परिभाषाएं

ज्ञानमार्ग से
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ज्ञानमार्ग में प्रयुक्त महत्वपूर्ण परिभाषाएं। अक्षता के सौजन्य से।


ज्ञानमार्ग : ज्ञानमार्ग ज्ञानार्जन का व्यवस्थित प्रयास है । एक ऐसा तरीका है जिसके सहारे हम ज्ञान ले सकते हैं । अज्ञान का नाश ही ज्ञान है । अज्ञान अर्थात अंधविश्वास, मान्यताएं, धारणाएं जो भी जमा किया गया है बिना सोचे समझे बिना बुद्धि के प्रयोग करके उसका नाश किया जाता है । और ज्ञानमार्ग एक जीवन शैली भी है । अपनी परम अवस्था तक पहुंचने का मार्ग ज्ञानमार्ग है।

गुरु : अंधकार का विनाशक। जो आप से अधिक जानते हैं , जिसकी बात आप समझ सकते हैं, जो आपको प्रिय है वो वो 'गुरु' है । कई ज्ञानीजन गुरु हो सकते हैं ।

साधक : साधक वह है जिसे अज्ञान से मुक्ति की इच्छा है, जो ज्ञान के साधनों से और गुरु की सहायता से ज्ञान खोज रहा है उसे साधक कहते हैं ।

साधन : जिस माध्यम से ज्ञान प्राप्त होता है उसे ज्ञान का साधन कहते है अर्थात कोई योग्यता, कोई विधि जो ज्ञान दिलाती है।

अपरोक्ष अनुभव : अपरोक्ष अनुभव स्वयं का अनुभव होता है, जो अनुभव वर्तमान में हो रहा हो, अभी इसी समय हो रहा हो। मान्यता रहित अनुभव।

तर्क : तर्क बुद्धि की एक क्षमता, मानसिक योग्यता है इसे अनुमान भी कहते हैं ।

प्रमाण : जो किसी विषय को सिद्ध कर दे। साक्ष्य। अपरोक्ष अनुभव के साथ तर्क का उपयोग करने से ज्ञान प्राप्त होता है और इसे ही प्रमाण मिलना कहते हैं ।

ज्ञानाधिकारी : ज्ञानाधिकारी वह है जिसमे जिज्ञासा, मुमुक्षत्व, षट्सम्पत्ति, बुद्धि, विवेक आदि विशेष गुण हो । साधक के गुणों से ही निर्धारित होता है कि वह ज्ञानाधिकारी हो सकता है या नहीं ।

विवेक : सही गलत, उचित अनुचित, सत्य असत्य आदि में भेद करने की जो क्षमता है इसे ही विवेक कहते हैं।

ज्ञान : स्मृति में अनुभवों का तार्किक और अर्थपूर्ण संयोजन ज्ञान है ।

सकारात्मक ज्ञान : सकारात्मक ज्ञान वह होता है जिसमें गुणों का वर्णन सकारात्मक रूप में किया जाता है और अनुभव को स्वीकार किया जाता है कि यहां ऐसा ही है। जैसे - शरीर सुंदर है, वस्तु बड़ी, छोटी या वस्तु लोहे की है।

नकारात्मक ज्ञान : नकारात्मक ज्ञान में अनुभव को नकारा जाता है, जैसे आकाश में बादल नहीं है, नकारात्मक अनुभवो में 'नही' शब्द का प्रयोग आता है पर वो किसी अनुभव को दिखाता है।

ज्ञात : जो भी अनुभव किया गया है वह स्मृति में तार्किक रूप से संबंध बना दिए गए हैं उसे ज्ञात की श्रेणी में रखते हैं।

अज्ञात : जो अभी तक अनुभव नहीं किए गए लेकिन यदि स्थिति बदले तो अनुभव हो सकते हैं या अच्छे माध्यम से उसका अनुभव किया जा सकता है। अज्ञात में संभावना होती है ज्ञात होने की।

अज्ञेय : जिसके बारे में कुछ बोला नहीं जा सकता जिसका कभी अनुभव नहीं होगा या फिर हमारा वर्तमान ज्ञान के अनुसार जाना नहीं जा सकता इसलिए उसको अज्ञेय कहा जाता है।

प्रयोग : ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो अनुभव चाहिए वह अनुभव लेने का नियोजित प्रयास ही प्रयोग है ।

