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गुरु जगतका पारसमणी
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://t3.ftcdn.net/jpg/08/04/93/12/240_F_804931226_dydFAV1HFo7AFDXVP2CsAWMTvc0V1j6R.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> गुरु का सानिध्य सकल जीव का निर्भय भर। दुःखों का बन्धन से गुरु करे रिहा नित्य प्रहर॥ गुरु मुक्तिदाता गुरु चरण में व्योम अवनि। गुरु विद्यासागर गुरु जगतका पारसमणी॥ कुचेष्टा, कुबुद्धि, मोह, मलिनता राख तप से। हरेकपल चिंतन में पीड़ा, क्लेश करे दूर सब के॥ पिता-माता, बंधु, बंशज सब स्वार्थ के कड़ी। निःस्वार्थ, शुद्ध प्रेम, आत्मीय गुरु पारसमणी॥ मेरा तत्व क्या है कैसे जगत में अवतरण? मिला तो जीवन क्यूँ मोह ये देह का भय मरण?? कोई अंधकार में कीचड़ में सड़े किसे पड़ी। गुरु को ही दर्कार तारक वही है पारसमणी॥ स्वयं से बेख़बर रहने से बड़ा दुर्गति भला। होगा क्या सृष्टि में बेकार दम, दौलत, कला॥ गुरु के दृष्टि से लोहा सोना बने उसी घड़ी। दुरात्मा पुन्यात्मा बने गुरु मिले पारसमणी॥ ***
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