Silent Wisdom
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Talks on the topics of spirituality, nondualism, advaita, vedanta, path of knowledge, other spiritual paths etc. for spiritual seekers.

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Atmabodha Verse 34 & 35

2023-06-14

श्लोक 34: " मैं " ( आत्मा ) * निर्गुण [गुण प्रकृति में हैं: सत्त्व ,रजस् और तमस्..... " मैं" प्रकृति नहीं।] * निष्क्रिय [ क्रिया शरीर में होती है.... "मैं " शरीर नहीं ] *नित्य [शरीर नश्वर ..."मैं" नहीं ] *निर्विकल्प [ इच्छा मन में होती है... " मैं " मन नहीं] *निरंजन [अशुद्धियां शरीर में है...] * निर्विकार [ बदलाव भी शरीर में होते हैं...] *निराकार [ आकार भी शरीर का ही है] हूं। "मैं"(आत्मन्) कोई देव् या खास व्यक्ति नहीं है। यहां "मैं" का अभिप्राय स्वयं के भीतर ... आत्मा वाले "मैं" से है। अक्सर हम "मैं " का परिचय अपने शरीर तक सीमित रखते हैं। यह आत्मा वाला "मैं" अति शुद्ध है ।यह चिदाभास भी नहीं है.... पर जिस का आभास है... उसकी बात हो रही है। यह मनन करने से ही हमें स्पष्ट होगा । श्लोक 35: *जैसे आकाश (space) सर्व व्यापक है... शरीर के भीतर भी है और बाहर भी ... हर जगह है। वैसे ही आत्मा भी सर्वव्यापक है.... शरीर के भीतर भी है और शरीर के बाहर भी व्यापक है। * जैसे आकाश सब को समेटे हुए है.... फिर भी बेदाग, शाश्वत ,अचल और शुद्ध है। [प्रकृति गंदी हो सकती है लेकिन आकाश नहीं ] उसी तरह आत्मा भी बेदाग और शाश्वत है। *आकाश जड़ है आत्मा चैतन्य। अगर एक कमरे में 10 लोग हैं। तो शरीर वाला "मैं" तो 10 ही होंगे। परंतु आत्मा वाला "मैं " सबका एक ही है। जैसे .. अगर सब 10 लोग मौन हो जाए... तो सब का मौन एक ही होगा। ठीक इसी तरह जैसे चंद्रमा एक है... पर उसके प्रतिबिंब अनेकों हो सकते हैं। बिल्कुल इसी तरह आत्मा भी सब की एक ही है। शरीर और मन अनगिनत हो सकते हैं परंतु "मैं" सबका एक ही होगा। अतः शरीर वाले "मैं" | अनगिनत आत्मा वाला "मैं" ‌ | एक इस आत्मा वाले "मैं "को पाने के लिए शरीर से अंदर की यात्रा ....यानी उल्टी यात्रा करनी होगी। शरीर वाला " मैं" और आत्मा वाला "मैं" दोनों ....साथ साथ ही चलते हैं। शरीर वाला "मैं" .... मन बुद्धि के आगे एक पर्दे की भांति छाया हुआ है। बस आत्मा वाले "मैं" से रूबरू होनें के लिए... शरीर वाले "मैं " का पर्दा हटाना होगा। आत्मा वाले " मैं " तक पहुंचने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता ।बस "मैं" से साक्षी होना होता है। कबीर कहते हैं...कि उल्टे चलना शुरू करो ।बाहर से भीतर की ओर। शरीर ,मन बुद्धि से मुंड़ना होगा। अगर भगवान को अपने भीतर ही नहीं ढूंढ पाए ....तो भगवान को फिर कहीं भी नहीं खोज पाऐंगे। वह सर्वव्यापक और शाश्वत है ।वह अभी, इसी समय ,भी हमारे अंदर विद्यमान है। सांसारिक निराशा के कारण जो वैराग्य उत्पन्न होता है वह उदासीन और कष्टदायक है। परंतु *जो वैराग्य गुरु कृपा से हासिल होता है.... वह बहुत ही सुख और सकून देता है। *गुरु प्रेम से मिलने वाला वैराग्य हमारी मुमुक्षत्व की इच्छा और योग्यता को बढ़ावा देता है। * गुरु के प्रति श्रद्धा और प्रेम में लिप्त मन तीव्रता से गुरु ज्ञान को अपने भीतर उतार पाता है * गुरु के प्रति प्रेम और श्रद्धा हमें इस सांसारिक मायाजाल से निकाल देती है। जबकि सामान्य प्रेम हमें इस माया में उलझाए रखता है। जब मन स्थिर होता है तो चिदाभास भी शांत और स्थिर होता है। इसमें जाप, प्राणायाम ,भक्ति भाव ..यह सब मन को शांत करने में सहायक हैं। परंतु हम जानते हैं कि हम तो मन है ही नहीं। यहां तक पहुंचने के लिए भी(यह ज्ञान आना कि हम मन नहीं है) मन का शांत होना जरूरी है। चंद्रमा का प्रतिबिंब साफ दिखने के लिए पानी का शांत और स्वच्छ होना ज़रूरी है। उसी तरह आत्मा के प्रतिबिंब के लिए मन का शांत होना जरूरी है। तभी चिदाभास भी शांत होगा ।