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समाधि: मान्यता और खण्डन
जानकी
# पृष्ठभूमि अस्तित्वका सबसे प्राथमिक, मूलभूत, सरल और अभी का अवस्था जो है वही समाधि (अनुभवक्रिया) है, जो कभी आता जाता नहीं हमेशा रहता है। जो अवस्था के साथ आता जाता है वह समाधि नहीं चित्तवृत्ति है। अज्ञान के कारण चित्तवृत्ति बीचमें आकर अनुभवक्रिया को दो भाग में बाँट देती है और समाधि भंग होता है। ये विभाजन चित्त निर्मित है, समाधि चित्त निर्मित नहीं है। ज्ञानमार्ग में समाधि शब्द प्रयोग नहीं होता, सहज समाधि या अनुभवक्रिया के रुप में जाना जाता है। विभिन्न आध्यात्मिक मार्गों के अपने अपने धारणाएँ एवं मान्यताएँ होते हैं, विभिन्न विधि और उपाय अवलम्बन किए जाते हैं। कुछ बुद्धिप्रधान, कुछ बलप्रधान और कुछ प्रायोगिक होते हैं, कुछ केवल अंधानुकरण किया जाता है। अधिकांश मनुष्य को बुद्धिका उपयोग करना कठिन, बल एवं बहुमतका अनुशरण करना सरल लगता है, वही पसंद करते हैं। लोकप्रिय मार्ग और गुरुजन भी जनमत को समझकर उपयोग करना जानते हैं, जिसके परिणाम स्वरुप समाधि के संदर्भ में कुछ भ्रामक मान्यताएँ बने हुए हैं। अनुभवकर्ता का अनुभव होगा, ईश्वर किसी स्थान या बिंदु पर अवस्थित होगा, चित्त की अवस्था बदलकर विचित्र या अलौकिक अनुभव होगा, सिद्धियाँ प्राप्त होंगे, प्रशिद्धियाँ मिलेगी, चमत्कार होगा, मुक्ति मिलेगी, चित्तवृत्ति रुककर शांति और आनंद मिलेगा, दुखों का नाश होगा, विशेष विधि का प्रयोग करना पड़ेगा, बड़ी तपस्या, ध्यान और कडी साधना करनी पड़ेगी, शक्तिपात करना पड़ेगा, सांसारिक जीवन त्यागकर संन्यासी होना पड़ेगा, आश्रम गुफा जंगल या हिमालय में जाना पड़ेगा, केवल बड़े बड़े ऋषिमुनी और साधुओं को ही मिलेगा आदि भ्रमाक मान्यताएँ हैं। यहाँ पर इस विषयपर चर्चा करने का प्रयास कर रही हूँ। # समाधि के संदर्भ में कुछ भ्रामक मान्यता और उनका खण्डन **१ समाधि के लिए बड़ी तपस्या, कड़ी साधना और विशेष विधि का प्रयोग करना पड़ेगा, विशेष चीज या स्थान पर ध्यान देना पड़ेगा, शक्तिपात करना पड़ेगा** विभिन्न मार्गों में जो समाधि के नाम पर यम, नियम, योग, ध्यान, तपस्या आदि एक या अनेक विधि के द्वारा ध्यान केन्द्रीत करने का प्रायोगिक विधि और विभिन्न प्रक्रियाएँ किए जाते हैं, जिसका अन्तिम उद्देश्य और आशय भी अज्ञान को हटाना, शुद्धिकरण करना ही है; लेकिन व्यक्ति मार्गों के बारे में जानकारी बिना अंधानुकरण करता है। ऋषिमुनीयों की कहानी सुनकर उसका परिवेश और कारण आदि खोज अनुसंधान किए बिना ही विश्वास करके अवलंबन करता है और अनुचित प्रभाव का शिकार बनता है। विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हुए शारीरिक एवं मानसिक हानि कर लेता है। ज्ञानमार्ग में अस्तित्व का अखण्ड स्वभाव जो है वही समाधि है, इसको जानने के लिए एक मात्र विधि ज्ञान और अखण्ड साक्षीभाव है। ज्ञान एक ही बार होता है, ज्ञान का ध्यान ही सही साधना और सही विधि है। सहज समाधि में आना अपने मूल अवस्था में आना है। अन्य अवस्था में रहना मार्ग से भटकाव है, मनोरंजन है। सभी अवस्था का पृष्ठभूमि समाधि है, समाधि शांति है, मौन है, इससे सरल कोई अवस्था नहीं है। चाहे ज्ञान में हो या अज्ञान