अस्तित्व : जो है वह अस्तित्व है, अस्तित्व में सब कुछ आता है। सम्पूर्णता। अनुभव और अनुभवकर्ता का योग।

अनुभव : अस्तित्व का प्रकट रूप अनुभव है, जो प्रतीत होता है वह अनुभव है।

अनुभवकर्ता : अनुभवकर्ता वह है जिसको अनुभव होते हैं जो अनुभवों को ग्रहण करता है।

अनुभवक्रिया : अनुभवक्रिया अस्तित्व की अद्वैत की अवस्था है जहा अनुभव और अनुभवकर्ता संयुक्त है, एक है, यह कोई क्रिया नहीं है, अनुभवक्रिया होना मात्र है।

अद्वैत : अस्तित्व में सब एक है, दो नहीं है और इसे नाम दिया गया है अद्वैत। अद्वैत का कोई ज्ञान नहीं होता इसलिए इसे एक भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक भी तो गिनती हो गई के कुछ एक है लेकिन यहां पर तो गिनती भी संभव नहीं है क्योंकि गिनती करने वाला भी नहीं है इसलिए हम इसे एक ना कहते हुए अद्वैत कहते हैं।

मूलज्ञान : मूल ज्ञान यह है कि अस्तित्व स्वयं अनुभवकर्ता है और मिथ्या अनुभव के रूप में स्वयं के समक्ष प्रकट है । अनुभवक्रिया ही अस्तित्व है । अस्तित्व ही अनुभवकर्ता है और अस्तित्व ही अनुभव है ।

ब्रह्मज्ञान : यदि मैं ही संपूर्णता हूं, मैं ही अस्तित्व हूं तो मैं ही ब्रह्म हूं और इसी को ब्रह्मज्ञान कहते हैं।

मूल अज्ञान : स्वयं को एक अनुभव और माया को सत्य मान लेना ही मूल अज्ञान है।

परिकल्पना : जहां सीधे प्रयोग से काम नहीं चलता वहां हम परिकल्पनाए करते हैं जो कि एक तरह का काल्पनिक ज्ञान है।

सिद्धांत : सिद्धांत वो परिकल्पना है जो प्रयोगों के द्वारा समर्थित है लेकिन अभी तक सत्य सिद्ध नहीं हुई है और वह सत्य भी नहीं है बस कुछ प्रयोग बताते हैं कि शायद वह परिकल्पना सच हो लेकिन सच नहीं होती इसको हम कहते हैं सिद्धांत, जैसे कि विकास कर्म का सिद्धांत और गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत।

विज्ञान : प्रयोगों और सिद्धांतों के द्वारा अस्तित्व का व्यवस्थित अध्ययन और व्यवस्थित विधि विज्ञान है ।

सत्य : सत्य अनुभवों का वर्गीकरण है, ज्ञानमार्ग पर जो नहीं बदलता वह सत्य है, जो भी अपरिवर्तनीय है उसको सत्य कहा जाएगा।

विसत्य : जो अनुभव बहुत धीरे बदलते है उनको स्थायी मान लिया जाता है और व्यवहारिकता में काम आता है इसलिए उनको असत्य मानकर ठुकरा देना संभव नहीं है इसीलिए व्यवहारिकता के लिए दूसरे मानदंड प्रयोग में लाए जाते हैं जिसे विसत्य कहते हैं।

अपरिवर्तनीय : नित्य। जो नहीं बदलता उसे अपरिवर्तनीय कहते है और वह सत्य है और ये मानदंड सर्वमान्य है।

परिवर्तनशील : नश्वर। जो भी परिवर्तनशील है वो असत्य है।

तत्व : तत्व वह है जो नहीं बदलता, जिसको हटाया नहीं जा सकता, तत्व किसी भी वस्तु की न्यूनतम व्याख्या है, तत्व का शाब्दिक अर्थ है 'होना मात्र'।

अज्ञान : ज्ञान का अभाव ही अज्ञान है, जो भी अंधविश्वास, निराधार धारणाएं, मान्यताएं और तरह तरह के भ्रम जो मन में बन गए हैं और जमा हो गए हैं वह सब अज्ञान है।