अगर मन अशांत है तो चिदाभास भी अशांत होगा । परंतु हम चिदाभास तो हैं ही नहीं। हम तो शुद्ध आत्मा हैं । आत्मा कभी दूषित नहीं हो सकती। आत्मा सदैव ही निर्मल और उज्जवल है। शरीर और मन अंनगिनित हैं पर आत्मा अद्वितीय है। इसीलिए धार्मिक ग्रंथों में संसार को भगवान का परिवार माना गया है। यही बात अगर इंसान समझ ले तो युद्ध ,दुश्मनी और सारे विवाद खत्म हो जाएंगे । यही कारण है कि ज्ञानी लोग इतने विराट और असीम हो जातें हैं कि वह सबको : -बिना कारण, -बिना स्वार्थ -बिना रिश्ते में बंधे एक समान प्यार करते हैं। सब को अपना ही मानते हैं। उनका मन इतना शुद्ध और समृद्ध होता है कि उनकी कोई भी इच्छा अतिशीघ्र पूर्ण हो जाती है। श्लोक 36: निस्संदेह "मैं" (भगवान) नित्य, शुद्ध, मुक्त्त,अद्वैत, अद्वितीय,अदृश्य, जीवन, ज्ञान, असीम ,परम सुख हूं। चेतना के आधार पर प्राणियों का विभाजन कुछ इस तरह कर सकते हैं: * मानव *जानवर *वानर *स्थलीय *जलीय *पक्षीय *कीट आदि इसी तरह विभाजन हम *लिंग *प्राकृत वास *राष्ट्रीयता *धर्म *जाति आदि और भी बहुत तरह कर सकते हैं। परंतु क्या आत्मा का विभाजन संभव है? क्या आत्मा का कोई धर्म जाति भाई-बहन है? हरगिज़ नहीं। आत्मा अविभाज्य है । प्रश्न # कौन मुक्त है /या किसे मुक्त कहा जा सकता है? श्री कृष्ण जी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि जो इंसान * बंधन मुक्त हैं * अहम् भाव से मुक्त हैं * जो शरीर और मन से ऊपर उठ चुके हैं * जो "मैं " के शाश्वत होने के साक्षी हैं | • वही सच्चा ज्ञानी है। • वह "मैं " ही हो चुका है। • वह अद्वैत भाव में समा चुका है। आगे श्री कृष्ण जी ज्ञान मार्ग के बारे में बताते हुए कहते हैं कि " मैं " ( भगवान) आंख और मन द्वारा नहीं जाना जा सकता। क्योंकि मुझे जड़ द्वारा नहीं जाना जा सकता। .."मैं " को "मैं "का साक्षी होकर ही जाना जा सकता है। प्रश्न# भगवान को कैसे पाया जा सकता है ? श्री कृष्ण जी कहते हैं कि इस के लिए: > स्वयं के भीतर झांको > आत्मा को पहचानों.... क्योंकि मैं आत्मा के रूप में आपके अंदर ही वास करता हूं > आत्मा को जानने की योग्यता उत्पन्न करो। क्योंकि योग्यता के स्तर पर ही सारा भेद है। > आत्मा के स्तर पर सब एक हैं ।यानी कि आत्मा के साक्षी होने के बाद सारा भेद शून्य हो जाता है। प्रश्न# मन, बुद्धि और शरीर को समझने के पश्चात(कि हम यह नहीं हैं ) ।जब हम आत्मा के साक्षी हो जाते हैं ,तो यह स्थिति * क्या ज्ञानोदय की है? * क्या यह अनुभव है? * क्या यह एहसास है? * क्या यह कोई सिद्धांत का समझन आना है? समझने का अभिप्राय यहां बुद्धि से है ।क्योंकि बुद्धि ही समझती है और अज्ञान भी बुद्धि में हीं है। आत्मा तो अज्ञान में नहीं होती। -जान ऐसी स्थिति है जिसे पाया नहीं जा सकता। - ज्ञान केवल प्रयोगिक जांच के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। मान लो अगर हम गहरी नींद में हैं ।कोई हमें हमारे नाम से पुकारे।तब अवश्य ही हम उठ खड़े होंगे। क्योंकि गहन निंद्रा में भी हम अपने नाम से जुड़े हैं। ठीक इसी तरह अगर हम गहन निंद्रा में भी इस आत्मा वाले "मैं" के चैतन्य रूप से बंधे रहे....तो अवश्य ही यह जागरूकता की स्थिति .. हमारे ज्ञानी होने का प्रमाण है। - गहन निंद्रा -> मन बुद्धि निष्क्रिय -फिर भी मुझे गहरी नींद आई थी ....इसका मैं साक्षी हूं। यह अटूट आस्था बुद्धि के दम पर है। जैसे शरीर का आभास हमें हरदम रहता है । - उसी तरह अगर हमें आत्मा का आभास भी हमेशा रहना चाहिए। यही अभास: *बौद्धिक आस्था भी है * प्रयोगात्मक एहसास भी है। इसलिए हमें अंदर की तरफ मुड़ना है। उल्टी यात्रा बहुत जरूरी है। सांसारिक लोगों से उलट दिशा में जाकर ही "मैं "से रूबरू होंगे। * मिट्टी से शरीर बनता है और इसी में लीन हो जाता है =यह शरीर की यात्रा है *जब हम आत्मा के साक्षी हो जाते हैं= यहीं पर हमारी असली यात्रा खत्म होती है या यह भी बोल सकते हैं कि शुरू होती । जब बुद्धि गिर जाती है तब आत्मा प्रकाशित हो जाती है। दूसरे शब्दों में...जब अटूट आस्था प्रज्वलित होती है ...तो विवेक उजागर होता है । इस विवेक की महक हर तरफ महकने लगती है। मान लो आत्मा और बुद्धि की शादी हो गई । •आत्मा अकेले ही ( घूमने) चल दी। >गहरी निद्रा में आत्मा अकेले (बुद्धि निष्क्रिय) | अहम् जानता है कि-उसे नहीं पता कि गहरी नींद में क्या हुआ था। अहम् "ना जानने का" साक्षी है। अहम् निद्रा से बाहर लाता है। •समाधी में भी चित्त साक्षी (सक्रिय) होता है । बुद्धि यहां भी निष्क्रिय ही होती है। इस तरह योगी को चित्त (अचेतन मन और अवचेन मन/unconsious and subconsious mind)समाधि से बाहर लाता है। अतः ... समाधि >चित्त सक्रिय .... गहन निंद्रा >अहम् सक्रिय ....बुद्धि दोनों ही परिस्थितियों में निष्क्रिय ....गहन निंद्रा में = जागरूकता नहीं ... समाधि =पूर्णतः जागरूकता इस तरह यह समझ पाए कि बुद्धि निष्क्रिय हो सकती है।