अस्तित्व

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अस्तित्व की परिभाषा : जो भी है वो अस्तित्व है।

अस्तित्व का वर्णन कई शब्दों में किया जा सकता है , जैसे :

  • जो है।
  • सब कुछ
  • जो हो रहा है
  • जो विद्यमान है
  • सत्ता
  • ब्रह्मन
  • सम्पूर्णता
  • शून्यता
  • परमशिव
  • परमेश्वर
  • परमात्मा

और भी कई नाम हैं।

व्युत्पत्ति

संस्कृत : अस्तित्वम्

अस्ति + त्व = अस्तित्व 
है + ऐसा 

विश्लेषण

अस्तित्व का विश्लेषण हम सात मूल प्रश्नों के आधार पर कर सकते हैं। यहाँ संक्षेप में निष्कर्ष दिया गया है जिसका विस्तार और स्थापना इन कड़ियों पर देखी जा सकती है।

अद्वैत

अस्तित्व एक है। ये कई रूपों में दिखाई पड़ता है , किन्तु अखंड है , अविभक्त है। इसमें भाग चित्त की विभाजनीय वृत्ति के कारण प्रतीत होते हैं। पहला विभाजन अनुभव और अनुभवकर्ता का है। दृश्य और दृष्टा का भेद पहला है। इस प्रकार एक अस्तित्व के दो भाग प्रतीत होते हैं। द्वैत का उद्भव होता है।

क्योंकि ये भेद चित्तनिर्मित है , द्वैत मिथ्या है। अस्तित्व का स्वभाव अद्वैत है , दो नहीं।

ज्ञान

अस्तित्व अनंत है। इसका कुछ भाग अनुभव के रूप में प्रकट है , जो इन्द्रीओं के माध्यम से अनुभूत किया जा रहा है। यह अनुभूति स्मृति में संस्कार रूप में छपती है और इसी का अनुभव होता है।

जब इन स्मृतिनिहित अनुभवों के बीच तार्किक सम्बन्ध बनते हैं, हम उनको ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान बहुत सिमित है। स्मृति की और इन्द्रीओं की सीमा है। तार्किक सम्बन्ध बुद्धि की वृत्ति द्वारा बनते हैं और ये भी सिमित हैं , हर एक जीव के लिए अलग हैं। जिसका भी ज्ञान होता है , वो अस्तित्व नहीं , उसका विकृत रूप है। ज्ञान का कोई और साधन नहीं। इसलिए अस्तित्व को जानना असंभव है।

अनुभव चित्तनिर्मित हैं और परिवर्तनशील हैं, इसलिए असत्य हैं। सम्पूर्ण ज्ञान अनुभवाधारित है , इसलिए मिथ्या का ज्ञान है। सत्य का ज्ञान नकारात्मक ज्ञान है। इस प्रकार अस्तित्व अज्ञेय है।

यह बड़ी समस्या लगती है , पर है नहीं। अस्तित्व को जाना नहीं जा सकता पर अस्तित्व हुआ जा सकता है। और मैं यह पहले से ही हूँ। यह धारणा नीचे संक्षेप में वर्णित है। अस्तित्व को जानना असंभव है और ऐसा ठीक इसलिए है क्योंकि यहाँ जानने की लिए कुछ भी नहीं है, निपट शून्यता है ये। यह धारणा भी नीचे संक्षिप्त रूप में दी गई है और इनकी विस्तार में व्याख्या वहां दी गईं कडिओं द्वारा देखी जा सकती है। अस्तित्व शून्य है, शायद यही उसका सबसे रोचक और रहस्यमयी गुण है।

गुण

क्योंकि अस्तित्व सब कुछ है , उसमे सभी गुण हैं और उसमे सभी गुणों का आभाव भी है।

अस्तित्व को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में समझा जा सकता है। इस प्रकार अस्तित्व सम्पूर्णता है। इसमें नकारात्मक और सकारात्मक गुणों की समरूपता है , और इस कारण वह शून्य है।

कारणहीनता है और कारण भी हैं (मिथ्या रूप में)। इसी प्रकार समयहीनता है और समय भी है। इसी प्रकार स्थान आदि। सुख भी है , दुःख भी, प्रकाश भी अंधकार भी , नर भी मादा भी , अच्छाई भी बुराई भी , जन्म भी मृत्यु भी। इत्यादि।

क्योंकि अस्तित्व में सब आ जाता है और सब शून्य भी है , यह कहा जा सकता है कि उसमे सभी गुण हैं, और कोई गुण नहीं। यह विरोधाभासी लगता है पर यह सत्य है।

अक्सर अस्तित्व का वर्णन कुछ विशेष गुणों द्वारा किया जाता है। ये सभी गुण नकारात्मक हैं। जैसे :

