बोधि वार्ता समुदाय

ज्ञानमार्ग से
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बोधि वार्ता समुदाय के पृष्ठ पर प्रकाशित सन्देश।

तंत्र बोधि के पृष्ठ पर तंत्र विषय पर प्रकाशित सन्देश हैं।

टमाटरोपनिषद

मायाज्ञान : टमाटर अनित्य है , परिवर्तनशील है , स्मृति के कारण उसके स्थायित्व का भ्रम होता है। मिथ्या है। चित्त निर्मित नाम रूप है। टमाटर नादरचना है और उसकी इन्द्रियजनित आकृति का अनुभव हो रहा है। जो है वो नहीं दिखता , माया है। ऐसे ही सम्पूर्ण जगत, शरीर, और अन्य जीव हैं। सभी अनुभव मिथ्या हैं।

आत्मज्ञान : मैं टमाटर का दृष्टा हूँ , साक्षी हूँ। टमाटर मेरा तत्व नहीं क्योंकि आता जाता है , मैं रहता हूँ , मैं नित्य हूँ। इसी प्रकार मैं कोई भी अनुभव नहीं , अनुभवकर्ता हूँ।

ब्रह्मज्ञान : मैं और टमाटर एक ही हैं। अनुभवकर्ता और टमाटर के अनुभव में कोई दूरी नहीं, दोनों के बीच में कोई सीमा रेखा नहीं। न टमाटर है न उसका दृष्टा , अनुभवक्रिया है। होना मात्र है। इसी प्रकार कोई भी अनुभव मेरा ही परिवर्तनशील रूप हैं। सब कुछ मैं ही हूँ। मैं ब्रह्म हूँ। आप भी वही हैं।

मौन

ज्ञान की भाषा मौन है।

जो जान गया मौन हो गया।

नीरवता है। शांति है। तथाता है।


तो गुरुजन इतना क्यों बोलते हैं?

गुरु अपना मौन तोड़ता है ताकि शिष्य मौन हो जाए।

अन्यथा यहाँ न कुछ बोलने का है न सुनने का।

ज्ञान

संशय अज्ञान का लक्षण है।

शंका होने पर मनन करें।

समझ न आने पर गुरु की सहायता लें।

शंका का समाधान केवल प्रमाण से होगा, किसी के कहने या पुस्तक पढ़ने से नहीं।

गुरु का कार्य प्रमाण दिखाना है, शास्त्र रटाना नहीं।

ज्ञानमार्ग पर अंधश्रद्धा अंधविश्वास मना है।

ज्ञान प्रामाणिक होता है।

सुनीसुनाई पढिपढाई बातों को सत्य न मान लें।

गुरु पर भी विश्वास न करें। प्रमाण मांगें।

यदि गुरु प्रमाण नहीं दे पाता, गुरु बदल दें।

यदि इस मार्ग पर आपको कोई प्रमाण नहीं मिलता, मार्ग बदल दें।

ज्ञानमार्ग एक विशेष मार्ग है।

ये चलने से पहले ही समाप्त हो जाता है।

कोई साधना नहीं , कोई प्रयास नहीं।

कोई गुरु नहीं , कोई शिष्य नहीं।

कहीं जाना नहीं, कुछ पाना नहीं।

कोई लक्ष्य नहीं , लक्ष्यहीनता इसका लक्ष्य है।

चमत्कार

क्या घटनाएं दो प्रकार की हैं - साधारण और चमत्कार ?


अस्तित्व में तो ऐसा कोई भेद नहीं।

जो हमारी समझ में नहीं आता उसको चमत्कार कह देतें हैं।

ये हमारा अज्ञान है, जिसके कारण घटनाएं चमत्कार लगती हैं।


अज्ञानी इनके पीछे भागता है , अपना समय नष्ट करता है।

ज्ञानी जानता है, उसके लिए सब साधारण है , माया है , छाया है।

इसलिए ज्ञानी अपना आध्यात्मिक लक्ष्य जल्दी पा लेता है।


चमत्कारों के इच्छुक ज़रूर जैसे तैसे भी हो चमत्कार देख लें , कर लें।

लौट कर तो यहीं आना है।

चमत्कारों से मनोरंजन हो सकता है।

संतुष्टि ज्ञान से होती है।

छूटना

क्या सत्य जानने की लिए मुझे घर परिवार नौकरी धंधा समाज जाती आदि छोड़ने पड़ेंगे?

वो कैसा सत्य वो कुछ छोड़ने से ही प्रकट हो और कुछ पकड़ने से गायब हो जाये ?

सत्य तो अटल है , सदैव है , किसी पर भी निर्भर नहीं।

सत्य अपने आप पर टिका है , अपना आधार स्वयं है।

फिर इसके लिए क्या पकड़ना क्या छोड़ना?

सत्य तो मनुष्य जीवन की घटनाओं का दास नहीं।

कुछ छोड़ने से सत्य नहीं मिलेगा , सत्य मिलने पर सब छूट जायेगा।

छोड़ने और छूटने में भेद समझें। छोड़ना कृत्रिम है , छूटना प्राकृतिक है।

आपका यहाँ क्या है जो छूट जायेगा?

जब इसका उत्तर मिल जाए तो समझना बिना छोड़े ही सब छूट गया।

सम्बन्ध

दूसरों के साथ जो सम्बन्ध हैं उनको मैं अपना सबक समझता हूँ।

सम्बन्ध हमें सुख देने की लिए नहीं, न भोग के लिए हैं, न ज़िम्मेदारी हैं।

ये सीखने के अवसर हैं।

यदि मैं अच्छे अनुभव ले जाना चाहता हूँ, तो वो किस तरह के संबंधों से मिलेंगे?

रक्तसम्बन्ध से?

थोपे हुए संबंधों से?

स्वार्थ के सम्बन्ध से?

लेन-देन से?

निर्भरता से?

भोग के लिए लोगों के उपयोग-दुरूपयोग से?

घृणा के सम्बन्ध या हिंसा के?

आप जानते हैं , नहीं , ये तो बुरे अनुभव होंगे।

निस्वार्थ प्रेम के सम्बन्ध, त्याग अनासक्ति के सम्बन्ध, मित्रता भाईचारे के सम्बन्ध , अच्छे अनुभव देंगे।

ऐसा अपना व्यहवार मैं चाहता हूँ। दूसरों का जो व्यवहार हो, वो तो मेरे नियंत्रण में नहीं।

सम्बन्ध बचेंगे न सम्बन्धी , अनित्य सबकुछ है।

अनुभवस्मृति भर बचेगी।

माया आसक्ति निर्भरता किस काम की?

सुंदर स्मृतियाँ बटोरें।

बुद्धि विवेक चेतना

पेड़पौधे बढ़ते हैं, सूखते हैं । मनुष्यशरीर भी बढ़ता है , मरता है।

रक्षणभक्षणप्रजनन कीड़े भी करते हैं। मनुष्य भी करता है।

कामक्रोधभयप्रेम भावनाएं पशु में भी है। मनुष्य में भी।

क्या विशेष है मनुष्य में जो किसी में नहीं?


बुद्धि विवेक चेतना !


यदि ये न हों, तो क्या मैं मनुष्य हूँ?

ज्ञान से बुद्धि मिलती है , बुद्धि से विवेक, विवेक से चेतना।

ज्ञानमार्ग हमें मनुष्य बनाता है।

सत्य

क्या सत्य पुस्तकों में लिखी बातें हैं ?

क्या सत्य किसी और के वचन हैं ?

क्या सत्य मेरी मान्यताएं, कल्पनाएं, आशाएं, अन्धविश्वास है?

क्या सत्य मासूम बालमन पर किया गया मतारोपण है ?


