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विभिन्न परिप्रेक्ष में कर्म और कर्मबंधन से मुक्ति
जानकी
<br><br> <div class="ui image"> <img width="500px" src="https://as2.ftcdn.net/v2/jpg/05/73/57/27/1000_F_573572713_elM7ryl6X03vRV2u7jL49WozT1uVOY5P.jpg" alt="Any Width"> </div> <br><br> **परिभाषा** सामान्यत: जहाँ कुछ कार्य हो रहा है, कुछ प्रक्रियाँए या गतिविधियाँ चल रहे हैं उसको कर्म कहतें हैं। कर्म का सही अर्थ समझकर उपयोग करने के लिए कर्म को विभिन्न स्तर में समझना चाहिए। अद्वैत के स्तर पर कोई कर्म नहीं और करनेवाला कर्ता भी नहीं है, सब अपने आप हो रहा है। द्वैत के स्तर पर माया के सभी लीलाएँ या विश्वस्मृति में जो भी प्रक्रियाएँ, और हर परत में जो गतिविधियाँ चल रहे हैं वो सब कर्म ही है। सू्र्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षेत्रों का गति; पंचमहाभूत कि गति; शरीर कि गति; मन कि गति आदि सब कर्म ही हैं। व्यवहारिक स्तर में जीव के हात (कर) द्वारा जो गतिविधियाँ होते है उसको कर्म कहते हैं। कर्म दो प्रकार के होते हैं। स्थूल कर्म और सूक्ष्म कर्म। कर्म के विषय में जिस स्तर पर बात हो रहा है उसी स्तर पर समझना चाहिए, जो भिन्न-भिन्न सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है। ये लेख इसी विषय स्पष्ट करने का एक छोटा सा प्रयास है। **अनुभवकर्ता और कर्म** अनुभवकर्ता अस्तित्व का आधार है, जहाँ सबकुछ अर्तरनिहित होते हुए भी वो निर्गुण है। सभी अनुभव अनुभवकर्ता को ही होता है, लेकिन वो कुछ नहीं करता। वो अनुभवकर्ता तो है लेकिन अनुभव करना उसका कर्म नहीं है, ये तो उसका स्वभाव है, शान्त और आनंद भाव है, जो केवल होना मात्र है और इसीको हम अनुभवक्रिया के रुपमें समझ सकते हैं। यहाँ पर "कर्ता" और "क्रिया" का अर्थ कर्म करना और करनेवाला होना नहीं है; नित्य समग्रता में स्थित होना है। अनुभवकर्ता के लिए कोइ कर्म नहीं है। कर्म करनेवाला भी कोई नहीं है और कर्म को रोकनेवाला वा समाप्त करनेवाला भी कोई नहीं है। अनुभवकर्ता तो कर्म का बीज इच्छा का भी साक्षी मात्र है। यहाँ कर्ता और कर्मका विषय ही समाप्त हो जाता है। व्याख्या करने के लिए कुछ नहीं बचता, जो है सो है। **चित्त के परिप्रेक्ष में कर्म** ब्रम्ह का नाद ही कर्म का मूल है, जीसका आधार शून्य है और वही संपूर्ण है, वही कारण भी है और प्रभाव भी। परन्तु नाद स्वयं एक परिकल्पना है। नाद में निहित चक्रीय परिवर्तन और गति के कारण ही कर्म प्रतीत होता है। कर्म नादका परिणाम मात्र है। जो भी हो रहा है वो स्वयं ही हो रहा है। नाद, प्रक्रिया (कर्म) कर्मफल, संकार और पुनः यही प्रक्रिया कर्म के रुपमें बारबार दोहोराता रहता है। सभी परत में अपने अपने गतिविधियाँ चलते हैं। यही प्रक्रिया (कर्म) के अनुसार माया का लीला चल रहा है। विकासक्रम आगे बढ़ाने के लिए ये सिलसिला जरुरी है। कर्मचक्र चलता रहता है। कर्म>कर्मफल>संचय>कर्म ये कर्मचक्र है। इसीलिए जो भी कर्म होता है, वो पूर्व निर्धारित है, और वही कर्मफल के अनुसार निरन्तर