  • अखंड
  • अनंत
  • अनादि
  • अविभक्त
  • अपार
  • अलौकिक
  • अज्ञेय
  • अद्वैत

सत्यासत्य

सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अस्तित्व के एक या अखंड होते हुए भी दो मुख हैं -

  1. वास्तविक स्वरुप जो अपरिवर्तनीय है
  2. जो प्रतीत होता है और परिवर्तनीय है

सत्य की परिभाषानुसार पहला मुख सत्य है और दूसरा असत्य। इस प्रकार अस्तित्व सत्य भी है और असत्य भी।

अस्तित्व और अनुभव

अनुभव अस्तित्व का वो मुख है जो प्रतीत होता है। प्रकट है। यह परिवर्तनशील है। असत्य है। इसको या तो चित्त कह सकते हैं या चित्तनिर्मित भी कहा जा सकता है। अस्तित्व का यह मुख माया भी कहलाता है। इसके और भी कई नाम हैं जैसे शक्ति या प्रकृति। अनुभव का ज्ञान माया का ज्ञान या विज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान का उत्तरजीविता या वासनापूर्ति में प्रयोग तंत्र या तंत्रज्ञान है।

अस्तित्व और अनुभवकर्ता

अनुभवकर्ता अस्तित्व का वो मुख है जो अप्रकट है। यह परिवर्तनहीन है। सत्य है। इसको या तो दृष्टा या साक्षी भी कहा जा सकता है। अनुभवकर्ता रूप में अस्तित्व अनुभव का, जो उसी का रूप है, साक्षी है। अनुभवकर्ता स्वयंसाक्षी अस्तित्व है। यह वो है जिसे जीव मैं कहना पसंद करता है। इस प्रकार मैं ही अस्तित्व हूँ , विशेषकर उसका सत्यमुख। यह ज्ञान आत्मज्ञान कहलाता है।

अस्तित्व और अनुभवक्रिया

अनुभवक्रिया अस्तित्व स्वयं है। जब द्वैत का भ्रम न हो तो जो है वो अनुभवक्रिया है। यह योग अवस्था है। यह समाधी अवस्था है। इसे चित्तवृत्ती पर नियंत्रण द्वारा या फिर चेतना की अवस्था में समझा जा सकता है। यह ज्ञान ब्रह्मज्ञान कहलाता है। यहाँ मैं का भी आभाव है क्योंकि मैं का उद्भव मैं-नहीं के साथ होता है और इस अवस्था में यह भेद नहीं होता। यहाँ अहमवृत्ति नहीं है। यह अहंनाश की अवस्था है।

तुलनात्मक अध्ययन

अस्तित्व, अनुभव, अनुभवकर्ता और अनुभवक्रिया का तुलनात्मक अध्ययन

अस्तित्व और परिवर्तन

अस्तित्व में परिवर्तन है भी और नहीं भी। यहाँ ऐसा कुछ नहीं जो यथार्थ में परिवर्तित होता हो , परिवर्तन का आभास मात्र है। हम इसे संभावित परिवर्तन भी कह सकते हैं। यह चित्तवृत्ति के कारण प्रतीत होता है पर है नहीं। इस प्रकार हमें इस प्रश्न का उत्तर मिलता है कि जो स्थिर है समयहीन है उसमे परिवर्तन कैसे संभव है ?

उत्तर यह है कि अस्तित्व में परिवर्तन नहीं है न कभी हुआ था न होगा क्योंकि समयहीनता है। जो भी परिवर्तित होता दृष्टिगोचर है वो मिथ्या है आभासिक है माया है असत्य है।

सभी घटनाएं परिवर्तन मात्र हैं। इसलिए अब ऐसा कहा जा सकता है कि कोई घटना नहीं घटी न घटेगी। वास्तव में कुछ हुआ ही नहीं न होगा। न भूतकाल है न भविष्य। न मेरा जन्म हुआ न मृत्यु होगी न कोई जीवन यात्रा होगी।

अस्तित्व और शून्यता

उपरोक्त तर्कानुसार अस्तित्व में कुछ होता नहीं न कुछ है न होगा। जो प्रतीत होता है वो सत्य के मानदंड के अनुसार असत्य है, अर्थात नहीं है। जो है वो गोचर नहीं निर्गुण है अव्यक्त है। इस प्रकार अस्तित्व शून्य है। सर्वशून्य है।

किन्तु शून्यता से ही द्वैत रूप में अस्तित्व विद्यमान है। कुछ न होते हुए भी इसमें अनंत संभावना है। शून्यता शून्य होते हुए भी अनंत संभावनाओं से घनीभूत है।

अस्तित्व अज्ञेय होने के कारण शून्यता को जानना असंभव है। यह बुद्धि के परे है। जो यह जान गया वो बुद्ध है।

मान्यताएँ

शास्त्रों में

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