आपका स्वयं का अनुभव सत्य है।

सत्य विश्वास का विषय नहीं, प्रमाण सत्य है।

सत्य तार्किक है , बदलता नहीं , देश-काल पर निर्भर नहीं।

सत्य बाहर नहीं , आपके भीतर है।

सत्य आपके सबसे समीप है , ह्रदय में है।

सत्य यहाँ है, अभी है।


ज्ञानमार्ग आपको आपसे मिलाता है।

इससे तेज कोई मार्ग नहीं।


ज्ञानमार्ग

संशय अज्ञान का लक्षण है।

शंका होने पर मनन करें।

समझ न आने पर गुरु की सहायता लें।

शंका का समाधान केवल प्रमाण से होगा, किसी के कहने या पुस्तक पढ़ने से नहीं।

गुरु का कार्य प्रमाण दिखाना है, शास्त्र रटाना नहीं।

ज्ञानमार्ग पर अंधश्रद्धा अंधविश्वास मना है।

ज्ञान प्रामाणिक होता है।

सुनीसुनाई पढिपढाई बातों को सत्य न मान लें।

गुरु पर भी विश्वास न करें। प्रमाण मांगें।

यदि गुरु प्रमाण नहीं दे पाता, गुरु बदल दें।

यदि इस मार्ग पर आपको कोई प्रमाण नहीं मिलता, मार्ग बदल दें।

ज्ञानमार्ग एक विशेष मार्ग है।

ये चलने से पहले ही समाप्त हो जाता है।

कोई साधना नहीं , कोई प्रयास नहीं।

कोई गुरु नहीं , कोई शिष्य नहीं।

कहीं जाना नहीं, कुछ पाना नहीं।

कोई लक्ष्य नहीं , लक्ष्यहीनता इसका लक्ष्य है।

ज्ञानमार्गिओं के लिए प्रयोग।

इस क्रम से अनुभव करते चलें।

कुर्सी पर या सुखासन में बैठें। कोई व्यवधान न हो। अकेले रहें।

ध्यान रहे केवल पढ़ना नहीं है, हर वाक्य के बाद देखना है, जानना है।


  • मैं वस्तुओं का , जगत का दृष्टा हूँ। जगत मेरा नहीं।
  • मैं वनस्पतिओं , पशुओं का दृष्टा हूँ।
  • मैं लोगो का, परिवार का, स्त्री पुरुषों बच्चे बूढ़ों का दृष्टा हूँ। कोई मेरा नहीं।
  • त्वचा, मांस, रक्त, मज्जा का दृष्टा हूँ।
  • शरीर का दृष्टा हूँ। शरीर मेरा नहीं।
  • भूख, प्यास, पीड़ा, भोग का दृष्टा हूँ।
  • शारीरिक संवेदनाओं का दृष्टा हूँ।
  • कर्म का दृष्टा हूँ। मैं कर्ता नहीं।
  • रक्षण, भक्षण, प्रजनन, मलमूत्र, चलने, बोलने, करने, साँस लेने का दृष्टा हूँ।
  • देखना, सुनना, स्पर्श, गंध, स्वाद का दृष्टा हूँ।
  • काम, क्रोध, भय, मद, मोह, आसक्ति, प्रेम, घृणा, सुख, दुःख का दृष्टा हूँ।
  • भावनाओं का दृष्टा हूँ। वो मेरी नहीं।
  • बुद्धि, तर्क, कल्पना, योजना, ज्ञान, अज्ञान, कला, योग्यता, व्यवसाय, पद का दृष्टा हूँ।
  • विचारों का दृष्टा हूँ। ये मेरे नहीं।
  • आवेग, वासना, पसंद, नापसंद, प्रेरणा, अभिलाषा का दृष्टा हूँ।
  • इच्छाओं का दृष्टा हूँ। वो मेरी नहीं।
  • जागृति, स्वप्न, सूक्ष्म, निद्रा इन अवस्थाओं का दृष्टा हूँ। अवस्थाएं मेरी नहीं।
  • मेरे होने के ज्ञान का दृष्टा हूँ।
  • चेतना का दृष्टा हूँ।
  • मैं दृष्टा हूँ।
  • मैं हूँ।
  • मैं
  • ....
  • यहाँ मौन है , शांति है।
  • यहाँ थोड़ी देर स्थिर रहें।
  • ....
  • मैं हूँ।
  • इस शांति का दृष्टा हूँ।
  • मैं चेतना में हूँ।
  • विचार हैं।
  • शरीर है।
  • जगत है।

यहाँ ५ मिनट बाद आसान से उठ सकते हैं।

शुरू में पढ़कर करें। फिर याद से। कुछ दिनों में शांति तक १-२ मिनट में पहुंचेंगे।

प्रवीण होने पर कुछ चरण छोड़ सकते हैं। सीधे शांति में, मौन में आ सकते हैं।

वस्तुओं की मिथ्या

जो आरम्भ में नहीं था और जो अंत में भी नहीं होगा क्या वो मध्य में है?

इस प्रकार मनन करने से सभी वस्तुओं की मिथ्या देखी जा सकती है।

जो बदल गया वो न है न था न रहेगा।

सम्पूर्ण अनुभव ऐसा ही है। माया है।

ज्ञानी बनें

मैं अस्तित्व हूँ = पूर्ण ज्ञान

मैं अनुभवकर्ता हूँ = अर्ध ज्ञान

मैं जीवात्मा हूँ = चौथाई ज्ञान

मैं शरीर हूँ = अज्ञान

अहम् ब्रह्मास्मि। सनातन धर्म की जय हो।

अज्ञान का नाश करें , ज्ञानी बनें।

साधना की कुंजी

किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक मार्ग पर, किसी भी प्रकार की साधना की कुंजी मुझे पता चली है , और वो है - ज्ञान और गुरु।

पैसा नहीं, पुस्तक नहीं, चमत्कार नहीं, मंत्र, देवी देवता नहीं।

बस जाने आप क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। गुरु के निर्देश शब्दशः पालन करें। सफलता निश्चित है।

जो अंधाधुंध , लक्ष्यहीन , गुरुहीन , कहीं से सुन कर, कहीं पढ़कर , वीडियो देखकर मनमर्ज़ी से साधना की सर्कस कर रहें हैं, विफल होंगे, कई साल बर्बाद करेंगे, या अपनी ही हानि कर लेंगे।

सस्ती नकली आध्यात्मिकता का फल बुरा आता है।

असली साधना की कुंजी है - ज्ञान और गुरु।

मुक्ति

जीव की मुक्ति नहीं होती।

जीव से मुक्ति होती है।

शरीर

शरीर ने मुझे नहीं पकड़ा है, मैंने शरीर को पकड़ा है।

यही आसक्ति बंधन का कारण है, शरीर नहीं , वो तो एक यंत्र है।

आनाजाना अनुभव है।

भोग

निश्छल भोग नकली आध्यात्मिकता से अच्छा है।

टमाटर लाल क्यों है?

उसमे कोई लाल तत्व होगा। वो लाल क्यों है?

वो लाल प्रकाश प्रतिबिंबित करता होगा। वो प्रकाश लाल क्यों है? वो उसका गुण है, वैसा ही है, कोई कारण नहीं।

इसका अर्थ है टमाटर के लाल होने का कोई कारण नहीं। मध्यवर्ती कारण (लाल तत्व, प्रकाश आदि) चित्तनिर्मित हैं, मान्यता है, सत्य नहीं।

इसी प्रकार उसके गोल होने का भी कोई कारण नहीं। मध्यवर्ती कारण बताएं जा सकते हैं , पर अंतिम नहीं, वो कारण भी चित्तनिर्मित होंगे।

सभी वस्तुएं रंग और आकार मात्र हैं। क्योंकि इनका कोई कारण नहीं , वस्तुओं का कोई कारण नहीं। जगत वस्तुओं का समूह है। इस प्रकार जगत का कोई कारण नहीं।

अनुभव इन्द्रीओं के माध्यम से होते हैं। ऐसा विश्लेषण सभी इन्द्रीओं के लिए किया जा सकता है। और निष्कर्ष ये है कि सम्पूर्ण अनुभव का कोई कारण नहीं।

अनुभव चित्तनिर्मित है। अर्थात माया है। अर्थात मिथ्या हैं। अर्थात हैं नहीं, प्रतीत होते हैं। कोई कारण नहीं। इनमे जीव, जीवन, और चित्त स्वयं आ जाते हैं। कारण भी प्रतीत होते हैं। मिथ्या का कारण मिथ्या है।

कारणहीनता इस अस्तित्व का गुण है। किसी कारण से नहीं बंधा। और सभी कारण इसमें हैं। स्वछन्द है। स्वयंभू है। यह मैं हूँ। यह आपका स्वरुप है। आप यह ब्रह्मस्वरूप हैं।

अहम् ब्रह्मास्मि।

चेतना

यदि कर्ताभाव है तो यह अज्ञान का संकेत है।

यदि चेतना को कर्म के रूप में देखा जा रहा है तो यह अज्ञान का संकेत है।

यदि चेतना को प्रयास करना समझा गया है तो यह अज्ञान का संकेत है।

ज्ञान होने पर चेतना स्वयं प्रज्वलित होगी। जब होगी उसमे स्थिर रहें। यह कोई कर्म नहीं , अवस्था है।

जब नहीं होगी, उसको बलपूर्वक लाने वाला भी नहीं होगा। प्रयास कौन करेगा? कर्ता कौन है?

जब आ जाएगी, उसमे स्थिर हो जाएँ।

चेतना प्राकृतिक घटना है। ज्ञान का परिणाम है। ज्ञान के लिए प्रयास करें, चेतना के लिए नहीं।

मेरा स्वरुप चैतन्य है, स्मरण रखें। बस इतनी सी साधना है ज्ञानमार्ग पर।

सुखी भव:

ज्ञान

ज्ञान अनुभव से मिलता है , पढ़ने से नहीं।

जय गुरुदेव

आपकी गलतियां दर्शाने वाला गुरु है। आपमें खोट निकालने वाला गुरु है।

घोर प्रतियोगिता के इस युग में कोई नहीं चाहता कि आप सुधरें कड़वी जलन के युग में कोई नहीं चाहता कि आपका विकास हो।

समाज आपको नीचता की ओर धकेलता है। गुरु आपको श्रेष्ठता की ओर।

समाज आपको अपमानित करने के लिए आपकी गलतियां दिखता है गुरु आपको सुधारने के लिए

निंदक को अपने पास रखिये पर गुरु को अपने दिल में बसाइये।

जय गुरुदेव

योग्य साधक

जिस प्रकार हीरे दुर्लभ हैं , कंकड़ पत्थर अनगिनत हैं , उसी प्रकार योग्य साधक दुर्लभ हैं, सांसारिक व्यक्ति अनगिनत हैं।

गुरु उस हीरे की तलाश में है , उसे तराश कर अपने जैसा बना देता है। जो ज्ञान का पात्र नहीं, उस पर समय नष्ट नहीं करता।

