इच्छा क्षणिक और दोहोराने वाली होती है और जीवन भर चलती है। कोई एक दो बार ही प्रकट होती है। मृत्यु के क्षण में जो इच्छा होती है वही अगले जन्म में प्रकट होगी। **इच्छाओं का व्यवस्थापन के कुछ उपाय** इच्छाओं का व्यवस्थापन के मुख्य चार उपाय हैं: इच्छाओं पर नियन्त्रण, इच्छापूर्ति, इच्छादमन, इच्छात्याग। **१ इच्छाओं पर नियन्त्रण** इच्छा मूलभूत वृत्ति है। इच्छा आयी नहीं है, इसलिए जाती भी नहीं है। जीव को इच्छाएँ ही चलाते हैं। इच्छाओं को नहीं रोका जा सकता, इच्छाओं पर कर्म न करके कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। कर्मों को रोकने से इच्छाएँ जहां से आई है वही संग्रह में वापस चली जाएगी और जब अनुकूल समय आता है तब फिर से वापस आएगी। यदि वो आवश्यक है तो बार-बार आएगी और कर्म होकर रहेगा। इच्छाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन अनावश्यक कर्म न हो और सही कर्म हो इस दिशा में नियंत्रण के द्वारा मोड़ा जा सकता है। इच्छाओं पर नियन्त्रण करने का कुछ उपाय इस प्रकार है: ***आध्यात्मिक प्रगति और चेतना:** आध्यात्मिक प्रगति और चेतना इच्छा नियन्त्रण के मूल उपाय हैं। आध्यात्मिक प्रगति होने मात्र से भी इच्छाएँ नहीं छुट जाती, नियंत्रण किया जा सकता है, अनासक्ति और विरक्ति आ जाती है। ज्ञानी में इच्छाओं के प्रति सम भाव रहता है। जो आवश्यक है वो होकर रहेगा, जो आवश्यक नहीं और साधन उपलब्ध है तो सम भाव में रहकर पूरी कर देता है। कई इच्छा सांकेतिक कर्म से भी पूरी होति है। बाक़ी इच्छाओं को विरक्त रहकर त्याग देता है। आसक्त भाव से कर्म करने में दुःख है और अनासक्त भाव से करने में आनन्द है। चेतना और विरक्ति में इच्छाएँ समाप्ति नहीं होति लेकिन तेज नहीं होंगें कमजोर पड़ जाते हैं बड़ा कर्म नही होता। ***इच्छाओं का वर्गीकरण** नियन्त्रण के लिए इच्छाओं को वर्गीकरण करना आवश्यक है। बहुत सारी इच्छाओं में हानिरहित या हानिकारक, सुखदायी या दु:खपूर्ण, महत्वपूर्ण अथवा महत्त्वहीन, दीर्घकालिक अथवा तात्कालिक किस प्रकार के हैं वर्गिकरण करके सूचीबद्ध करना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक इच्छाओं को स्थान देना चाहिए। उस पर होने वाले कार्यों की प्राथमिकता सूची बनानी चाहिए। जो पूरा नहीं हो सकता अथवा जो पीड़ा दे रहा है उसे हटा देना चाहिए। इस सूची को पढ़ने मात्र से अपने बारे में सभी विषयों का बोध होता है और अनावश्यक इच्छाओं को हटाना आसान हो जाता है। ***सकारात्मक कामना** कामना चित्त की एक संरचना है, कार्यक्रम है, और एक संकल्प है। जीवन में कुछ करने/पाने की एक योजना है। कामना अधिक सचेतन होती है, व्यक्ति का अधिक नियंत्रण होता है। कोई कामना विकार भी बन सकती है। यह भी चित्त की निर्मिति है। कामना एक जुनून भी बन सकती है, जिससे मुक्त होना कठिन हो जाता है। इसिलिए सदिच्छा और सही कर्म के लिए कामना भी सकारात्मक होनी चाहिए। सकारात्मक कामना