में हो, जागृति, स्वप्न, निद्रा, आदि कोई भी अवस्था हो सभी समाधि में है। क्यूँकि अस्तित्व की अवस्था समाधि मात्र है। समाधि को जानने के लिए अज्ञान को हटाना है और कोई प्रयास नहीं लगता। यदि कोई प्रयास है तो वह अज्ञान हटाने के लिए, चित्त को शांत एवं नियन्त्रित करने और शुद्धिकरण के लिए है। ज्ञानमार्ग में समाधि के लिए योग, प्रणायाम, ध्यान, धारणा, आदि करना नहीं पड़ता, सब अपने आप होता है, ज्ञान और शुद्धिकरण आवश्यक है। साधना से कुछ नहीं मिलता, क्यूँकि खोया कुछ नहीं है। स्वयं को जानकर उसी ज्ञान में स्थित रहने से जो मिलता है वह शांति, आनंद, प्रेम बाक़ी कुछ भी करने से नहीं मिलता। सभी अवस्थाओं में द्रष्टा का ज्ञान होना साक्षीभाव है और यही एक साधना है। जहाँ रुचि होती है वहाँ साधना या प्रयास की आवश्यकता नहीं होती; सब अपने आप होता है। शरीरशुद्धि, आचरणशुद्धि, वाणीशुद्धि, विचारशुद्धि, सम्बन्धशुद्धि, बुद्धिशुद्धि और चेतनाशुद्धि आदि साधक के विकास के चरण है। जो सिद्धि शक्तिपात के अंधानुकरण से नहीं होता वह इन स्तरों मे शुद्धिकरण मात्र से संभव है। आत्मज्ञान और चेतना का प्रयोग से साधक का जो प्रगति होता है उससे बड़ा आनंद कोई भी मनोरंजन या साधना में नहीं है। **२ अनुभवकर्ता/ईश्वर किसी स्थान या बिंदु पर अवस्थित होता है और वहीं उसका अनुभव होगा** शरीर में स्थित ईन्द्रीयों के माध्यम से जो अनुभव होता है, उसी को अपना मानकर स्वयं अनुभव अपने आप को द्रष्टा समझ लेता है। इन्द्रीयाँ अनुभवकर्ता को शरीर में होनेका भ्रम दिलाती हैं। भ्रामक मन्यताओं में जो साकार स्वरुप का परिकल्पना किया गया है उसीको अनुभवकर्ता पर आरोपित करने का प्रयास करता है। माया का स्वभाव ही सत्य छुपाना और असत्य दिखाना है, सत्य में आवरण डालकर उल्टा प्रक्षेपित करती है। मनुष्य उसी को सत्य मानता है, और द्रष्टा को देखनेका असंभव प्रयास करता रहता है। जिसके पृष्ठभूमि में अस्तित्व के सारे अनुभव आकर चलेजाते है, जहाँ से सारे अनुभव उभरतें है, जो सभी अनुभवों का एक मात्र द्रष्टा है, वही मूल को एक छोटा सा मिथ्या अनुभव में आरोपित करना तो अज्ञान का पराकाष्ठा हो जाएगा। जीव के आंखो से द्रष्टा को देखना संभव नहीं है। स्वयं एक अनुभव होकर अनुभवकर्ता को अनुभव करने का भ्रम सूर्य के आगे दिया समान है। जीवन के लिए जीवको शरीर में स्थित होना आवश्यक है, द्वैत में होना आवश्यक है और ईन्द्रीयोंद्वारा आने वाले अनुभवों को अपना लेना भी आवश्यक है; नहीं तो जीव नहीं जी पाएगा; लेकिन चित्तवृत्ति में स्वचालित रुपमें चलनेवाले प्रक्रियाओं को सत्य मानकर जीवको अनुभवकर्ता समझना और उपर से आत्मन एवं ब्रम्हन को जीव के शरीर में अवस्थित समझना दोहरा अज्ञान है। जिसको जाना जा सकता है वह तो अनुभव ही हो जाएगा। नेति नेति विधि, अपरोक्ष अनुभव और तर्क के माध्याम से अज्ञान हटाकर दृश्य और द्रष्टा को समझना आवश्यक है। अनुभवकर्ता का स्वरुप कभी नहीं दिखेगा। वह एकमात्र सर्वव्यापी है, जिसके प्रकाश में सारे अनुभव प्रकाशित है, निराकार, निर्गुण सत्य है, साकार-सगुण मिथ्या रुपमें है, जो है वही है, सामने है। **३ चित्त की अवस्था बदलकर विचित्र या अलौकिक अनुभव होगा, सिद्धियाँ प्राप्त