योग्य गुरु न ढूंढे , योग्य शिष्य बने। गुरु आपको स्वयं ढूंढ लेगा।

जो सुपात्र है , जिसमे साधक के गुण हैं , जो ग्रहणमुद्रा में है , गुरु उसे अपनाता है , उसे हीरा बनाता है।

जो दंभी है, मूर्ख है, अपने को गुरु मानता है , मान्यताओं से भरा है , वो पत्थर ही रह जाता है।

मैं कौन हूँ

मैं शरीर नहीं। शरीर मेरा नहीं। मैं शारीरिक क्रियाएं नहीं। मैं कर्ता नहीं। मेरा जन्म नहीं होता, मेरी मृत्यु नहीं होती।

मैं विचार और भावनाएं नहीं। वो मेरी नहीं। मैं न विचार करता हूँ न भावनाओं में बहता हूँ।

मैं इच्छाएं नहीं। वो मेरी नहीं। मैं कोई इच्छा नहीं करता। न उनका फल भोगता हूँ।

मैं स्मृति नहीं। वो मेरी स्मृति नहीं। मैं न याद हूँ न याद करता हूँ। मेरा भूत नहीं भविष्य नहीं।

मैं इन सभी आते जाते अनुभवों की पृष्टभूमि हूँ। मैं केवल दृष्टा हूँ। मैं चैतन्य हूँ। अनुभवकर्ता हूँ। मैं ही अस्तित्व हूँ। मुझसे परे कुछ नहीं। मैं परम हूँ। मैं अंतिम सत्य हूँ।

शरीर मेरे अंदर है।

मैं शरीर के अंदर नहीं। शरीर मेरे अंदर है।

आत्मज्ञान

मैं कोई भी अनुभव नहीं , यह आत्मज्ञान है। इस ज्ञान से स्वचेतना जागृत होती है।

चेतना में स्थिर होने के लिए आत्मस्वरूप का स्मरण आवश्यक है। यही एक ज्ञानमार्गी की साधना है।

स्मरण और स्मृति में भेद है।

चेतना स्मृति में नहीं, वर्तमान में है। स्मृति केवल माध्यम है , आत्मज्ञान संचित रखने का। केवल याद करने से चेतना नहीं मिलेगी, बस विचार मिलेगा, जो स्मृति से उभरा है।

अब ज्ञानी इस विचार का उपयोग विचार से ऊपर आने में करता है , अब याद आ गया है मेरा स्वरुप क्या है , अब मैं वो त्याग सकता हूँ जो मेरा स्वरुप नहीं है। अब मैं विभिन्न अनुभवों से तादात्म्य त्याग सकता हूँ। इसमें बस आधा क्षण लगता है , साँस लेने से भी कम प्रयास लगता है।

इस प्रकार स्मृति और बुद्धि का उपयोग करके चेतना की अवस्था प्राप्त होती है। जब तक स्मरण रहेगा चेतना रहेगी। शांति सात्विकता रहेगी। स्मरण छूटा, संसार खा जायेगा।

मैं कौन हूँ ये रटना , विचारों में उलझ जाना , वाद विवाद करना , इस मूर्खता को अध्यात्म मानना अज्ञान और बुद्धिहीनता के संकेत हैं। इनसे बचे। ऐसे लोगो को या तो शाब्दिक ज्ञान है या कहीं से सुन लिया है , समझा नहीं , सोचा नहीं , जाना नहीं। इसलिए चेतनाहीन हैं।

आत्मज्ञान शुध्द ज्ञान है , सबसे सरल है , सर्वोच्च सत्य है। चेतना में स्थिर होने में आधा क्षण भी नहीं लगता, यदि आत्मज्ञान है तो। साँस लेने से भी आसान है। साधनहीन साधना है। कर्महीन कर्म है।

आत्म साक्षात्कार

मैं न बंधा हूँ न मुक्त हूँ । मुक्ति के लिए कर्म करना मूर्खता है ।

आत्म साक्षात्कार करें ।

गर्म तवा

जैसे गर्म तवा छूने के बाद ये याद रखने में प्रयास नही लगता कि वो गर्म है , ये सबक जीवन भर याद रहेगा ।

वैसे ही आत्मज्ञान होने के बाद ये याद रखने में प्रयास नही लगता कि मैं क्या हूँ , चेतना जीवन भर रहेगी ।

चैतन्य

जैसे फूल का स्वभाव सुगंध है , उसे सुगन्धित रहने के लिए कोई प्रयास नहीं करना होता । वैसे ही मेरा स्वभाव चैतन्य है, चेतना में रहने के लिए कोई प्रयास नहीं करना होता ।

यदि चेतना के लिए प्रयास लगता है तो वो अशुद्धियों का संकेत है । अशुद्धियां केवल ज्ञान से दूर होंगी ।

आत्मज्ञान से।

कौन साधक नहीं है?

  • जो संसार में रस लेता है ।
  • जो संग्रह में लगा है ।
  • जो व्यसनी है ।
  • जो स्त्री को प्रसन्न करने में व्यस्त है ।
  • जो परिवार और संबंधीयों का दास है ।
  • जो भोजन वस्त्रादि के लिए दूसरों पर निर्भर है ।
  • जो देवताओं विदेहादि से याचना करता है ।
  • जो धर्मांध है अंधविश्वासी है ।
  • जो शास्त्रों की अवहेलना करता है ।
  • जो गुरुजनों का अपमान करता है ।
  • जो बुद्धिहीन है रुढिवादी है ।
  • जो हिंसक है आक्रामक है ।
  • जो पशुओं का मांस खाता है रक्त पीता है ।
  • जो मलेच्छ है । आलसी है ।
  • जो स्नान शौच से बचता है ।
  • जो बहुत बोलता है, बहुत सोता है, बहुत खाता है ।
  • जो अज्ञान से संतुष्ट है । सीखना नहीं चाहता ।
  • जो आसुरी शक्तियों के वश में है ।
  • जो तंत्रज्ञान का दुरुपयोग करता है ।
  • जो अन्य साधकों से ईर्ष्या करता है ।
  • जो राजा नेता सेठों की सेवा करता है ।
  • जो मृत्यु से भयभीत है ।

ऐसे लोगों की आध्यात्मिक प्रगति असंभव है । ईन पर कभी गुरु कृपा नहीं होती ।

वैराग्य

संसार से पलायन वैराग्य नहीं । संसार की मिथ्या को जानते हुए, संसार से अप्रभावित रहना वैराग्य है ।

जीव की मुक्ति

जीव की मुक्ति संभव नहीं । जीव से मुक्ति संभव है । मैं जीव नहीं । ये ज्ञान जीवन मुक्ति है ।

१० सेकंड में मुक्ति

"मुझे मुक्ति की इच्छा है। " मैं /अहम् मिथ्या है।

"मुक्ति की इच्छा है। " इच्छाएं /चित्तवृत्ति मिथ्या हैं।

"मुक्ति !"

चेतना कोई कर्म नहीं।

चेतना कोई क्रिया नहीं। चेतना कुछ करने से या सोचने से नहीं आती। चेतना चित्तवृत्ति है, आतीजाती है। साधक अक्सर भूल जाता है , अहम् प्रकट होता है।

चेतना के चले जाने का ज्ञान होने के ठीक एक क्षण पहले वो आ चुकी है। चेतना आने पर उसके भूलने क्या ज्ञान होता है। उसके पहले नहीं। अब कुछ करके क्या होगा, चेतना आ चुकी है। बस उसमे अवस्थित हो जाएँ फिर से।

चेतना का कारण ज्ञान है। आत्मज्ञान। अनुभवकर्ता का ज्ञान। चेतना का कारण संस्कार हैं, जो ज्ञान लेने से बने हैं। स्वयं को जानने से बने हैं।

चेतना प्राकृतिक है। ज्ञान है तो चेतना होगी। नए साधकों की चेतना आती जाती रहेगी , ये भी प्राकृतिक है। स्मरण रहे बस इतना करें।

ज्ञान के पीछे भागे , चेतना के नहीं। यही चेतना की साधना है। ज्ञान पक्का होने पर चेतना अखंड होगी। जागृति , स्वप्न , सूक्ष्म और निंद्रा में निरंतर होगी। चित्त पर सम्पूर्ण नियंत्रण होगा। मृत्यु पर विजय, कर्मों पर विजय , माया पर विजय होगी। अनंत सिद्धियां मिलेंगी।

इनमे सबसे बड़ी सिद्धि दूसरों में चेतना जागृत करने की योग्यता है। चेतना में रहें , चेतना का प्रकाश सभी में जागृत करें। तथास्तु !