परन्तु आत्मा हमेशा सक्रिय ही रहती है। आत्मा की अद्वितीयता से रूबरू होने के लिए मन-बुद्धि को सब सीमाओं से निकलकर अत्युत्तम होना ही होगा। Verse 34 Prakriti with its quality/ attributes form body and mind; Desires, arise in the mind; impurities lie in body and mind; actions occur in body and mind. The Atman has no characteristics, no actions happen in the atman, there are no desires in the atman, there are no impurities in the Atman and it has no attributes of prakriti( sattva, rajas and tamas). Atman is eternal, changeless, formless and ever- liberated pure I. Pronoun I is used by one and all, here Shankaracharya is imparting the knowledge of the real 'I.' On persistently contemplating and consistently reflecting on this knowledge it will filter into the intellect. Verse 35 Like all-pervading Space, the Atman is omnipresent - within and without. Just as Space is within and without the body; the real Self is also within and without the body. Space holds everything and yet stays, unattached, blemishless, and motionless. If there is filth in any place, the dirt doesn’t defile the space therein. The real Self remains untouched. Where space is inert, Atman is ever conscious, ever-sentient, eternally unchanging and unwaveringly still. One can say with 1.4 billion Indian population, there are 1.4 billion false I. But the real 'I' is only one. Just as the moon is one, its reflections innumerable; likewise body-sense-mind-intellect are plural, but the real Self is singular. False I is plural and the real I is invariably singular. False I and the real I go hand-in-hand. The false I is in the veil of body-senses-mind-intellect. All that one has to do is to remove the veil. The Self doesn’t need any instrument for knowing. Self is known by the Self. Kabir says, retrace the steps - from the outer to go inwards; Retreat - from the body , from the prana, from the mind, and from the intellect. If one hasn’t found God within, he/she never will. No matter where they go. The one who is omnipresent and the one who is eternally exists - is right here, right now in this very body. The dispassion one attains after experiencing disappointments in the world is very dry and harsh. On the other hand, the dispassion emanating from the love for the master has a certain amount of tenderness and softness. This love will bring along with it - vairagya, eligibility and the desire for liberation. A mind filled with love and gratitude for the master readily, absorbs all the knowledge and wisdom imparted by the Guru. Worldly love keeps one entangled in maya, whereas love for Guru disentangles one from maya. When the mind is calm and still, so is the chidabhas. By practising mantra chanting, pranayama or being in the remembrance of the Guru one can calm the mind. Reflection of the moon is dependent on the state of water. If the water is muddy, the reflection appears muddy. The state of REFLECTED SELF ie chidabas is dependent on the state of the mind. If the mind is disturbed, so is the chidabhas; If the mind is virtuous, so is the chidabhas ; If the mind is vile so is the chidabhas; but you are not the chidabhas - you are the pure Self. No matter how sullied the mind is, the real Self remains unsullied. Bodies are plural, minds are plural, but the Atman is singular. Every scripture refers to the World as the Lord’s one large family. And that’s why enlightened masters have desire-less love for every sentient being - without any attachment or aversion, and with a heart full of compassion and love. They regard all as their own.

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Format: MP3 - Size: 22 MB - Duration: 28:29m (103 kbps 44100 Hz)

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