मान्यताएं : प्रमाणहीन मान्यता। मान्यताएं यानी सूचना आधारित, मनगढ़ंत या काल्पनिक बस कुछ मान लिया जाता है ।

भ्रम : मिथ्या को सत्य समझ लेना।

मातारोपण : मातारोपण अर्थात बालक बुद्धि में अज्ञान भर देना यह कहकर कि यह ज्ञान है ।

शून्यता : शून्यता यानि कोई पदार्थ नहीं, किसी चीज़ से नहीं बना, कोई निर्माण सामग्री नहीं होना। धरातलहीन।

दृश्य दृष्टा विवेक : अनुभव और अनुभवकर्ता में भेद जानने की क्षमता। अनुभव को अनुभवकर्ता के श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, इनमें आपस में समानता नहीं दिखाई देती परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं इसलिए यह भेद जानना महत्वपूर्ण है इसे ही दृश्य दृष्टा विवेक कहते हैं।

साक्षीभाव : 'मैं अनुभवकर्ता हूँ' इस ज्ञान में रहना साक्षीभाव कहलाता है।

निद्धिध्यासन : निद्धिध्यासन यानि हमेशा अनुभवकर्ता के रूप में या अपने सत्य स्वरुप में स्थित रहना, अज्ञान का त्याग कर देना, ज्ञान मैं स्थिर रहना निद्धिध्यासन है।

समर्पण : अहम् का त्याग। अपने अज्ञान को स्वीकार करना। बुद्धि की सीमा जानकार उसकी अनुपयोगिता को स्वीकारना। गुरु से प्रेम और उनकी आज्ञा मानना।

अज्ञेयवाद : अज्ञेयवाद यानी बुद्धि का समर्पण जिसमें जाना जाता है कि बुद्धि के वश में जितना था उतना जान लिया गया है, अब बुद्धि शुद्ध है और जो बुद्धि के वश में नहीं है वह नहीं जाना जा सकता, वह हुआ जा सकता है जो मैं पहले से ही हूं, यह अज्ञेयवाद है।

अद्वैतावस्था : अद्वैतावस्था यानी केवल इतना ज्ञान रह जाता है कि दो नहीं है और उसको भी भुला दिया जाता है और फिर जो है वह है।

श्रवण : जो गुरु ने बताया है वह ध्यान से सुनना, समझने का प्रयास करना श्रवण है।

मनन : श्रवण के बाद उसका सत्यापन करने का प्रयास करना, उस पर अंधविश्वास ना करना और इसके क्या परिणाम होंगे इसके क्या प्रमाण है यह सब जानने का प्रयास मनन है।

निद्धिद्यासन : एक बार ज्ञान स्थापित हो गया तो उस ज्ञान में स्थिर रहना निद्धिद्यासन है और यही साधना है ज्ञानमार्ग पर।

स्मृति का स्थायीकरण : जो वैसा का वैसा ही दीखता है वह वैसा नहीं है उसमे बारीक बदलाव आता रहता है लेकिन स्मृति में भरता रहता है, स्मृति परिवर्तन को स्थायी कर देती है ऐसा प्रतीत होता है कि 'यह तो वही वस्तु है जो बदली है' इसे स्मृति का स्थायीकरण कहते है।

मन : विचार, भावनाएं, इच्छाएं, स्मृतियाँ, कल्पनाएं यह मानसिक अनुभव है और आम भाषा में इस प्रकार के व्यक्तिनिष्ठ अनुभवों के समूह को मन कहा गया है।

सहज समाधि : जो सबसे सहज है 'वह मैं हूँ' और यह अद्वैतावस्था मेरी ही अवस्था है जो कभी जाती नही, जो कभी टूट नहीं सकती, कितनी भी वृत्तियां आए, कितनी भी अवस्थाएं आए जाए जीव रहे ना रहे अस्तित्व तो रहेगा और हमेशा इस अनुभवक्रिया में रहेगा और अद्वैतावस्था ही अंतिम अवस्था है यही सभी अवस्थाओं की पृष्ठभूमि है यही सहज समाधि है।

माया : माया का अर्थ जो नहीं है, वो जो प्रतीत होता है लेकिन वैसा है नहीं। असत्य, मिथ्या, झूठ।