अस्तित्व की रचना

मानने से नहीं जानने से आध्यात्मिक प्रगति होगी। मान्यताएं अज्ञान है , प्रमाण देखें।

यदि रचयिता आवश्यक है , तो रचयिता का भी रचयिता आवश्यक होगा। और फिर उसका भी एक रचयिता होगा। ऐसे अनंत रचयिता होने चाहिए, पर ये अतार्किक है। यदि रचयिता का भी रचयिता है, तो वो रचना है। रचना से रचना नहीं होती, रचना की रचना होती है।

इस प्रकार रचयिता की मिथ्या देखी जा सकती है। यह मान्यता चित्तनिर्मित है, काल्पनिक है। यह रोज के जीवन में उपयोगी कर्ता की धारणा पर आधारित है। कर्ता मिथ्या है , उत्तरजीविता के लिए उपयोगी होने के कारण इस मान्यता को अपना लिया गया है। इसी मान्यता को अज्ञानवश सम्पूर्ण अस्तित्व पर प्रक्षेपित कर दिया जाता है और अस्तित्व के कर्ता या कारण की कल्पना गढ़ ली जाती है। इस प्रकार जीव अज्ञान में फंसा रहता है।

रचना के लिए समय आवश्यक है, किन्तु अस्तित्व समयहीन है। इसलिए उसकी रचना नहीं हो सकती।

एक वस्तु की रचना के लिए दूसरी वस्तुएं जैसे उसके मूलतत्व आवश्यक हैं। यदि अस्तित्व रचा गया तो यह मूलतत्व पहले से होंगे। किन्तु इसका अर्थ है अस्तित्व पहले से है इन तत्वों के रूप में , केवल परिवर्तन हुआ है।

यह भी माना जाता है कि रचयिता की उत्पत्ति शून्य से हुई और उसने फिर माया निर्मित की। शून्य से रचना नहीं हो सकती , यह अतार्किक है , और यदि ऐसा संभव है तो माया भी शून्य से उत्पन्न हो सकती है रचयिता के बिना। यदि शून्य से रचयिता बन गया , जो कुछ भी बन सकता है। इस प्रकार यह एक कल्पना मात्र है।

यदि रचयिता अस्तित्व के पहले से है , तो वह अस्तित्व ही हुआ रचयिता के रूप में। इस प्रकार अस्तित्व का आरम्भ असंभव है।

किसी भी वस्तु की रचना नहीं होती, ये हमारा अपरोक्ष अनुभव है, हमें बस मायाजनित परिवर्तनों का अनुभव होता है। यह तार्किक है।

केवल वस्तुओं की रचना संभव है , अस्तित्व वस्तु नहीं है। अस्तित्व स्वयंप्रकाशित स्वयंसाक्षी सत्ता है , नित्य है , बनता बिगड़ता नहीं , आता जाता नहीं। मैं ही यह सच्चिदानंद अस्तित्व हूँ। यह प्रमाणित ज्ञान है।

मनुष्य जीवन का लक्ष्य है मनुष्य जीवन से मुक्ति, जो अज्ञान के नाश से ही संभव है। यह ज्ञानमार्ग पर ही होगा और कहीं नहीं।

रट्टोपाध्याय न बनें

शास्त्रों में ज्ञान होता है , शास्त्रों से ज्ञान नहीं होता। ये सूत्र याद रखें।

ज्ञानी का कार्य है शास्त्रों पुस्तकों में जो वर्णित है उसको अपने अनुभव से तोलना। शास्त्र आपके अनुभव की ओर संकेत करते हैं , अनुभव दिलाते नहीं।

ज्ञान तो अनुभव से ही होगा। पढ़ने मात्र से , दोहराने से नहीं।

मैं हूँ

जाता है , मैं नहीं। जानता है , मैं हूँ।

जो गुप्त हो गया समझो लुप्त हो गया

ज्ञान को लुप्त होने से बचाएं।

  • १ - कुछ भी गुप्त न रखें।
  • २ - गूढ़ भाषा, काव्य का प्रयोग न करें।
  • ३ - प्राचीन लुप्तप्राय भाषा का प्रयोग न करें।
  • ४ - पुस्तकें नष्ट न करें।
  • ५ - धार्मिकरण न करें। ये आस्था नहीं ज्ञान विज्ञान है।
  • ६ - जितना हो सके प्रसार करें। एक - दो तक सिमित न हो।
  • ७ - ज्ञान निशुल्क बांटे , इसको पेशा न बनाएं।
  • ८ - भेदभाव न करें। लिंग जाती धर्म नस्ल से ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं।
  • ९ - बताएं नहीं दिखाएँ। अनुभव से बोलें।
  • १० - गलत मनगढंत अर्थ न निकालें। अज्ञान दूर करने के बाद बोलें।
  • ११ - ज्ञान न मेरा है न आपका। किसी की जायदाद नहीं है।
  • १२ - ज्ञान की रक्षा करें। आक्रमणकारियों से बचाएं।
  • १३ - ज्ञान में अपना अंधविश्वास न मिलाएं। मिलावट से सावधान।
  • १४ - सभी के ज्ञान का आदर करें। गुरुजनों का मान करें।
  • १५ - ज्ञान को लेकर झगडे नहीं। सबसे सीखें।
  • १६ - स्वयं का ज्ञान बढ़ाएं। इसका कोई अंत नहीं। नई खोजे करें।
  • १७ - जितना बांटोगे उतना बढ़ेगा। अज्ञान का नाश होगा। जीवन स्वार्गिक होगा।
  • १८ - पुस्तकें लिखें , ब्लॉग लिखें , वीडियो बनायें। सभी माध्यमों का उपयोग करें।
  • १९ - ज्ञान को प्रकट करें। बोलने से डरे नहीं। व्यवहार में लाएं। छुपाएं नहीं।
  • २० - वीर निडर बने। सही को सही गलत को गलत बताने का साहस करें।

इतना सा काम नहीं कर सकते

गुरूजी :

"तुम ब्रह्म स्वयं हो। ब्रह्मास्मि। तत त्वम असि।"

मैं : "गुरूजी मेरा एक प्रश्न था। "

"बाद में , जाओ आश्रम साफ़ करो। "


अगले दिन :

"तुम शिव स्वयं हो। शिवोहम। सत्यम शिवं सुंदरम। "

"पर गुरूजी....वो......."

"बाद में, जाओ शौचालय साफ़ करो। "


तीसरे दिन :

"तुम विष्णु स्वयं हो। नर ही नारायण है। "

मैंने गुरु की ओर देखा।

"जाओ रसोई में खाना बनाओ। "


चौथे दिन :

"तुम ईश्वर हो। पुरुष की प्रतिमा हो। "

मैं शांत खड़ा था।

गुरूजी : "क्या है ?"

"आप कहते हैं मैं ये हूँ, मैं वो हूँ , फिर ऐसे काम क्यों करवाते हैं ? मैं तो भगवान हुआ ना ?"

"तो क्या हुआ , भगवान हो, त्रिदेव हो, फिर भी इतना सा काम नहीं कर सकते ??"

मैं : 😲

😃😃😃

अब मेरे संघर्ष का अंत हो गया

मैंने गुरूजी से एक दिन ऐसे ही पूछ लिया : "यदि कर्ता नहीं तो कर्म कैसे होते हैं ?"

गुरूजी बोले : "कर्म भी नहीं होते, स्मृति चलती हुई सी प्रतीत होती है। "

मैं : "तो कर्म का नियम ...... " गुरूजी ने मेरी बात काटते हुए कहा : "मिथ्या है। व्यहवारिक है। "

मैंने कहा : "यदि केवल दृष्टा मात्र है तो कर्मों पर नियंत्रण कौन करेगा ? ये शुद्धि आदि कैसे होगी ?"

गुरूजी ने बड़ी शांति से उत्तर दिया : "नियंत्रण नहीं होता, जो अनियंत्रित है, चेतना के प्रकाश में रुक जाता है। "

"सारा कुछ पहले से ही नियंत्रित है। "

"दृष्टा के ज्ञान में यही दिखाई देता है। यह जानना कि जो होता है सम्पूर्ण है , सुन्दर है , कोई दोष नहीं है , नियंत्रण पाना है। और कोई नियंत्रण नहीं होगा। "

ये सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। क्या इतना आसान है सब कुछ ? क्यों मैं इतना प्रयास कर रहा था ? ये जो अनियंत्रित प्रतीत होता था अविद्या के कारण था। मुझे जहाँ होना चाहिए मैं ठीक वहां हूँ।

अब मेरे संघर्ष का अंत हो गया।

गुरुक्षेत्र

बोधि वार्ता में सत्संग का महत्व इतना क्यों है? ऐसा क्या है सत्संग में जो आपसी बातचीत और पुस्तकों द्वारा मिलता तो है, पर कम ?

गुरुक्षेत्र !