होंगे, प्रशिद्धियाँ मिलेगी** जो बिना ज्ञान के साधना करते हैं, चित्त की कुछ अवस्था और भिन्न अनुभवों को सत्य मानते हैं। अवस्था में बदलाब आना, जागृति, स्वप्न, निद्रा आदि अवस्था में भिन्न प्रकार का अनुभव होना, व्यक्ति का ध्यान किसी चीज पर केन्द्रीत होकर अवस्था और अनुभव बदलना, जागृत अवस्था के इन्द्रीयों की सीमा टूटकर नया सूक्ष्म ईन्द्रीयाँ सक्रिय हो जाना, जीवन की प्रक्रिया रोककर पून सुचारु करना, बिना सांसारिक नियम के भी व्यक्ति जीवित रहना, चित्तवृत्ति की क्षणिक शांति और चित्त का अनंत विस्तार होना, ज्योतिर्मय स्वरुप दिखना, प्रकट और अंतर्ध्यान होना, बिना प्रयास कोई कार्य करना, सभीको बश में कर लेना, जो चाहे वो सृजन या प्रकट करना, रोग निवारण करना आदि अवस्था और अलौकिक अनुभवों को सही मानकर वही प्राप्त कर लेना उपलब्धी समझते हैं, अज्ञान के कारण सत्य और मिथ्या को समझ नहीं पाते। मैं चित्त नहीं हूँ और मैं शरीर के अंदर नहीं हूँ ये ज्ञान से व्यक्तित्व का नाश हो जाता है। उसके बाद चित्त में एक प्रकार का फैलाव आता है। हर अनुभव में स्वंय को दिखाई देता है, विचित्र अनुभव भी होने लगेंगे; लेकिन ये चित्त की ही अवस्था है, मिथ्या ही है। थोडी देर रहती और फिर भंग होती है, चित्त का फैलाव समाधि नहीं है। जागृति, स्वप्न, निद्रा, ध्यान आदि विभिन्न अवस्था में चित्त की अवस्था प्राकृतिक रुप से बदल जाती है। जब ध्यान शरीर से हटता है और दूसरी लोक में नहीं पहुँच जाता तब तक लोकों के बीच में एक आकाश तत्व में रहता है। वहाँपर अनुभव है लेकिन ये स्मृति का अनुभव नहीं होगा। जब मानसिक अवस्था बदलकर प्राकृतिक नियम के उपर उठता है तो प्रकृति ने उस जीव को जीवित रहनेका कुछ न कुछ व्यवस्था कर लेती है। साधक माया के नियमों के उपर उठ भी गया तो भी ये चित्त की अवस्था ही है। माया में चाहे जितना भी बड़ा फेरबदल होकर जो भी प्रकट हो जाए वह कभी सत्य नहीं हो सकता; सत्य हमेशा सत्य और मिथ्या हमेशा मिथ्या ही रहेगा। ईन्द्रीयों की कोई सीमा नहीं है, अनंत है; कुछ भी अनुभव हो सकता है, कुछ भी चमत्कार संभव है; लेकिन कुछ भी चमत्कार अनुभवकर्ता नहीं हो सकता। जैसै चित्त में कुछ बदलाव आया है वैसे चला भी जाएगा लेकिन समाधि कभी बदलता नहीं। सहज समाधि का अनुभव नहीं होता, अनुभव और अनुभवकर्ता विलीन हो जाते हैं, चित्त का सारा कोलाहल और वृत्तिओं का अभाव हो जाता है। एक दूसरे में मिल जाते हैं, भेद समाप्त हो जाता है; यही हमेशा है। समाधि को जानने के लिए ज्ञान आवश्यक है, चित्तवृत्ति बंद करना आवश्यक नहीं है। माया की प्रतीति से बड़ा चमत्कार कुछ भी नहीं है। अति आवश्यक उत्तरजीविता के कर्म अपने आप होते हैं। साधारण एवं सात्विक जीवन जीने के लिए कोई सिद्धि या चमत्कार की आवश्यकता भी नहीं। सात्विक विचार, व्यवहार और आचरण से प्रगति होती है और प्रगति होने से सिद्धियाँ अपने आप मिलती है। **४ मुक्ति मिलेगी सभी दुखों का नाश होगा केवल शांति और आनंद रहेगा** अज्ञान के कारण जीव अपना तत्व को नहीं समझ पाता, आपने आप को बंधन में पाता है। जब ये बंधन पीडादायी बनता है तो वह मुक्त होना चाहता है। काम, क्रोध, लोभ, जैसे विकार एवं दुःख पीड़ा के कारण सांसारिकता के प्रति वितृष्णा