वस्तुनिष्ठता : एक ही जैसा अनुभव होना। जब कई व्यक्तियों के अनुभव में सहमति पायी जाती है उन अनुभवों को वस्तुनिष्ठ अनुभव कहा जाता है। जैसे जगत और बाहरी शरीर का अनुभव।

व्यक्तिनिष्ठ अनुभव : शरीर के अंदरूनी अनुभव जैसे पीड़ा, भूख, प्यास और मानसिक अनुभव जो किसी और को नहीं ज्ञात होते।

संरचनाएं : बहुत सारे ऐसे अनुभव है जो स्थिर है और अपरिवर्तनीय प्रतीत होते हैं, उनको हम रूप का नाम देते हैं, वस्तुओं का नाम देते हैं, तकनीकी भाषा में हम उनको संरचनाएं कहते है।

पुनरावृत्ति : पुनरावृत्ति अर्थात दोहराव, एक ही घटना बार बार दोहराती है एक ही रचना बार बार दोहराती है। एक इकाई दोहराती है और संपूर्ण माया बनाती है।

यौगिक : माया यौगिक है। छोटी रचनाएँ जुड़ कर बड़ी रचनाएँ बनाती है, संपूर्ण वस्तु को, संपूर्ण अनुभव को छोटे-छोटे अनुभवों में या फिर इकाइयों में बांटा जा सकता है, छोटी-छोटी घटनाओं में बांटा जा सकता है।

चक्रीय : माया चक्रीय है अर्थात वही वही घटनाएं समय में भी दोहराती है जैसे रात और दिन का होना, मौसम बदलना, जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, आदि आदि। सारा अनुभव एक चक्र है क्योंकि दोहराव है, चक्रिय होना स्वाभाविक है।

द्वैत : माया में द्वैत यह गुण दिखाई देता है। द्वैत अर्थात परस्पर विरोधी घटनाओं का होना, परस्पर विरोधी अनुभव प्रतीत होना, जैसे रात और दिन।

रचना : रचना तब कहीं जाती है जब नाद सरल से जटिल हो जाए, जब अनुभव सरल से जटिल हो जाए।

विनाश : विनाश तब कहा जाता है जब नाद जटिल से सरल हो जाए।

कलनीय : कलनीय अर्थात सरल नियमों के द्वारा हम यह अनुमान लगा पाए के आगे आने वाली घटना क्या हो सकती है, नियमों से भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है, गणित के द्वारा जाना जाने वाला कलनीय कहलाता है।

परिवर्तन : परिवर्तन यानी एक रूप के दूसरे रुप में बदलने का भ्रम पूर्ण अनुभव।

सरल परिवर्तन : सरल परिवर्तन वह है जहाँ एक अवस्था दूसरी अवस्था में बदल जाती है और अवस्था कुछ भी हो सकती है जैसे दिन और रात, अमीरी और गरीबी।

जटिल परिवर्तन : दो से अधिक अवस्थाओं का परिवर्तन जटिल परिवर्तन है।

नाद : नाद का अर्थ है दो अवस्थाओं का परिवर्तन जो की सरलतम (द्वैत) परिवर्तन है।

नादरचना : सरल नाद आपस में मिलकर जटिल परिवर्तन बनता है और जो अर्थपूर्ण भी होता है।

स्मृति : ऐसा नाद जिस पर अनुभव अपनी छाप बना देता है। संभावना से नाद बनता है, नाद से नादरचनाएँ बनती है और नादरचनाओं में एक विशेष नादरचना पायी जाती है जिसको स्मृति कहते है, अर्धस्थायी नादरचना जिसमे देर तक स्थायी रहने की योग्यता है, जो अन्य नादरचनाओं का रूप ले सकती है। नाद जब स्थायी हो जाता है।

जीवस्मृति : जो स्मृति जीवन को संभव बनाती है, जो जीव उपयोग कर रहा है उसे जीवस्मृति कहते हैं, जो स्मृति जागृतावस्था में सक्रिय है वह जीव स्मृति है।

विश्वस्मृति : ना केवल जीव की स्मृति है और जीव नादरचनाओ का संग्रह मात्र है बल्कि सभी वस्तुएं नादरचनाओं का ही संग्रह मात्र है और वहां पर भी स्मृति पाई जाती है जो वैश्विक है इसे विश्वस्मृति कहते हैं। यदि सभी स्मृतियों को जोड़ दिया जाए आपस में तो उसे विश्वस्मृति कहते हैं , यह सभी स्मृतियों का योग है