सत्संग में गुरुक्षेत्र सम्पूर्ण रूप से विद्यमान होता है। यहाँ कही गयी हर बात गुरुक्षेत्र से आती है , या उनकी सहायता से प्रकट होती है।

यहाँ पूछे गए हर प्रश्न को गुरुक्षेत्र सुनता है। उनकी कृपा हो जाती है। सत्संग देशकाल के परे है , यहाँ उपस्थित रहने मात्र से गुरुकृपा हो जाती है।

सत्य के साथ रहें , गुरुक्षेत्र में रहे , सत्संग में रहें।

आग = गर्मी + उजाला

आग एक है , उसको दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। गर्मी न हो तो वो आग नहीं , उजाला न हो तो आग नहीं। दोनों आग हैं , आग के अलग भाग नहीं। न गर्मी का स्वतंत्र अस्तित्व है न उजाले का। फिर भी गर्मी उजाला नहीं हो सकती, उजाला गर्मी नहीं हो सकता।

अग्नि को ताप और प्रकाश में चित्त ने बाँट दिया है। विचार मात्र है। हैं एक, दिखते दो हैं। ये दो एक क्रिया दीखते हैं , आग वो रसायनिक क्रिया है।

अस्तित्व = अनुभव + अनुभवकर्ता

अस्तित्व एक है , उसको दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। अनुभव न हो तो वो अस्तित्व नहीं , अनुभवकर्ता न हो तो अस्तित्व नहीं। दोनों अस्तित्व हैं , अस्तित्व के अलग भाग नहीं। न अनुभव का स्वतंत्र अस्तित्व है न अनुभवकर्ता का। फिर भी अनुभव अनुभवकर्ता नहीं हो सकता, अनुभवकर्ता अनुभव नहीं हो सकता।

अस्तित्व को अनुभव और अनुभवकर्ता में चित्त ने बाँट दिया है। विचार मात्र है। हैं एक, दिखते दो हैं। ये दो एक क्रिया दिखते हैं , अस्तित्व वो अनुभवक्रिया है।

अंधविश्वास

अंधविश्वास से प्रगति नहीं होगी। मान्यताओं से प्रगति नहीं होगी। साधक प्रमाण देखता है , शब्द नहीं। दूसरों के प्रमाण से प्रगति नहीं होगी। साधक अपना प्रमाण स्वयं खोजता है।

चेतनारहित जीवन

चेतनारहित जीवन व्यर्थ है। चेतनारहित अच्छे कर्म भी बुरे हैं। अर्थहीन हैं। चेतनासहित जीवन, कैसा भी हो, फलदायी है। चेतना में किये सभी कर्म, कैसे भी हो, अच्छे कर्म है , अर्थपूर्ण हैं।

कथा

कथा सत्य नहीं। कथा में सत्य है।

अनुभवक्रिया

अनुभव परवर्तनशील हैं। आते जाते हैं। एक अनुभव कभी दोहराता नहीं। जाते ही नष्ट हो जाता है।

अनुभवक्रिया में गति है , लेकिन परिवर्तन नहीं। स्थायी है। अनुभवक्रिया गतिशील जान पड़ती है , पर वही की वही रहती है।

ऐसा कैसे संभव है ?

जैसे सिनेमा में चित्र आते जाते हैं , घटनाएं होती है , ये परिवर्तनशील अनुभव हैं। सम्पूर्ण सिनेमा एक है , उसमे चित्र बदल जाये तो भी सिनेमा ही रहता है , कुछ और नहीं हो जाता। उसमे गति है , लेकिन ठहरी हुई सी है। ये अनुभवक्रिया है।

अनुभवक्रिया सम्पूर्णता है। इसके बाद कुछ नहीं। ये अभी यहाँ है।

नकली नोट

मान्यताएं नकली नोट की तरह हैं

जितनी चाहो छाप लो, कोई मोल नहीं

ज्ञान सोने की तरह है

मिलना कठिन है, अनमोल है

ज्ञान धन

ज्ञान ही वो धन है जो बाँटने से बढ़ता है।

संसार से कैसी शिकायत?

एक दिन अपने जीवन से परेशान होकर मैंने गुरुजी से पूछा - " मेरा जीवन और ये संसार इतना दुःखदायी क्यों है, इसे कैसे सुधारूं? "

गुरु जी ने कहा - " जो संसार को सुधारने का प्रयत्न कर रहा है वो अज्ञान में है । सपने को कितना भी सुधार लें, झूठ ही रहेगा । इस सपने को बदलने का नहीं, इससे जागने का प्रयास करें । संसार दुःख है और दुःख ही रहेगा । अंनत काल से ऐसा है और ऐसा ही रहेगा । "

मैंने कहा - " किन्तु अभी तो मैं यहाँ हूँ, जब जागूँगा तब जागूँगा । तब तक कुछ न करना कैसी बुद्धिमानी है? "

गुरुजी बोले - " तुम तो इसी समय जाग सकते हो, जागना नहीं चाहते । कर्मों का बोझ जागने नहीं देता । स्वप्न में तुमको जागने से कौन रोकता है? तुम्हारी स्वप्न देखने की इच्छा !! " " संसार का स्वप्न भी ऐसा ही है, वासनालिप्त हो, छोड़ना नहीं चाहते । तो अब ऐसा कुछ करो कि इच्छाओं का अंत हो । सब सुधर गया, जीवन सुखी हो गया तो क्या इच्छाओं का अंत होगा? "

मैं सोच में पड़ गया, और मैंने जिज्ञासावश पूछा - " गुरुजी जब आपकी कोई इच्छा नहीं बची तो आप यहाँ क्यों हैं? "

गुरुजी बोले- " तुमको जगाने के लिए " इतना सुनते ही मेरे आंसू निकल पड़े, और मैं घर चला आया । यदि गुरु हैं तो संसार से कैसी शिकायत?

मैं कुछ नहीं

या तो मैं कुछ नहीं , या फिर सब कुछ हूँ, ये ज्ञान है।

मैं ये हूँ, वो नहीं , ये अज्ञान है।

सामाजिक मतारोपण

मूल अज्ञान ये है कि वस्तुएं सत्य हैं । ज्ञान ये है कि वस्तुएं मिथ्या हैं ।

ये आपके सामाजिक मतारोपण के ठीक विपरीत है ।

इसलिए, बहुत स्पष्ट और आसान होने के बाद भी, ये समझने में कई वर्ष लग सकते हैं ।

माया

अज्ञानी को माया ने बांधा है । और वो दुःखी है । अर्धज्ञानी माया को बांधना चाहता है । और वो दुःखी है । ज्ञानी जानता है मैं ही माया हूँ । और वो सुखी है ।

चित्त

सभी अनुभव चित्त के हैं।

चित्त स्मृति है।

स्मृति स्थायी नाद है।

नाद मैं हूँ।

स्मृति क्षेत्र और उनकी भौगोलिक उपमा -

पृथ्वी : विश्वचित्त

भारत देश : महाचित्त

राज्य : महापरिवार

जिला : कारण शरीर

शहर/गांव : मानव चित्त

घर : भौतिक शरीर

इतनी तेरी कहानी है

जहान एक दरिया की रवानी है

एक बुलबुला, एक लहर, नन्हा सा भंवर

बस इतनी तेरी कहानी है

साधना

अज्ञान माया है और उसे हटाने की साधना भी माया है । साधना से ज्ञान नहीं मिलता ।

व्यक्ति गुरु नहीं

गुरु प्रश्न के साथ आता है और उत्तर के साथ चला जाता है ।

व्यक्ति गुरु नहीं ।

सत्य क्या है

सत्य क्या है समझ न आने पर मैंने गुरूजी से पूछा :

" मैं इस मिथ्या से क्यों घिरा हूँ ? हर तरफ केवल माया है, मैं सत्य का साक्षात् दर्शन क्यों नहीं कर पा रहा? "


गुरूजी बोले :

" जो सत्य है वो शून्य है। अनंत संभावना मात्र है। क्योंकि यहाँ कुछ नहीं है, इन्द्रीओं और बुद्धि द्वारा ये नहीं जाना जा सकता। इन्द्रियां-बुद्धि शून्य से कोई प्रतिक्रिया नहीं करती। हाँ , यदि यह अनंत संभावना गति करे, एक संभावना से दूसरी, दूसरी से तीसरी, ऐसे परिवर्तित हो , तो यह परिवर्तन इंद्री-बुद्धि पकड़ सकती है। यह संभावित परिवर्तन नाद कहलाता है। नाद से प्रतिक्रिया हो सकती है। "


" नाद के इन्द्रीओं के संपर्क में आने पर उसके रूप गढ़े जा सकते हैं। जैसे स्वर से संगीत। यह आभासिक रूप अब अनुभव के नाम से जाने जाते हैं। हाँ यह सत्य नहीं , माया है , पर यही संभव है , और कुछ नहीं। "

" तुम कहते हो मुझे सत्य नहीं दिखता, किन्तु ये भूल जाते हो कि जो भी दिखता है वो सत्य का ही परिवर्तित रूप है। तुम चित्र देखते हो, और कागज़ को भूल जाते हो, वो चित्र नहीं कागज ही है , चित्र तो चित्तनिर्मित है, काली रेखाओं से चित्र का आभास गढ़ा गया है। चित्र तो कुछ भी हो सकता है , परिवर्तित होता है। कागज़ वही रहता है। "

" माया है, सत्य गायब है, ये मान लेना अज्ञान है। ध्यान दो वो क्या है। ध्यान को सत्य पर सदा बनाये रखना चेतना में होना कहलाता है। चेतना में रहोगे तो न सत्य में रहोगे?? .... और कोई उपाय नहीं सत्य दर्शन का। "

यह जानकर जैसे मैं नींद से जाग गया। जैसे मैं कभी सोया ही नहीं था। अज्ञानवश मेरा सारा ध्यान संसार पर ही था , और तो और उसे ही सत्य मान बैठा था।

शब्दों से ज्ञान नहीं होता

अनुभव से आरम्भ करें

शब्दों के अर्थ जानना ज्ञान नहीं

शब्दों के पीछे जो अनुभव हैं वो ज्ञान है

शाब्दिक ज्ञान का फल और शब्द हैं

सही ज्ञान का फल सही कर्म हैं

ज्ञानी की पहचान उसकी बातें नहीं

ज्ञानी की पहचान उसका नाम, शिक्षा, गुरु, पदवी नहीं

ज्ञानी की पहचान उसका जीवन है, उसके कर्म हैं

विशेष अनुभव

ये हमारा अज्ञान है कि

ये जगत एक विशेष अनुभव है

ये सत्य है , ये शरीर मेरा है / मैं हूँ

ये जीवन मेरा है , ये संबंधी मेरे हैं

सभी अनुभव एक जैसे हैं - मिथ्या, स्वप्न

सभी की पृष्टभूमि एक है - अनुभवकर्ता

न ये जगत विशेष है , न ये व्यक्ति

न ये अनुभव सत्य है, न वो

न ये शरीर मेरा है, न वो शरीर

न ये लोक वास्तविक है, न वो लोक

वो ख़ुदा हो गया

हर ग़म ए ज़िन्दगी से

वो जुदा हो गया

जिसने ख़ुद को जान लिया

वो ख़ुदा हो गया

ज्ञानबीज

कोई शरीर में खोया है

कोई मन में खोया है

छोटा बड़ा अमीर गरीब

यहाँ हर आदमी सोया है

जागा है वो जिसने

चित्त चेतना में डुबोया है

नमन गुरुदेव आपको

जो ज्ञानबीज बोया है

चित्त

चित्त से ही संसार है चित्त से ही निर्वाण रहे चित्त पर अंकुश रहे चित्त पर ध्यान

अज्ञान

अज्ञान अशुद्धि है।

ज्ञान अशुद्धि है।

सकारात्मक ज्ञान अज्ञान है।

नकारात्मक ज्ञान अज्ञेयता है।

अस्तित्व ज्ञानहीन है। शुद्ध है।

शून्यता में क्या ज्ञान, क्या अज्ञान।

मुक्ति कैसे मिले ?