सदिच्छा और सत्कर्म को प्रेरित करती है। ***अभिलाषाओं के प्रति जागरुकता** अभिलाषा इच्छा का पर्याय है, अभिलाषा एक संकल्प भी है जो इच्छा की तुलना में अधिक समय तक रहता है, वर्षों तक, एक जीवन काल या कई जीवन काल तक चल सकता है। ये तब तक क्रियाएं उत्पन्न करती रहती है, जब तक वह पूरी न हो जाए। प्रायः एक अभिलाषा को दूसरी अभिलाषा से प्रतिस्थापित नहीं किया जाता। एक बार जब कोई अभिलाषा पूरी हो जाती है, तो काम पूरा हो जाता है। अधूरी अभिलाषा पीड़ा का कारण नहीं बनेगी। अभिलाषा में अधिक सचेतना और कुछ बुद्धिमत्ता होती है। अभिलाषा पर व्यक्तिका अधिक नियंत्रण होता है। अभिलाषाएं व्यक्ति की समग्र जीवन शैली को नियंत्रित करती हैं। एक निश्चित प्रकार का जीवन जीना, आविष्कार करना, शासन करना, समृद्ध होना, शक्तियाँ प्राप्त करना, आदि अभिलाषा के उदाहरण है। अभिलाषा ही जीवन नहीं ये एक उप लक्ष्य मात्र है। अभिलाषा विकार भी बन सकती है। यह भी चित्त की निर्मिति है अभिलाषा एक जुनून भी बन सकती है, जिससे मुक्त होना कठिन हो जाता एक सकारात्मक अभिलाषा भी बंधन है। यदि अभिलाषाएं पूरे जीवन को प्रभावित कर रही हैं, तो उनके बारे में जागरूक होना एवं उन्हें सीमित करना बुद्धिमानी है। ***अनावश्यक इच्छाओं पर क्रिया न करना/कर्महिनता** सम्पूर्ण अनासक्ति के साथ सम्पूर्ण कुशलता से कर्म करना कर्महिनता है। आध्यात्मिक प्रगति, चेतना, बुद्धि और भावना के प्रयोग से इच्छाओं को नियन्त्रण करके कर्म को रोका जा सकता है। अनावश्यक इच्छाओं पर क्रिया न करने का संकल्प लेने और योजना बनाने से अनावश्यक इच्छाएं नष्ट हो जाएँगी। यदि वे नष्ट होकर पुनः प्रकट हो जाती हैं तो ये इच्छाएं नहीं हैं, ये आवेग हैं, और इस पर आवेग नियन्त्रण के उपाय करना चाहिए। जो इच्छा दूसरों के द्वारा थोपा है वो पूरी नहीं करनी चाहिए। अपना प्रारब्ध क्या है वो पूरी करनी चाहिए। कोई इच्छा नुक़सान करने वाली है तो भी उसका दिशा बदल कर सही किया जा सकता है। जैसे कोई शत्रु बनकर हानि पहुँचा रहा हो तो उसका प्रतिकार करने के बदले स्वयं की सुरक्षा मज़बूत बनानी चाहिए। ***इच्छाओं और चित्त की प्रकृति के प्रति जागरूक होना** इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती, एक पूरी होती है तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है। इच्छा करना चित्त प्रकृति है, और चित्त में इस प्रकार की संरचना है। इच्छा करना कोई समस्या नहीं है, समस्या चित्त की प्रकृति के प्रति जागरूक न होना है। जब इच्छाओं को ढीला छोड़ दिया जाता है, तो वे चित्त पर हावि होते है और व्यक्ति इच्छाओं के दास हो जाता है। **२ इच्छापूर्ति:** *इच्छा पूर्ति के कुछ तरीके*: इच्छा प्रकट होते ही बिना सोचे समझे उसके प्रभाव में आकर सम्पूर्ण कर्म कर देना। साक्षी भाव में रहकर जो आवश्यक है उतना ही करना। मानसिक रूप से पूरी करना। *इच्छापूर्ति की प्राथमिकताः* पहले जो सबसे आवश्यक है