दोहराता रहता है। चित्तवृत्ति कर्म का बीज है, सूक्ष्मकर्म है। व्यवहारिक स्तर पर कर्म भी है, कर्म के नियम भी है, कर्म बंधन भी है और कर्म सत्य भी है। जो भी कर्म होते हैं उनका फल आते हैं, यही कर्म का नियम है। इसको कारण-प्रभावका नियम और चित्तका नियम भी कहते हैं। विश्वचित्त में यही चक्र हमेशा चलता रहता है। **जीव के परिप्रेक्ष में कर्म** जीवित रहने के लिए और इच्छा पूर्ति के लिए जीव में कुछ आवश्यकता या वासना उत्पन्न होता है। उस समय जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म उसके सामने प्रकट होता है; तब व्यक्ति कर्म करता हुआ प्रतीत होता है। यन्त्रवत रुपमें क्रियाशील होता है, उसीको अपना कर्म समझता है। जितनी उसकी इच्छाएँ है और संस्कार पड़े हैं उतने ही कर्म होते हैं। यथार्थ में जीव के जो कर्म है वो मिथ्या है। उत्तरजीविता सरल बनाने के लिए, उत्तरदायित्व निभाने के लिए, इच्छा पूर्ति के लिए कर्म होते है। जो भी असल या ख़राब कार्य होते हैं उसका कर्मफल के द्वारा पुनर्जन्म या मुक्ति प्राप्त करने के लिए कर्म कारक होता है। समाज में व्यवस्था एवं अनुशासन क़ायम रखने के लिए कर्म और कर्ता का मिथ्या नाम देना आवश्यक होता है। इसीलिए सभी जीव माया के लीला या खेल में यंत्रवत सहभागी है, कठपुतलि के तरह परिचालित है। **कर्मबंधन और मुक्ति** कर्म और कर्मबंधन में भेद है। कर्म को रोका नहीं जा सकता वो चित्तका नियम है। कर्म से मुक्ति नहीं है, लेकिन कर्मबंधन से मुक्ति मिल सकती है। स्थूल शरीर और यन्त्र उपकरण के माध्यम से होने वाले कर्म स्थूल कर्म है। वाणी कर्म अर्धस्थूल है। भावना, सोच विचार, इच्छा आदि सूक्ष्म कर्म है। सूक्ष्म कर्म जब तक स्थूल रुपमें प्रकट नहीं होते उनका फल भी स्पष्ट नहीं दिखाइ देता और उनका प्रभाव भी कम होता है। स्थूल कर्म का फल जल्दी आता है और फल आना सुनिश्चित भी होता है। स्थूल कर्म पूनर्जन्म का कारक है। इसीलिए स्थूल कर्म में अधिक सचेत होना पड़ता है। कर्मबंधन से शीघ्र मुक्ति पाने के कुछ उपाय इस प्रकार हैं:- *१. चेतनायुक्त कर्म* चेतना में जो कर्म हो रहे हैं उनका अधिक कर्मबंधन नहीं बनता। क्यूँकि वहाँ कर्म करनेवाला जीव नहीं बचता। जो कर्म हो चुका है, उसका बंधन नहीं छुटता फिर भी चेतना के प्रकाश से कर्म का प्रभाव कम किया जा सकता है और कर्मबंधन से जल्दी मुक्ति मिलेगी। चेतना का स्थान सबसे उपर है; भावना, विचार, वाणी से चेतना नहीं आएगी, ज्ञान से चेतना जागृत होती है। कर्म को रोकना चेतना नहीं है, जो गतिशील है उसको शांत कर देना चेतना नहीं है। जो जीवित है उसमें कुछ न कुछ तो चलता रहता है। जो चल रहा है उसको चेतना के प्रकाश में प्रकाशित करना चेतना है। काम, क्रोध भी चेतना में हो सकता है, खेल के तरह सुन्दरता से होता है। चेतना में किए गए कर्म के फल तो आते है लेकिन बंधन नहीं बनते। चेतना के प्रकाश में कर्मबंधन तास के पत्ते का पहाड़ जैसा है, निचे का पत्ता खिचेंगे तो पूरा पहाड़ गिर जाता है। अज्ञान के अंधकार में किए गए कर्म के संस्कार का पहाड़ एक जन्म में धूल की