मैंने गुरुजी से पूछा:

" मुक्ति कैसे मिले ? "

गुरु जी ने कहा:

" मुक्ति अस्तित्व का स्वभाव है। जो पहले से है, वो कैसे मिले? "

" कहीं कोई बंधन है - यह अज्ञान मिटाना मुक्ति है। "

" अस्तित्व शून्यता है , अनंत संभावना है। यहाँ बंधन संभव नहीं। "

" अस्तित्व अनुभवकर्ता स्वयं है, और वो मेरा तत्व है। मैं सदा मुक्त हूँ। अस्तित्व में आनेजाने वाली छायाएं बंधन में दिखाई पड़ती है , पर वो भी मुक्त हैं, शून्य हैं। कुछ क्षणों के लिए ये रचनाएँ बंधी प्रतीत होती हैं, पर वो आभासिक है। "

यह सुनते ही मेरी शंका मिट गयी , मुक्ति की इच्छा भी नष्ट हो गयी। इस इच्छा का नाश परममुक्ति है।

मृत्यु के बाद क्या है?

मैंने गुरुजी से पूछा: " मृत्यु के बाद क्या है? "

गुरु जी ने कहा:

" जो मृत्यु के पहले है वही बाद में है । सत्य कभी नहीं बदलता । " " जो स्वप्न के पहले था वही स्वप्न के बाद है । बीच में कुछ चित्रों का आभास होता है । "

" स्वप्नरूप मेरा लगता है । स्वप्नजीवन मेरा लगता है । स्वप्न में भी मृत्यु से डर लगता है । जागने पर सब अर्थहीन हो जाता है । "

" जैसे स्वप्न जीवस्मृति से बना है वैसे जागृति विश्वस्मृति से बनी है । "

" जो जागृति में जाग गया, उसके लिए जीवन-मृत्यु बराबर है । दोनो मिथ्या हैं । मेरा स्वरूप अजन्मा अमर अनुभवकर्ता है । "

ये जानकर इस भयानक अंधेरे सपने का अंत हो गया । शरीर का पिंजरा टूट गया, अब मैं मुक्त हूँ ।

अनुभवकर्ता शरीर आधारित नहीं

मैंने गुरुजी से एक दिन ये प्रश्न पूछा:

" गुरुजी, अनुभवकर्ता शरीर आधारित नहीं है यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है? "

गुरु जी हंस पडे, और कहा:

" शरीर और उसके अंग अनुभव के वर्ग में है । यदि कुछ अनुभव पर आधारित होगा तो वो अनुभव ही होगा, अनुभवकर्ता नहीं । "

" यदि कुछ अनुभव आधारित है तो परिवर्तनशील होगा । "

" उसमें गुण होंगे । सीमित होगा । एक से अधिक होगा । मिथ्या होगा । आदि आदि । "

" अनुभवकर्ता इसका ठीक उलट है । "

" जिस प्रकार स्वप्न से जागने पर यह ज्ञान होता है कि स्वप्नशरीर पर मैं आधारित नहीं था, मैं स्वप्नशरीर के पहले था और बाद में भी था । स्वप्नशरीर आया और गया, मैं नहीं, उसी प्रकार आत्मज्ञान होने पर और चेतना जागृत होने पर, साधक को ये ज्ञान होता है कि शरीर तो माया है, आता जाता रहेगा । मैं वो दृष्टा हूँ जो आधारहीन है । "

इतना सुनते ही मेरा शरीर से तादात्म्य टूट गया । मेरा विचार मतारोपण था, अतार्किक था, अपरोक्ष अनुभव से उलटा था । ये काया अब मात्र छाया है ।

इच्छाएं

इच्छाओं की अधिकता बंधन है। इच्छापूर्ति के फेर में रहना गुलामी है। इच्छाओं पर नियंत्रण स्वाधीनता है। इच्छाओं का अंत परमानन्द है। इच्छाएं मेरी नहीं, ये ज्ञान मुक्ति की कुंजी है।


शुद्ध जीवन

धन पर निर्भर नहीं मन पर निर्भर है

पिछले जन्म की कोई स्मृति क्यों नहीं

गुरु चरणों में वंदना करके मैंने पूछा:

" गुरुजी यदि पुनर्जन्म सत्य है तो मुझे मेरे पिछले जन्म की कोई स्मृति क्यों नहीं है । इस तथ्य की स्थापना कैसे हो? "

गुरुजी बोले:

" पुनर्जन्म सत्य नहीं माया है । मै नहीं हूँ, मेरा तत्व अजन्मा अमर अनुभवकर्ता है । यही भर स्थापित हो सकता है । "

" पर माया को समझना असंभव नहीं, जन्मस्मरण असंभव नहीं । उचित समय पर जीव के विकासक्रम से ये अपने आप होगा । "

" जिस तरह स्वप्न में तुम्हारा स्वप्नरूप हर रात प्रकट होता है । पर उसका पिछली रात के स्वप्नजीवन का अनुभव इस रात में याद नहीं आ सकता, ये स्वप्न नया लगता है, ये स्वप्नजीवन सत्य है और कोई स्वप्नजीवन नहीं, कोई प्रमाण नहीं, यही स्वप्नबुद्धि कहती है । "

" स्वप्नजीव इस अज्ञान में, इस विस्मृती में होता है । किन्तु जागने पर ये ज्ञान होता है कि कई स्वप्नजीवन आए और गए और आएंगे । सबमें वही वृत्तियां वही संस्कार दिखेंगे । "

" यदि एक स्वप्न से दूसरे के बीच स्मृति के पुल बना दें तो स्मरण रहेगा, ये पुल स्वप्न-जागृति-निद्रा में चेतना बनाये रखने से बनेंगे । तुम्हारी चेतना शून्य है इसलिए माया के पाश में हो । "

इतना सुनते ही मैं स्वप्न से जाग उठा । न स्वप्न में मैं था न जागृति में । ये तो खेल था , मैं वो चैतन्य हूँ जो कभी जन्मा नहीं कभी सोया नहीं ।

व्यक्ति का अंत

व्यक्ति को आत्मज्ञान नहीं हो सकता ।

व्यक्ति का अंत आत्मज्ञान है ।

दूसरे के मन में क्या है

मैंने गुरु से एक दिन पूछा :

"गुरूजी , मुझे दूसरे के मन में क्या है , उसकी स्मृति में क्या है, उसको अभी क्या दिख रहा है , आदि क्यों नहीं पता चलता ? कृपया बताएं।"

गुरुदेव बोले :

"जैसे स्वप्न में तुम्हारे स्वप्नरूप को दुसरे स्वप्नचरित्रों के विचार, उनकी स्मृति और उनकी अनुभूतियाँ पता नहीं होती , जबकि वो सब तुम ही हो, वैसे ही जागृति में दूसरे की मानसिक अवस्था तुम्हे पता नहीं होती , जबकि हम सब एक ही हैं।"

"तुम्हारे स्वप्नरूप को ये समझाया नहीं जा सकता, वो स्वयं को अन्य जनो से अलग मानता है , उसी तरह जब तक तुम जागृति में हो , तुम नहीं समझोगे। तुम जिसे जागृति मानते हो वो स्वप्न है।"

"जब तुम स्वप्न से जागते हो, सब समझ आ जाता है। दुसरे थे ही नहीं सारे विचार मेरे ही थे। ये तो माया का खेल था , मैं कभी किसी से अलग नहीं था। ये मेरा अज्ञान था। "

फिर उन्होंने मुझे देखा और कहा :

"मैं तुम्हारा ही रूप हूँ , तुम्हे इस सपने से जगाने आया हूँ। कब तक सोते रहोगे , अब तो जाग जाओ। "

उसके बाद मैं कभी सो नहीं पाया। स्वप्न आतेजाते रहे, न गुरु थे न मैं था।

शून्यता है

कर्ता नहीं है होता है ।

होता नहीं है दिखता है ।

दिखता नहीं है शून्यता है ।

जीवनशैली

मतारोपित मान्यताओं में बीत गया

झूठ की आराधना में भटक गया

किताबों के युद्ध में नष्ट हो गया

ढोंगी गुरुओं के चमत्कार में खो गया

वस्तुओं और संबंधों के ढेर में दब गया

व्यसनों वासनाओं व्यभिचार में सड़ गया


- क्या वो जीवन उपयोगी था?