वो पूरी करनी चाहिए। उसके बाद जो पसंद है उसको पूरा करनी है। दूसरों की इच्छा को भी महत्व देकर पूरी करनी चाहिए। सभी मेरा ही रुप है। सभी के इच्छापूर्ति ही मेरी इच्छापूर्ति है। दूसरों की इच्छा पूर्ति करना पुन्य कर्म माना जाता है। चौथे नंबर में जो कम आवश्यक एवं कम महत्वपूर्ण हैं और पूरा करने का साधन है तो उसे पूरा करना चाहिए। *इच्छाओं पर कार्य करना*: स्थूल कर्म, वाणी कर्म आध्यात्मिक विकास जितना तेज़ होता है इच्छापूर्ति के लिए सभी प्रकार से अधिक समर्थन मिलता है, अधिक महत्व दिया जाता है और सरल होता है। कोई इच्छा वाणी से ही तृप्ति होती है और कुछ को कर्म करना पड़ता है। कोई मानसिक इच्छा होती है कर्म न करने से ही समाप्त हो जाती है। **३ इच्छादमन:** अनगिनत इच्छाओं में से सभी इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकती है। कोई इच्छा साधन न होने से, कोई इच्छा ग़लत परिणाम आने के डर से दमन किया जाता है। दमित इच्छा किसी भी समय विकृत रूप में आ सकते हैं। इच्छा प्रबल होकर आवेग के रूप में भी आते हैं। इच्छाओं को जितना विरोध या दमन करेंगे उतना परेशान करेगी। इसीलिए यथासंभव इच्छाओं का दमन नहीं करनी चाहिए। इच्छापूर्ति से ही इच्छा से मुक्ति संभव है। **४ इच्छात्याग** यदि कोई इच्छा सकारात्मक है, कार्य हानि रहित या लाभकारी है तो उस पर क्रिया करना ठीक है लेकिन यदि उस इच्छा को पूरा करने में बार-बार असफलता होती है तो वो दुःख का स्रोत बन जाता है, उसको समाप्त करना उचित होगा। किसी को केवल एक संकीर्ण इच्छा तक सीमित रहने की आवश्यकता नहीं है। एक बार जब कोई इच्छा स्वयं के लिए या दूसरों के लिए पीड़ा का स्रोत बन जाता है, तो यह एक विकार है और इसे समाप्त करना चाहिए। **सार** इच्छाएँ चित्तवृत्ति है और मूलभूत है, इसलिए इच्छाओं से मुक्ति संभव नहीं है। इच्छा के कारण ही सृष्टि और जीवन संभव है। इच्छाएँ तो सही ग़लत नहीं होती लेकिन उसपर होने वाले कर्म सही ग़लत होते हैं और कर्मचक्र को प्रभावित करते हैं। जैसी इच्छा वैसे कर्म, जैसे कर्म वैसे फल, जैसे फल वैसे संस्कार, जैसे संस्कार वैसे इच्छा और यही चक्र दोहराता रहता है। इसीलिए इच्छा नियंत्रित होनी चाहिए। अनियन्त्रित इच्छाएँ सुधार के पथ पर भटकाव मात्र है, विकार भी बनते हैं। किसी विशेष इच्छा पर आधारित कार्य का क्या परिणाम हो सकता है, इसके आधार में कोई इच्छा विकार है या नहीं पहचाना जा सकता है। इच्छा है और साधन है तो साक्षीभाव में पूरी करनी चाहिए यदि नहीं तो साक्षीभाव में देखना चाहिए। ऐसा करने से इच्छाएँ स्वतः नियन्त्रित हो जाएँगे। *** **श्रोत सामग्री** १. ज्ञानरत्न शृंखला सद्गुरू श्री तरुण प्रधान २. बोधिवार्ता सत्संग शृंखला- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान ३. विशुद्ध अनुभूतियाँ- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान
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