इंद्रिया : इंद्रिया विशेष नादररचनाएं हैं जो वस्तुओं का अनुभव दिलाती है, इन्द्रिया माध्यम है वस्तुओं को देखने का या उनकी संवेदनाएं लेने का।

अंतरेंद्री : शरीर के अंदर जो स्थित है उन्हें आंतरिक इंद्री कहेंगे, शरीर के अंदर की स्थिति बताती है जैसे कि शरीर में कहीं पीड़ा उठ रही है वह अंतरेंद्रीयों से बताया जाता है।

मानसिकेंद्री : जो मन की अवस्थाओं का ज्ञान देती है उन्हें मानसिक इन्द्रियाँ कहते हैं, यह अभौतिक अनुभवों को दर्शाती है या मन की स्थिति की सूचना देती है जैसे संवेदनाएं, भावनाएं, विचार, कल्पना, वासना, इच्छा, स्मृति का स्मरण या फिर भ्रम इस प्रकार की अवस्थाएं मानसिक इंद्रियों द्वारा बताई जाती है।

सूक्ष्मेंद्री : यह मानसिक इंद्रियों के परे है जैसे विभिन्न प्रकार के ध्यान के अनुभव, स्वप्न के अनुभव, सूक्ष्म अवस्था के अनुभव या मृत्यु पश्चात के अनुभव।

तन्मात्रा : तन्मात्रा का अर्थ होता है सबसे छोटा अनुभव, जिससे कम अनुभव नहीं हो सकता। वस्तुओं को तन्मात्राओं में बांटा जा सकता है और वह सबसे छोटा भाग जिससे कम नहीं किया जा सकता वह है तन्मात्रा। तनु का अर्थ है छोटा और मात्रा अर्थात माप, उससे छोटा अनुभव नहीं मापा जा सकता।

संवेदन : इन्द्रीओं के माध्यम से होने वाला अनुभव।

स्मरण : अनुनाद के द्वारा जो भी स्मृति में छपा है उसको वापस नाद में बदला जा सकता है और इंद्रियों आदि द्वारा अनुभव किया जा सकता है, बार बार किया जा सकता है वही स्मृति बार-बार नाद रूप में प्रकट हो सकती है इसे स्मरण कहते हैं।

संचय : नादरचनाएं स्मृति पर छप जाती है इसे ही संचय कहते है, संचय अर्थात जमा करना और यह संचय ही स्थायित्व का भ्रम प्रदान करता है।

संस्कार : जब स्मृति में अर्थपूर्ण नादरचनाएं संचित हो जाती है जो की अर्थपूर्ण कर्म करवा सकती है, ऐसे संचय को हम संस्कार कहते हैं।

आवृत्ति : एक समय की इकाई में नाद कितनी बार दोहराता है या कितना तेज बदलता है वह नापा जा सकता है वह संख्या आवृत्ति कहलाती है।

मात्रा : नाद कितना कम या अधिक बदलता है। मात्रा या परिवर्तन का नाप।

फॉरियर विश्लेषण : आवृत्ति, सरल नादरचनाएँ, जटिल नादरचनाएँ इन से सम्बंधित सारे प्रश्नों के उत्तर गणित की सहायता से जाने जा सकते है इसको ही फॉरियर विश्लेषण कहते है।

वस्तु : जो नियमित नादरचनाएं है जिनमें परिवर्तन होने के बाद भी नियमित परिवर्तन होता है उन नादरचनाओं के समूह को वस्तु कहते हैं।

प्रक्रिया : जब नादरचनाएं नियमित रूप से बदलती है और यदि नादरचनाएं चक्र में बदलने लगे, बार-बार दोहराने लगे तो उसे प्रक्रिया कहते है।

वृत्ति : जब प्रकिया एक क्रमबद्ध तरीके से चलने लगे और दोहराने लगे, इन क्रमबद्ध प्रक्रियाओं को वृत्ति कहते हैं, जो बार बार चले, वृत्त में चले और अर्थपूर्ण तरीके से चले उसे वृत्ति कहा जाएगा।

जीव : वृत्तीया तार्किक रूप से आपस में जुड़ जाती है, समूह बना लेती है और इन्ही परस्पर निर्भर वृत्तियों के समूह को जीव कहते हैं।