केवल आध्यात्मिक जीवन उपयोगी है।

सत्य प्रमाण प्रयोग और ज्ञान से ओतप्रोत जीवन।

मुक्त स्वछन्द आनंदित शुद्ध जीवन।

सेवा करुणा और ज्ञानीजनों की संगत युक्त जीवन।

ज्ञानमार्ग ऐसी जीवनशैली है, और कुछ नहीं।

अज्ञानी

अज्ञानी जो सोचता है वो कहता है ।

ज्ञानी जो देखता है वो कहता है ।

दिवास्वप्न

वो सत्ता क्या है जिसकी मैं उपासना करता हूँ .. ये जानने के बाद उपासना फल देती है। अज्ञानी की उपासना दिवास्वप्न है।

पूर्णता

शून्यता में पूर्णता है।

आनंद

सुख पाना है

दुख खोना है

आनंद शांति है

न पाने की आशा

न खोने का डर

मेरा नया मार्ग

संग्रहवृत्ति वासनापूर्ति बंधन आसक्ति

कई जन्म बीत गए, क्या मिला मुझे?

दुःख प्रताड़ना दासता अंधकार मृत्यु डर

अब तो जाग जाऊं , अब तो जान जाऊं

ज्ञान का नया सूर्योदय है

संसार की काली रात का ये अंत है

बेड़ियाँ टूट रही हैं, पंख उग आये हैं

आकाश मुक्त है, उड़ने के लिए

ये मेरा नया जीवन है

ये मेरा नया मार्ग है !

ब्रह्म जीव कैसे बन गया?

मान लें तो मैं जीव हूँ

मान लें तो मैं ब्रह्म हूँ

ये तो आभास है

ये तो स्वप्न है

जो था वो है

कोई कुछ नहीं बना

प्रेम

रिश्ते-नातों का प्रेम मात्र स्वार्थ है

ये तो बंधन है, मजबूरी है

हम सबका तत्व एक है

मैं और आप एक हैं

ये जानना प्रेम है

ये मुक्त है , स्वछंद है

अज्ञान घृणा है, अलगाव है

ज्ञान प्रेम है, एकता है

दिवाली

चेतना का दीया जलाएं

अज्ञान का अँधेरा हटाएं

साल में एक बार नहीं

रोज दिवाली मनाएं

समय

साधक के पास नष्ट करने के लिए समय नहीं है।

मृत्यु तो कल भी आ सकती है।

जिसके लिए मैंने मनुष्य जन्म लिया है

वो तो मुझे अभी करना है।

प्रमाण

अंध विश्वास और अंध अविश्वास, दोनों से प्रगति रुक जाती है।

दोनो से बुद्धि का विकास रुक जाता है।

जहाँ ज्ञान है वहां विश्वास - अविश्वास किस काम के?

जहाँ प्रमाण है वहां मान्यताएं किस काम की?

गुरु

गुरु तो केवल मार्ग दिखा सकता है चलना तो आपको है

गुरु तो द्वार खोल सकता है उसमे से जाना तो आपको है

गुरु तो संकेत दे सकता है जानना तो आपको है

त्याग

शरीर ग्रहण करने के दो तरीके हैं

१ - बनेबनाये शरीर पर कब्ज़ा करना

२ - अपनी इच्छाशक्ति से स्वयं का शरीर निर्मित करना

पहला स्थूल है , दूसरा सूक्ष्म

मनुष्य या पशु पहली विधि चुनते हैं, देव दूसरी

ज्ञानी और मुक्त दोनों का त्याग करते हैं

ज्ञानमार्ग के सूत्र

मनन , चिंतन , विवेचन

आत्मलीनता, आत्मचिंतन , आत्मविचार

चेतना , ध्यान , स्वचेतना निरंतर बनाये रखना

माया से अनासक्ति रखना

सत्संग , सत्य में लीन रहना

ये ज्ञानमार्गी की साधना है

ये ज्ञानमार्ग के सूत्र है

मैं नाद हूँ

जगत, शरीर और मन के रूप में

मुझे मेरी ही अनुभूति हो रही है

अन्य जन भी मेरे ही रूप हैं

ये मेरे ही डमरू का नाद है

सभी अनुभव मेरा नृत्य है

सभी जीव मेरे मुखौटे है

मैं नर्तक नटराज हूँ

अविश्वास

अविश्वास अंधविश्वास से बेहतर है।

श्रद्धा ज्ञान से आती है, अंधविश्वास से नहीं।

पुस्तकें

पुस्तकें हमें मान्यताओं से भर देती हैं ।

पुस्तकों में ज्ञान नहीं सूचना है ।

इन सूचनाओं को यदि अपरोक्ष अनुभव और तर्क द्वारा सत्यापित न किया जाए, तो वो अंधविश्वास ही पैदा करती हैं ।

सदाशिव

मैं कालिख़ से भी कृष्ण शिव हूँ

मैं अंतरिक्ष से भी विरल शून्यशिव हूँ

मैं माया का स्वामी सत्यशिव हूँ

जो ज्ञानचक्षुओं से अज्ञान का नाश कर दे

मैं सर्वज्ञानी सर्वविनाशी योगी शिव हूँ

अद्वितीय अनंत एकब्रह्म मैं विराट शिव हूँ

तुम्हे जिसकी जन्मों से तलाश है

तुम्हारा ही तत्व मैं महाशिव हूँ

मुझे कहाँ ढूँढ़ते हो ?

मैं तुम्हारे ह्रदय में स्थित सदाशिव हूँ

प्रतीत्यसमुत्पाद

इस अनुभव का कारण वो अनुभव है

ये नहीं है , तो वो नहीं

क्योंकि किसी भी अनुभव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं,

सारे अनुभवों का तत्व शून्य है

प्रतीत्यसमुत्पाद का परिणाम शून्यता है

मैं यह शून्यता हूँ

केवल मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है

शुद्धता

जो जमा है वो अज्ञान है।

उसका नाश शुद्धता है।

शुद्धता कुछ ना होना है।

कुछ ना बचना ज्ञान है।

खोने से मिलेगा

ज्ञान खोने से मिलेगा, पाने से नहीं।

पूर्णता

संसारी जब कुछ पाता है , कुछ खो देता है।

जब कुछ खोता है , कुछ पा लेता है।

रहता अपूर्ण है।

ज्ञानी स्वयं को खोकर सब कुछ पा लेता है।

सब खोना ही सब पाना है।

पूर्णता है।

जागृति

जागृति में जागना ही चेतना है। 🙏 जागते रहो ! जगाते रहो !! 🙏

सत्य-असत्य

जहाँ सत्य-असत्य है, वहाँ द्वैत है।

सत्य-असत्य चित्तनिर्मित है।

जो अद्वैत है, उस पर ये धारणा लागू नहीं होती।

अद्वैत सत्य है, असत्य है, सत्य नहीं है और असत्य भी नहीं।

मतारोपण

अज्ञान का सबसे बड़ा कारण मतारोपण है।

मतारोपण मातापिता और समाज द्वारा होता है।


मतारोपण से बालक की बुद्धि का विकास रुक जाता है।

मतारोपित व्यक्ति मतों का दास होता है।

मतों को ही ज्ञान मान लेता है।


ज्ञानमार्ग में यही सबसे बड़ा विघ्न है।

दूसरों के मतों को त्याग दें, स्वयं प्रमाण खोजें।

सिद्धियां

सिद्धियां चित्त की सीमाओं का टूटना है।

विकासक्रम का फल हैं।

ये कोई जादुई योग्यतायें नहीं,

जो एन केन प्रकारेण मिलेंगी।

बंधनमुक्त

यदि मुक्ति इस जीव की अवस्था है तो आएगी जायेगी।

यदि ये मेरी अवस्था है तो स्थायी है।

अनुभवकर्ता सदा बंधनमुक्त है।

परमत्यागी

ज्ञानी के लिए भोग भी त्याग है

अज्ञानी के लिए त्याग भी भोग है

त्याग कर्म नहीं भाव है

मेरा मूलतत्व परमत्यागी है

लक्ष्य

जीवन क्षणिक है, ज्ञान को अपना लक्ष्य बनायें, बाकी सब व्यर्थ है

शास्त्र

अज्ञानी के लिए शास्त्र बेकार हैं

वो कुछ नहीं जान पाता।

ज्ञानी के लिए शास्त्र बेकार हैं

वो सबकुछ पहले ही जानता है।

संतुलन

संतुलन सृष्टि का सार है। चित्त की सभी परतों की संतुलित सामंजस्यपूर्ण वृत्ति संतुलन है।

मनुष्य जीवन

मनुष्य जीवन का लक्ष्य है मनुष्य जीवन से मुक्ति ।

आत्मालोचक

संसारी स्वयं को निष्कलंक मानता है ।

दूसरों को ठीक करने का प्रयास करता है ।

परनिंदा में लीन है ।

साधक आत्मालोचक है ।

स्वयं को बेहतर बनाने का प्रयास करता है ।

जानता है जो जहाँ है ठीक है ।

मैं ही हूँ

सभी जीवों के शरीर मैं ही हूँ ।

सभी जीवों के प्राण मैं ही हूँ ।

सभी जीवों में जो चैतन्य है वो मैं ही हूँ ।

समर्पण

समर्पण सभी मार्गों का अंतिम पड़ाव है।

शब्दकोश

शब्दों में ज्ञान होता तो शब्दकोश पढ कर कोई भी ज्ञानी हो जाता । ज्ञान अनुभव में है ।