कण बरावर ही नष्ट हो सकता है, लेकिन ज्ञान के प्रकाश में ये ३/४ जन्म में ही समाप्त किया जा सकता है। चेतनायुक्त कर्म करने से स्मृति में छाप तो पड़ेगी लेकिन प्रभावित नहीं करेगी। क्यूँकि जो चेतनायुक्त कर्म करता है वो जानता है कि उसने मुक्तभाव में कर्म कर रहा है, मुक्ति को जाना है। व्यक्ति के सत्व, रजस, तमस गुण के अनुसार सही या ग़लत कर्म का निर्धारण करता है। वही कर्म अज्ञानी करेगा तो वो बंधनका अज्ञान के साथ करेगा। जैसे बड़ा और शक्तिशाली हाथी भी बंधन के आदत होने के कारण या बंधन का संस्कार होने के कारण छोटी सी किल या रस्सी को भी तोड़ नहीं सकता; इसी प्रकार अज्ञानी भी कर्मजाल में फसा रहता है। यदि पिंजड़ा खुला है तो भी अज्ञान से बंद आँखों के कारण वो पिंजड़े से बाहर निकलने का प्रयास ही नहीं करता है। अज्ञानका बंधन ही कर्मबंधन है और चेतनायुक्त कर्म ही कर्मबंधन से मुक्ति है। *२. अनावश्यक कर्म का त्याग और कर्महीनता* कर्म से नहीं बचा जा सकता लेकिन "कर्म मेरा नहीं है " ये जानकर कर्म को त्यागा जा सकता है। जो करने के लिए जन्म हुआ है, जो पूरा किए बिना सन्तुष्टि नहीं मिलती, वो प्रारब्धकर्म है। वो तो करना ही चाहिए और होकर ही रहेगा। उत्तरजीविता के लिए जो किए बिना जीवन नहीं चलता, वो आवश्यक कर्म है। आवश्यक कर्म टाला नहीं जा सकता। एकबार टाल दिया तो भी दुबारा प्रकट होता है और होकर रहता है। आवश्यक कार्य सुख और शांति देता है। जिसके बिना भी जीवन चलता है, वो अनावश्यक कार्य है। अनावश्यक कार्य दुःख देता है। अनावश्यक का त्याग चैन लाता है, कर्मफलों को कम कर देता है। जो अनावश्यक कर्म करतें हैं वो व्यस्त रहते हैं, कार्यका परिणाम भी सही नहीं आता, कार्य अव्यवस्थित और कुरुप होता है, बिना लक्ष्य, मजबुरी में कार्य होता है, पीड़ा दायक होता है। जब तक अति आवश्यक न हो तब तक कर्म नहीं किया जाए तो वो कर्महीनता है। कर्महिनता के अवस्था को अकर्म भी कहा जाता है, जहां सब कुछ हो रहा है लेकिन बिना प्रयास के अपने आप होता है, क्यूँकि वहाँ करनेवाला नहीं है, कर्म बस होता है। आलस्य के कारण होनेवाला निष्कृयता कर्महीनता नहीं है। पूर्ण अनाशक्ति भाव और संपूर्ण कुशलता से कर्म करना कर्महीनता है। कर्महीनता भी कर्म है; और इसका भी प्रभाव आता है, परंतु ये प्रभाव बुद्धि और चेतना का विकास में योगदान करेगा। कर्म पर नियन्त्रण करेगा। सुख, शांति, आनंद और स्थिरता लायेगा। *३. लक्ष्यहीनता* मनुष्य जीवन का लक्ष्य मनुष्य जीवन से मुक्ति है। और वो मुक्ति केवल आत्मज्ञान होने से प्राप्त होता है, और कुछ नहीं करना पड़ता। मुक्ति अभी और यहीं है ; आत्मन सदा मुक्त है। ये मुक्ति का लक्ष्य मिलने के बाद मनुष्य में लक्ष्यहीनता होनी चाहिए। नहीं तो अनावश्यक लक्ष्यों का शृंखला बनता जाएगा और बंधन बढ़ता जाएगा, कर्मचक्र का पिछा कभी नहीं छूटेगा। कर्म का निर्धारण धारणा, भावना या मान्यता के आधार पर नहीं बुद्धि के आधार पर होना चाहिए। जिसका बुद्धि कम है, सोच समझ नहीं है, उनका कर्म अधिकतर अनावश्यक होते हैं। मनुष्य बुद्धिप्रधान जीव