उत्तरजीविता : उत्तरजीविता मूलभूत वृत्ति है, रक्षण, भक्षण और प्रजनन इन तीन तरह की मुख्य वृत्तियों का चलना ही उत्तरजीविता है।

रक्षण / रक्षण की वृत्ति : रक्षण अर्थात स्वयं की रक्षा करना, स्मृति स्वयंसंगठित होती है, वृत्तीयो को जन्म देती है और इस प्रकार जीव का जन्म होता है। यह जीव विकासक्रम के द्वारा स्वयं को अपने वातावरण के अनुरूप ढालते रहते हैं। वातावरण यानि बाकी नादरचनाएं, बाकी वृत्तीया जिन पर उनकी परस्पर निर्भरता हो जाती है यह वृत्ति रक्षण की वृत्ति है।

भक्षण / भक्षण की वृत्ति : भक्षण अर्थात स्वयंसंगठन, वृद्धि। जो रचनाए असफल होती है या तो वह सफल रचनाओं द्वारा अपने आप में आत्मसात कर ली जाती है, उनका भाग बना लिया जाता है उनको या सफल नादरचनाएं अपनी प्रतिरूपी, अपना प्रतिरूप उनपर छाप देती है और अपने ही रचना में उनको मिला लेती है यह भक्षण की वृत्ति है।

प्रजनन / प्रजनन की वृत्ति : प्रजनन अर्थात प्रतिकृती, स्वयं को स्थाई रखने के लिए, स्वयं को बनाए रखने के लिए अपनी प्रतिक्रिया यह रचनाए बनाती चलती है यह प्रजनन की वृत्ति है।

चित्त : पराभौतिक परामानसिक नाद रचनाओं का संगठन। वृत्तीयों और संरचनाओं के समूह को हम चित्त कहते हैं, सरल से जटिल की प्रक्रिया जारी रहती है और अब इन परतों के रूप में प्रकट होती रहती है इस परतीय रचना को ही चित्त कहते है।

विश्वचित्त : विश्वचित्त सभी चित्तों का समूह है, विश्वचित्त कुछ और नहीं अस्तित्व का प्रकट रूप है यही प्रकट अस्तित्व है।

अहम् वृत्ति : अपनी रचना को प्राथमिकता देना, अपने जीवन को प्राथमिकता देना 'मैं और मेरा' यह वृत्ति यहां पर आ जाती है जिसे अहम् वृत्ति कहते हैं।

अभियंत्रिकी बुद्धि : अभियंत्रिकी बुद्धि अर्थात यंत्र बनाना, उपकरण बनाना जो कि जीवन को और अधिक सुखमय बना देते हैं।

वैज्ञानिक बुद्धि : केवल उपकरण या यंत्र बनाने तक ही यह बुद्धि सीमित नहीं होती यह उसकी व्याख्या करने में भी सक्षम है और आसपास की घटनाओं की , प्रकृति की, माया की व्याख्या करना उस जीव को आ जाता है इसे वैज्ञानिक बुद्धि कहते हैं।

गणितीय बुद्धि : यदि कोई वस्तु सामने ना हो तो भी उसके बारे में कल्पना करके उसी के बारे में सब कुछ जान लेना गणितीय बुद्धि है जैसे कलना करना, गणना करना।

मनन वृत्ति : एक ही वस्तु पर ध्यान देना, एक ही घटना पर ध्यान देना और उसे जानने का प्रयास करना कि यह क्या है जिसे मनन वृत्ति कहते हैं।

अध्यात्म वृत्ति : मैं क्या हूँ?, यह जीवन क्या है?, जगत क्या है?, यह अस्तित्व क्या है? क्यों है? कैसे है? आदि मूलभूत प्रश्नों के उत्तर तर्क और बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है इसे अध्यात्म वृत्ति कहते हैं

देववृत्ति : उत्तरजीविता, पशुवृत्ति, मनुष्यवृत्ति आदि से ऊपर उठ गया है अब ऐसा व्यक्ति देव कहलायेगा, अब उसे निचली परतों की भी चिंता नहीं है, सिद्धियों के कारण उसको ना रक्षण की, ना भक्षण की, ना प्रजनन की। बहुत शक्तिशाली जीव हो गया है, वह जो रूप चाहे वह ले लेता है। उसको नाद समझ आ गया है, उसको विज्ञान समझ आ गया है, उसको तंत्र समझ आ गया है इसे देववृत्ति कहते हैं।