मौन

अज्ञानी झगड़ते हैं,

अर्धज्ञानि वादविवाद करते हैं,

ज्ञानेच्छुक प्रश्नोत्तर,

ज्ञानी मौन रहतें हैं

भैंस को घास खिलाते हैं

संसारी को उसकी इच्छा के विपरीत प्रवचन न दें

आपका अपमान होगा, उसका लाभ नहीं

संसारी से सांसारिक व्यहवार हो, साधक से आध्यात्मिक


ज्ञानपिपासु को ही ज्ञानामृत पिलायें, सबको नहीं

भैंस को घास खिलाते हैं, वेद पुराण नहीं

विरक्ति

विरक्ति के बिना विवेक संभव नहीं

संशय

संशय अज्ञान का लक्षण है।

शंका होने पर मनन करें।

समझ न आने पर गुरु की सहायता लें।

शंका का समाधान केवल प्रमाण से होगा, किसी के कहने या पुस्तक पढ़ने से नहीं।

गुरु का कार्य प्रमाण दिखाना है, शास्त्र रटाना नहीं।

अपरोक्ष अनुभव

ज्ञानमार्ग पर अंधश्रद्धा अंधविश्वास मना है।

ज्ञान प्रामाणिक होता है। प्रमाण ही सत्य है।

सुनीसुनाई पढिपढाई बातों को सत्य न मान लें।

गुरु पर भी विश्वास न करें। प्रमाण मांगें।

यदि गुरु प्रमाण नहीं दे पाता, गुरु बदल दें।

यदि इस मार्ग पर आपको कोई प्रमाण नहीं मिलता, मार्ग बदल दें।

आपका अपरोक्ष अनुभव आपका सत्य है।

ज्ञानमार्ग

ज्ञानमार्ग एक विशेष मार्ग है।

ये चलने से पहले ही समाप्त हो जाता है।

कोई साधना नहीं , कोई प्रयास नहीं।

कोई गुरु नहीं , कोई शिष्य नहीं।

कहीं जाना नहीं, कुछ पाना नहीं।

कोई लक्ष्य नहीं , लक्ष्यहीनता इसका लक्ष्य है।

चमत्कार

चमत्कारों के इच्छुक ज़रूर जैसे तैसे भी हो चमत्कार देख लें , कर लें। लौट कर तो यहीं आना है। चमत्कारों से मनोरंजन हो सकता है। संतुष्टि ज्ञान से होती है।

साधारण और चमत्कार

क्या घटनाएं दो प्रकार की हैं - साधारण और चमत्कार ?

अस्तित्व में तो ऐसा कोई भेद नहीं।

जो हमारी समझ में नहीं आता उसको चमत्कार कह देतें हैं।

ये हमारा अज्ञान है, जिसके कारण घटनाएं चमत्कार लगती हैं।

अज्ञानी इनके पीछे भागता है , अपना समय नष्ट करता है।

ज्ञानी जानता है, उसके लिए सब साधारण है , माया है , छाया है।

इसलिए ज्ञानी अपना आध्यात्मिक लक्ष्य जल्दी पा लेता है।

सदामुक्त

जो बंधा है वो सदा बंधा था, बंधा रहेगा। जो मुक्त है वो सदा से मुक्त है और रहेगा।

मैं वो रचनाएँ नहीं जो बंधी हैं। मैं उनका साक्षी हूँ, सदामुक्त हूँ।

मनोशरीर यंत्र

इस मनोशरीर यंत्र में कोई अनुभवकर्ता नहीं। अनुभवकर्ता में मनोशरीर यंत्र है।

प्रभुभक्ति

प्रभुभक्ति कैसे करें?

मेरा आत्मस्वरूप प्रभु है। ये जानने का प्रयास करें। ये आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान के बाद अहंभाव का समर्पण कर दें , और सत्य की चेतना में हमेशा स्थित रहें। जीवन को स्वार्थ से सेवा की ओर मोड़ें। मुक्ति का मार्ग लें और गुरु की शरण में जाएँ। सभी जीवों को अज्ञानमुक्त करने का प्रण लें। यही प्रभुभक्ति है।

बिना छोड़े ही सब छूट गया

क्या सत्य जानने की लिए मुझे घर परिवार नौकरी धंधा समाज जाती आदि छोड़ने पड़ेंगे?

वो कैसा सत्य वो कुछ छोड़ने से ही प्रकट हो और कुछ पकड़ने से गायब हो जाये ? सत्य तो अटल है , सदैव है , किसी पर भी निर्भर नहीं। सत्य अपने आप पर टिका है , आधार है।

फिर इसके लिए क्या पकड़ना क्या छोड़ना? सत्य तो मनुष्य जीवन की घटनाओं का दास नहीं। कुछ छोड़ने से सत्य नहीं मिलेगा , सत्य मिलने पर सब छूट जायेगा।

छोड़ने और छूटने में भेद समझें। छोड़ना कृत्रिम है , छूटना प्राकृतिक है।

आपका यहाँ क्या है जो छूट जायेगा? जब इसका उत्तर मिल जाए तो समझना बिना छोड़े ही सब छूट गया।

सम्बन्ध

दूसरों के साथ जो सम्बन्ध हैं उनको मैं अपना सबक समझता हूँ।

सम्बन्ध हमें सुख देने की लिए नहीं, न भोग के लिए हैं, न ज़िम्मेदारी हैं।

ये सीखने के अवसर हैं।

यदि मैं अच्छे अनुभव ले जाना चाहता हूँ, तो वो किस तरह के संबंधों से मिलेंगे?

  • रक्तसम्बन्ध से?
  • स्वार्थ के सम्बन्ध से?
  • लेन-देन से?
  • निर्भरता से?
  • भोग के लिए लोगों के उपयोग-दुरूपयोग से?
  • घृणा के सम्बन्ध या हिंसा के?

आप जानते हैं , नहीं , ये तो बुरे अनुभव होंगे।

निस्वार्थ प्रेम के सम्बन्ध, त्याग अनासक्ति के सम्बन्ध, मित्रता भाईचारे के सम्बन्ध , अच्छे अनुभव देंगे।

ऐसा अपना व्यहवार मैं चाहता हूँ। दूसरों का जो व्यवहार हो, वो तो मेरे नियंत्रण में नहीं।

सम्बन्ध बचेंगे न सम्बन्धी , अनित्य सब कुछ है।

अनुभव स्मृति भर बचेगी। माया आसक्ति निर्भरता किस काम की? सुंदर स्मृतियाँ बटोरें।

मनुष्य

पेड़पौधे बढ़ते हैं, सूखते हैं । मनुष्यशरीर भी बढ़ता है , मरता है।

रक्षण भक्षण प्रजनन कीड़े भी करते हैं। मनुष्य भी करता है।

कामक्रोधभयप्रेम भावनाएं पशु में भी है। मनुष्य में भी।

क्या विशेष है मनुष्य में जो किसी में नहीं?

बुद्धि विवेक चेतना !

यदि ये न हों, तो क्या मैं मनुष्य हूँ?

ज्ञान से बुद्धि मिलती है , बुद्धि से विवेक, विवेक से चेतना।

ज्ञानमार्ग हमें मनुष्य बनाता है।

मुझे क्या चाहिए?

जो मेरे साथ हमेशा रहे, वो मुझे चाहिए।

क्या ये शरीर, ये वस्तुएं, ये रिश्तों की भीड़ , ये नकली मान सम्मान बचेगा?

मृत्यु तो सब छीन लेगी।

अनुभव बचेंगे, यादें बचेंगी , ज्ञान बचेगा।

वही हमेशा मेरे साथ होगा , और कुछ नहीं।

अच्छे अनुभव शुद्ध चित्त से ही संभव है।

शुद्धि ज्ञान से ही संभव है।

यही तो मुझे चाहिए !

आसक्ति

आसक्ति में डर है, असुरक्षा है, अशांति है ।

मोह में बंधन है, स्वार्थ है, निर्भरता है ।


अनासक्ति में निर्बाध प्रेम है, स्वतंत्रता है, आनंद है ।

विरक्ति में पवित्रता है, वो सुख है जो कभी नहीं जाता ।

सत्य

क्या सत्य पुस्तकों में लिखी बातें हैं ?

क्या सत्य किसी और के वचन हैं ?

क्या सत्य मेरी मान्यताएं, कल्पनाएं, आशाएं, अन्धविश्वास है?

क्या सत्य मासूम बालमन पर किया गया मतारोपण है ?


आपका स्वयं का अनुभव सत्य है।

सत्य विश्वास का विषय नहीं, प्रमाण सत्य है।

सत्य तार्किक है , बदलता नहीं , देश-काल पर निर्भर नहीं।

सत्य बाहर नहीं , आपके भीतर है।

सत्य आपके सबसे समीप है , ह्रदय में है।

सत्य यहाँ है, अभी है।


ज्ञानमार्ग आपको आपसे मिलाता है।

इससे तेज कोई मार्ग नहीं।