जाग जाता है। दुखों से मुक्ति के लिए आध्यात्मिक मार्ग, ध्यान, समाधि आदि में मृगमरीचिका की तरह क्या करने से मुक्ति मिलेगी ये खोज में रहता है। मेरा तत्व सदा मुक्त है और जीव सदा बंधन में है, ये नहीं जान पाता। ज्ञानमार्ग में मैं सदा मुक्त हूँ ये ज्ञान होता है। आत्मन, ब्रम्हन, अनुभवकर्ता या अस्तित्व जो भी कहें वो पहले से मुक्त है, सदा मुक्त है। अनुभवकर्ता स्वयं का अनुभव करते हुए भी मुक्त है। अनुभवकर्ता पर मुक्ति की परिभाषा या कोई भी धारणा लागु नहीं होता। चित्त का नियम ही चित्त का बंधन है, जीव तो सदा बंधन में है, तत्व सदा मुक्त है। चित्तवृत्ति हमेशा चलता रहेगा, वृत्तिओं का अंत होना कभी संभव नहीं है। वृत्तिका मूल नाद है, जब तक नाद की परिकल्पना है, अनुभव है, तब तक वृत्ति रुकना और शांत होना संभव नहीं, उसके पार जाना संभव है। कोई भी ध्यान, तपस्या, दान, धर्म, पूजाअर्चना, सेवा या अन्य कुछ भी करने से मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति कोई कुछ मिलने की अवस्था नहीं है, यह वह है जो हमेशा से है और बिना कुछ किए ही है। तत्व हमेशा मुक्त है और जीव हमेशा बंधन में है। मैं जीव नहीं तत्व हूँ यह ज्ञान जीव को मुक्ति दिलाता है। जो बंधन में है वह सदा बंधन मे है और जो मुक्त है वह सदा मुक्त है। यदि कोई आपने आप को बंधन में पाता है तो वह केवल अज्ञान के बंधन में है। जीव में मुक्ति की इच्छा होनी चाहिए और वह मुक्ति अज्ञान से मुक्ति है। जब तक अज्ञान है तब तक मुमुक्षत्व रहता है। जब आत्मज्ञान होकर स्वयं का तत्व जाना जाता है, तब मुक्ति की इच्छा ही छुट जाती है, हमेशा मुक्ति ही मुक्ति है। **५ सांसारिक जीवन त्यागकर संन्यासी होना पड़ेगा, आश्रम, गुफा, जंगल या हिमालय में जाना पड़ेगा, केवल बड़े बड़े ऋषिमुनी और साधुओं को मिलेगी** विभिन्न मार्गों में समाधि के विषय में अपने अपने धारणाएँ एवं मान्यताएँ है। प्राचीनकल में जीवनशैली सरल और सात्विक था अनुभव में क्लिष्टता और बुद्धि में भ्रष्टता नहीं थी। माया में अज्ञान का परत उतना जटिल नहीं था। इसी कारण ऋषिमुनी ज्ञान, ध्यान, धारणा और स्वयं के स्वरुप में बैठे रहते थे। जब उत्तरजीविता विकासक्रम बढ़ता गया व्यक्ति संसार में लिप्त रहने लगा, वही प्रिय होने लगा, स्वयंका स्वरुप भूल गया और स्वयंको जाननेका काम कठिन और निरर्थक मानने लगा। जिसमें मुमुक्षत्व जागा उसके लिए संसार में रहते हुए शारीरिक, प्रायोगिक मार्ग पर स्वयं में स्थित होना कठिन होने लगा और सांसारिक जीवन त्यागकर आश्रम, गुफा, जंगल या हिमालय में जाकर एकांत में रहने लगे। एकांत में करने के लिए कुछ नहीं है तो तपस्या और ध्यान में लीन होने लगे। कालान्तर में यही मान्यता, नियम और अनुशासन के रुपमें स्थापित हुआ और अभी संसार में व्याप्त है। व्यक्ति ने इसी को विकृत करके भ्रामक मान्यता बना लिया है। बुद्धिहीन व्यक्ति बुद्धिप्रधान कार्य कठिन और अनुकरण करना सरल मान लेता है। जीव विकास का स्तर, प्रारब्ध, गुरु की उपलब्धता, बौद्धिक क्षमता, साधन, रुचि, वातावरण, संगत आदि के प्रभाव से सांसारिक लिप्तता या मुक्ति की इच्छा जागृत होता है, मार्ग मिलता है। जैसा मार्ग मिलेगा उस मार्ग के अपने अपने नियम, अनुशासन