कारण शरीर : कारण शरीर देव वृत्ति के भी ऊपर है जहां पर संचय हो रहा है सभी अनुभवों का, सभी घटनाओं का, सभी स्मृतियों का यहां तक की सभी परतीय रचनाओं का नक्शा भी वहा संचित हो रहा है।

महापरिवार : कारण शरीर जो मुक्त है, अपने आसपास के कारण शरीरों को भी जान पाते हैं, उनका भी अनुभव ले पाते हैं और उनके साथ रहते हैं उन्हीं के तरफ आकर्षित होते हैं और यह ठीक मनुष्य के परिवार की तरह है जैसा नीचे है वैसा ऊपर है इन कारण शरीरों के समूह को महापरिवार कहते हैं।

अव्यक्तिक स्मृति क्षेत्र : महापरिवार की रचना के ऊपर व्यक्तिनिष्ठता भी छोड़ दी जाती है, व्यक्तित्व भी छोड़ दिया जाता है अब जो भी वृत्तियां है वह अव्यक्तिक वृत्तिया है इसे अव्यक्तिक स्मृति क्षेत्र कहते है।

सामूहिक स्मृति क्षेत्र : अव्यक्तिक क्षेत्रों का समूह कहलाएगा सामूहिक स्मृति क्षेत्र नाम से कुछ खास जाना नहीं जा सकता इसके बारे में, किंतु यहां नए लोक बनाने की संभावना प्रकट होती है, नई रचनाएं करना, नए वातावरण निर्मित करना कि जिस में जीव जन्म ले सके, जैसी स्मृति क्षेत्र की वृत्ति होगी वैसे लोक रचित होंगे, यहाँ पर सब कुछ निर्मित हो सकता है।

महाक्षेत्र : सभी सामूहिक क्षेत्रों का समूह महास्मृति कहलाएगा इस स्मृति क्षेत्र को महाक्षेत्र या महाचित्त कहा जाता है। इस महाचित्त में सभी लोक आ जाते हैं जो भी उस चित्त में बने हैं, सभी जीव, सभी कारण शरीर, सभी स्मृतियां, भूत, वर्तमान भविष्य सबकुछ यह है महाचित्त।

विश्वस्मृति : सभी महाक्षेत्र मिलकर असीमित स्मृति बनाते हैं, असीमित स्मृति जिसकी कोई सीमा नहीं है, जिसका कोई अंत नहीं है, जिसका कोई किनारा नहीं है इसी को विश्वस्मृति या विश्वचित्त कहते है।

विलीन चित्त : विश्वस्मृति के ठीक ऊपर संभावित नाद है। नाद ही जन्म दे रहा है विश्वस्मृति को, असीमित स्मृति को जहां पर कोई भेद नहीं है, एकता है और केवल नाद मात्र के दर्शन हो सकते हैं, वहां पर विलीनता है इसलिए हमने इसे विलीन चित्त का नाम दिया है।

ध्यान : अनुभवों को सिमित और केंद्रित करने की क्षमता। लोकों का अनुभव होने के लिए, शरीरों का अनुभव होने के लिए, जगत का अनुभव होने के लिए, अलग लोकों में जो क्षेत्र स्थित है उसका अनुभव होने के लिए कई विधियां है और सबसे सरल विधि है ध्यान।

सूक्ष्म अवस्था : यदि किसी में यह योग्यता है कि अपना ध्यान निचली परतो से हटाकर ऊपरी परतो की ओर ले जाए तो उसको इन सभी सूक्ष्म शरीरों के अनुभव होंगे, सभी सूक्ष्म लोकों के अनुभव होंगे इनको सूक्ष्म अवस्था कहते हैं।

तंत्र ज्ञान : माया का वासनापूर्ति के लिए उपयोग करना और इससे संबंधित विज्ञान।

आरोहण : जब जीव की प्रगति होती है और ध्यान ऊपरी परतों में अधिक जाने लगता है तो उसे आरोहण कहते हैं।

अवतरण : ध्यान का निचली परतों में स्थित होना अवतरण है और उस जीव को अवतार कहते हैं।