है, श्रमप्रधान नहीं। इसिलिए अधिकाशं कार्य बुद्धि से होते हैं। सोच समझ कर होते हैं। लक्ष्यहीनता में उन्मुक्ति होती है। *४. सेवाभाव और निःस्वार्थ कर्म* कर्म का फल तो सुनिश्चित है लेकिन क्या प्रभाव/फल आएगा ये कहा नहीं जा सकता। कुछ भी फल आ सकता है। आम तौर पर सही कर्म का सही फल और ग़लत कर्म का ग़लत फल आता है। जीव में कर्मफल झेलने की शक्ति भी होती है, समर्पण भाव में भोगना चाहिए। कर्म से नहीं डरना चाहिए, किस प्रकार का कर्म है, क्या परिणाम आएगा उस पर ध्यान देना चाहिए। जो कर्म निःस्वार्थ भाव से किया गया हो और सबके भले के लिए हो ऐसे कर्म का बडा़ कर्मबंधन नहीं बनता। सेवाभाव और निःस्वार्थ कर्म का फल अकेले भोगना भी नहीं पड़ता। क्यूँकि चित्त सबक एक ही है, यदि चित्त मिल गया तो प्रभाव सब पर पड़ता है। सेवा भाव में बँटे हुए कर्म का फल भी बँट जायेगा। कर्म बाँटने में भी लेने का नहीं देने का भाव होना चाहिए; तब कर्मबंधन स्वभाविक रूप से कम होता है और जल्दी कट जाता है। *५. कर्म का दिशा बदलना* इच्छा और कर्म कम बचे हैं तो फल भी जल्दी आएगा। इच्छा और कर्म की जितनी लम्बी सूचि है उतना समय लगेगा, क्योंकि वहाँ पर कर्म बंधनों का सभी सूचियों को निपटना पड़ेगा। इच्छा ही कर्म का बीज है। इच्छा तो कुछ भी होता है लेकिन ग़लत इच्छा को भी सही दिशा दे कर सही कर्म में बदला जा सकता है; और वो इच्छा पुरा भी किया जा सकता है। जैसे देश के सुरक्षा के लिए युद्ध के बदले अपने सुरक्षा संयन्त्र को मज़बूत बनाना। यहाँ पर देशप्रेम की इच्छा भी पूरी होती है और हिंसा भी नहीं होगा। **सार** सृष्टि में प्रक्रियाएँ अनंत है, संस्कार अनंत है, लीलाएँ अनंत है। इसीलिए कर्मो से मुक्ति नहीं हो सकती। कर्म तो स्मृति में संचित है, स्मृति का कभी अन्त नहीं होता। कर्म किसी का नहीं है और कर्ता कोई नहीं, लेकिन माया के खेल रूपी कर्म में जो प्रत्यक्ष रूप से सहभागी होता है, समाज के द्वारा उस खेल को कर्म और खिलाड़ी को कर्ताभाव थोप दिया जाता है। अहम् भाव के कारण व्यक्ति उस गतिविधि को कर्म और अपने आप को कर्ता मान लेता है। रक्षण, भक्षण, प्रजनन और उत्तरजीविता के लिए यह आवश्यक भी है। सृष्टि में जीव, बनस्पति आदि का जीवन जैसे चल रहा है उसी प्रकार मनुष्य का भी चल ही जाएगा। अनावश्यक संचिती का स्वभाव और कर्ताभाव केवल मनुष्य में है। जिसमें कर्ताभाव है उसका कर्म संचित हो ही जाता है और कभी न कभी फल आता ही है। कर्मफल भोगने और उत्तरदायित्व लेने के लिए ये जरुरी भी है, लेकिन अंत में कर्म और कर्ता कोई नहीं होता, शून्यता में निहित अनंत सम्भावना और माया का खेल और प्रपंच के रुपमें सब अपने आप चल रहा है। *** **श्रोत सामग्री** १. विशुद्ध अनुभूतियाँ- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान २. ज्ञानरत्न शृंखला- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान ३ बोधिवार्ता सत्संग शृंखला- सद्गुरू श्री तरुण प्रधान ४ ज्ञानदीक्षा कार्यक्रम, अन्य जानकारी एवं अनुभव।
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