और आचरण होतें हैं। जो सहजता से उपलब्ध होता है, जहाँ बहुमत है, वहाँपर सभी का ध्यान जाता है। ज्ञान प्राप्त करने और ज्ञान में स्थित रहने के लिए सांसारिक जीवन त्यागना नहीं पड़ेगा। साधक जहाँ है वहीं से आत्मज्ञान, मायाज्ञान और ब्रम्हज्ञान लेकर ज्ञान के प्रकाश में सुखी रहा जा सकता है, हमेशा समाधिस्थिति में रहा जा सकता है। सांसारिक जीवन मिथ्या खेल है लेकिन उपयोगी है। कोई भी निरर्थक गतिवियों में संलग्न होना आवश्यक नहीं। संसार में कम रुचि होना, विरक्त रहना, अनावश्यक संग्रह में दिलचस्पि न होना, अनावश्यक सामाजिक बंधनों से दूरी बनाना, ज्ञान में स्थित रहना आदि कार्य का अर्थ सांसारिक जीवन त्यागना नहीं है। सन्यास का मूल मर्म बन्धनों से मुक्ति है, आसक्तिको त्यागकर आध्यात्मिक प्रगति, सुख, शांति और आनन्द के लिए जीवन समर्पित कर देना है। जो सन्यास का पूर्वशर्त और साधक का गुण है वह सांसारिक व्यक्ति भी अवलम्बन कर सकता है। कठिन परिस्थिति में भी आवश्यक गुणों का विकास करके सभी सांसारिक ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए जो सृष्टि का सहायक एवं मोक्षका संवाहक बन सकता है वही सच्चा सन्न्यासी है; वही सफलता और मुक्तिका हकदार है। सृष्टि के नियमों को चलाने के लिए संसार में रुची होना आवश्यक है, माया के नियमोंको तोड़ना उचित नहीं है। # सार अज्ञान जटील है, ज्ञान सरल है, सबकुछ यहाँ है और अभी है। जब समाधि का अर्थ समझा ही नहीं है तो भ्रामक धारणा होना स्वाभाविक है। ये सृष्टि शक्ति की लीला है, हर अनुभव शक्ति की रचना है। समाधि के लिए कहीं भटकना, कठोर साधना या तपस्या करना आवश्यक नहीं है। शक्ति की वर्षा सर्वत्र और हमेशा होती रहती है। ज्ञान के प्रकाश में खुली दिमाग से उसको ग्रहण करने की क्षमता साधक में होनी चाहिए। जो वृत्ति शक्तिशाली है ध्यान वहीं रहता है। ज्ञान और चेतना की वृत्ति शक्तिशाली होनी चाहिए; शक्तिपात, ध्यान, धारणा, समाधि आदि सभी अपने आप होगा। समाधि के लिए चित्तवृत्ति को रोकना नहीं पड़ता, चितवृत्ति को चलते हुए भी समाधि है। इसके लिए चित्तवृत्ति को भी अनुभव में मिलाकर देखना चाहिए। जब बाँटनेवाला चित्तवृत्ति ही अनुभव में मिल जाएगा तो वहाँ पर केवल समाधि रह जाएगा। निर्गुण और निष्काम भाव से चित्तवृत्तिओं को चलते हुए देखना समाधि है। निर्गुण का अर्थ सारे अनुभवों से अछूता रहना है। अनुभवकर्ता मुक्ति और बंधन दोनों का निष्काम साक्षी है। जिस आनंद के पृष्ठभुमि में सभी अनुभव आकर चले जाते हैं वह सही अवस्था है। ब्रम्ह स्थायी है, कोई विशेष या सामान्य अवस्था नहीं है, विचित्र या भ्रम नहीं है, हमेशा होना मात्र है। यही समाधि है, जिसमें सम्पूर्ण प्रक्रिया, वृत्ति, अवस्था, भ्रम, मिथ्या और मनगढंत विचार समेत सम्पूर्ण माया सामिल है। जो प्रयास से मिलता है और बदलजाता है वह समाधि नहीं माया है, जो सबसे सरल है वही सत्य है, यही समाधि है। *** *संदर्भ सामग्री* १: बोधिवार्ता सत्संग एवं ज्ञानरत्न शृंखला, श्री तरुण प्रधान २: ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम - श्री तरुण प्रधान ३: अपरोक्ष अनुभव एवं तर्क आधारित जानकारी।
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